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________________ हे स्वामी, (अपने दोनों) का दुःस्ल टूटा हुभा है (दूर हुमा चाहता है) किन्तु प्रसंग के अनुसार अर्थ इसके ठीक विपरीत होना चहिये, 'हे स्वामी [हमपर] दुःख का ....."टूट पड़ा है। ०७५. ४६४.१: 'विसुरिज' का प्रथं 'विसूर कर (चिन्तारहित होकर)' किया गया है, जबकि इसके विपरीत उस का अर्थ चिताकर (सोचकर) होना चाहिये । ४७६. ४६७.३: "किछु परि जारणउ देउ निरुत' का अर्थ किया गया है, 'तो हे देव ! हम कुछ निरुत जाने (कहें)', किन्तु होना चाहिये 'हे देव, हमें निरक्त का (ठीक बात) कुछ परिज्ञान हो। #७७. ५०३.१: 'मए वधाए हारु निसाण' के 'हारु निसारण' का अर्थ किया गया है, 'पीसो (धौसा) पर चोट पड़ी' । 'पासा' निरर्थक है मौर 'हार' भी अशुद्ध है, उसके स्थान पर पाठ प्रति में 'हए' होना चाहिये और 'हए निसाण' का अर्थ होना चाहिये निसानों (छौंसों) पर घोट परी' । ७६. ५०५.३ः 'एक वित्त दुख (दुव) रहिय सरीर' का मर्थ किया गया है, दोनों एक-चित्त दो शरीर होकर रहने लगे', किन्तु 'दुव' न होकर प्रति में पाठ 'दुख' है, अत: अर्थ होना चाहिये, 'ने एकचित्त और दुःखरहित शरीर के थे। ७९. ५०७.१-२: 'करहि राजु मोहि परठा, नीत पणीत सतीण मए' का अर्थ किया गया है, '(जिरणदत) राज्य करते हुए मोग में प्रस्थापित हो गए और नित्य प्रति उनमें सतृारण होते गये, किन्तु 'नीत पणीत' 'निरप-प्रति नहीं हैं, बह नीति-पति' ज्ञात होता है, जिसका अर्थ 'नीति और व्यवहार होना चाहिये । 4६०, ५१२.१-२: 'उक्क वहरण वराह निमित्त, लहिवि भोय संसार वित्त' का अर्थ किया गया है, 'उल्कापात के निमित से भोग प्रहण को संसार की स्थिति को बढ़ाने वाला जानकर उसे वैराग्य हुमा', किन्तु मेरी राय में
SR No.090229
Book TitleJindutta Charit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajsinh Kavivar, Mataprasad Gupta, Kasturchand Kasliwal
PublisherGendilal Shah Jaipur
Publication Year
Total Pages296
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size4 MB
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