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________________ २२ जिtraत्त चरित [ ५० ] श्रवण जिरगवर बंदियह, ऋणु विष्णु सेठि श्रप्पु गिदिय । पर पसंसु कर जो भव्वु, बेद धारण मरिण परि हरि गणधु || अर्थ :- ग्रह सेठ श्रमण वदना करने लगा तथा प्रतिदिन दूसरों की प्रशंसा करता है तथा मन से गर्व को दूर कर दान देता है । अ - कहना । भगवान का नाम लेने और जिनेन्द्र क वह अपनी निन्दा करने लगा । जो भव्य पसु - प्रशंसा । श्रवण H श्रमण भगवान । परह-दूसरे की । । ५१ । जोवस्था जो ग्रह निसि करs पंचानुव्यइ निम्मल परइ । पुरणवय तिष्णि सिखवय चारि, मुत्ति स्वयंबर व नारि ।। अर्थ :- जो रात-दिन जीव दया पालन करता है, निर्मल पंचाणुव्रत को धारण करता है, तीन गुणवतों और बार शिक्षाव्रतों को ( जीवन में उतारता है) मुक्ति-मारी स्वयं आकर उसका रक्षा करती है । यह निसि - अहः निशि । पत्रानुस्वई - पंचा।" निम्मल निर्मल | गुरदम - गुणवत 1 तिष्षिण - श्रीणि । सिग्ववय - शिक्षाव्रत । हिमायत सत्यायन श्रचीयरगुव्रत, ब्रह्मचर्या व्रत एवं परिम परित ये पांच कहलाते हैं । ★ दित, देश एवं ये तीन गुणवत हैं । सामयिक प्रोषधोपनास, भोगोपभोग परिमाण एवं अतिथि संविभाग ये चार शिक्षागत हैं ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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