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________________ उद्यान-वर्णन । १६५-१६६ । लउ जिणदत्त बात हसि कहा, हमार ... कोपरा : तोहि निपुस्सकु अंपड़ लोगु, ताहि अमरउ रहिउ करि सोगु ।। भणइ बोस जई कहिउ करेहि. बाडी सपल भगति जा देहि । फूलहि अंध नौब कचनार, सहले करि प्राफउ सइहार ।। अर्थ :-फिर जिनदत्त हंस करके बात करने लगा, मैं तो मूखी (बाड़ी) ही जानता हूँ । लोग तुम्हें नपुसक कहते हैं और इसीलिये यह मान वाटिका शोक कर रही है ।।१६।। पुनः उस यीर ( जिनदत्त) ने कहा "यदि आप मेरा कहना करें तो संपूर्ण बाड़ी मुक्ति (भोजन फल) देने लगे; प्राम, नींबू, कचनार के पेड़ों पर फूल प्रा जावे तथा मैं सहकार को सफल (फलयुक्त) करके प्रपित्त करू" ||१६६।। अमरउ (अमराउ) - ग्राम्रराजि - आम्र वाटिका उद्यान-वर्णन 1 १६७-१६८ । जाद तू चादी करहि सुवास, सौ जिरणबत्त हूं तेरउ दास । करहि संत जड अस्वद तोहि, निहलै राजु करहि घरि मोहि ॥ जो राडी हुई थी मइल, अठविह पूज रई हि सषस । पुण्य विहे जे उक्टे गए, जिण गंधोवइ सिंचरण लिए । अर्थ :-मोट ने कहा "यदि तू वाडी को सुवासित कर दे तो हे जिनदत्त ! मैं तेरा दास हो जाऊ । यदि तुझे, (कुछ) माता हो, तो (मेरा यह प्रनिष्ट) गान कर और मेरे घर में तू निश्चय राज्य कर ॥१६७॥ जो चाड़ी मलिन हो गयी थी वहां अब सच ने अष्ट प्रकार से पूजा
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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