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________________ जिरणदत्त चरित 1 ६३-६४ ] जणु हह छति अगंगहु तरणी, सहइ जु रंग रेह तहि धरणी । नोले बिहुर स उजल काख, अवर सुहाइ बीसहि कास्य । चंपावण्णी सोहइ देह, गत दसह तिणि जसु रेह । पोरणस्थणि जोवरण मयसार, उर पोटी कडियल वित्यार ।। अर्थ :-वह (काँट) मानो कामदेव का सूत्र थी और समग रंग तथा धनी रेखाएं उसमें थीं । उज्वल एवं नील वर्ण की रोमावलि थी जो अत्यन्त सुन्दर एवं सुशोभित थी। उसका चंपा पुटप के रंग का शरीर शोभित हो रहा था उसके उदर में तीन रेखाएं पड़ती थीं। वह पौन (उन्नत ) स्तनी वाली थी तथा (उसके स्तन) यौवन-मद से युक्त थे। उसके उदर की पेशियां कटिस्थल तक फैली हुयी थी। निहर / विक्रुर – केश - रोमावलि । पोटी पाहि - उदर पेशी। [ ६५-६६ । हाथ सरिस सोहहिं प्रागुली, राह सु त दिपहि कुर की कली । भुव वल जंतु काटि जणु कारणे, वणि सु रेख फबिन्हु से कहे ।। इलोणी अरु माठी लीय, हरू सु पहिया सोइय गोय । कारिण कुंडल इफु सोखनु मरणी, नाक थाणु जण सूवा तणो । अर्थ :-हाथों के समान ही उसकी अंगुलियाँ मुशोभित थी । उनके मख कुद-कलिकाओं के समान चमकते थे । उसकी बलशाली भुजाएँ थीं जो गानो (सिंह जैसे) उस स्थान पर जंतु की काटकर लगाई हो । ऐसा इसकी सुन्दर रेखाओं का वर्णन कवियों ने किया है ।। ६५||
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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