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जिरगवत चरित
जी सकती हूँ। तुम्हारे बिना में दूसरे किसी को भी इन आँखों से नहीं देखती हूँ, जिनेश्वर मेरे साक्षी है कि जिनदत्ल ही मेरा प्रिय पति है ||३१४||
ऐसी रात्रि में तुमने मुझे (कैसे ) छोड़ दी ? हे प्रिये मुझे परदेश में क्यों छोड़ दिया ? तुम्हारे बिना में कैसे जीऊँगी तथा अन्न किसको देखकर हृदय को संभालू ? ।। ३६५११
मया - स्नेहपूर्वक |
[ २१६- ३१७
] जिवत निगदत्त विरिणि भरगड, कारण केहियउ सेठिस्यो जाई | रोवइ त्रिमल रहा वह नारि करि उछंग लई गज विहारि ॥ हयर गयउ जितेंद बिहार, पाय लागो जिरगवत्त सम्हारि । पिय को भाउ विमलमति सुराइ को जिबन्त सखी तू भरणइ ॥
अर्थ : वह विरहिणी, जिनदल जिनदत्त कह रही थी, यह बात सेक से जाकर किसी ने कही । ( वह सेट ) विरुल शेने लगा तथा उस नारी को सान्त्वना देने लगा 1 तदनन्तर उसे हाथ का सहारा देकर जिन मन्दिर में ले गया ||३१६॥
वह फिर जिन मन्दिर में चली गई तथा ( जिनेन्द्र के) चरणों में पड़कर भी जिनदत्त को स्मरण करने लगी | जब विगलमती ने अपने प्रिय (पति) का नाम सुना तो उगने उससे पूछा, "हे सखी तू कौनसे जिनदत्त का नाम ले रही हैं ॥३१॥
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[ ३१८-३१६ ]
जयंजसि की।
विज्जाहरी कहद्द सुगि सखी, खिय जपणी जोयदेव नंदणु व भयउ सोबत छांडिल पिउ गाँउ ॥