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जिणरत परित
अर्थ :-उसका मुख देखकर वह अपने प्रापको भूल गया और कहने लगा हो में हो यह रूप की सीमा है । उसके हृदय को जब मदन माण ने कौंध दिया सो उसने दौड़ कर जुवारियों का मांचल पकड़ लिया ।
उम वीरों ने उसे बाहर पाकर देखा और जिनदत्त को गोद में उठा लिया । "पूतली को देखकर वह विस्मित हो गया है इसलिये सेठानी से कह कर बधावा दें" II
उच्छंग - उत्संग-गोद।
संखण वीर पहूते सहा, निय मंदिरह सेठि हो जहाँ । कुवरह सहरण परखि किन लेह, हम कह सेठि वभाग चैहु ।।
अर्थ -उभी क्षण वे वीर वहां पहुंचे जहाँ सेठ अपने मन्दिर में था। (उन्होंने कहा) हे सेय, कुमार के लक्षणों को क्यों न परख लो ? हमको भी है सेठ, (अब) बधाई (पुरस्कार) दो।
तंत्रिण तत्क्षरण ।
[ ८३-८३ ] तहि सेठि तूज सतभाउ, लाल मामु तिम बियउ पसाउ |
र संबोल घरह पठाइ, अंग दाह जिगवत, भगाइ । रिगसुरिण पूतु तुहि कहज विचारि पुतलो रूपमा नाहि नारि । भइ र विमाहरि पहि रासि, प्रयास करउ सोरि घरि वासि ॥
अर्थ --यह सुनकर सैठ बहुप्त सन्तुष्ट हुअा और प्रसन्न होकर लाख धाम उन्हें पुरस्कार-स्वरूप दिये । उन्हें (संदनन्तर) पान देकर घर विदा क्रिमा और अपने प्रारोर के दाह (चिना) को जिनदत्त से कहा ।।१२॥