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________________ मगर वर्सन [ ४३ ] पाइसज सेठि वसाद तहि नगरी, सिहि समु भयउ न होसद प्रजह । घरण करण परियणु सवरण संयुक्त, पर घरि नाही एकह पूर्व ।। अर्थ :-ऐसा सेठ उस नगरी में रहता था, उसके समान न तो कोई हुआ और न दूसरा होगा । वह धन-धान्य एवं सब वारजनों से युक्त था केवल उसके घर में पुत्र नहीं था। मउरु – अपरु-दूसरा। परियशु - परिजन । [ ४८ सेठिणो भणइ सेठ णिमुरलोहि, पुतह विणु कुसु धूड तोहि । वारण धरमु संपइ स बोज, फुण ऋष पास भाइ तपु सोज । अर्थ :-सेठानी सेठ से कहने लगी “हे सेक सुनो बिना पुत्र के तुम्हारा वंश डूब (समाप्त हो) जावेगा । दान, धर्म में सन संपत्ति दे दीजिये तथा फिर ऋषि के पास जाकर तप (व्रत) ले लीजिये । पृत्त - पुत्र । संपह - संपत्ति । [ ४६ ] कियउ मंतु परियणु क्यसारि, कहइ वयणु सुहयरु ऊसारि । पूतह विनु कुल ब्रम्ह मोहि, कि किज्जा यह प्रथउ तोहि ॥ अर्थ :-अपने परिजनों को बैठाकर उसने मंत्रणा की तथा यह मुखकर वचन (मुख से) निकाल कर कहा-"बिना पुष के मेरा कुल डूब रहा है । क्या करना चाहिए, यह हे बुद्धिमानों, मैं आपसे पूछता हूँ।" । मंतु – मंत्र-मंत्रणा । मुहयर – सुखकर। ऊसारि - उच्चारण कर। वह – बुह-बुध ।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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