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________________ जिरगवत्त वरित धरणा उप्पाष्टि रत्ह नयर, भंग पsिa fer गयंद धरणमारि । डुद्धय गणवरु धरण न जाह तदिविष्कार भई लोग ११० अर्थ :- उसके जो दाँत थे भूमि को भयंकर रूप से नष्ट करने वाले ( हो रहे ) थे । बडे बडे वीर उसको पकडे हुये थे और उसका ( मयंकर ) चीत्कार था। उसके पास भ्रमरों की पंक्ति गुंजार कर रही थी। लोग डरने लगे मानों साक्षात् काल ही छूट गया हो। वह मकानों तथा सभी वृक्षों को नष्ट कर रहा था । रल्ह कवि कहता है कि सारे नगर में अत्यधिक उत्पात हो गया था तथा लोग सोचने लगे थे कि हाथो को कैसे मारा जाय । वह दुर्घ ( भयंकर ) हाथी पकड़ा नहीं जा रहा था तब लोग पुकार करके भागने लगे थे ।। ३४६ ।। [ ३४७-३४८ ] दंतुसलि खूवंत 1 फिरह तल की माटी ऊपर करद । सो मयमंतु रा लेखड़ कासु, वा उउणु कियड निरखासु || छदि रहे । तीन दिवस तहि छूटे कले, बाज' "उही नमरहं फिर भाजि लोग डोंगर हास्थिउ माटिउ ज फोड भरड || अर्थ :- वह पुष्ट दांतवाला हाथी पृथ्वी को खूद रह् था तथा नीचे की मिट्टी को ऊपर कर रहा था। वह मोन्मत्त हाथी किसी से भी नहीं समझ रहा था तथा (जिराने ) धनों और उद्यानों को निर्वास नहीं रहने योग्य) कर दिग्र था ।। ३४७ ।। इस प्रकार उस हाथी को छूटे हुये तीन दिन हो गये थे और लोग भाग करके टीलो पर जा सढे थे। नगर में बाजे के साथ घोषएस किरने लगी थी यदि कोई हाथी को मार कर भी पकड़ेगा ॥ ३४८ ॥ बंतूसली पुष्ट दंत -
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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