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जिरणवस चरित
यह 'देखकर तीनों स्त्रियों को प्राश्चर्य हुआ तथा विस्थित होकर वे उसे ध्यान पूर्वक देखने लगी। वे परस्पर कहने लगी, (हमारा पति) तो यह है कुछ कुछ है और कुछ कुछ नहीं है (ऐसा विचार करने लगी) ।।४३१।।
[ ४३२-४३३ ] विज्जारिय काहत हा बाप्त, संभलि पुहम ताह मुह बात । या विमा खेला धावललः देम पिउ देख माहीं सावलउ ।। पुणु पन्चानु भयो जिनवत्त , बत्तीसह लखण संजुत्त । छाडी सामन वण्णी छाय, भई देह सोने की काय ।।
अर्थ:-विद्याधरी बात कहने लगी ।हे पृथ्वीपति ! उस की बात को स्मरण कर | यह बावला तो विद्या के खेल खेल रहा है हमारा पति तो है देव ! सोने का सा है। सांवला नहीं है ।।४३२।।
तब जिनदत्त प्रत्यक्ष हो गया तथा वह बत्तीस लक्षणों वाला था । सांबले वणं को छाया छोड़ दी और उसको देह सोने की काया हो गई ।।४३३।।
] ४३४-४३५ ।
विमलामती का लडि पठई, सिरियामसी पाय पाकई ।
विज्मार लागी उठि वाह, प्रबहु खाडी जाही जिणनाह ।। जेठी बोला मोहि छाडि देवस पह, पूजी बोलि मोहि मेलि सायर पजिइ । तीजी बोलई छोडि गयउ तुरंतु, किन पिय समलहु फल्हि को बात ॥
अर्थ :-- विमलामती दौडकर उसके कच्छ (कटि) से लिपट गई तया श्रीमती ने उसके पांव पकड़ लिये । विद्याधरी उठ कर उसकी बाहों गे जा लगी और कहने लगी अब पाप हे नाथ ! छोडकर न जाए. ।।४३४।।
सबसे बड़ी बोली, "ये मुझे मंदिर में छोड़ कर चले गये थे"। दूसरी