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________________ काथु कपित्थ वेर पिगली, हरड बहेड खिरी आवली । सिरीखंड अगर गलींदी धूप रहि नारि तहि अइ सहप || १७२ || जाई जुहि बेल सेवती, दवो मस्तच अरु मालती । चंप राइचंप मचकुदं क्रूज वनभित्र जाउ १७३ ।। इसी तरह जब चंपापुरी में मदोन्मत्त हाथी अपने बंधन तोड़कर राजपथ पर विचरण करने लगा, उस समय का भी कवि ने अच्छा मन गिया है । कवि ने कहा कि वह म विन हाथी प्रकु को नहीं मान कर सम्भ को उबाड़ कर सकटुकरशे उसके एडमि को भयंकर रूप से खोद रहे थे। उसको बडे २ धीर पकड़े हुये थे । उसकी भयंकर चीत्कार थी। भ्रमरों की पंक्ति उनके पास मंडरा रही थी । लोग उसे साक्षात् काल ही समझने लगे थे। लोग टीलों पर जा चुके थे। इसी वर्गांन का अंश देखिये : I मय मिश्रलु गञ्ज अंकुस मोड़ी बंभू उहि तु सलि तोडि । सांकल तोडि करि चक चूनि गयउ महावतु घर की प्रतु । गयउ महावत्थू मरो जित्थ, गज भूड मऊ व तत् । उवरिङ जुन खूट कालु, तर सुडिउ तोडिनु भालु इस प्रकार के वर्णनों से ज्ञात होता है कि कवि में वरन करने की यथेष्ट क्षमता धी, यद्यपि उसने उसका उपयोग सीमित ही परिमाण में क्रिया है । रोमाञ्चक तस्व काव्य में रोमाञ्चक कार्यों का विस्तृत वर्णन मिलता हूँ । सर्व प्रथम जिनदत्त ने अजनी मूल जड़ी के सहारे अपने आप को प्रच्छन्न कर लिया । जब यह समुद्र तैर कर रथनुपुर पहुंचा तो उसका विद्याधर कुमारी से विवाह हुआ और दहेज में सोलह विचार प्राप्त हुई। इनमें जलगामिनी, बरूपिणी, छत्तीस
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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