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________________ उद्यान - बग श्रीखंड, अगर और गलीदी धूप के वृक्ष थे, वे सुन्दर नर-नारी के समान ही वहां खड़े थे | || १७२॥ | १७३ - १७४ [ जाई जूहि वेल सेवती, दचरणौ चंप शपज मचकुंद, कूजज वालव मेवालज मंदार, सिकुवार पाउस कपाल धरगहू, सरवर कमल बहुत हुआ । मरुवड मर बलसिरो - सुरही मालती । जाज || मंदार Yê : धर्म-जाति, पूथिका, वेला, सेवती, वरणा मरुमा तथा मालतो, चंपा, रायचंदर, मुचकुंद, कुब्जक मोलसिरी तथा जपापुष्न ।।१७३ ।। बाला, निवारिका, मंदार, सिंदुवार, सुरभित मंदार, पाडल, कठपॉइल, गुडहल तथा तालाब में (खिले हुए) कमलों में (भ्रमरादि का) बहुतेरा हल्ला ( शब्द ) होने लगा ।।१७४॥ बलसिरी - बकुलश्री मोलसिरी । मुरही - एक प्रकार कीघास । १०५-१३६ 1 अंबराउ फल लोयड प्रसशत्रु कोइल शब्द कियो वालु । जयति सहि कहा कराड, परइ लागि पुगे घरि लइ जाइ ॥ उदहिद घरि गज जिरणतु, धर्म करिव्यं तुरंतु तिस हिस सुल अखंड सरीर, जो इह वणिज जाग पर तोर | अर्थ :- ( अ ) अमराष ( मात्र वाटिका ) ने निरंतर ( सघन रूप से ) फल धारण किए, कोयलों ने जोरशोर का शब्द किया। तब सागरदत्त ने यात्रिया कि पैरों पड़ कर वह उसे घर ले गया ।।१७५ ।। जब जिनदत्त सागरदत्त के घर गया तो सागरदत्त ने उसे स्काल
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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