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________________ जिरगवत चरित अन्तिम छंदों में कवि ने अपने को 'अमई' का पुत्र बताया है कदाचित यहां भी 'भाते' के स्थान पर पाठ 'अम होना चाहिए। संभवत: अमई ग्रमिते हुआ है। ર पंचकल - पञ्चकुल - पाइ कई कवि । I माता पाइ नभउ जं जोगु, देखालियर जेहि मतलोग । उवरि मास इस रहिउ परम धम्म वृधि हुइ सिरीया माइ r उबगार - अर्थ :- माता के चरणों में यथायोग्य नमस्कार करता हूँ जिसने मुझे मृत्युलोक दिखाया तथा जिसने अपने उदर में दश मास तक रखा, होसी धर्म बुद्धि वाली सिरिया मेरी माता भी प्रथा धर्म बुद्धि में मेरी माता सिरिया ( श्रीमती - जिसका उल्लेख कवा में हुआ है) के समान हुई । उदर-पेट | २७ - I उपकार पाद - चरणा । मतलो - मृत्युलोक। उवर [ २८ । पुणु पुणु गणवज माता पाइ, मेह हउ पालिज करुणा भाइ । उरगु, हा हा माझ मक्भु जिन सरण || म उषधारण लुइस अर्थ :- मैं बार बार माता के चरणों में नमस्कार करता हूँ जिसने दया भाव से मुझे पाला है। मैं उसके उपकार से उऋण नहीं हो सका। हे माता मेरे तो जिनेन्द्र भगवान हो गर हैं । 773
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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