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________________ १२६ जिणवत्त चरित । ४०२-४०३ ] विज्जारिया बोलइ तिरिया सो जि तुरंतु सुरिण । पिरथी राइ कहियर काई (म) पणो वात पार ।। अम्हह कंता तणिया घाता जागर सबह एहो । गहू जाण एवहि ते मिय (पू)ह हा संदेह ।। तुमि नारि निकिठी तिनिउ भूठी झूठउ यह परिवार । महु मेल्लिवि पिलिपि प्रववि कवणुषि कहल्छु भत्तारु ।। परि संपट लाइ जाइ विसाए फोटउ होहि रे विरूप । पर पिरथी लोए माही कोई प्रम्ह पिय के रूप ॥ श्रर्य :-तदनन्तर विद्याधरी बोली, "हे पृथ्वीपति I तुरन्त सुनिये । अगनी बात क्या कही जाए । यह हमारे पति की सारी बातें जानता है (प्रा) नहीं जानता है, इससे थोड़ा पूछे, जिससे संदेन्न मिटे" ।।४०२॥ __बोने ने कहा, "तुम निकृष्ट नारियां हो और तीनों भूली हो और भूठा ही यह तुम्हारा परिवार है । तुम मुझे छोड़ कर और ठेल (धकेल) कर और किसी को मार कहती (कहना चाहती) हो।" स्त्रियों ने कहा, "अरे लंपट, तू अटी लगा रहा है, रे विरूप तु नष्ट हो: इस पृथ्वी पर लोक में हमारे प्रिय के समान रूपवान कोई नहीं है" ॥४०३।। मिनट मत - भोड़ा, अल्प । [ ४०४-४०५ ] रिगसुण्डं वात विसंतर तरणी, काहे माहि निसु भन्नु धरणी । तुम्हारे दुसह पडिउ संदेहु, तिहि भइ मेरो कुबडी देह ।। टापुण लाग्यो प्यो पज, तहि होइ पार भयो बाबरणउ । तुम्ह विजोग दुख भरिउ घरगाह, जली धेह भई खोची वाह ।।
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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