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________________ १४२ जिरणवत्त परित राजा ने स्वयं अपने ऊपर ली, जिस पर असंख्य क्षत्रियों का भृत्य वर्ग नियुक्त हुआ। दक्षिण पौल के ऊपर मुहनाले (तो) चढ़ने सगी, जो शत्रु-सेना-मंडल के लिए क्षय-काल स्वरुप थी। ॥४६०।। __उत्तर पौल पर निकुंम चंदेल खड़े हुये जो अन्य को मार्ग देने को तैयार न थे । पच्छिम दिशा की ओर यादव भट पड़ रहे (?) थे जो कि वन्न पड़ने पर भी [ वहीं जमे ] रहते थे ।।४६१।। [ ४६२-४६४ । प्रवर असंखद बहुसइ मिलिय, रखहि गढ़ छत्तीसउ कुलीय । कंदसिखिर किन मंतु तुरंतु, घालि (दूत) किन पूघा वातु ॥ मंत्री महामंत्र हकराइ, असरि राजा वात कराइ । ग्रहो मंत तू भेटहि जाइ, किह कारणि ग.''उ प्राइ । पाहा लयउ रयणु भरिथालु, भेटरिए वालिउ दूतु शुहिणालु । प्रवर पंचवश लक्ष्य हकारि, जिरणवत्तत् कटक मझारि ॥ अर्थ:- और भी बहुतेरे असंध्य (योद्धा) मिल गये और छत्तीसों बाली (माति) गढ की रक्षा करने लगी। शोध ही चन्द्रशेखर ने मंत्रणा की। (जन्होंने कहा) दूत भेजकर क्यों न पूछो कि क्या बात है ? ।।४६२॥ राजा ने मंत्रियों तथा महामंत्रीयों को बुलाया, तथा अवसर (राजसभा में बात कराई । (राजा ने मंत्री से कहा, "अहो मंत्री, उससे जाकर भेंट करो और पूछो कि किस कारण यह पाया है ?" ||४६३।। पाहुइ (उगहार) के रूप में रत्नों को थाल में भर कर और वह मुहिणाल दूत भेंट करने के लिये मला । पन्द्रह जनों को और बुला लिया और बह जिनदत्त की सेना में चला गया ।। ४६४।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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