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________________ विषेश गमन जड़ी) को देखकर निया-(उसकी सहायता से) वह प्रछन्न हो जाता और उसे कोई न देख पाता था ।। १५२।। फिर उसने (समी को) खूब प्राशीर्वाद दिया तथा वह फूलों के मध्य होने वाली पराग (रुप) हो गया । जब (विमलमतो) के शिर पर (हाथ रख फर) उसने प्राशीप दी, तो विमलमती भी उसे नहीं देख सकी ।।१५३।। पंचमि - पंचामृत वस्तु बंध । १५४ ] पुर्णवि सिर रूधित्त अंजणोया । झति परहण भयउ, सिग्ध अवि पी पदहित । ता रजियउ विमुलमई, जा न कंतु निय नयणु दिठियऊ ।। छडि इकल्ली जिणभुवणि, गउ पड कारिणि कवन । पिय बिऊय हुय रल्ह कद, रोबइ हसागमणि ॥ अर्थ :-जिनदत्त ने फिर सिर पर अंजनी रख ली जिससे यह झट प्रछन्न हो गया और शीघ्र हो दशपुर पहुँच गया । जब उसने अपने स्वामी को अपनी आंखों से न देखा तब विमलमती (रोने) लगी । "मुझे जिन मंदिर में अकेली छोड़ कर मेरा स्वामी किस कारण से चला गय" रल्ह कवि कहता है कि पति से विमुक्ता होकर वह हंसगामिनी रोने लगी। जत्ति – झाति, झट, शीषु । सिधु - शीघ । विजय - विमुक्त । प्रनाराव [ १५५-१५६ ] संसागवणी वंदावइणी, करइ पलाय। मोहो माग देखत पेखत, कत गपउ नाह ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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