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________________ १४ जिहादस चरित विद्याधर ने उससे कहा, ''तुम ऐसा करो कि तुम प्राधा देश का राज्य ले लो (और यहीं रहो) ।" बोर (जिनदस) ने कहा, "मुझे यह अच्छा नहीं लगता है । मैं जाकर माता-पिता की सेवा करूंगा" ||२६४।। { २६५ । राय सोय पुणु नौकर कीयउ, कडप चूद करि मंडिय षीय । पर मनु चितिन दिन्नु विमाणु, तहि दियइ रयण प्रपमारण ।। अर्थ :--राजा अशोक ने फिर यह सत्कार्य किया कि अपनी लड़की को कड़इ (कड़ा) तथा बड़ा (प्रादि प्राभुषणों) से मंडित किया और उसे मन चाहा विमान दिया नया अप्रमाण (अनन्स) रत्न दिये ॥२६५।। तहि - तहा-तथा चंपापुरी के लिये प्रस्थान [ ६६-२१७ ] विहि विमाण रयण घाघरी, पालक सेज सुहाइ धरी । ठाइयो हंसतूल घिचि छाइ, समवत राय सोउ बिलखाय ।। उतरि विमारहि ठाउच भयउ, विराज करि पिणु पूजण लयउ । रिपरु मणु चितिउ प्रखउ सोहि, चंपापुरि लइ घलहि मोहि ॥ अर्थ : वह विमान रत्नों की झालर से च मयः रहा था, जिसमें एक सुन्दर पर्य का शय्या रक्खी हुई थी। हंस के समान उस विमान में बह वैक गया और राजा अशोक ने उसको बिलखते हुए विदा किया ।।२६५।। विमान से उतर कर वह खड़ा हो गया। दोनों हाथों से उसने फिर (भगवान की) पूजा की। पुनः विमान से कहा, "मनमें विचार करके निश्चयपूर्वक मैं तुझसे कहता हूँ, न मुझे चंपापुर ले वान ।। ६६७।। विण ... विणण-दोनों।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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