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________________ जिरणवस परित राजा की सभा को आश्चर्य हुआ तथा जिनदत्त को कोति देशों दिशाओं में फैल गई । पंडित राजसिह ने ये वारस तीस चौपाइयां कही ||४३६ ।। १३६ मदिन / भविक -- मुक्ती-आकाँक्षी मुम | ४४० - ४४१ J भरगह राइ यहू किंभु सर्लाहयह, ग्रहसे चरित नु खवरहु किए । इसहि नु वणं सके सरसुती, भगह रहू यह केसी मती ॥ कराय जो जोइसी सुजाणु, जो जोइसु की मुणइ ममाणु 1 पूइ राज भले चित्त सगुगु, सीघर' वित्र धरहि तुह लगुण || 1 अर्थ :- राजा कहने लगा, "इसकी किस प्रकार प्रशंसा की जाए ! ऐसे चरित तो विद्याधरों ने ही किये हैं। इसका वर्णन केवल सरस्वती ही खान कर सकती है। रह कवि कहता है "मेरे में कितनी बुद्धि है ? ४४ राजा ने चतुर ज्योतिषी को बुलाया जो ज्योतिष का प्रमाण त्रिचारता था । राजा ने प्रसन्न चित्त होकर उससे शकुन पूछा और कहा, हे विप्र शीघ्र ही लग्न राखी ।। ४४१ ।। रवयर / खवर - विश्वावर मीरघ / शीघ्र १ मूलपाठ सोरघ [ ४४२-४४३ 1 कहह जीवसि लाणी रीती, परंपर इन्हु बहुल परीति । हउ जणच जोइस को मेउ, तुम्ह को स देव प्रलेउ | गोधूलक साह शेपियउ भली वाह बिनु चरी रई सोई कहि । (पुण्य) फलास || घरे हरे वास, तोरण भाषे पूर्ण
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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