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मषध वर्णन
तिहि खरिण घबड़ जोक्यो सेठि, हज पाराहरु निरु परमेष्ठि । समस चराचर जाणउ मेउ, बोधराज मह अरउ' प्रलेउ ।। जल चंदरण प्रलय पर फुल्ल, चरु दीवइ अशुद्ध सहय प्रमुस्ल । अगर धूव कारण निर लपत्र, फल समूह जे जिपवर गया । जिपवर वि जोइ मणु तुट, चिर संघिउ कलिमल गड तुठ । अठविह पूय करत त्यांतु, नियम भावद देउ परहंतु ॥
पर्य :-उस क्षण जीवदेव संठ कहने सगा प्रध में निश्चितरूप से परमेष्ठि की प्रासघना करता हूँ (कहगा) क्योंकि वे ही सकल घराचर का भेद जानते हैं (प्रतः। मैं उन अजित बीनगग भगवान का अप करता (बोलता) है। 11५२३
एक थाल में जल, चंदन, अक्षत, उत्तम पुरुष एवं बिना स्पर्श किये हुये अमूस्य (निर्मल) नवेद्य एब दीपम उसने लिये तथा अगर धूप (दशांग धूप) और उसी कारण (उद्देश्य) मे फलों के समूह को लिया और बह मन्दिर में गया ।।५३॥
जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के दर्शन कर उसका मन पूर्ण संतुष्ट हो गया तथा चिरकाल से संचित पापमल त्रुटित (नष्ट) हो गये । वह भगवान की अष्ट विधि से पूजा करने लगा तथा अपने मनमें अईन देव का ध्यान करने लगा ।।५४॥
खरिण - खण-क्षण। परमेठि - परमेष्ठि। प्रतय - प्रक्षत । निरु - निश्चितरूप से । घर - नैवेद्य । दोपह - दीपक । तल - अदित-टूटा। झाव - पावइ - ध्यान करना, चितन करना । १. जयज-मूलपाठ।