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________________ पुनः इसे कवि ने सर्गों में विभाजित नहीं किया है। केवल जब कथा को नया मोड देना होता है तो कवि यह कह उठता है कि 'एतहि मदरु कथंतर भय' (१२७) अर्थात् अब कथा का प्रभाव दूसरी ओर मुडता है । काव्य को सर्गों में विभाजित करने की परम्परा को हिन्दी में जैन विद्वानों ने बहुत कम अपनाया है। दो-चार कवियों के अतिरि, किसी ने भी कापी रम हो सर्गों एवं अध्यायों में विभाजित नहीं किया। जैन कवियों ने रास, वेलि, फागु, चरित, कथा, चौपई, व्याहलो, मतसई, संबोधन प्रादि के रूप में जो काब लिखे, वे प्रायः विना सर्गों अथवा अध्यायों में विभाजित हुए रचे गये हैं। संभवतः इन कवियों का उद्देश्य कथा को बिना किसी व्यवधान के अपने पाठकों को सुनाने का रहा है। नायक-नायिका काव्य के नायक जिनदत्त हैं किन्तु नायिका का सम्मान किसको दिया जाने इस विषय में कवि मौन है । जिनदत्त एव नहीं चार विवाह करता है। चारों ही पलियां परिणीता हैं । किन्तु इन सबमें प्रथम पत्नी का अवश्य उल्ले. खनीय स्थान है क्योंकि उसी के कारण जिनदत्त का चरित्र मागे बढ़ता है तथा दूसरी एवं तीसरी पत्नी भी उसी के पाश्रय में आ कर रहती हैं। इसलिये यदि नायिका का ही स्थान किसी को अवश्य देना हो तो वह प्रथम पत्नी विमलमतो को दिया जा सकता है । लेकिन प्रतिनायक का पद तो किसी भी पात्र को नहीं दिया जा सकता । यद्यपि सागरदत्त सेक उसकी पत्नी पर भासक्त होकर उसे समुद्र में डुबो देता है लेकिन यह घटना सो उसके जीवन को एक और मोड़ पर ले जानेवाली घटना है । सागरदत्त प्रारम्भ में तो जिनदत्त का परम गहायक रहा है। इसलिये इस काम में कोई प्रतिनायक नहीं है । घटनात्रों के वश नायक का स्वयमेव व्यक्तित्व निखरता रहता है और उसमें अन्य किसी वितंधी घ्यक्ति की सहायता की श्नावश्यकता नहीं होती। रस जिए दसरा चरित गांत रस का महाकाव्य है । यद्यपि काव्य में कहीं कहीं पच्चोस
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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