SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हकारि चेसा आ घारय् -- बुलाना । वेश्या। थका / थक्क -- अवसर, प्रस्ताव-समय । | 53-19८ ] एत्वंतरि ते कहा कराहि, एंकरण पण त्यासद जाहि । मासि वोपन्ह बंबरण ठई, उह को दिठि सिलाहि गई ।। वीठो पाहणमय पूतलो, गय जिलदत्त चिठि भिमली । बहु लावण गढी सुतधारि, भूले देखि प्रचेपण नारि ।। अर्थ :-इसके पश्चात वे क्या करते हैं कि नंदन वन के चैत्यालयों में जाते हैं । वहां पर बैठकर उन वीरों ने भगवान करे बंदना की । इसके पश्चात उसकी दृष्टि (चत्यालब) के ललाट पर महई । जब एक पाषाणमय (पापण निर्मित) पुतली दिखाई पड़ी तो जिनदत की विह्वल दृष्टि उस पर जा लगी । वह सूत्रधार (शिल्पकार) के द्वारा प्रति सुन्दर गढ़ी गई थी । उस अचेतन स्थी (पुतली) को देखकर वह जिनदत्त अपने आप को भूल गया। एस्पतरि : इत्यंतर - इसके बाद। दिठि / दष्टि । पाहणमय - पाषारगमय । गय - गत । ७९-८० | ७६-७ मलिवि पजिउ ताहि मुख देखि, इह परि पाहि रूप को रेल । काम वारण तसु अघिउ हियउ, धार जुयारित प्रचलु कउ सयज ।। बाहरि वीर ति देख हि प्राइ, सइ जिरणवत्त उर्छग प्रहार । देसि पूसली विभिउ एहु, सेठिरिण भलिउ बघाउ देह ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy