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________________ जिणवत्त परित [ २२ । भुवश कईस प्रतीते घणे, बहुले अहि ठाइ आपुणे । कहतणु फुरइ विवह जरण पेखि, पाय पसारउ प्राचल देखि ॥ अर्थ :- भुवन (जगत) में बहुत से कवीश्वर (महाकवि) हुए हैं और बहुत से अपने स्थानों पर विद्यमान हैं। कवित्व विबुध जनों (विद्वानों) को देकर स्फुरित होता है । (और मैं सीमिन बुद्धि का है)। अतः अपने अंचल-वस्त्र (अपनी सामर्थ्य) को देखकर ही मैं पैर पसार रहा (काव्य रचना कर रहा) हूँ। भुवन - जगत्। कईस' - कवीश-महाकत्रि । अत्यहि - स्था-घटना । काइतागु – कवित्य । पेखि – 1 ईक्ष देखना । जइ अइरावद मत्त गईदु, जोयरण लक्षु सरीरह विजु । तासु गाज जइ अवरण सम्पारण, गहयर इयर प्रापुणे माण ॥ अर्थ :-यद्यपि ऐरावत मत गजेन्द्र है, उसका शरीर एक लाख पोजन प्रमाण जाना जाता है और उसकी गर्जना भुवन में व्याप्त है तो भी इतर गज अपने मान (सामर्थ्य) के अनुरूप गर्जते ही हैं। अइ - यदि । इरावइ - ऐरावत । गद - गजेन्द्र । जोयण - बोजन । विद - विद्-जानना । इयर - इतर । मारा - मान-सामध्यं । घोसु कला पुणुं सासि भा पाहि, सवइ अमिड सीयसक सब काहि । सासु किरण तिचरा जद दिपइ, पाप समारण जोगणा तपइ ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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