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________________ जिएवत्त सरित [ २०७-२८८ | हिपलोकरणी सुइंघिउ देइ, अागथंभ धारणउ करेह । सव्यसिद्ध विनातारणी, पायालगामिणी अक मोहणी ।। चितामरिण गुटिका सिद्धि लहइ, गुपति निहाए अंजणी कहइ । माणिक व रमण वरसिणो, शुभ वरसिणी भुवरण गामिणी ।। रसण प्रणेय भेय रसु देइ, बज्ज सरीरु बज्जणी थेई ।। हृदयलोकिनी जो स्वइच्छित देती हैं, अग्निस्तमिनी (आग से) स्तंभन करती है । सर्वसिद्धि, विद्या तारिणी, पाताल गामिनी एवं मोहनी ।।२३।। चिन्तामणि गुटिका जिसने सिद्धि प्राप्त होती है तथा गुप्त तथा निधान (गाठी हुई) वस्तुयों को कहने वाली अंजरणी, रत्नवर्षिणी जी माशिक देती है, शुभदशिनी, मुत्रनगामिनी, रसना जो अनेक भेदों का रस देती हैं और वजू जैसा शरीर बनाने वाली वजिगी विद्याओं को उसने प्राप्त किया ॥२८॥ [ २८६-२६० । प्रवर पन्न लई तहि भली, तिमिर दिठि विज्जा तहु मिली । अगोवंध पारा बंधणी, सव्वीसही तहि भयो । बलि विजउ जिरणदत्त लिलार, सोलह विजा लक्ष्य विचार । विजनु को देखइ जु पमाणू, हकारिउ मनु चितिउ जु विमाणु ।। अर्थ :-उस प्राज्ञ ने वहाँ और भी विद्याएँ ली। तिमिर दृष्टि विद्या (अन्धकार में देखने को विद्या) भी उसे मिली 1 अरीबंध तथा धारा बधणी और सवौषधि विद्याएँ तक उसने प्राप्त की 1॥२८॥ जिनदत्त का ललाट विद्या बलित हो गया। उसने विचार करके सोलह विद्याएं ली जिससे उसका मुख्ख चमकने लगा। उसने विद्याओं की
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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