Page #1
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला **********-- [ ग्रन्थांक २९ ]***********************
संस्थापक ख. श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी
प्रधान सम्पादक तथा संचालक आचार्य जिन विजय मुनि
संरक्षक
समसमास
EGoogी
नीति-शृङ्गार-वैराग्य नामक
भर्तृहरि-शतक-त्रयम्
(जैन पं० धनसारगणिकृत-प्राचीनतमव्याख्यायुक्तम् )
संपादक प्राध्यापक, श्री दामोदर धर्मानन्द कोसंबी (बंबईस्थित -टाटा - मूलतत्त्वसंशोधन विद्यामन्दिरान्तर्गत
गणितशास्त्र विशेषज्ञाध्यापक) *--हो रही है और प्रकाशनकतो ] * ई - मे में है-*-*-*सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ
भारतीय विद्या भवन, बम्बई.७ वि. सं. २०१५]
[मूल्य रू. ५/५०
264-8-2-8-2-------------
--
----
-
---
-
--
-------
卐
Page #2
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #3
--------------------------------------------------------------------------
________________
INDIAADImmunopaun
a lmetitililanatil
स्वर्गवासी साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघी
amuna-PSIS:
P
Culinmusatilithuantitleillnuintinulinni
ilihirontinutrievedio
बाबू श्रीबहादुर सिंहजी सिंघीके पुण्यश्लोक पिता जन्म-वि. सं. १९२१, मार्ग. वदि ६ 卐 स्वर्गवास-वि. सं. १९८४, पोष सुदि६
lula
mmmmmmmmmHHAIR
HARIHARANIHIPRITIHARITY
Jain Education lolemational
sanine
r ary.org
Page #4
--------------------------------------------------------------------------
________________
pamunam
..S
HTTruttitutihin
tim
:
BHADAIRLIERALLIONIANAAD Almaalitimentinentatd
RITAIItimdi
WRITRAPALIJA
दानशील-साहित्यरसिक-संकृतिप्रिय ख. श्रीबाबू बहादुरसिंहजी सिंघी
अजीमगंज-कलकत्ता जन्म ता. २८-६-१८८५]
[मृत्यु ता. ७-७-१९४४
SIMITA
Umananhiinatimemuitment
TIOmmalnition
E
m AHIRTHRITIHARTIRAL11.. tholimattamatidum
. "SEE
मा.श्री. कैलालसागर मृरि ज्ञान मंदिर.. श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा सा क.
LIVEHRARTimum Amrutanittimesntilimmaamlinni
Jellin Education
temational
www.ainelibrary.org
Page #5
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #6
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला **********************[ ग्रन्थांक २९ ]*********************** महाकवि-भर्तृहरि-विरचितं नीति-शृङ्गार वैराग्यात्मकं
-शतक-त्रयम्
(जैन पं० धनसारगणिकृत-प्राचीनतम-व्याख्यायुक्तम् )
P.......
......--.--
-.
...
..
AM
RE
RA........
SRL PALCHAND
SINGHI
..................
CRठाटार
................A.A-ST
श्री डालचहजो सिंधी
-
-
छer
SINGHI JAIN SERIES *********************[NUMBER 29]********************* BHARTRHARI'S SATAKATRAYAM With the oldest commentary of Jain scholar
DHANASĀRA GAŅI
Page #7
--------------------------------------------------------------------------
________________
कलकत्ता निवासी
साधुचरित-श्रेष्ठिवर्य श्रीमद् डालचन्दजी सिंघी पुण्यस्मृतिनिमित्त
प्रतिष्ठापित एवं प्रकाशित
सिं घी जैन ग्रन्थ मा ला
[ जैन आगमिक, दार्शनिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक, वैज्ञानिक, कथात्मक - इत्यादि विविधविषयगुम्फित प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, प्राचीनगूर्जर, - राजस्थानी आदि नाना भाषानिबद्ध सार्वजनीन पुरातन वाङ्मय तथा नूतन संशोधनात्मक साहित्य प्रकाशिनी सर्वश्रेष्ठ जैन ग्रन्थावलि ]
प्रतिष्ठाता
श्रीमद् - डालचन्दजी - सिंघीसत्पुत्र
स्व० दानशील साहित्यरसिक - संस्कृतिप्रिय श्रीमद् बहादुर सिंहजी सिंघी
SRI BARADUR SPIGAJI SING
प्रधान सम्पादक तथा संचालक
आचार्य जिनविजय मुनि
अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
*
ऑनररी डायरेक्टर
राजस्थान ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, जोधपुर (राजस्थान ) निवृत्त ऑनररि डायरेक्टर
भारतीय विद्या भवन, बम्बई
ऑनररी मेंबर जर्मन ओरिएण्टल सोसाईटी, जर्मनी; भाण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट, पूना (दक्षिण); गुजरात साहित्यसभा, अहमदाबाद (गुजरात); विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध प्रतिष्ठान, होंसियारपुर ( पञ्जाब)
*
संरक्षक
श्री राजेन्द्र सिंह सिंघी तथा श्री नरेन्द्र सिंह सिंघी
प्रकाशनकर्ता
अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीट भारतीय विद्याभवन, बम्बई
Page #8
--------------------------------------------------------------------------
________________
महाकवि - भर्तृहरि - विरचितं नीति - शृङ्गार - वैराग्य नामक
भर्तृहरि शतक- त्रयम्
( जैनविद्वद्वर्य्य - पं० धनसारगणिकृत - प्राचीनतमव्याख्यासमन्वितम् )
ग्रन्थांक २९]
-
अनेक आदर्शाधारेण विविधपाठभेदादिसमलङ्कस्य
विक्रमाब्द २०१५]
सम्पादनकर्ता
प्रा० श्री दामोदर धर्मानन्द कोसंबी
प्रकाशनकर्ता
अधिष्ठाता, सिंघी जैन शास्त्र शिक्षा पीठ
भारतीय विद्याभवन, बम्बई
प्रथमावृत्ति
Lo बंबई
सर्वाधिकार सुरक्षित
[ ख्रिस्ताब्द १९५९
[ मूल्य रु०५/५०
Page #9
--------------------------------------------------------------------------
________________
SINGHI JAIN SERIES
A COLLECTION OF CRITICAL EDITIONS OF IMPORTANT JAIN CANONICAL. PHILOSOPHICAL, HISTORICAL, LITERARY, NARRATIVE AND OTHER WORKS
IN PRAKRIT, SANSKRIT, APABHRAMSHA AND OLD RAJASTHANI. GUJARATI LANGUAGES, AND OF NEW STUDIES BY COMPETENT.
RESEARCH SCHOLARS
ESTABLISHED
IN THE SACRED MEMORY OF THE SAINT LIKE LATE SETH
ŚRI DĀLCHANDJI SINGHI
OF CALCUTTA
BY HIS LATE DEVOTED SON DANASILA-SAHITYARASIKA-SANSKRITIPRIYA ŚRĪ BAHADUR SINGH SINGHI
DIRECTOR AND GENERAL EDITOR ĀCHĀRYA JINA VIJAYA MUNI
ADHISȚHATĀ, SINGHT JAIN SASTRA SIKSHA PĪȚHA Honorary Founder-Director, Rajasthan Oriental Research Institute, Jodhpur;
General Editor, Rajasthan Puratan Granthamala ; etc. (Honorary Member of the German Oriental Society, Germany; Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona; Vishveshvranand Vaidic Research
Institute, Hosiyarpur; and Gujarat Sāhitya Sabhā, Ahmedabad.)
PUBLISHED
UNDER THE PATRONAGE OF
ŚRI RAJENDRA SINGH SINGHI
AND ŚRİ NARENDRA SINGH SINGHI
BY THE ADHISTHĀTĀ SINGHI JAIN SHASTRA SHIKSHAPITH BHARATIYA VIDYA BHAVAN
BOMBAY
Page #10
--------------------------------------------------------------------------
________________
BHARTRIHARI'S
SATAKATRAYAM
With the oldest commentary of Jain scholar
DHANASĀRAGAṆI
V. E. 2015]
With principal variants from many manuscripts etc. EDITED BY
Prof. D. D. KOSAMBI
***
Adhisthata, Singhi Jain Sastra Siksapitha BHARATİYA VIDYA BHAVANA BOMBAY
PUBLISHED BY
First Edition; 1000 Copies
प्रकाशक- जयन्तकृष्ण ह. दवे, ऑनररी डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, नं. ७ मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, २६-२८ कोलभाट स्ट्रीट, बम्बई, नं. २
Vol. No. 29]
[Price Rs. 5/50
[A. D. 1959
Page #11
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥सिंघीजैनग्रन्थमालासंस्थापकप्रशस्तिः ।। अस्ति वङ्गाभिधे देशे सुप्रसिद्धा मनोरमा । मुर्शिदाबाद इत्याख्या पुरी वैभवशालिनी ॥ बहवो निवसन्त्यन्त्र जैना ऊकेशवंशजाः । धनाड्या नृपसम्मान्या धर्मकर्मपरायणाः ॥ श्रीडालचन्द इत्यासीत् तेष्वेको बहुभाग्यवान् । साधुवत् सच्चरित्रो यः सिंघीकुलप्रभाकरः ॥ बाल्य एव गतो यश्च कर्तुं व्यापारविस्तृतिम् । कलिकातामहापुर्यां धृतधर्मार्थनिश्चयः॥ कुशाग्रीयया सद्बुद्ध्या सद्वृत्त्या च सन्निष्ठया । उपायं विपुलां लक्ष्मी कोट्यधिपोऽजनिष्ट सः ॥ .. तस्य मन्नुकुमारीति सन्नारीकुलमण्डना । जाता पतिव्रता पत्नी शीलसौभाग्यभूषणा ॥ श्रीबहादुरसिंहाख्यो गुणवाँस्तनयस्तयोः । सञ्जातः सुकृती दानी धर्मप्रियश्च धीनिधिः ॥ . प्राप्ता पुण्यवता तेन पत्नी तिलकसुन्दरी । यस्याः सौभाग्यचन्द्रेण भासितं तत्कुलाम्बरम् ॥ श्रीमान् राजेन्द्रसिंहोऽस्य ज्येष्ठपुत्रः सुशिक्षितः । यः सर्वकार्यदक्षत्वात् दक्षिणबाहुवत् पितुः ॥ नरेन्द्रसिंह इत्याख्यस्तेजस्वी मध्यमः सुतः । सूनुरिन्द्रसिंहश्च कनिष्ठः सौम्यदर्शनः ॥ सन्ति त्रयोऽपि सत्पुत्रा आप्तभक्तिपरायणाः । विनीताः सरला भव्याः पितुर्मार्गानुगामिनः ॥ अन्येऽपि बहवस्तस्याभवन् स्वस्त्रादिबान्धवाः । धनैर्जनैः समृद्धः सन् स राजेव व्यराजत ॥
अन्यच्चसरस्वत्यां सदासको भूत्वा लक्ष्मीप्रियोऽप्ययम् । तत्राप्यासीत् सदाचारी तञ्चित्रं विदुषां खलु ॥ नाहंकारो न दुर्भावो न विलासो न दुर्व्ययः । दृष्टः कदापि यद्गेहे सतां तद् विस्मयास्पदम् ॥ भक्तो गुरुजनानां स विनीतः सजनान् प्रति । बन्धुजनेऽनुरक्तोऽभूत् प्रीतः पोष्यगणेष्वपि ॥ देश-कालस्थितिज्ञोऽसौ विद्या-विज्ञानपूजकः । इतिहासादि-साहित्य-संस्कृति-सत्कलाप्रियः॥ समन्नत्यै समाजस्य धर्मस्योत्कर्षहेतवे । प्रचाराय च शिक्षाया दत्तं तेन धनं घनम् ॥ गत्वा सभा-समित्यादी भूत्वाऽध्यक्षपदान्वितः । दत्वा दानं यथायोग्यं प्रोत्साहिताश्च कर्मठाः ॥ एवं धनेन देहेन ज्ञानेन शुभनिष्ठया। अकरोत् स यथाशक्ति सत्कोणि सदाशयः ॥ अथान्यदा प्रसङ्गेन स्वपितुः स्मृतिहेतवे । कर्तुं किञ्चिद् विशिष्टं स कार्य मनस्यचिन्तयत् ॥ पूज्यः पिता सदैवासीत् सम्यग्-ज्ञानरुचिः स्वयम् । तस्मात् तज्ज्ञानवृद्ध्यर्थं यतनीयं मयाऽप्यरम् ॥ विचार्यवं स्वयं चित्ते पुनः प्राप्य सुसम्मतिम् । श्रद्धेयानां स्वमित्राणां विदुषां चापि तादृशाम् ॥ जैनज्ञानप्रसारार्थ स्थाने शान्ति नि के तने। सिंघीपदाङ्कितं जैन ज्ञान पीठ मतिष्ठिपत् ॥ श्रीजिनविजयः प्राज्ञो मुनिनाम्ना च विश्रुतः । स्वीकतुं प्रार्थितस्तेन तस्याधिष्ठायकं पदम् ॥ तस्य सौजन्य-सौहार्द-स्थैयौदार्यादिसद्गुणैः । वशीभूय मुदा येन स्वीकृतं तत्पदं वरम् ॥ कवीन्द्रेण रवीन्द्रेण स्वीयपावनपाणिना । रस-नागाङ्क-चन्द्राब्दे तत्प्रतिष्ठा व्यधीयत ॥ प्रारब्धं मुनिना चापि कार्य तदुपयोगिकम् । पाठनं ज्ञानलिप्सूनां ग्रन्थानां ग्रथनं तथा ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना । स्वपितृश्रेयसे चैषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ उदारचेतसा तेन धर्मशीलेन दानिना । व्ययितं पुष्कलं द्रव्यं तत्तत्कार्यसुसिद्धये ॥ छात्राणां वृत्तिदानेन नेकेषां विदुषां तथा । ज्ञानाभ्यासाय निष्कामसाहाय्यं स प्रदत्तवान् ।। जलवाग्वादिकानां तु प्रातिकूल्यादसौ मुनिः । कार्य त्रिवार्षिकं तत्र समाप्यान्यत्रावासितः ॥ तत्रापि सततं सर्व साहाय्यं तेन यच्छता । ग्रन्थमालाप्रकाशाय महोत्साहः प्रदर्शितः ॥ नन्द-निध्यक-चन्द्राब्दे कृता पुनः सुयोजना । ग्रन्थावल्याः स्थिरत्वाय विस्तराय च नूतना ॥ ततो मुनेः परामर्शात् सिंघीवंशनभस्वता । भा वि द्या भ व ना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ भासीत्तस्य मनोवाञ्छापूर्वग्रन्थप्रकाशने । तदर्थ व्ययितं तेन लक्षावधि हि रूप्यकम् ॥ दुर्विलासाद विधेईन्त ! दौर्भाग्याश्चात्मबन्धूनाम् । स्वल्पेनैवाथ कालेन स्वर्ग स सुकृती ययौ ॥ विधु-शून्य-ख-नेत्रा-दे मासे भाषाढसझके । कलिकातानगयों स प्राप्तवान् परमां गतिम् ॥ पितृभक्कैश्च तत्पुत्रैः प्रेयसे पितुरात्मनः । तथैव प्रपितुः स्मृत्यै प्रकाश्यतेऽधुना त्वियम् ॥ सैषा ग्रन्थावलिः श्रेष्ठा प्रेष्ठा प्रज्ञावतां प्रथा । भूयाद् भूत्यै सतां सिंघीकुलकीर्तिप्रकाशिका ॥ विद्वज्जनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके श्रीसैंघी ग्रन्थमालिका ॥
३४
३७ ३० ३९
४
.
Page #12
--------------------------------------------------------------------------
________________
॥ सिंघीजैनग्रन्थमालासम्पादकप्रशस्तिः ॥
000000000
n
"
Tur9
स्वस्ति श्रीमेदपाटाख्यो देशो भारतविश्रुतः । रूपाहेलीति सन्नानी पुरिका यत्र सुस्थिता ॥ सदाचार-विचाराभ्यां प्राचीननृपतेः समः । श्रीमचतुरसिंहोऽत्र राठोडान्वयभूमिपः ॥ तन्त्र श्रीवृद्धिसिंहोऽभूद् राजपुत्रः प्रसिद्धिभाक् । क्षात्रधर्मधनो यश्च परमारकुलाग्रणीः ॥ मुञ्ज-भोजमुखा भूपा जाता यस्मिन् महाकुले। किं वय॑ते कुलीनत्वं तत्कुलजातजन्मनः ॥ पत्नी राजकुमारीति तस्याभूद गुणसंहिता । चातुर्य-रूप-लावण्य-सुवाक्-सौजन्यभूषिता॥ क्षत्रियाणीं प्रभापूर्णा शौर्योद्दीप्तमुखाकृतिम् । यां दृष्ट्वैव जनो मेने राजन्यकुलजा त्वियम् ॥ पुत्रः किसनसिंहाख्यो जातस्तयोरतिप्रियः । रणमल्ल इति चान्यद् यन्नाम जननीकृतम् ॥ श्रीदेवीहंसनामात्र राजपूज्यो यतीश्वरः । ज्योतिभैषज्यविद्यानां पारगामी जनप्रियः॥ आगतो मरुदेशाद् यो भ्रमन् जनपदान् बहन् । जातः श्रीवृद्धिसिंहस्य प्रीति-श्रद्धास्पदं परम् ॥ तेनाथाप्रतिमप्रेम्णा स तत्सूनुः स्वसन्निधौ । रक्षितः शिक्षितः सम्यक्, कृतो जैनमतानुगः ॥ दौर्भाग्यात् तच्छिशोर्बाल्ये गुरु-तातौ दिवंगतौ । विमूढः स्वगृहात् सोऽथ यदृच्छया विनिर्गतः ॥
तथा चभ्रान्त्वा नैकेषु देशेषु संसेव्य च बहून् नरान् । दीक्षितो मुण्डितो भूत्वा जातो जैनमुनिस्ततः ॥ ज्ञातान्यनेकशास्त्राणि नानाधर्ममतानि च । मध्यस्थवृत्तिना तेन तत्त्वातत्वगवेषिणा ॥ अधीता विविधा भाषा भारतीया युरोपजाः । अनेका लिपयोऽप्येवं प्रत्न-नूतनकालिकाः ॥ येन प्रकाशिता नैके ग्रन्था विद्वत्प्रशंसिताः । लिखिता बहवो लेखा ऐतिह्यतथ्यगुम्फिताः ॥ बहुभिः सुविद्वद्भिस्तन्मण्डलैश्च स सत्कृतः । जिनविजयनाम्नाऽयं विख्यातः सर्वत्राभवद् ॥ तस्य तां विश्रुतिं ज्ञात्वा श्रीमद्गान्धीमहात्मना । आहूतः सादरं पुण्यपत्तनात् स्वयमन्यदा ॥ पुरे चाहम्मदाबादे राष्ट्रीयः शिक्षणालयः । विद्यापीठ इति ख्यात्या प्रतिष्ठितो यदाऽभवत् ॥ आचार्यत्वेन तत्रोच्चैर्नियुक्तः स महात्मना । रस-मुंनि-निधीन्द्वब्दे पुरा त त्वा ख्यमन्दिरे ॥ वर्षाणामष्टकं यावत् सम्भूष्य तत् पदं ततः । गत्वा जर्मनराष्ट्रे स तत्संस्कृतिमधीतवान् ॥ तत आगत्य सल्लग्नो राष्ट्रकार्य च सक्रियम् । कारावासोऽपि सम्प्राप्तो येन स्वातन्त्र्यसङ्गरे॥ क्रमात् ततो विनिर्मुक्तः स्थितः शान्ति निकेतने । विश्ववन्द्यकवीन्द्रश्रीरवीन्द्रनाथभूषिते ॥ सिंघीपदयुतं जैन ज्ञानपीठं तदाश्रितम् । स्थापितं तत्र सिंघीश्रीडालचन्दस्य सूनुना ॥ श्रीबहादुरसिंहेन दानवीरेण धीमता । स्मृत्यर्थं निजतातस्य जैनज्ञानप्रसारकम् ॥ प्रतिष्ठितश्च तस्यासौ पदेऽधिष्ठातृसज्ञके। अध्यापयन् वरान् शिष्यान् ग्रन्थयन् जैनवाङ्मयम् ॥ तस्यैव प्रेरणां प्राप्य श्रीसिंघीकुलकेतुना। स्वपितृश्रेयसे ह्येषा प्रारब्धा ग्रन्थमालिका ॥ अथैवं विगतं तस्य वर्षाणामष्टकं पुनः । ग्रन्थमालाविकासादिप्रवृत्तिषु प्रयस्यतः ॥ बाणे-रत्ने-नेवेन्द्रब्दे मुंबाईनगरीस्थितः । मुंशीति बिरुदख्यातः कन्हैयालाल-धीसखः ॥ प्रवृत्तो भारतीयानां विद्यानां पीठनिर्मिती । कर्मनिष्ठस्य तस्याभूत् प्रयत्नः सफलोऽचिरात् ॥ विदुषां श्रीमतां योगात् पीठो जातः प्रतिष्ठितः । भारतीय पदोपेत विद्या भवन सङ्ख्या ॥ माहूतः सहकार्यार्थ स मुनिस्तेन सुहृदा । ततःप्रभृति तत्रापि तत्कार्ये सुप्रवृत्तवान् ॥ सद्भावनेऽन्यदा तस्य सेवाऽधिका ह्यपेक्षिता । स्वीकृता च सद्भावेन साऽप्याचार्यपदाश्रिता ॥ नन्द-निध्यक-चन्द्राब्दे वैक्रमे विहिता पुनः । एतग्रन्थावलीस्थैर्यकृते नूतनयोजना ॥ परामर्शात् ततस्तस्य श्रीसिंघीकुलभास्वता । भा विद्याभूवना येयं ग्रन्थमाला समर्पिता ॥ प्रदत्ता दशसाहस्री पुनस्तस्योपदेशतः । स्वपितृस्मृतिमन्दिरकरणाय सुकीर्तिना ॥ दैवादल्पे गते काले सिंघीवों दिवंगतः । यस्तस्य ज्ञानसेवायां साहाय्यमकरोत् महत् ॥ पितृकार्यप्रगत्यर्थ यत्नशीलैस्तदात्मजैः । राजेन्द्रसिंहमुख्यैश्च सत्कृतं तद्वचस्ततः ॥ पुण्यश्लोकपितुर्नाम्ना ग्रन्थानारकृते पुनः । बन्धुज्येष्ठो गुणश्रेष्ठो ह्यर्द्धलक्षं धनं ददौ ॥ प्रिन्थमालाप्रसिद्ध्यर्थ पितृवत् तस्य कांक्षितम् । श्रीसिंघीसत्पुत्रैः सर्व तगिराऽनुविधीयते ॥ विद्वज्जनकृताहादा सच्चिदानन्ददा सदा । चिरं नन्दत्वियं लोके जिन विजय भारती ॥
... r rrrrrr
Sur
mmmmmmmmmmm .. Mu09..
Page #13
--------------------------------------------------------------------------
________________
SINGHI JAIN SERIES
___ अद्यावधि मुद्रितग्रन्थनामावलि १ मेरुतुङ्गाचार्यरचित प्रबन्धचिन्तामणि । १९ भर्तृहरिकृत शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह. मूल संस्कृत ग्रन्थ.
२० शान्त्याचार्यकृत न्यायावतारवार्तिक-वृत्ति, २ पुरातनप्रबन्धसंग्रह बहुविध ऐतिह्यतथ्यपरिपूर्ण २१ कवि धाहिलरचित पउमसिरीचरिउ. (अप०) अनेक निबन्ध संचय.
२२ महेश्वरसूरिकृत नाणपंचमीकहा. (प्रा.) ३ राजशेखरसूरिरचित प्रबन्धकोश.
२३ श्रीभद्रबाहुआचार्यकृत भद्रबाहुसंहिता. १ जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प.
२४ जिनेश्वरसूरिकृत कथाकोषप्रकरण. (प्रा० ५ मेघविजयोपाध्यायकृत देवानन्दमहाकाव्य.
२५ उदयप्रभसूरिकृत धमाभ्युदयमहाकाव्य. ६ यशोविजयोपाध्यायकृत जैनतर्कभाषा.
२६ जयसिंहसूरिकृत धर्मोपदेशमाला. (प्रा.) ७ हेमचन्द्राचार्यकृत प्रमाणमीमांसा.
२७ कोऊहलविरचित लीलावई कहा. (प्रा.) ८ भट्टाकलङ्कदेवकृत अकलङ्कग्रन्थत्रयी.
२८ जिनदत्ताख्यानद्वय. (प्रा.) ९ प्रबन्धचिन्तामणि-हिन्दी भाषांतर.
२९ स्वयंभूविरचित पउमचरिउ. भाग १ (अप०) १० प्रभाचन्द्रसूरिरचित प्रभावकचरित. ११ सिद्धिचन्द्रोपाध्यायरचित भानुचन्द्रगणिचरित.
३१ सिद्धिचन्द्रकृत काव्यप्रकाशखण्डन.
३२ दामोदरपण्डित कृत उक्तिव्यक्तिप्रकरण. १२ यशोविजयोपाध्यायविरचित ज्ञानबिन्दुप्रकरण.
३३ भिन्न भिन्न विद्वत्कृत कुमारपालचरित्रसंग्रह. १३ हरिषेणाचार्यकृत बृहत्कथाकोश.
३४ जिनपालोपाध्यायरचित खरतरगच्छ बृहद्व लि. १४ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, प्रथम भाग,
३५ उध्योतनसूरिकृत कुवलयमाला कहा. (प्रा.) १५ हरिभद्रसूरिविरचित धूर्ताख्यान. (प्राकृत) ३६ गुणपालमुनिरचित जंबुचरियं. (प्रा.) १६ दुर्गदेवकृत रिष्टसमुच्चय. (प्राकृत)
३७ पूर्वाचार्यविरचित जयपायड-निमित्तशास्त्र. (प्रा.) १७ मेघविजयोपाध्यायकृत दिग्विजयमहाकाव्य. ३८ भोजनृपतिरचित गृङ्गारमञ्जरी.(संस्कृत कथा) १८ कवि अब्दुल रहमानकृत सन्देशरासक. (अपभ्रंश) | ३९ धनसारगणीकृत-भर्तृहरशतकत्रयटीका.
Shri Bahadur Singh Singhi Memoirs Dr. G. H. Bühler's Life of Hemachandrächārva,
Translated from German by Dr. Manilal Patel, Ph. D. 1 स्व. बाबू श्रीबहादुरसिंहजी सिंघी स्मृतिग्रन्थ [भारतीयविद्या भाग ३] सन १९४५. 2 Late Babu Shri Bahadur Singhji Singhi Memorial volume.
BHARATIYA VIDYA [Volume VA. D. 1945. 3 Literary Circle of Mahāmātya Vastupala and its Contribution
to Sanskrit Literature. By Dr. Bhogilal J. Sandesara,
M. A., Ph. D. (S.J.S.33.) . 4-5 Studies in Indian Literary History. Two Volumes.
By Prof. P. K. Gode, M. A. (S. J. S. No. 37-38.)
संप्रति मुद्यमाणग्रन्थनामावलि १ विविधगच्छीय पट्टावलिसंग्रह.
1८ कौटिल्यकृत अर्थशास्त्र - सटीक. (कतिपयअंश) २ जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह, भाग २.
९ गुणप्रभाचार्यकृत विनयसूत्र. (बौद्धशास्त्र) ३ विज्ञप्तिसंग्रह विज्ञप्ति महालेख-विज्ञप्ति त्रिवेणी |१. रामचन्द्रकविरचित-मल्लिकामकरन्दादिनारकसंग्रह.
आदि अनेक विज्ञप्तिलेख समुच्चय. |११ तरुणप्राभाचार्यकृत षडावश्यकबालावबोधवृत्ति. कीर्तिकौमदी आदि वस्तुपालप्रशस्तिसंग्रह. १२ प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण-सटीक. ५ गुणचन्द्रविरचित मंत्रीकर्मचन्द्रवंशप्रबन्ध. १३ हेमचन्द्राचार्यकृत छन्दोऽनुशासन. ६ नयचन्द्रविरचित हम्मीरमहाकाव्य.
१४ स्वयंभुकविरचित पउमचरिउ. भा०३ ७ महेन्द्रसूरिकृत नर्मदासुन्दरीकथा. (प्रा.) १५ ठकुर फेरूरचित ग्रन्थावलि. (प्रा.)
Page #14
--------------------------------------------------------------------------
________________
विष या नु क म णि का 1. PREFÁCE BY D. D. KOSAMBI 2. किश्चित् प्रास्ताविक-मुनि जिनविजय 3. भारतीय विद्याग्रन्थावलिमें प्रकाशित 'भर्तृहरिशतकत्रयम्' का प्रधान
संपादकीय स्वल्प वक्तव्य-मुनि जिनविजय 4. सिंघी जैन ग्रन्थमालामें, २३ वें मणिके रूपमें प्रकाशित 'शतकत्रयादि
सुभाषितसंग्रह' का प्रधान संपादकीय वक्तव्य-मुनि जिनविजय १३ १ धनसारगणिकृत व्याख्यायुक्त नीतिशक
पृ. १-४० २ ,
शृङ्गारशतक
" ४१-८० , वैराग्यशतक,
८१-१२७ ४ परिशिष्ट-शतकत्रयशेषकाव्यटीका
१२८-१४६ ५ श्लोकानामकारादिक्रमेण अनुक्रमः
१४७-१५२
Page #15
--------------------------------------------------------------------------
________________
Page #16
--------------------------------------------------------------------------
________________
PREFACE
BORI 277/1885-86
Srngāra and Vairas
This edition of Bhartphari's epigrams with the commentary of Dhanasăra was prepared at the request of Acārya Śri Jinavijaya Muni, without whose help and enccuragement the critical edition of Bharthari published in this Singhi Jain Series as No. 23, (in 1948) would not have been possible. During the course of preparation of the editio princeps I had to prepare the constituted text of all major versions, and Dhanasāra's is Version E. Dhanasāra's is the oldest known gloss, being dated Samvat 1535, at Jodhpur. The tīkā Rāmarşi was published as No. 127 of the Anandāśrama series. That by Maheśvarabhatta on a southern version had been published at Belgaum by others, while I found it necessary to revise the Nirnaysagar edition of Rāmacandra Budhendra. A consolidated southern version, critically edited by me and published in 1947 as No. 9 of the Bhāratiya Vidya Bhavan's series also had a commentary, which was then anonymous, but which has turned out since to be by an otherwise unknown Arkuttyalaya Balarām Kavi.
The commentary of Dhanasāra has its own value as a specimen of Jain Sanskrit used to explain a known text familiar to all students of classical Sanskrit, and should have been published long ago.
The actual edition was later revised from additional MSS for separate publication. The MSS utilized are :
in BORI 277/1883-4. Niti and Srngāra only. 9. = BORI 391/1892-95. Sșngāra and Vairāgya only. 77. = Gaekwar's Oriental Research Institute, Baroda, No. 1370.
»
» » » 1780. 5. = BORI 795/1886-92. 3. =
BORI 382/1884-87; order of stanzas changed, but text agrees oftener with
than for any other MS. I. = A MS of the tikā only, catalogued as 334 at the BORI.
4. = No. 5 of the Sanskrit Pātha álā collection, Rājāpūr. Here. BORI means the Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 4, the MSS actually belong to the Bombay Government MS collection housed there, and descriptions will be found in the annual reports of the years given, or in greater detail in P. K. Gode's Catalogue, BORI MSS, Kāvya section, vol. XIII. MSS 3 and 2 were not directly utilized for my own critical edition of Bhartrhari, being of minor interest. The two Baroda MSS are good, but their tikā is emended, as is in greater measure that in z. The last MS above has suffered some emendations in copying. However, the first critical text was prepared from these in spite of the clearly visible diversity. Then valuablc support both for the text and the method came from the discovery (by kindness of Sri Punyavijaya Muni) of an ancignt codex at the Munirāja Śrt Hamsavijayaji Jain Bhandar, Baroda. No. 1074 of this collection, labelled in my variants, and given precedence over all the others, is the oldest known MS of the Dhanasăra version. The calligraphy dates it as before samvat 1600, while the principal information which we possess about Dhanasära comes colophon from which the reader can convince himself that the Ikä was written at Jodhpur in Samvat 1535.
da No. 1370.
Page #17
--------------------------------------------------------------------------
________________
BHARTRHARI'S SATAKATRAYAM
This codex confirmed the text that had been painfully determined from the above MSS, and seems to offer a solution to the riddle of the extra slokas. That is, Dhanasära's commentary become immediately popular, and he himself must have written the final additions to the main text, for the stanzas are found in that order in other MSS, like a after the colophone, but without a gloss. They must have been taken as genuine in the days of Dhanasāra, who then added to his commentary. The “tyaktakāvayāni” given after the encomium (prašasti] seem to be commented by another hand, if one may judge from the style. However, the original style is not greatly different, being also fatally easy to imitate; cannot exclude the possibility of Dhanasāra himself having still later additions, in a style changed by increasing age. I offer my opinion of a different authorship for what it is worth.
The commentary is the oldest known on Bhartrhari, and though not so imposing as that of Rāmacandra Budhendra for the sourthern type, nor so meticulous as that of Rāmarşi for a much closer version to that of Dhanasāra, is still of considerable interest. The Coloquial Jain Sanskrit used, some original interpretations, and the age make a close study of this version indispehsable to any student of Bharthari. One may venture upon the guess that the gloss was certainly supplemented by further oral comment, the text before us being in the nature of lecture-notes.
The present edition is really due to Muni Jinavijayaji. I prepared a text with variants in 1947, but at his request; my task ended when a press copy was handed over to him. Dhanasāra, like every other commentator known to me, shows some divergence between the Bharthari text as set forth on the MS, and the actual reading upon which the gloss has been made. Whether this was due to the commentator's having learned in his own school days from a slightly different main text, or is to be attributed entirely to the carelessness of later scribes must be decided before the particular version is printed. The decision has been taken by Muniji, who re-edited the script I left with him twelve years ago, according to his own canon. He selected the reading of the stanzas, of the commentary (for the various MSS again diverge), and the variants to be presented. He also read all the proofs without troubling anyone else. So, the responsibility and all the credit is his, and his alone. May he continue to add to the Singhi Jain Series and also the Rajasthan old text Series (Rājasthān Purātana Granthamālā) which has been founded, organized and edited under his most inspiring and able guidance, for many more years to come.
Poona, August 3, 1959,
D. D. Kosambi,
Page #18
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिंघी जैन ग्रन्थमाला-भर्तृहरिशतकत्रय सटीक ।
किंववामिवगिनांपुरनामकरदन विरलामायामामार्यप्रसार्थविनायकार्बमासम योदामदेवदंनिसन्मानिनंबा:किनारमा पुनमगारा जिलागिमानसिकभिकबनिक के निशान्यः पनापियपिघकवाणीमामबनाया गनिनवादयानाचानसुदवाणमननतरमरिविनायोवनबावन
कविङ्कामायाकवि पयायकगायनाकानड़नाहारस्कापसाल्पादनकोनकविकाधारकानदापदिब्याबस्थारमनस्वीकायावीनगायतिखेनचा रामंपादानननरंमदिनालाग्योवगवि राणदिनानिावारदात्रमिवचनमायकानापरहितानित १४एकाग्दवाकशावावाशिवाचाएकावास मजनवादानकाएकामनपनिळयनिएकानाया दरवाकाटोकरिष्यतिकियविरामषहमाझवभकनरविपिशाश्याच्या कालावा निधायमानमायज रितिासापापनियापकाभिमा कायकायाराकवण्वनहगामामासवरन्मगायाधमयारासम्मवनरकरमापासंसारनवपर्यतचा दबाभदायमानिराइस्तरामस्फर्यादारमादारक्षणापरनमाधडपाायाक्जिादाबादामाजाधापिवारसायनमस्फवशंपायनेजम्युनरिहावाढतावशको
मेवासिावनचनिग्रहानारंगवारिपानांताब्यनितातरुनलगतावाधिकारापंचाय्यानिक्तिःकोनाहरतरणप्याकीनाकादिवानीमनवानासुरनमानीच दामादाममायापायाखापवनचलनानिएदायापामयापाब बागवानलकामिनी पिलानागनावश्यांन हनिहदयविधायागनियन्पसमा दिनन्सननममलंवमशीनवपनायपरलपरमिदं धर्मारिएपंकिमिवविविश्नान निमनमायकासंगसएचनिबंधनावरमव्यासत्यचाागह नवमनायाधिननश्यापत्याबाहालनामुष्टगीधनवजानव नाधिापादितताकिामबमनाचतापरतावादिनिवनाविषनरानमाथिाकाका गच यस्मानाविवादचंधनमिदं मावनिमंनिपनाया नियन्तयंगाववानणासासमातापानमाकापिसमयभित्रामादावादापा। मतपयननस्पशाचायाप्रतानशीनगीविनावपायमानावर व मादश्वदिनास्ति पाननिमामाया म्युचान्यवन तभिर्मकलफ्यिानपानमवाहना रकस्यकतामविधिनानारनपद पदावामान्यचममानाहममहिमाम्मरुनामारावानपिल्लाल्पाचवूर्वमपिवनिनिल नर्व नावानबंधानाधमावली
गिलायविनवनियश्चममनलम्याहाना लिधाकरवंदाचनिमिहतखानाकाडवाणांममतात्याग्यामाकर्मनयमिंगनर निर्मचानाथस्तयोमरना। JAINS सबमनिमसरकाशमनिरामासर्वकर्मदायातीसहन्नाशनतबावाब नियमाप्यागमान्नकातासाचाभोतमनसवादाहिातारामादयरा क्लप्यनायकासदिजायसवेवरेशनाश्रयं शिम्यरित्यरायनानिरुचि नवाचस्पसएलरमानाझिोपारगणप्यापसुभाननाभकामसमराजय शवनराम्पसमायुषायामशानदरपामतननिधिनानंजय3लभव कपातकथाकल्यामसमभागसातानिRANA
भर्तृ० शतकत्रयमूल-वि० सं० १४८७ में लिखित प्रतिका अन्तिम पत्र
FIR करनाथधामयिकासानदायमारदायिधानकमतमालाबायपाहमहादरवामगातावबामायामियामायाम यमसमायामिनाया नियमबाहमानाबदद्य-सविधामामासिधवासावृतःकायमस्वस्थाष्ट्रावस्यवधवाविधिविशवावामान्य नाकामिनसमाजमारहातमानातीदवारगमरमश्वाधण्यासमवावाशनाकामाकायसहयोलमालथमधामोयानादा झवसनीधामनाकामप्रकस्थलाविकपमानवारवासावारसालानावटमछादापायवाघायाारएए-संप्रतिमकराकांपा शुकांसायानाहानागंझमितीरलकरहियामामन्यातक्षमाघिवासकामकिशन-मालाकादमापादयंतामना कंपमधमादासानायकाभिाव्यरूकामासमामाबिरधारतशतमाशाशयारियासानामावशाग्यश्चात्याकानीला मकमागरमालकाअधयिटनापरम्परा बस्साकियामागागवामयाायणवाायणाखममा हत्याक्षामनोदावि महाशिURIश्यामबारसममिनासापाटावा मान्यपनापश्यमामानवायाश्ट्रासादाममा कमककम नायंस्थलसियदयकनानिवप्रधथसिमरामरेत्यशा
कशायमिनाक्रावरपिपरपागावातावानासर्वक मपिसावमाधानकालाआमागायकानामतमा चियामरुविरघोसनदयालयावासमपितररुक सत्यना४सहकार.
कमकसमिकरन्नशामाद सूक्तिाितामधरमश्वरम धामावविकस्यानाकया। पविरस्यविषयामायालयमस्यामसरापयाविषयामरादाबायविश्वामित्रयशम्शम्पशायात्ययावयास मपिंथासखर्वसमललामायामाहगताखाहारसतपायादबिलावावायमानधासघाामयिनिहाकधमादा हँसारामालाकामाजमादाबलाद्विरक्षाकरमा-सप्तो/-संवसारणविमानाकानकधारावारापाबनबोलाकण सामानाचिकामीसमक्षरक्षकोत्रादरियाबाराज-हिरवीगार कममाता माता जनवाचावकायदानासासाममपिमाडनस्विनिपशेषताय॥14talil जरजयकालमपघन्यगमलवकरयवरमकल्याशाHER1aluk :11
गयाधाय सरातीहॉशोऽवधतामष्टिमनसशसंसाकविशतिवामानायवनिकासोझाबविवाश्वारुमतछामिनहाय साकिंमाशयमामायाप्रसंमपीयूषधार्थकता किंवादपरायणनियमितंकिंधामममिकिंधावाधाकवस्तमिदंकि वापशनिधीत:ESवारवामांपश्यनवयामिक्षायदातपूजादोश्नःनिधिक्मिमितथागतामाद्वामार्फमश्य मखापयतिकरसशक्षालावादविवशकाविरमlauoorकंकदा-कदारापरवयसपगनामिशियागिरिशाषनाघा सरुवासश्सफरमानावावळिग्यासबाबधानथावादियञ्चसुधगावठयावाठामादसारखापालायविनायर शापधनाननिखलिभाजिशगंगावगकणगाकर जानाविद्याधश मिसयाशिवामाशिाळाशानिकिदि मयताप्रलयंगतानिाथमादमानपशपिंडरतामाणिक्षामा श्रीमानिपतमिधागांसामिदिवासिम दानियधुश्मकश्याहमिथाधिशगवत्यं
संघरणिधरयादेशपिछताशारारकाधाकिश्किलप्तक सभिवपालाहविज्ञहहरभूपतिछत्तववार साहारवेशग्यधामनामशतकसमाप्ताश्री संवयवाईमाधा१४ाधानतिष्ठयावामगधिना विना शिवबाश्रमसंघस्य18 (श्रणी प्रश्नावराणां नदविगलितनामवार्मसुकीदतााष्ट्रालाकपालातिपनिवसनिविशतिसईनानिमिवन्मामा
पाहाजिlaलवाररा निकालाततवनरक्रमगलितंलाका १ सयदविका का स्थ: मिसिनःमागग विचालिगवानवमाधवधरमतर नवा अलि बावखदेवादमा हरियानाविमानिध्ययावामनपंचाविषनाशाबाधाय दशनायधमंशभयिनाविवविद्यम्यरुपकारक्षरयसिमनारामारमिम्पमाजिक्यस्यरसबदतरंकजलाराममायाम्पत्रागरबखेरमाणिकरखनावदारण्यपात्मा भमाशतसमकलिकायानधारुकवतिकमासनबराबमाखननमाकिंक्मिागाकारकिरलंकमलनयाबसलेलबारबलिमोरयाबारे भनाध्यमानामाभिकानिदनराधियोरदारतावननिरमवकम्य नरामरवतमाम बियामचचिमट्यायदानप्रवकेशवकन्कनासमभावरेमात
वि० सं० १५०० में प्रतिष्ठासोम गणिकी लिखी हुई प्रतिके पत्र
(मुनिवर श्रीपुण्यविजयजीके शास्त्रसंग्रहसे प्राप्त)
Page #19
--------------------------------------------------------------------------
________________
सिंघी जैन ग्रन्थमाला - भर्तहरिशतकत्रय सटीक ।
मायाचनापाटावासमा दिदिबाशययाक्षिदायरातियाविसवाहिनीयापारवाऽपिसक्षमशाखासागालामंगलमावानासी
विशयमयुक्तपंचावास्यरायणाशीबागविमाधारमनियंदमहात्मलियापनवाईतंयमतीमारदीकधिमारदश्रिीमक्षिराव्याख्या विश्वायद
तानसदवाणिधानसमाभाविधानमतीदवतमंस्मरणविधानपतिविरविरशियनीतिमागायनावनाविवकशिनकविद्यार्थम प्राणकिारयज्ञदादाविवरणपवावयमभारताश्सादाचावयिष्यामिविद्यायाचितयामिसन शायमाविरक्कामायाप्रमिसनमानाम्या सहायातमरितिकारिदम्याधिमतावताचमनवमाद्यमावाश्वशवादाविद्यमाथिन्नामि रक्षारामंडलासामवामानाममा KALAसमासीlndlayारकरकालवावमलसूलपाडगामतनतत्कदमुपादाकनिकामामा व्याजावादाशनाक्षमावाचविधानामत स्यमानीaफलमिटकमबकियाकिनाराहशालामामाशिवाइफलानिबश्नत्यएिमतिपनितामाक्षिामएतदसतफलाता निशराज्ञाबमाधाविश्वातालवयानमयादिवासकासमाय वाटीकविंगदिमानवखण्यावालामत्यदायममरनाखाकारमा हिताहिकफलामनमकश्विानरामारामबदमव्यायजिनियर
ऊरामरीकरणफलमिदापयाचिंतितामयारामम्मकता रियामाद्धिमेaिshimalसरावामाधामायनशासी तिगजीवनराआनमधारणाबानाशिसहित्यिहागत्या चित्रवराहाकिमफलारा कायारामूरफलम्यमादमानमरायपुरविनारमधिपायमानाधिकादास्वमनसिथितितंबाखाटामा डिवितिनमापिकश्चिस्वाचामानारतियादवारकासाकडावामिममपष्टमहादविराज्ञीशगावामिविवशतकाम्पलामिवाधियfatal दादामिकाढलासावधक्षितारापदक्षतयायामामानाममानसिनाढामामाणिवाननाकाविधिशाततदाबंकछकागझिायरियाधातारस्य दवावस्थापिक्सादासिकावनीवतास्पदसतयारणावमासयतिमादामयिडरकलादिन्या वित्याकसमुहारात विमतिकाबतितयाचनाशाकराया। लंघदवाराजाधितरफलथिलाक्यवासासमध्यशक्षस्याकानदवामदाप्रत्याग्राहाणसायासत्याबाबमावामन्यापासारवासापिसावधा डायनापमहाराणदायरमाईमावादमामाजासातारातालामत्पराजीसमापंतत्फलययावातयामन्मनालायपरस्मरंगकाबन
दिवामितमयाजकिदामध्यसमाविरसयातरमचानाबावामधराटासंसारस्यचिल्लसितायामसततनियनmen शिवलिवियामिगणयामिासामयिविधादाविरकामताडनप्रतियोतारंबाबविमापाताराध्यामाकाबतिदासीरातावश्यकाविमिन्या
HDमनाशवनारानकारयात्मनदासमपटिHिINEMAmwakarमाविमासमानाकामा निस्माना ਵਰਖ
घविकल्यक्तिरसयतमलिनिशकरमन समाचनःशकरमण्यवभिलविनियमनपातशाखा विचास्वागलापानमध्यजस्ता खांशावामानाविचारण्यापन अनालिंगमनानिहनावारसकाव्याकावका निभवावलंशनानारसकामानिनिकटस्यतन नरसि संगमन निरनिराधविकाल्पविशनिस्सानिराकानिसवायाचिकल्पानीविनायविखारायस्पतजम्मपविधमनवाकरवावति तिमाहाकोष्टतायस्थविराम्पशासकास्यसमाजामाबा ध्यायधनायगगनलिवदननामाकामयसाशिवध
मसिस्वयंधतयारसवाधिकधारमपनपत्रानकायणासदाभियिकादधख्यमगरिमागरिजाज्ञयादबूढानिमायणाति सरकाशसंलगगमायणमश्रिीककम्मनिरपरशुमवारिधिमाश्यीदवयमसमरचितपादपमानासायग्निरवरिषधितावदान सिधाखण्यायसवाविमास्थावधानियास्यासरनिस्व -विवारसासमति:कलकाशीविक्रमाकविरवबरनाकुवई पशवधयक्षपदायायधारतिरम्याडीमातालमरवर SHI
वरमविशाऊश्री डिविशिमहामदिमानिधानाध्यामिहमति पदपकड़ा गाजमशज्यप्रसादधवलायतसत्यवासामग्री
नहरकानवानी मोयाबादस्यसदितावनमारमा वियणादायकलितनारयाकदाचितमादित्यलगायादधाययाविरुद्धासंदर्शविदाधयामिल्स उसावादादिविक्षिपरिम धावामदास्याप्रसादस्वान कवटामदायियावनिमयनारधिगमस्यातासारतीसगवतीसतसांस्मरामिटशीमहासरपियंदानविहिन घसादान ययावतसरगरिनिराधारभुवमंडलममलामतदानातिनावहिदिवानंहाहामायधनगिरीनामानिारयणमा -मस्याकी निकावितामयचक्रांतताकिंदमानमधवाधीमतिनताकिकापानवासनकिमितममलेनराहकलेतनःकिाएका नाविनाकिनारामा गिमाराकाभिरकामा किरिकाधीशरवतःकिंगावरावातावातावान्ता किशटाहकमरीकासमधनिना 15जनवाश्यानिधागमिष्याणाधिननाययावायाावसिाकानवालमानखाक्षसखवानवामिनिद्रामामानामगिक विसबहानामशतमा प्रधानास्वाधनिवाराएतरपश्चान श्रीयमायाANE
अमन
भर्तहरिशतकत्रयकी धनसारगणीकृत टीकाकी प्रतिके आद्यन्त पत्र (बडौदास्थित-पूज्यपादश्री हंसविजयजी जैन शास्त्रसंग्रहसे प्राप्त)
Page #20
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक आजसे प्रायः १० वर्ष पहले, सिंघी जैन ग्रन्थमालाके २३ वें मणिके रूप में, महाकवि भर्तहरि विरचित शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह नामका ग्रन्थ, जो श्रीयुत प्रो० कोसंबीद्वारा संपादित हुआ है, उसके प्रास्ताविक वक्तव्यमें मैंने यह निर्देश किया था कि-'भर्तृहरिकी इस अत्यन्त लोकप्रिय रचना पर जितनी संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हो रहीं हैं उन सबमें जो पुरानी टीका है वह जैन विद्वान् धनसार गणिकी बनाई हुई है और वह टीका प्रो० कोसंबी द्वारा ही संपादित होकर इसी सिंघी जैन ग्रन्थमालाके एक मणिके रूपमें शीघ्र ही प्रकाशित करनेका हमारा प्रयत्न चल रहा है ।' इत्यादि । वही धनसारगणिरचित संस्कृतटीकायुक्त यह शतकत्रय आज पाठकोंके कर-कमलमें स्थित है।
प्रो० कोसंबी भर्तृहरिके शतकत्रयके विषयमें अनेक वर्षांसे गंभीर संशोधनात्मक जो कार्य कर रहे हैं, इसका सर्वप्रथम कुछ प्रारंभिक परिचय, इनके द्वारा संपादित एक अज्ञात विद्वत्कर्तृक व्याख्या जो भारतीय विद्या ग्रन्थावलिमें (सन् १९४६ में) हमने, प्रकाशित की थी, उसके प्रास्ताविक वक्तव्यमें (ठीक आज से १३ वर्ष पहलेकी श्रावणी पूर्णिमाके दिन) दिया था । बादमें, इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा जो उपर्युक्त ग्रन्थ (सन् १९४८ में) प्रकाशित किया गया उसके प्रास्ताविकमें भी कुछ और विशेष रूपसे उल्लेख किया गया है।
भर्तृहरिकी इस सुप्रसिद्ध रचनाके विषयमें प्रो० कोसंबीने, अपने संशोधनात्मक अध्ययनके फलखरूप, जो निष्कर्ष निकाला है उसके विषयमें इन्होंने, इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित, उपर्युक्त ग्रन्थकी प्रस्तावनामें विशिष्ट रूपसे आलेखन किया है । तदुपरान्त, कुछ फुटकल लेख भी इम्होंने 'बॉम्बे ब्रांच रोयल एसियाटिक सोसाइटी' एवं 'भारतीय विद्या' आदि जर्नलोंमें प्रकाशित कराये हैं।
प्रस्तुत पुस्तकमें, प्रथम वार मुद्रित, धनसारगणिकी इस प्राचीनतम एवं जैन टीकाका संपादन हमारी ही प्रेरणासे प्रो० कोसंबीने किया है। इसके संपादनमें जिन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है उसका निर्देश, श्री कोसंबीने अपनी संक्षिप्त 'प्रीफेस' में कर दिया है । अनेक कारणोंके निमित्त, इसका प्रकाशन, जैसा सोचा गया था उतना शीघ्र नहीं हो सका । सन् १९५० के प्रारंभसे ही हमारा निवास बंबईमें कम रहा और हमारी प्रेरणासे राजस्थान सरकारने, जयपुरमें राजस्थान प्राच्यतत्त्वान्वेषण मन्दिर (राजस्थान ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीटयूट ) की स्थापना की, जिसके कार्यका संचालन करनेके लिये, हमें वारंवार जयपुरमें जाना-आना अनिवार्य हो गया । इस नूतन इन्स्टीट्यूट द्वारा भी हमने 'भारतीय विद्या ग्रन्थावलि' एवं 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के समान ही, एक विशिष्ट कोटिकी राजस्थान
१ इन दोनों प्रास्ताविक वक्तव्योंका सार मी, हम इसके साथ, इन पृष्ठोंके बाद क्रमशः अङ्कित कर रहे हैं, जिससे पाठकोंको इस विषयका ठीक-ठीक परिचय प्राप्त हो सकेगा।
Page #21
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम् पुरातन ग्रन्थमालाका प्रकाशन कार्य मी प्रारंभ किया और इसमें प्रकट करने योग्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी आदि भाषाओंके विविध ग्रन्थोंके संशोधन, संपादन, मुद्रण
आदि कार्य चालू किये। इससे सिंघी जैन ग्रन्थमालाके काममें कुछ मन्दता रही । बीचमें हमारा विचार इस टीकाको 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' द्वारा प्रकट करनेका हुआ । क्यों कि, यह टीका राजस्थानके सुप्रसिद्ध पुरातन शहर जोधपुरमें रची गई थी और पं० धनसारगणी एक राजस्थानी विद्वान् थे इसलिये राजस्थान सरकार द्वारा इसका प्रकाशन बहुत समुचित लगा। इस दृष्टिसे हमने अजमेरके एक प्रेसमें सन् १९५१ में ही इसका मुद्रण कार्य भी चालू करा दिया । परन्तु उस प्रेसकी व्यवस्था बहुत काल तक अनिश्चित और अव्यवस्थित रहनेसे, इसका मुद्रणकार्य स्थगितसा ही रहा । अन्तमें हमारा विचार इसको बंबईके सुप्रसिद्ध और सुन्दर काम करनेवाले निर्णयसागर प्रेसमें छपानेका, एवं पूर्व संकल्पानुसार, इसी सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा ही इसे प्रकट करनेका स्थिर हुआ ।
प्रो० कोसंबी एक आन्तरराष्ट्रीयविख्यातिप्राप्त विशिष्ट विद्वान् हैं और इनको यूरोप, अमेरिका, एशिया आदिके अनेक देशोंसे एवं राज्योंसे व्याख्यानादि देनेके लिये आमन्त्रण मिलते रहते हैं और तदर्थ इनको समय समय पर विदेशों में आने-जानेका प्रसंग आता रहता है। अतः इस ग्रन्थके ग्रुफसंशोधन आदिके संपादन कार्यमें इनको यथेष्ट समय प्राप्त करना कठिन जान कर इसकी सारी व्यवस्था हमने अपने निरीक्षणमें की है।
टीकाकार धनसागरगणी जैन श्वेताम्बर संप्रदायके ऊकेशगच्छीय विद्वान् यति थे । माना जाता है कि राजस्थानमें जितने जैन यतियोंके संप्रदाय उत्पन्न हुए उन सबमें ऊकेशगच्छ अधिक पुराना है। जोधपुर विभागके वर्तमान ओसिया नामक स्थानका प्राचीन नाम ऊकेश या उपकेशपुर था और इसी पुरसे उस ऊकेश या उपकेशगच्छका प्रादुर्भाव हुआ। राजस्थानकी सबसे प्रधान और प्रतिष्ठित वैश्य जाति जो ओसवालके नामसे विख्यात है, वह इसी ओसिया अर्थात् ऊकेशपुरके नामसे विख्यात हुई है। ओसवाल जातिका मूल उत्पत्तिस्थान ऊकेशपुर है। इस ओसवाल जातिका जो विशिष्ट धर्मोपदेशक जैन गुरुसंप्रदाय है उसका नाम ऊकेश या उपकेशगच्छ है। विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके पूर्व भागमें इस गच्छके मुख्य आचार्य देवगुप्तसूरि थे। इस गच्छकी गुरुपरंपरा बतानेवाली एक पट्टावलिमें लिखा है कि देवगुप्तसूरिके आचार्यपदारोहणका महोत्सव संवत् १५२८ में जोधपुर नगरमें, श्रेष्ठीगोत्रवाले मन्त्री जयतागरने किया था। इन्ही आचार्यने उस समय अपने शिष्यसमूहमेंसे पांच विद्वानोंको पाठक पद अर्थात् उपाध्याय पद समर्पित किया था । उनमें प्रथम धनसार थे। धनसारने प्रस्तुत भर्तृहरिशतकत्रयी व्याख्या वि० सं० १५३५ में, उसी जोधपुरमें बनायी थी और इसकी प्रशस्तिमें, जोधपुरके तत्कालीन राजा सातलका नाम और उसके मंत्री जैत्रका नाम दिया गया है जो पट्टावलिके कथनका सर्वथा समर्थन करता है । धनसारके दीक्षागुरु शायद सिद्धसूरि थे जो देवगुप्तसूरिके बाद मुख्य पद्धर आचार्य बने थे।
Page #22
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक धनसारगणिकी अन्य साहित्यिक कृतियोंके बारेमें अभीतक कुछ ज्ञात नहीं हुआ। पर उस समयके इस गच्छानुयायी अन्यान्य कई यतिजनोंकी संस्कृत एवं प्राचीन राजस्थानीमें ग्रथित अनेक रचनाएँ उपलब्ध होती हैं, इससे ज्ञात होता है कि धनसारगणिकी भी कुछ अन्य संस्कृत, राजस्थानी रचनाएं रहीं होनी चाहिये ।
धनसारगणि अपनी इस टीका- व्याख्याको नवीन टीका कहते हैं (प्रशस्तिका पद्य ५) इससे यह नहीं सूचित होता कि इस रचना पर उनसे पहलेकी भी कोई टीका थी या नहीं। पर अभीतककी खोजसे तो यही ज्ञात होता है कि इस शतकत्रय पर सबसे पहली टीका धनसारकी ही प्राप्त हो रही है। संभव है कि कुछ अवचूरिका-जैसी संक्षिप्त टिप्पणात्मक व्याख्याएँ इनके सामने विद्यमान रही हों और उनको देख कर इनने यह सरल और कुछ विस्तृत व्याख्या रचनेका प्रयन किया हो और इसलिये इनने अपनी इस व्याख्याको नवीन टीकाके रूपमें उल्लिखित किया हो।
धनसार गणिकी यह टीका एक प्रकारसे प्राथमिक अभ्यासियोंकी दृष्टिसे लिखी गई मालूम देती है। इसमें किसी प्रकारका पाण्डित्य या अर्थविस्तार बतानेका कोई प्रयत्न नहीं किया गया। व्याख्याकी भाषा बहुत ही सरल है और अल्पसंस्कृतज्ञोंकी समझमें भी सहज आ सके-ऐसी शैलीका इसमें प्रयोग किया गया है। व्याकरण या कोशके उद्धरण देनेका कोई खास प्रयत्न नहीं किया गया । कहीं कहीं शैलीका शैथिल्य भी मालूम देता है और पूर्वापर विसंगतिका भी कुछ आभास होता है। इससे मालूम देता है कि शायद इसका प्रथमादर्श बनने के बाद उसे ठीकसे संशोधन करनेका प्रसंग व्याख्याकारको नहीं प्राप्त हुआ है। अपने शिष्योंको भर्तृहरिके इन सुभाषितोंका पाठ पढाते समय, जिन वाक्यों और पदविशेषोंका अर्थस्फोट करना उनको आवश्यक लगा वहां वैसा अर्थस्फोट उन्होंने कर दिया। इस अर्थको समझानेके लिये उनने कई जगह ऐसे शब्दोंका भी प्रयोग किया है जो संस्कृतकी शिष्ट शैलीमें व्यवहृत नहीं होते। देशी भाषाके शब्दोंको ही संस्कृतका वेष पहना कर, उन्हें संस्कृतकी पंक्तिमें समान रूपसे बिठानेका प्रयोग किया है। मध्य कालके जैन विद्वानोंमें यह शैली बहुत प्रचलित और प्रसिद्ध रही है। प्राकृत और देशी भाषाके सैकडों ही अपभ्रंश शब्दोंको संस्कृत भाषाका पुट दे कर उनको संस्कारसंपन्न बनाया और अपनी साहित्यिक रचनाओंमें उनका समादर किया । संस्कृत जो केवल विशिष्ट पठित जनोंके जानने योग्य एवं दुर्बोध भाषा मानी जाती है उसे आबाल-गोपाल जनोंको भी सरलता-पूर्वक समझने-समझानेके लिये और सामान्य एवं अपठित जनताकी भी ज्ञानवृद्धि और वाणीशुद्धि करने-करानेकी दृष्टिसे, जैन विद्वानोंने संस्कृतका बहुत विस्तार और परिष्कार किया है। शुद्ध-संस्कृताभिमानी पण्डितोंकी दृष्टि में यह शैली भ्रष्टात्मक और अपपाठके रूपमें भी गृहीत होती है । पर उनको भाषाविज्ञान और भाषाविकासके सिद्धान्तों का किंचित् भी परिज्ञान नहीं होनेके कारण इस शैलीके महत्त्व और उपयोगका वे मूल्यांकन करनेमें सर्वथा असमर्थ होते हैं। ये विद्वान् धनसारगणिकी इस टीकामें ऐसे अनेक शब्दोंको
Page #23
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् देख कर कहेंगे कि यह तो भ्रष्ट शब्द है, यह तो व्याकरणविसंगत अपपाठ है-इत्यादि । पर हमारी दृष्टिमें धनसारकी रचनाका इसी दृष्टिसे कुछ विशेष महत्त्व है । वे अपने शिष्योंको और अपने श्रोताओंको संस्कृतके शिष्ट और क्लिष्ट शब्दोंका, अधिक सरलताके साथ अर्थावबोध करानेके लिये, कई लोकप्रचलित देश्य शब्दों और उक्तियोंका संस्कृतीकरण करके उनका प्रयोग करते हैं।
भर्तृहरिने एक जगह (नीतिशतक, पद्य २१ में ) कहा है कि-'कृषिः अनवेक्षणात् नश्यति' । इसकी व्याख्या पाण्डित्यपूर्णशैलीमें तो होगी कि-'कृषिः सस्य अनवेक्षणात् नित्यमपरामन्निश्यति' । धनसारको 'अनवेक्षणात' का सीधा पर्याय शब्द, जो लोकमुंह पर चढ़ा हुआ रहता है, वह 'असंभालनात्' शब्द याद आ गया और उसीको यहाँ रख दिया। पण्डितों को तो यह 'असंभालनात्' शब्द बिल्कुल असंस्कृत लगेगा-पर धनसारको वही अधिक उपयुक्त अर्थवाला शब्द प्रतीत हुआ, अतः इसका प्रयोग उन्होंने कर दिया। इसी तरह 'कर्करकण्टकाकुला' (पृ. ९) 'धूलिकचवरादिव्याप्तम्' (पृ. १५) 'कचवरपुंजम्' (पृ. ४०) 'व्यजनपवन:पक्षकवातः' (पृ. ७५) 'पूतिक्किन्नः पिरुखरण्टितः' (पृ. ८७) 'न परित्यजन्ति केटकं न मुश्चन्ति' (पृ. ८७) आदि शब्दप्रयोग किये गये हैं। जो लोकोक्तिके सीधे संस्कृतीकरण हैं। इन शब्दोंके बदले उनको संस्कृतके रूढ शब्दप्रयोग ज्ञात नहीं थे सो बात नहीं है, परन्तु उनका लक्ष्य लोकप्रचलित सहजबोधगम्य शब्दप्रयोग करनेकी ओर रहा । अतः उनने ऐसे शब्दोंका प्रयोग करना समुचित समझा। 'वा' शब्दका प्रतिशब्द संस्कृतमें 'शुनक' और 'सारमेय' बहुत रूढ है पर उनने इनके साथ साथ कहीं 'भषण' और 'कुर्कुर' जैसे लोकरूढ प्रचलित शब्दोंको भी इसमें स्थान दे दिया है । 'व्यजन' का प्रतिशब्द 'तालवृन्त' भी दिया और लोकरूढ़ 'पंखेका पवन' इस देश्यशब्दार्थवाला 'पक्षकवातः' ऐसा प्रतिशब्द भी दे दिया है । 'कुल्यायते' का 'नीकायते' पर्याय दे कर लोकप्रचलित 'पानीकी नीक' का प्रयोग कर दिया। इसी तरह 'परितर्कयन्ती हेरयन्ती' 'चिन्वन्-चुण्टन्' 'प्रध्वंसं न व्रजति-स्फेटयितुं न शक्यते' इत्यादि ऐसे कई शब्दप्रयोग किये गये मिलते हैं। जिन पाठकोंको प्राचीन राजस्थानी-गुजराती भाषाका परिचय होगा वे इन शब्दोंका प्रयोग बहुत ही उपयुक्त एवं अर्थद्योतक हुआ है ऐसा तुरन्त समझ सकेंगे।
ऐसा मालूम देता है कि भर्तृहरिकी यह सुन्दर और सारभूत रचना जैन विद्वानोंको बहुत प्राचीन कालसे ही विशेष प्रिय रही है । इस रचनाकी, जैन विद्वानों द्वारा लिखी गयीं सुन्दर हस्तलिखित प्रतियाँ, जितनी जैन भंडारोंमें मिलती हैं उतनी अन्यत्र नहीं मिलती। सबसे प्राचीनतम मानी जा सके ऐसी दो प्रतियोंके चित्र भी इसके साथ प्रकळ किये जा रहे हैं।
प्राचीन राजस्थानी गुजराती भाषामें भी इसके अनुवाद और भावार्थ कई विद्वानोंने लिखे हैं।
Page #24
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक
इस रचना के प्रति जैन विद्वानोंका इतना आकर्षण होनेका कारण, इसमें प्रतिपादित सुन्दर उपदेशात्मक विचार और सर्वसामान्य हितोपदेशक नीतिसिद्धान्त हैं । जिस प्रकारके नैतिक और वैराग्यात्मक विचारोंका इसमें प्रतिपादन किया गया है वे सब प्रायः जैन विचारोंके साथ बहुत कुछ समानता रखते हैं। यदि इसमें शिवकी महिमा और शैव भावके आदर्शभूत कुछ उङ्गार न हों, तो यह संपूर्ण रचना किसी जैन विद्वान्की ही मानी जाय ऐसी लगती है । इसके अनुकरणरूप- सोमशतक, धनदत्रिशती, कर्पूरप्रकर, वैराग्यशतक आदि कितनी ही रचनाएं जैन विद्वानोंने की हैं। जैन यति-साधु - वर्ग प्रायः इसके पद्योंको कण्ठस्थ करते रहते हैं और अपने उपदेशात्मक व्याख्यानोंमें उनका वारंवार उपयोग करते रहते हैं। मैंने स्वयं अपने प्रारंभिक जीवनकालमें इसके अनेक पद्य कण्ठस्थ कर लिये थे और ये मुझे बड़े प्रिय लगते रहे हैं। आज भी मुझे इसके अनेक पद्य उतने ही हृदयंगम लगते हैं और 'गङ्गातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य' अथवा 'मही राय्या पृथ्वी विपुलमुपधानं भुजलता' एवं 'कौपीनं शतखण्डजर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी' इत्यादि पद्योंका स्मरण वारंवार होता रहता है और इनके पाठसे मनको एक प्रकारका आह्लादभाव प्राप्त होता रहता है । . यदि मुझसे कोई पूछे कि संस्कृतका सबसे अधिक प्रिय कवि मुझे कौन लगता है, तो मेरे मुखसे तुरन्त उत्तर मिलेगा कि 'महाकवि भर्तृहरि !' ।
भर्तृहरिके इन लोकप्रिय और पण्डितप्रिय सुभाषितों का उपयोग अनेक जैन ग्रन्थकारोंने अपने ग्रन्थोंमें किया है । इनमें जो सबसे प्राचीन उपयोग हमारे देखनेमें आया है वह वि० सं० ९१५ ( ई. स. ८५९) में बने हुए धर्मोपदेशमालाविवरण ( कर्त्ता जयसिंहसूरि ) में है । इस विवरणमें प्रस्तुत रचनायें उपलब्ध 'कृमिकुलचितं' (पृ. १० ) और 'भग्नाशस्य करण्ड' ( पृ. ११ ) ये पद्य प्रसंगवश उद्धृत किये गये हैं। इससे यह तो निश्चित ज्ञात होता है कि जैन विद्वानोंको कमसे कम विक्रमकी १० वीं शताब्दीके प्रारंभसे ही भर्तृहरिकी इस रचनाका परिचय रहा है ।
संस्कृतके हजारों ही ग्रन्थकारों और कवियोंकी तरह, भर्तृहरिके समय और स्थान आदि विषयमें भी कोई असंदिग्ध एवं निश्चायक प्रमाण अभीतक उपलब्ध नहीं है । विक्रमकी - १४वीं शताब्दीके उत्तर भागमें (वि. सं. १३६१ ) जैन विद्वान् मेरुतुङ्गसूरिने प्रबन्धचिन्ता
भर्तृहरिके कुछ पद्योंका शब्दान्तरके रूपमें भी जैन ग्रन्थोंमें उद्धरण दृष्टिगोचर होते हैं । प्रस्तुत आवृत्तिके नीतिशतकगत 'दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने' (पृ. ३५ ) इस पद्यका केवल शब्दान्तरके रूपमें अविकल भाव बतानेवाला निम्न पद्य, जिनदत्ताख्यान नामक प्राकृतरचनामें उद्धृत है ।
•
माधुर्यं प्रमदाजने सुललितं दाक्षिण्यमार्ये जने, शौर्य शत्रुषु मार्दवं गुरुजने धर्मिष्ठता साधुषु । मर्मज्ञेष्वनुवर्तनं बहुविधं मानं जने गर्विते, शाठ्यं पापजने नरस्य कथितं पर्याप्तमष्टौ गुणाः ॥
( सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २७, पृ. ५८ )
Page #25
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् मणि नामक जो ग्रन्थ बनाया है उसमें भर्तृहरिकी उत्पत्ति बतानेवाला एक प्रबन्ध मिलता है। इसमें लिखा है कि उज्जयिनीमें पाणिनीय व्याकरणका अध्यापक कोई ब्राह्मण विद्वान् था। जिसको एक वेश्याकी कृपासे राजदरबारमें बडा सम्मान प्राप्त हुआ था। उस ब्राह्मण उपाध्यायके ४ वर्णोंकी ४ स्त्रियाँ थीं। जिनमें से क्षत्रिय जातिकी स्त्रीसे तो विक्रमार्कका जन्म हुआ और शूद्रजातिकी पत्नीसे भर्तृहरिका जन्म हुआ। वही भर्तृहरि विद्याध्ययन करनेके बाद कवि हुआ और उसने वैराग्यशतक-आदि बहुतसे प्रबन्धोंकी रचना की । इत्यादि।
इस तरहके कुछ और भी उल्लेख भर्तृहरिके बारेमें मिलते हैं पर उनमें कोई ऐतिहासिक तथ्यताका प्रमाण नहीं मिलता। वाक्यपदीय नामक संस्कृतव्याकरणविषयक एक विशिष्ट प्रकारका प्राचीन ग्रन्थ मिलता है जिसके कर्ताका नाम भी भर्तृहरि है । पर वह भर्तृहरि और इस शतकत्रयके कर्ता भर्तृहरि दोनों एक ही व्यक्ति हैं इसके बारेमें विद्वानोंको सन्देह है। नाथसंप्रदायमें योगीन्द्रके नामसे प्रसिद्ध एक अन्य भर्तृहरिका वर्णन भी पिछले साहित्यमें मिलता है और कई विद्वानोंका खयाल है कि वही योगीन्द्र भर्तृहरि शतकत्रयके कर्ता हैं । इस रचनाके साथ कुछ पुरानी प्रतियोंमें ऐसा लिखा हुआ भी मिलता है । पर इन सब किंवदन्तियोंसे कोई विश्वसनीय तथ्य प्राप्त नहीं होता ।
प्रस्तुत व्याख्याकारने 'यां चिन्तयामि सततं' इस आदि पदवाले प्रथम ही पद्यकी व्याख्याके आरंभमें, प्रस्तुत पद्यका भावार्थ समझानेकी दृष्टिसे भर्तृहरिकी जो कथा दी है वह कुछ अवश्य हृदयंगम-सी मालूम देती है। यह कथा कुछ अन्य ग्रन्थोंमें भी मिलती है । जिस पद्यके भावार्थ को समझानेके लिये यह कथा कही गयी है, उस पद्यंका कुछ रहस्य तो अवश्य है ही । विना किसी प्रकारके कथानकात्मक रहस्यसंकेतके, इस पद्यका कोई खास भावार्थ नहीं निकलता यह तो स्पष्ट ही है। अतः इस पद्यका कोई ऐतिहासिक रहस्य अवश्य होना चाहिये। इस दृष्टिसे धनसारगणिने जो अपनी व्याख्याके प्रारंभमें भर्तृहरिकी कथा दी है उसमें कुछ तथ्य होना चाहिये ऐसा तो हमें प्रतीत होता है। इस कथाके रहस्यकी दृष्टिसे यदि प्रस्तुत शतकत्रयके कर्ताके मानसिक और आध्यात्मिक भावका ऊहापोह किया जाय तो उसके आन्तरिक जीवनके विषयमें बहुत कुछ सारभूत विचार ज्ञात हो सकते हैं।
प्रो० कोसंबीका तो खयाल है कि भर्तृहरि कोई दुःखी एवं दरिद्र ब्राह्मण होना चाहिये। समाजमें जिसको सुखी या भोगी जीवन कहते हैं वैसा जीवन उसे प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिये उसके सब उद्गार उस खिन्नात्मक भावको लक्ष्य कर प्रगट हुए हैं । वह बहुश्रुत विद्वान् एवं प्रतिभाशाली कवि था । संस्कृत भाषा पर उसका प्रभुत्व था। उस समयके सामन्ती जीवन और धनिक व्यवहारकी अवहेलनासे वह उद्विग्न हो कर निर्वेदभावापन्न हो गया था । इत्यादि ।
१ देखो-सिंघी जैन ग्रंथमालामें प्रकाशित, प्रबन्धचिन्तामणि, मूलसंस्कृत, पृ. १२१; तथा हिन्दीभाषान्तर।
Page #26
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक । पर हमारे खयालसे वैसा नहीं मालूम देता । शतकत्रयके समस्त भावों और उद्गारोंका यदि निष्कर्ष निकाला जाय, तो उससे इस चित्रका आभास होता है कि ये उद्गार किसी ऐसे व्यक्तिके हैं जो भुक्तभोगी हो कर जीवनके पिछले भागमें निष्काम-विरक्त बन गया है। वह व्यक्ति राजा या राजाधिराज तो नहीं, पर अच्छे ऊँचे दर्जेवाला सामन्त जरूर होना चाहिये । उस समयके सामन्ती-जीवनके विलासमय भोगोंका उसने अच्छा अनुभव किया था। स्त्रियां और वाराङ्गनाएँ उसके सांसारिक सुखोंका मुख्य अंग रही हैं । इसलिये उसको नारीजीवनके विविध प्रकारके कुटिल और कलुषित खभावोंका अच्छा अनुभव है। वह सामन्त होनेसे राजाओंके चंचल स्वभाव और चरित्र हीन जनोंके कुत्सित संपर्कका अच्छा ज्ञाता है । धनिक व्यक्तियोंके और उनके खुशामदियोंके व्यवहारोंका वह मर्मज्ञ है । समाजमें सबसे बडी प्रतिष्ठा धनकी और धनवानोंकी रहती है, यह उसका दृढ मत रहा है। यद्यपि विद्याधनका वह बहुत महत्त्व समझता है और विद्याको लक्ष्मीसे अधिक उच्च पद भी देता है; पर विद्यावानोंको भी प्रायः लक्ष्मीभक्तोंके मुखापेक्षी होना पडता है यह उसका सुस्पष्ट कथन है । वह शास्त्र, सिद्धान्त, नीति एवं कलाओंका ज्ञाता और अध्येता है । उसका मनुष्यखभावविषयक दर्शन और प्रकृतिविषयक अवलोकन बहुत सूक्ष्म है। सद्गुणों और सद्विचारों पर उसका दृढ अनुराग है । जीवनके पिछले भागमें, सांसारिक सुखोंकी क्षणभङ्गुरताका अनुभव करते हुए उसे भोगमय जीवनसे सहज विरक्ति हो गयी है और वह विरक्तभाव द्वारा परम तत्त्वकी प्राप्तिमें अपने जीवनको लीन करनेवाली संन्यस्त दशामें मस्त हो कर, परब्रह्मकी खोज में घूमता रहा है । वह शिवका परम उपासक है और सतत 'शिव शिव' का जाप ही उसका ध्यानमंत्र है । वह शैव संप्रदायमें पूर्ण दीक्षित हुआ है और वह शिवके अर्धनारीश्वरखरूप पर मुग्ध है । पर उसका संपर्क जैनसंग्रदायके साथ गहरा मालूम देता है, और जैन सिद्धान्तोंका वह बहुत सद्भावपूर्वक आदर करता है। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और भूतदयावाले जैन सिद्धान्त उसे अच्छीतरह हृदयंगम हुए हैं। वह शिव और जिन – दोनोंको सर्वोत्कृष्ट देवत्व प्रदान करता है। उसके जीवनका यह चित्र उसके उद्गारोंसे बहुत ही स्पष्ट प्रतिभासित होता है।
उसके समय और स्थानके बारेमें कोई निश्चायक प्रमाण उपलब्ध नहीं है; पर जो किंवदन्तियां कथानकोंमें प्रथित हैं उनके आधार पर हमें ऐसा आभास होता है कि वह प्राचीन मालव या मरु प्रदेशमें हुआ होगा । उसकी रचनामें जो भावभंगी और भाषाशैली अंकित है वह इस प्रदेशकी परिस्थितिका प्रतिबिम्ब प्रकट करती है । मरुस्थल उसका बहुत निकटवर्ती प्रदेश ज्ञात होता है । वैराग्यशतकके ५ वें पद्यमें जो 'काणवराटक' शब्द प्रयोग हुआ है, वह इस प्रदेशमें बहुप्रचलित और आबाल-गोपालव्यवहृत 'काणी कोडी' या 'काणो कोड़ो इस लोकोक्तिका संस्कृतीकरण है। . इस कविका नाम 'भर्तृहरि' है या 'भर्तृहर' यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । यद्यपि मुद्रित पुस्तकोंमें तथा कई हस्तलिखित प्रतियोंमें 'भर्तृहरि' ऐसा नाम मिलता है पर अधिकतर
Page #27
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् प्राचीन प्रतियोंमें 'भर्तृहर' ऐसा नाम मिलता है । धनसार गणीने अपनी इस व्याख्यामें इसी नामका प्रयोग किया है । इस रचनाकी सबसे प्राचीन प्रति (लेखन संवत् १४६८) का जो अन्तिम पत्र मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजीके अनुग्रहसे प्राप्त हुआ है और जिसका हाफटोन चित्र इसके साथ संलग्न किया जा रहा है उसमें 'भर्तृहर' ऐसा ही नाम लिखा हुआ मिलता है । यह पत्र ब्राह्मण लेखकका लिखा हुआ है । जिसका नाम अनन्त व्यास है। इसके बादकी जो दूसरी प्राचीन प्रति प्राप्त होती है वह संवत् १५०० में लिखी गई है और उसके लिपिकर्ता स्वयं प्रतिष्ठासोमगणी नामक जैन विद्वान् हैं जो बडे विद्वान् और अच्छे ग्रन्थकार हो गये हैं। इस प्रतिके दो पत्रोंका चित्र भी इसके साथ संलग्न है। बादके अनेक अन्य टीका-टिप्पणों और बालावबोध नामक राजस्थानी गुजराती विवेचनोंमें भी इसी नामका अधिक प्रयोग किया गया मिलता है । अतः हमारा अभिमत इस नामके पक्षमें हो रहा है। ग्रन्थकार 'हर' शिवका परम उपासक है । अतः उसके नामका अन्त 'हर' शब्दसे अलंकृत हो यह विशेष युक्तिसंगत भी लगता है।
प्रो० कोसंबीने, यह टीका पूनाके भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट में सुरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रहकी प्रतियों परसे लिखवाई थी। वे प्रतियां प्रमाणमें कुछ अर्वाचीन और अशुद्धिबहुल थीं। फिर जिसने प्रतिलिपि की वह प्रतियोंकी लिपिको भी ठीक समझने वाला ज्ञात नहीं होता। उसने प्रतिलिपि करनेमें बहुत गडबड कर दी । प्रेस कॉपीको प्रेसमें छपनेके लिये दिये जानेके बाद जब प्रुफपत्र हमारे पास आये तो हमें इसका पता लगा। परंतु इस टीकाकी बहुत अच्छी एवं पुरानी प्रति जो हमें बडोदाके ज्ञानमन्दिरमें सुरक्षित श्रीमद्हंसविजयशास्त्रसंग्रहमें से मुनिवर श्री रमणिकविजयजीकी कृपासे प्राप्त हो गई, उसके आधारसे हमने इसका संशोधन ठीक करके इसे मुद्रित किया है। इस प्रतिके आद्यन्त पत्रोंके चित्र भी इसके साथ दिये जा रहे हैं । इन प्राचीन प्रतियोंकी प्राप्तिके लिये हम विद्वद्वर्य मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराज एवं पंन्यासजी श्री रमणिकविजयजी के बहुत कृतज्ञ हैं।
अनेकान्तविहार, अहमदाबाद
श्रावणी पूर्णिमा विक्रम संवत् २०१५-१६
मुनि जिनविजय -
Page #28
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट - १
भारतीयविद्याग्रन्थावलि - ग्रन्थाङ्क ९ - में प्रकाशित ‘भर्तृहरिशतकत्रयम्' का प्रधानसंपादकीय
स्वल्प वक्तव्य
।
भारतीय विद्या ग्रन्थावलिके ९ वें अंकके रूपमें मेरे प्रियमित्र प्रो० दामोदर कोसंबी द्वारा संपादित भर्तृहरिके सर्वविश्रुत और सर्वप्रिय सुभाषित पद्योंका यह सुन्दर ' शतकत्रय' प्रकट करते हुए मुझे बहुत आनन्द हो रहा है । संस्कृत भाषाका अल्प- खल्प परिज्ञान रखने वालेको भी भर्तृहरिके इन अतीव हृदयहारि और मधुरतम सूक्तोंका थोड़ा-बहुत परिचय अवश्य होता है । ऐसा कोई भी संस्कृतज्ञ नहीं होगा जिसको भर्तृहरिके इस सुभाषितसंग्रहमें का कोई न कोई पद्य या उसकी पदावलिके कुछ वाक्यखण्ड उसके कण्ठको अलंकृत न करते हों । कालिदासको छोड़ कर संस्कृत भाषाका सबसे अधिक लोकप्रिय जो कोई कवि है तो वह भर्तृहरि है । और कालिदासके काव्योंसे भी अधिक प्रचार भर्तृहरिके इन काव्य - मुक्तकोंका सारे भारतवर्षमें रहा है । इस कृतिकी ऐसी उत्कृष्ट लोकप्रियता के कारण इस पर संस्कृतमें और तत्तत् देशभाषाओंमें अनेक टीका-टिप्पण और विवेचन आदि लिखे गये हैं और युरोपकी भी प्रायः सभी प्रसिद्ध भाषाओंमें इसके अनुवादादि हुए हैं भारतमें और युरोपमें अद्यावधि इसके मूल ग्रन्थके तथा कुछ टीकाओं आदि के साथ भी अनेक प्रकाशन हो चुके हैं । परंतु इस बहुप्रिय और बहुव्यापी ग्रन्थका जिसे 'एक्झोस्टीव क्रिटिकल' कहा जाय वैसा संशोधन कर इसका प्रकाशन करनेका प्रयत्न अभीतक किसी विद्वान्ने नहीं किया । मुझे कहते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि प्रो० कोसंबीने यह महत्त्वका कार्य करनेका सदुद्योग आरंभ किया है और पिछले ३ वर्षोंसे वे इस ग्रन्थका सर्वांगीण परीक्षण और संशोधन आदि करनेमें दत्तचित्त हो रहे हैं । अपने इस संशोधनके परिणाममें इन्होंनें इतः पूर्व इस ग्रन्थकी विवेचना के विषयके अनेक मौलिक निबन्ध बॉम्बे युनिवर्सिटी जर्नल आदि सुप्रसिद्ध संशोधनात्मक जर्नलोंमें प्रकाशित किये हैं । प्रो० कोसंबीने अपने संशोधनात्मक कार्यके लिये दक्षिण और उत्तर भारतमेंसे इस ग्रन्थकी यथालभ्य पचासों हस्तलिखित पोथियाँ और इसकी अनेक ज्ञात-अज्ञात टीकायें उपलब्ध की हैं । मूल 'टेक्ष' का सूक्ष्म परीक्षण करनेके साथ साथ इन्होंने अभिनव उपलब्ध कुछ टीकाओंका भी संशोधन - संपादन करनेका उद्योग किया और उसके फलखरूप रामर्षि नामक विद्वानकी बनाई 1. हुई एक सरल संस्कृत व्याख्या पूनाकी 'आनन्दाश्रम ग्रन्थावलि' में गतवर्ष प्रकाशित कराई । प्रस्तुत आवृति के रूपमें यह एक ऐसी ही अन्य टीका प्रथम ही बार प्रकट हो रही है । टीकामें कर्ताने अपने परिचय विषयक किसी भी प्रकारका कोई उल्लेख नहीं किया है । इससे यह ज्ञात नहीं होता "है कि इसका रचयिता कौन है और कहां हुआ है । तथापि प्रो० कोसंबी अनुमान करते हैं कि इसकी रचनाशैलीसे ज्ञात होता है कि यह शायद कोई दाक्षिणात्य विद्वान् होगा । टीका
1
I
―
----
Page #29
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् बहुत सरल, सुबोध एवं सुगम्य पद्धतिसे लिखी गई है। इससे खल्पसंस्कृतज्ञ पढने वालोंको भी भर्तृहरिकी उत्तम उक्तियोंका अच्छी तरह आकलन हो सकेगा।
प्रो० कोसंबी एक सुप्रसिद्ध गणितविद्यापारंगत विद्वान् हैं । गणितशास्त्र ही इनका मुख्य अध्ययन और लेखनका विषय है । बंबईके टाटा फण्डामेंटल रीसर्च इन्स्टीट्यूह जैसे एक विशिष्ट और प्रतिष्ठित संस्थानमें प्रधान गणिताध्यापकका कार्य करते हुए उस विषयमें विशेषरूपसे ये अपने मौलिक संशोधन कर रहे हैं । तथापि इनका संस्कृत साहित्यके संशोधनसंपादन कार्यमें भी ऐसा ही प्रच्छन्न उत्साह और उद्योग चालू है यह देख कर मुझे अधिक आनन्द और आह्लाद उत्पन्न हो रहा है । यद्यपि मैं इनकी बाल्यावस्थासे ही इनके एक बड़ा बुद्धिमान् और प्रतिभासंपन्न ऐसे गणितज्ञ होनेकी कल्पना कर रहा था, परंतु संस्कृत साहित्यके प्रदेशमें, ये अपने जगप्रसिद्ध पालीपण्डित पिता, श्री धर्मानन्द कोसंबीसे भी अग्रगामी बननेका प्रयत्न करेंगे-ऐसी तो मुझे कल्पना भी नहीं हो सकी थी। यह मुझे तब मालूम हुआ जब पिछले वर्ष मेरे श्रद्धेय मित्र श्री धर्मानन्दजीने आ कर मुझसे कहा कि-"बाबा पिछले ३-४ वर्षोंसे भर्तृहरिके शतकत्रयकी एक विशिष्ठ 'क्रिटीकल टेक्ष' तैयार कर रहा है और उसके साथ ही उसकी कुछ अप्रसिद्ध टीकायें भी संपादित कर प्रकाशित करना चाहता है। यदि आप अपनी ग्रन्थमालामें उनको प्रकाशित करें तो बहुत उपयुक्त कार्य होगा । इत्यादि ।" मैंने बड़े उत्साहसे उनके कथनको तत्काल खीकार किया और प्रिय बाबाको म्येनुस्क्रीप्ट भेज देनेको लिखा । उसका प्रथम फल यह आज विद्वानोंके हाथमें है। इन्होंने भर्तृहरिके मूल ग्रन्थका जो क्रिटीकल संस्करण संपादित किया है वह इसके बाद प्रकट होनेके लिये प्रेसमें दिया जा चुका है। आशा है शीघ्र ही पाठकोंके हाथमें वह ग्रन्थ भी उपलब्ध होगा।
श्रावणी पूर्णिमा वि. सं. २००२ (ई. स. १९४६) भाण्डारकर रीसर्च इन्स्टीट्यूट
पूना
मुनि जिनविजय
Page #30
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिशिष्ट - २
सिंघी जैन ग्रन्थमालाके २३ वें मणिके रूप में प्रकाशित 'शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह ' नामक पुस्तकमें लिखित प्रधानसंपादकीय वक्तव्यरूप 'किंचित् प्रास्ताविक'
दो वर्ष पहले, (सन् १९४६ में ) भारतीय विद्याग्रन्थावलिके ग्रन्थांक ९ के रूपमें, प्रो० कोसंबीका संपादित किया हुआ 'भर्तृहरि शतकत्रय' का एक अज्ञातनामा दाक्षिणात्य विद्वान् की टीका साथका संस्करण, प्रकाशित किया गया है । इसके संपादकीय प्रास्ताविकमें मैंने प्रो० कोसंबी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थकी एक सुपरिष्कृत एवं सुसंपादित श्रेष्ठ आवृत्तिके थोड़े ही समय में प्रकाशित हो कर विज्ञ पाठकोंके हाथमें उपलब्ध होनेका जो निर्देश किया था – वही ग्रन्थरत्न प्रस्तुत सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ३३ वें मणिके रूपमें, अब विद्वानोंके करकमलमें उपस्थित किया जा रहा है ।
प्रो० कोसंबीके मनमें प्रस्तुत ग्रन्थका इस रूपमें, संपादन करनेकी प्रेरणा कैसे उत्पन्न हुई और किस तरह इन्होंने इस ग्रन्थकी सैकडों हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर तथा अद्यावधि मुद्रित आवृत्तियोंका निरीक्षण कर, यह सुपरिष्कृत एवं सुसंपादित संस्करण तैयार किया है, इसका संक्षिप्त परंतु रसिक वर्णन, जो इनने अपनी 'प्रिफेस' एवं 'इन्ट्रोडक्शन' में, सारभूत शब्दोंमें किया है वह स्वयं पाठकोंको प्रस्तुत संस्करणका यथेष्ट परिचय करानेमें पर्याप्त है ।
जैसा कि मैंने अपने उक्त ( भारतीय विद्याप्रन्थावलिमें प्रकाशित आवृत्तिके ) प्रास्ताविक वक्तव्यमें सूचित किया है- प्रो० कोसंबीका प्रधान एवं प्रियतर व्यासंग गणित विद्याके अध्ययन-अध्यापनविषयक है । ' ताता फण्डामेंटल रीसर्च इन्स्टीट्यूट' जैसी देशकी एक बहुत प्रतिष्ठित और गंभीर वैज्ञानिक गवेषणा करनेवाली विश्वविख्यात संस्थाके एक विशिष्ट अध्यापक और कार्यवाहक सदस्य हो कर, सारे भारतवर्षमें जो सुख्यातिप्राप्त ५-७ गणितविद्याविशेषज्ञ विद्वान् हैं, उनमें इनका स्थान है । इनके रीसर्चका मुख्य विषय गणित विज्ञान है । इस विषयमें इन्होंने जो कुछ मौलिक आविष्कार किये हैं उनने युरोप और अमेरिकाके विशिष्ट गणितज्ञोंका भी लक्ष्य आकर्षित किया है और इसी लिये अभी अभी युनोकी ओरसे भी इनको अमेरिका आनेका मानप्रद आमंत्रण दिया गया है ।
*
प्रो० कोसंबी, मेरे समानधर्मी और श्रद्धास्पद स्वर्गवासी परमप्रिय मित्र धर्मानन्दजीके सुयोग्य पुत्र हैं, इस लिये तो ये बालपन से ही मेरे एक बहुत ही निकटवर्ती आत्मीय जन जैसे हैं पर तदुपरान्त, इन्होंने अपने सरल विशिष्ट स्वभाव, सन्निष्ठा और उत्कट विद्यानुरागका 'परिचय दे कर मेरे हृदयमें और भी अधिक स्नेहाधिकार प्राप्त कर रखा है । इसके साथ जब मैंने इनके संस्कृत विद्यानुरागका भी वैसा ही उत्कट परिचय प्राप्त किया, जैसा इनका गणित
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
१४
विद्याके विषयमें है, तब तो इनके संबंध के मेरे हार्दिक और आत्मिक ममत्वभावका और भी प्रगाढ और प्रशस्ततर होना स्वाभाविक ही है । और इस लिये इनके विषयमें कुछ अधिक परिचयात्मक शब्द लिखनेमें मेरा मन संकोचका अनुभव करे यह भी आनुषंगिक है ।
मुझे यह उल्लेख करते हुए दुःख होता है कि मेरे परम मित्र श्री धर्मानन्दजी, जिन्होंने ही आकर, कोई ४ वर्ष पहले, मुझे अपने प्रिय पुत्र बाबाके भर्तृहरिके सुभाषित संग्रहका सुसंशोधित - सुसंपादित संस्करण के तैयार करनेमें व्यस्त रहनेकी सूचना दी थी और जिन्होंने ही बाबाके इस कामको अपनी इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करनेकी प्रेरणा की थी, वे आज इस लोकमें नहीं हैं और अपने पुत्रके संस्कृत-साहित्यविषयक कार्यका यह सुफल अपने चर्मचक्षुसे देखनेको उपस्थित नहीं हैं ।
दिवंगत श्री धर्मानन्दजीके विषयमें यह उल्लेख करते हुए मुझे उनके साथ के मेरे दीर्घकालीन स्नेहात्मक संबन्धकी पुण्यस्मृति मेरी आखोंके सामने आ कर खडी हो जाती है और मेरे हृदयको गद्गदित कर देती है ।
बौद्ध धर्मके सिद्धान्त और संधका सर्वप्रथम परिचय मुझे श्री धर्मानन्दजीके लेखों द्वारा ही प्राप्त हुआ था । उनकी लिखी हुई 'बौद्धधर्म आणि संघ' तथा 'बुद्धलीलासारसंग्रह' नामक दो मराठी पुस्तकें पढ़ कर मैंने अपनी तद्विषयक जिज्ञासा का आविर्भाव अनुभूत किया । प्रसंगवश, मनोरंजन कार्यालय द्वारा प्रकाशित उनका 'आत्मनिवेदन' मुझे पढनेको मिला और उसमें उनके क्रान्तिमय जीवनकी विविध अवस्थाओं और घटनाओंको पढ़ कर मैं मुग्ध-सा हो गया । मैंने उनके जीवन में और स्वभाव में, अपने ही जीवनके और खभावके कुछ विशिष्ट समान चित्र देखे और मेरा मन उनके प्रति आदर के साथ आकृष्ट हुआ । परंतु जिस अवस्थामें मैंने उनकी वे पुस्तकें पढी थीं और जिस अवस्थामें वे उस समय थे - वे दोनों अवस्थाएँ वैसी विरोधात्मक थीं कि उनके साथ जीवन में मेरा कभी साक्षात्परिचय होने की कोई संभावना ही नहीं की जा सकती थी ।
विधिके नियोगसे मैं, १९२० में, महात्मा गान्धीजी द्वारा प्रारब्ध असहकार आन्दोलनका एक अनुचर बन गया और महात्माजीके आदेशसे अहमदाबाद में स्थापित होनेवाले 'गुजरात विद्यापीठ' के एक विशिष्ट अध्ययन मन्दिरका अध्यक्ष बन गया । विद्यापीठने मेरे तत्त्वावधान में, भारतीय प्राचीन साहित्य, इतिहास, तत्त्वज्ञान, भाषाविज्ञान आदिके अध्ययन, अन्वेषण, संशोधन, संपादन आदि कार्य निमित्त गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर नामक एक विशिष्ट संस्था की स्थापना की । उसमें संस्कृत, प्राकृत, देश्य भाषा आदिके विविध प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन-अध्यापन करनेकराने की व्यवस्था की गयी । योगानुयोगसे, श्री धर्मानन्दजीका, अमेरिकाकी हार्वर्ड युनिवर्सिटीमें अपना कार्य समाप्त कर, देशमें आना हुआ। श्री काका साहब कालेलकर की प्रेरणा उन्होंने पुरातत्त्व मन्दिरमें अध्यापक बननेका और पाली वाङ्मयका अध्ययन करानेके असनका कार किया। उसी दिन से हम दोनों परस्पर समानप्रकृतिक एवं समानधर्मी, सहचारी सखा बने । उसके बाद, उनके भी अनेक स्थान परिवर्तन हुए और मेरे भी कई हुए । परंतु हमारा सौहार्द संबंध
1
Page #32
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।१९२९ में मैं जब बर्लिन (जर्मनी) में था तब वे रूस जानेके लिये वहां मुझसे मिलने आये और मेरे साथ ठहरे । बर्लिनमें रहते हुए मेरा मन नूतन समाजवादके विचारोंमें व्यस्त हो गया, कोसंबीजीका मन रूसमें रहते हुए साम्यवादी विचारोंकी ओर आकृष्ट हुआ ।
जर्मनीसे वापस आने पर, सन् १९३०-३४ तक, मेरा 'शान्तिनिकेतन-विश्वभारती में रहना हुआ, तब एक दफह उन्होंने भी वहां आ कर मेरे साथ कुछ समय तक रहनेकी इच्छा प्रदर्शित की थी। पर फिर वे बनारस और सारनाथ आदि स्थानोंमें बसते रहे। फिर उनकी प्रेरणासे बंबईमें परेलमें 'बहुजन विहार' की स्थापना हुई और उसमें रह कर वे अपने सदुपदेशद्वारा इन क्षुद्र माने जाने वाले समाजके निम्न वर्गकी निष्काम सेवा करते रहे । उन्हीं दिनों इस 'भारतीय विद्याभवन' की स्थापना हुई और इसका साहित्यिक एवं शैक्षणिक कार्यभार संभालनेका मुझे कर्तव्य प्राप्त हुआ । मेरी इच्छा रही कि वे भी मेरे साथ इसमें सहकारी बनें और उसके लिये मैंने प्रारंभिक प्रबन्ध भी कुछ किया; लेकिन उनकी मनोवृत्ति अब किसी भी स्थानमें या कार्यमें बद्ध हो कर रहनेकी न रह कर, अप्रतिबद्ध रूपसे चाहे जहां अपना शेष जीवन व्यतीत करनेकी
ओर अधिक झुक रही थी। परंतु उन्होंने मुझसे कहा कि 'पाली वाङ्मय'का प्रधान तात्त्विक ग्रन्थ जो बुद्धघोषका बनाया हुआ विसुद्धिमग्ग है और जिसका संपादन करनेके लिये उनको हार्वर्ड युनिवर्सिटीने ३ दफह अमेरिका बुलाया था, उसका देवनागरी संस्करण निकालनेकी व्यवस्था मैं कर सकूँ तो उनको बहुत प्रियकर होगा।' मैंने उनकी इच्छाका तत्काल स्वीकार कर, भारतीय विद्याभवनकी, भारतीय विद्याग्रन्थावलि के प्रथम ग्रन्थके रूपमें उसके प्रगट करनेका प्रबन्ध किया।
पिछले वर्षों में जब उनका शरीर अधिक क्षीण होता चला और उनको प्रतीत होने लगा कि अब जीवन कुछ विशेष समय रहने वाला नहीं है; तब उन्होंने किस तरह प्राणोंका शान्ति-पूर्वक देहत्याग हो इस विषयमें बहुत कुछ सोच-विचार करना प्रारंभ किया। मेरे साथ जैन संप्रदायमें प्रचलित संलेखना और अनशन व्रतके विषयमें भी उन्होंने कई दफह चर्चा की । इस विचारके परिणाममें आखिरमें उन्होंने सन् १९४६ के सेप्टेंबरमें दोहरी घाट (यु. पी.) के एक एकान्त आश्रममें जा कर संलेखना व्रत आरंभ किया। लेकिन इस प्रकार देहत्याग करना उचित नहीं है ऐसा सन्देश महात्माजीकी तरफसे उनको आग्रहके साथ भेजा गया तब उन्होंने उसका त्याग किया और महात्माजी ही की सूचनानुसार वर्धाके सत्याग्रहाश्रममें जा कर शेष जीवन समाप्त करनेका संकल्प किया।
श्री. कोसंबीजीने बहुत वर्षों पहले कितनीक जातक कथाओंका मराठीमें सार लिख रखा था। लेकिन उतके प्रकाशित करनेकी कोई व्यवस्था वे न कर सके थे। मेरे ध्यान पर इस बातको लाने पर मैंने पूनामें, अपनी स्थापित जैन शिक्षणमाला के प्रथम मणिके रूपमें उसका एक भाग प्रकाशित किया था। उसका दूसरा भाग अभीतक अप्रकाशित ही मेरे पास पड़ा है।
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
दोहरी घाटसे मुझे उन्होंने अपना अन्तिम पत्र लिखा, जिसमें सूचित किया था कि “पार्श्वनाथाचा चातुर्याम धर्म" इस नामकी एक पुस्तक मराठीमें मैंने लिखी है। जिसका हिन्दी --- अनुवाद छपानेकी व्यवस्था तो कुछ मित्र करना चाहते हैं; लेकिन मूल मराठी कोई छापेगा या नहीं इसकी कोई भवितव्यताका खयाल नहीं होनेसे, यह मूल मराठी 'म्यानुस्क्रीप्ट' मैं आपके पास रजिस्टर्ड पोष्टसे मेज रहा हूँ । जिसे आप अपनी संस्थामें संभाल कर रखें। संभव है भविष्य में कोई इसे प्रकट करनेवाला मिल जाय" - इत्यादि । इसी पत्रमें यह भी उन्होंने लिखा कि "मैंने 'बोधिसत्त्व' नामका एक नाटक भी इन पिछले दिनोंमें लिखा है-उसका हिन्दीअनुवाद काशी विद्यापीठ द्वारा छपवानेकी सूचना मिली है । यदि वह वहां नहीं छपा तो उसका हस्तलिखित भी फिर आपको भिजवा दिया जायगा । " - इत्यादि ।
१६
दोहरी घाटमें कुछ स्वस्थ होने पर वे फिर वर्धा जानेकी दृष्टिसे बंबई आये । तब मेरा और उनका अन्तिम मिलाप हुआ । उन्होंने कहा कि "महात्माजीकी खास इच्छा है कि मैं अपना अन्तिम जीवन महात्माजीके आश्रम में ही व्यतीत करूं, और कहीं जाऊं - आऊं नहीं । इस लिये मैं अब वहीं जा कर शेषकाल यापन करूंगा ।" इत्यादि । उसी समय उन्होंने बाबाके भर्तृहरि - संग्रहके इस संस्करणके बारेमें भी पृच्छा की, और कब तक छप कर प्रकट हो जायगा, इत्यादि बातें पूछीं । बंबई से वे वर्धा - सेवाग्राम गये और वहां फिर जून ४, १९४७ के दिन महान् बोधिसत्त्वकी तरह, शान्तभावपूर्वक इस भौतिक शरीरका त्याग कर, उनने निर्वृतिपद प्राप्त किया ।
अ० धर्मानन्दजी जैसे एक बहुत उच्च कोटिके आध्यात्मिक पुरुष थे, वैसे ही उच्च प्रतिभावान् विद्वान् और उत्कट देशप्रेमी व्यक्ति थे । उन्होंने बहुत ही विलक्षण संयोगों में पालीवाङ्मयका पारगामी अध्ययन किया, रोमाञ्चक रीतिसे तपःसाधना की, बडी निष्ठाके साथ भारत में पाली साहित्यका और बौद्ध आदर्शका प्रचार किया, और अपनी नैसर्गिक प्रतिभाके कारण हार्वर्ड युनिवर्सिटी जैसी अमेरिकाकी प्रतिष्ठित संस्था में प्रथम भारतीय 'ओरिएन्टालिस्ट' अध्यापकके रूपमें आदरका स्थान प्राप्त किया । धर्मानन्दजी यों तो एक सुखी, संतुष्ट और सद्वृत्तवाले मध्यमवित्त कौटुम्बिक गृहस्थ थे । सुशील धर्मपत्नी, प्रतिभावान् और तेजखी पुत्र, सौम्य, सुन्दर एवं बुद्धिमती पुत्रियोंकी प्राप्तिके कारण वे एक प्रकारसे समाजमें भाग्यवान् समझे जाने वाले वर्ग गृहस्थ थे; तथापि वे अपने अंतरंगसे बहुत ही निःस्पृह और विरक्तवृत्तिके उच्च साधु थे । - न उनको किंचिन्मात्र पैसाका लोभ था, नाही कुछ कुटुंबका भी मोह था । उन्होंने अपने पुत्रपुत्रियोंको बहुत ही उच्च प्रकारकी शिक्षा देने - दिलाने का भरसक प्रयत्न किया; लेकिन उसके सिवा और किसी प्रकारका उनके प्रति कोई व्यावहारिक मोह नहीं बतलाया । कोई पिछले १५ वर्षोंसे वे सर्वथा निःस्पृह और निर्मम हो कर जहां कहीं अपनी बौद्धिक और शारीरिक सेवाका सदुपयोग हो सके वहां जा कर, अप्रतिबद्ध रूपसे रहते और घूमते फिरते । ज्ञानके अन्य उपासक और शास्त्रोंके गभीर चिंतक होने पर भी वे पक्के देशभक्त थे । राष्ट्रके स्वातंत्र्य युद्धमें ' उन्होंने बड़े उत्साह से भाग लिया और बहुत हर्षके साथ जेलयात्राका लाभ उठाया । वय,
Page #34
--------------------------------------------------------------------------
________________
किञ्चित् प्रास्ताविक विद्या और संयमकी अपेक्षासे स्थविर होने पर भी वे विचारोंसे बडे क्रान्तिवादी किशोर-मनस्क थे। हिन्दुधर्मके नामसे ब्राह्मण जातिने भारतवर्षमें आज सैकडों वर्षोंसे जिस विचार और आचारकी जडताको घनीभूत बना रखा है और जिसके कारण भारतवर्षकी सामान्य जनता निःसत्व, निश्चेष्ट और निर्विचार हो रही है उसको देख कर उनका तेजस्वी अन्तःकरण सदा ही क्षुब्ध होता रहता था और वे जहां कहीं अवसर पाते थे वहां अपना मत निडर भावसे प्रकट करते रहते थे। इससे पुराणप्रिय स्वार्थग्रस्त ब्राह्मण वर्गको-खास करके महाराष्ट्रीय ब्राह्मणोंको उनके क्रान्तिवादी विचार और सुधारवादी आचार प्रिय नहीं लगते थे। वे महात्माजीके बड़े भक्त थे और उनकी राष्ट्रोत्थानवाली सभी प्रवृत्तियोंके बडे प्रशंसक और प्रचारक थे। उन्होंने अपना जीवन महान् बोधिसत्त्वके आदर्श पर व्यतीत किया और उसी आदर्शके अनुसार जीवनका समापन किया ।
मैंने इन वर्गवासी साधुचरित पिताके चारित्र्यका सर्वाङ्गीण प्रभाव सुपुत्र बाबा कोसंबीमें प्रतिबिम्बित हुआ देखा । इस प्रभावके परिपाकखरूप इनके संस्कृतसाहित्यके मर्म ग्रहण करनेका और इस पुस्तकके प्रकाशन निमित्त अत्यन्त स्तुत्य और अत्यावश्यक प्रयासका कुछ परिचय मैं यहाँ देना चाहता हूं। मैंने पहले ही सूचित किया है कि बाबाका मुख्य विषय गणितविद्या है । इस विषयका अध्ययन, अध्यापन और परिशोधन इनके जीवनका मुख्य उद्देश है। संस्कृत इनका मुख्य विषय नहीं है और न वह अध्यापनका क्षेत्र ही है। फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थविषयक इनकी एकाग्रता, लीनता और उत्साहने मेरे जैसेको भी आश्चर्य-चकित कर दिया है । मैंने कई बार इनसे प्रश्न किया कि "बाबा, अपने अमूल्य समय और शक्तिका इस प्रकार तुम अपव्यय तो नहीं कर रहे हो ? ।"
चार-पांच वर्ष पहले, ख० धर्मानन्दजीने अपने पुत्र द्वारा भर्तृहरिकी कृतिके इस प्रकारसे अन्वेषणारंभका, सर्वप्रथम समाचार मुझे सुनाया और कहा कि "बाबा इस कृतिके पीछे एक पागल-सा बन गया है और दिनरात इसीमें उलझा रहता है" । तब मैंने हंस कर कहा कि पिताके खभाव और गुणका कुछ न कुछ तो असर पुत्रमें होना ही चाहिये न ?। पर उनके कथनसे बाबाकी इस विषयमें ऐसी गहरी तल्लीनताका पूर्ण चित्र मेरे मानस-पटल पर अंकित नहीं दुआ था । परंतु जब इस ग्रन्थके प्रकाशनके लिये इनकी तत्परता और इसके पीछे आर्थिक एवं शारीरिक सर्वख समर्पण कर देनेका इनका मानसिक उत्साह मैंने देखा, तभी इनके हस्तगत कार्य और परिश्रम, इस प्रकार दोनोंकी, महत्ताका मुझे अनुभव हुआ।
. बाबाकी इस कृतिके देखनेसे पहले तो भर्तृहरिकी शतकत्रयी रचना भी इस प्रकारके अन्वेषी संशोधन-संपादनका विषय हो सकती है ऐसी कल्पना ही मुझे नहीं हुई थी। अपने
आधासके प्रारंभिक कालमें, यद्यपि मुझे भर्तृहरिके अनेक श्लोक कण्ठस्थ थे और बादमें जैन 'भंडारोंमें सुरक्षित असंख्य हस्तलिखित प्रतियां इसकी मैंने देखीं टटोली; पर महाभारत और पञ्चतन्त्रको प्रतियोंकी विविध वाचनाओंकी तरह, इस ग्रन्थकी वाचना भी, वैसी ही समस्याका
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
१८
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम् विषय है इसका मुझे कोई ध्यान नहीं हुआ। इस समस्याका महत्त्व, मुझे तभी मालूम हुआ जब मैंने प्रो० कोसंबी द्वारा अतीव परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये पूरे ४०० कागजोंके पाठान्तर वाले बडे चार्ट देखे तथा असंख्य इन्डेक्सके कार्ड आदि देखे । उस समय मुझे विचार आया कि अपने इस विशाल देशमें हजारों ही संस्कृतज्ञाता, पण्डित और अध्यापक विद्यमान हैं, जिनका जीवन केवल संस्कृतके अध्ययन, अध्यापन और प्रसार पर निर्भर है । पर इन विद्वानोंमें निष्ठापूर्वक अपने विषयकी साधना करने वाले कितने हैं । यह सब मैंने अपने परम मित्र 'बाबा'की प्रशस्तिके लिये नहीं लिखा है; परंतु लिखनेका आशय यह है कि इस देशके संस्कृतके पण्डित और अध्यापक लोक, संस्कृत जिनकी जीविकाका मुख्य विषय नहीं है, ऐसे प्रो० कोसंबीका यह कार्यरूप दृष्टान्त अपने समक्ष रख कर, अपने कर्तव्यमें सजग रहनेकी भावनाको जागृत कर सकें।
प्रो० कोसंबीके इस ग्रन्थ पर किये गये संशोधनके परिणामसे यह ज्ञात हो रहा है कि भर्तृहरिकी यह कृति बहुत प्राचीन कालसे जैन संप्रदायमें भी बहुत ही प्रिय और उपादेय रूपमें स्वीकृत हुई है। इसकी सैकडों ही सुन्दर हस्तलिखित प्रतियां जैन ग्रंथ भंडारोंमें विद्यमान हैं। प्रो० कोसंबीको अपने परिशीलनमें अभीतक इसकी जितनी भी पुरानी प्रतियां मिलीं उन सबमें जो अधिक पुरानी पोथी है वह भी एक जैन विद्वान् के हाथ की ही लिखी हुई है जिसका चित्र इसके साथमें दिया जा रहा है । यह प्रति उन प्रसिद्ध प्रतिष्ठासोम गणिके हाथकी लिखी हुई है जिनके बनाये हुए सोमसौभाग्य काव्य आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसी तरह इस ग्रन्थ पर जितनी संस्कृत टीकाएँ बनी हुई ज्ञात हुई हैं, उनमें सबसे पुरानी टीका एक जैन विद्वान्की ही की हुई उपलब्ध हो रही है । यह टीका उपकेश गच्छके विद्वान् यति धनसार गणिकी बनाई हुई है और एक विशिष्ट टीका है । इसके सिवा और भी अनेक जैन विद्वानों द्वारा प्रथित इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त संस्कृत अवचूरियां और राजस्थानी-गुजरातीभाषामिश्रित बालावबोध आदि कई व्याख्यात्मक कृतियां उपलब्ध हैं।
इसी तरह इस ग्रन्थके अनुकरण रूपमें बने हुए सोमशतक, शृंगारवैराग्यशतक, पमानन्दशतक, धनद त्रिशती आदि कई जैन ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं।
सचमुच सैकडों वर्षोंसे भर्तृहरिके ये सुभाषित पद्य, भारतवर्षके प्रत्येक संस्कारी मनुष्यको बडे सद्बोधक, शान्तिदायक, सद्भावप्रेरक एवं सन्नीतिदर्शक हो रहे हैं और भविष्यमें भी होते रहेंगे। प्रो० कोसंबीके प्रस्तुत संस्करणसे विद्वानोंको यह ज्ञात होगा कि भर्तृहरि भारतवर्षका कैसा विद्वत्प्रिय और लोकरंजक कवि है और उसकी कृतिकी भारतके कोने-कोनेमें कितनी व्याप्ति है ।
कार्तिकी पूर्णिमा, सं० २००५ (ई. स. १९४८)
मुनि जिनविजय भारतीय विद्याभवन बंबई
+ धनसारकी बनाई हुई यह टीका भी इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित करनेके लिये प्रो० कोसंबीद्वारा संपादित होकर प्रेसमें जानेकी प्रतीक्षा कर रही है। [जो अब इस मणिके रूपमें विद्वानोंके हाथों में उपस्थित हैं।]
Page #36
--------------------------------------------------------------------------
________________
पण्डितवर - धनसारगणि-विरचितव्याख्यायुक्तं
महाकवि-भर्तृहरि - कृतं नीति-शृङ्गार -वैराग्यात्मकं शतकत्रयम्।
अथ प्रथमं नीतिशतकम् ।
॥ ॐ नमः सर्वज्ञाय ॥ युगादिदेवोऽप्ययुगादिदेवः पुरा द्वितीयोऽपि सदाऽद्वितीयः । यः पश्चशाखोऽपि सहस्रशाखः सोमङ्गलो मङ्गलमातनोतु ॥१॥
सर्वातिशयसंयुक्तं पश्चाचारपरायणम् । श्रीवीरं गरिमाधीरमभिवन्दे महात्मभिः॥२॥ नत्वाऽर्हन्तं गुरुं देवीं शारदां कविसारदाम् ।
श्रीमद्-भर्तृहरवृत्तव्याख्यां विरचयाम्यहम् ॥ ३॥ तत्रेष्टदेवताप्रणिधानसमाधानविधानपूर्वमभीष्टदेवतासंस्मरणं विधाय भूपति भर्तृहर विरचितनीति-शृशा स्वैरा म्य-भावभावितकठिनकवित्वार्थसंसूत्रेण किमप्युदाहरणविवरणप्रपञ्चं देव-गुरुभारती-प्रसादान्निवेदयिष्यामि । तद्यथा
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साऽप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः। अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥ १ ॥ [अत्र पद्यविषये कथा यथा-] पुरा कदाचिदुज्जयिन्यां नगर्या भर्तृहरभूपती राजमण्डलीसंसेव्यमानः सभासमासीनः समासीत् । तत्र विप्रैकः । करकलितविमलफल आजगाम । तेन तत्फलमुपढौकनिकामासूच्याशीर्वचो ददे । राज्ञा पृष्टः स-“भो विप्र! कुतः समानीतं फलमिदम् । केन दत्तम् । किं वा केनाप्यदृष्टपूर्वाणि फलानि ।” सोऽप्यूचे-" राजेन्द्र ! फलानि बहून्यपि सन्ति पर नैतादृशानि । यत एतदमृतफलम् ।" ततश्च राज्ञा बभाषे–“विप्र! कुतो लब्धं त्वया ?" "रान् ! मया देवतैका समाराधि, तयैकविंशदिनानन्तरं तुष्टया फलमेतत् प्रदाय मम पुरस्तात् मोकमिति-'भो द्विज ! फलमेनं भक्षयित्वाऽजरामरो भव'-तदनु मया व्यचिन्ति च । मय्यजतमरे
११. गुरुनागारं महात्मानं नमाम्यहम् । २ टे. 'हरेाख्यां शुद्धां विरचयास्यहम् ।
Gyaa
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१.२] संजाते जगति का वृद्धिर्भवित्री ? स एवाजरामरः संजातो रुचिरो येन जगज्जीवति । तज्जगज्जीवनं राजानमन्तरेण न बोभोति ।" तद्विचिन्त्येहागत्य त्वत्पुरस्ताड् ढौकितमिदं फलम् ।" राजाऽप्यजरामरफलस्य महिमानमवगम्य प्रहर्षाञ्चितस्तस्मै विप्राय पारितोषिकं ददौ । स्वमनसि चिन्तितं च-"अहो मयि जीवति ममापि कश्चिद् वल्लभो जनो मरति तदाहं दुःखभाग् जीवामि । मम पट्टमहादेवी राज्ञी प्राणतोऽपि प्रिया वर्तते । तस्यै यच्छामि"-व्यचिन्त्येति तदा दासिकाहस्ते सौधान्तः प्रहित्य राश्यै प्रदत्तम् । तथापि निजमानसे मानसितम्-"अहो ममापि वल्लभः । कोऽपि म्रियते तदाहं कथं करोमि ।" तयापि पोन्तारस्य प्रदत्तम् । तस्यापि वल्लभा दासिका वर्तते । तस्यै दत्तम् । तयापि चेतसि चिन्तितम्-"अहो मयि दुःखजीविन्यां जीवन्त्यां के समुद्धारा भविष्यन्ति ।" ज्ञात्वेति तया पुनः राज्ञे तत्फलं प्रदत्तम् । राज्ञापि तत्फलं विलोक्य विलोक्य दासीसमीपे पृष्टम् । “तुभ्यं केन दत्तमिदम् ?।" अत्याग्रहेण भाष्य पृष्टा, सत्यं तया बभाषे-“मह्यं पोन्तारेण दत्तम् ।” सोऽपि तथैव पृष्टो बभाषे-"मह्यं राश्या दत्तम् ।” तं परमार्थ मत्वा निर्वेदमानसो जातः । अन्तःपुरान्तः समेत्य राज्ञीसमीपं तत्फलं ययाचे । तया मुन्मनालापपुरःसरं राजा बभाषे-“हे स्वामिन् ! मया भक्षितम्।" सदाकातितमां वैराग्यरङ्गतरङ्गितचित्तो बभूव । उक्तं च-अहो संसारस्य दुर्विलसितम् ।
यां अहं सततं निरन्तरं वल्लभां प्राणप्रियां चेतसि चिन्तयामि गणयामि सा मयि विषये विरका सती अन्यं जनं इच्छति पोन्तारं वाञ्छति । स पोन्तारोन्यासक्तो वर्तते, दासीरतो वर्तते च । काचिद् अन्या या नायिका अपरा नितम्बिनी अस्मत्कृते परिशुष्यति मनोरथैरस्माकं पान्छति । तस्मात् धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च । कोऽर्थः ? । पूर्व तां मद्वल्लभा धिक् । रे दुराशये ! मम सदृशं भूपतिं भर्तारं लब्ध्वा मेण्ठे किमनुरक्ता ? । तं मेण्ठं धिक् । रे मूढात्मन् ! पट्टमहादेवी मां विहाय त्वयि रागं विधत्ते । तदुपरि त्वं किं विरक्तः।। च अन्यत्मदनं धिक् यो निरर्थकं त्रिभुवनं विडम्बयति विगोपयति । च अन्यत्- इमां दासी धिक् । या तादृशं प्रेमपरायणं मेण्ठं पतिं प्राप्य तदुपरि विरक्ता ।।
वसन्ततिलका छन्दः-'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः ।' उपशमालंकारः ॥ १ ॥
अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति ॥ २ ॥
न जानातीत्यज्ञः । अज्ञो मूर्खः सुखं आराध्यो भवति सुखेनाराध्यः स्यात् । सुखेन प्रतिबोध्यत इत्यर्थः । विशेषज्ञो विद्वान् सुस्तरमाराध्यते अवबोध्यते । अत्यन्तं सुखेन सुखतरम् । “प्रकृष्टे तरतमौ" तरप्रत्ययः । ज्ञानलवदुर्विदग्धं नरं ब्रह्मापि न रञ्जयति नावबोधयति । कोऽर्थः । ज्ञानस्य लवः ज्ञानलयः, ज्ञानलवेन ज्ञानलेशेन खण्डखण्डपाण्डित्येन दुर्विदग्धं कदाग्रहग्रहप्रस्तं विश्वस्रष्टापि प्रतिबोधयितुं न शक्नोतीत्यर्थः। ... : गाथा पथ्या छन्दः । यतः प्रोक्तम्-'त्रिष्वंशकेषु पादो दलयोरायेषु दृश्यते यस्याः । पथ्येति' माम तस्याश्छन्दोविद्भिः समाख्यातम् ॥' विषमालंकारः ॥२॥
Page #38
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.३-५]
नीतिशतकम् प्रसह्य मणिमुद्धरेन् मकरवक्त्रदंष्ट्राङ्कुरात्
समुद्रमपि संतरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलम् । भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद् धारयेन् • न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ ३ ॥
प्राणी मकरवऋदंष्ट्राङ्करात् प्रसह्य बलात्कारं कृत्वा मणिम् उद्धरेत् मुक्तामणिं गृह्णाति । मकरस्य वक्र मकरवत्रं, मकरवस्य दंष्ट्रा मकरवक्रदंष्ट्रा, तासामङ्कुरो मकर वक्रदंष्ट्राङ्कुरः, तस्मात् समर्थः । प्राणी समुद्रमपि संतरेत् पारं गच्छेत् । किं० समुद्रम् ? । प्रचलदूर्मिमालाकुलम् । प्रचलन्तो ये (न्त्यो या) ऊर्मयः कल्लोलास्तेषां माला श्रेणिः प्रचलदूर्मिमालाः, ताभिराकुलः संकुलः प्रचलदुर्मिमालाकुलः, तम् । तथा विद्यावान् प्राणी भुजङ्गमपि फणिनमपि [ कोपितं कोपयुक्तं] पुष्पवत शिरसि मस्तके धारयेत् । तु पुनः। प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तं न आराधयेत् न प्रतिबोधयेत् । प्रतिनिविष्टः समीपोपविष्टो योऽसौ मूर्खजनः तस्य यत् चित्तं प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तम्, तत् । पृथ्वीगुरुच्छन्दः-'जसौ जसजला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः।' समाधि - विषमालंकारौ ॥३॥
लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयन्
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः । कदाचिदपि पर्यटन् शंशविषाणमासादयेत्,
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥ ४ ॥ विज्ञानी यान्त्रिकः पुमान् सिकतासु वालुकासु यत्नतः पीडयन् पीलनं कुर्वन् सन् तैलं लमेत स्नेहं प्राप्नुवीत । च अन्यत् । पिपासादितः प्राणी तृषापीडितो जनो मृगतृष्णकासु झञ्झावातेभ्यः सलिलं पिबेत् पानीयमाचमेत् । अपि पुनः । कदाचित् कस्मिंश्चिदपि प्रस्तावे पर्यटन परिभ्रमणं कुर्वन् प्राणी शशि(श)कविषाणं शशि(श)कशृङ्गं आसादयेत् प्रामुयात् । तु पुनः । प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तं नाराधयेत् समीपोपविष्टमूढप्राणिमानसं न प्रतिबोधयेत् । पूर्वोक्तं छन्दः अलंकारौ च ॥ ४ ॥
शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी
सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं खाकृतेः। प्रभुधनपरायणः सततदुर्गतः सज्जनो
नृपाङ्गणगतः खलो मनसि सप्त शल्यानि मे ॥ ५॥ मे मम मनसि सत शल्यानि वर्तन्ते । कानि कानि शल्यानि । शशी चन्द्रः दिवसधूसरो चतते । दिवसे धूसरः दिवसधूसरः । एकं शल्यमिदमेव । कामिनी नायिका गलितयौवना
१ क. ग. च. छ. शशिविषाणम् ।
Page #39
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत
- शतकत्रयम्
[१.६-७] भवति । गलितं यौवनं यस्याः सा गलितयौवना । द्वितीयमिदं शल्यम् । सरः सरोवरं विगतवारिजं भवति । तृतीयमिदमेव शल्यम् । स्वाकृतेः उद्यमपरस्य पुरुषस्य अनक्षरं, अक्षररहितं मुखं भवति । चतुर्थमिदमेव शल्यम् । प्रभुः स्वामी धनपरायणो भवति लोभवान् भवति । . पश्चममिदमेव शल्यम् । सञ्जनः पुमान् सततं निरन्तरं दुर्गतो भवति निःखो भवति । षष्ठमिदमेव शल्यम् । खलो दुर्जनः नृपाङ्गणगतः सन् राजभवनं प्राप्तः सन् शल्यरूप भवति । अस्य वृत्तेर (त्तस्य) व्याख्या सुगमाऽस्ति । पृथ्वीगुरुच्छन्दः पूर्वोक्तम् ॥ ५ ॥
ร
एते प्रकाराः न शोभन्ते न राजन्ते । एते के के ? । मणिः अष्टादशरत्नजातिलक्षणः शाणोली: शाणघर्षणेन हीनतां प्राप्तों न शोभते । अपरं किम् ? । समरविजयी संग्रामजयनशीलः पुमान् हेतिनिहतः शस्त्रपीडितः आयुधहिंसितो वा न शोभते । तथा मदक्षीणो नागो जरीयान् गजेन्द्रो न शोभते । शरदि काले वर्षाभावे सरितो नद्यः श्यानपुलिनाः शुष्कतटाः न शोभन्ते । चन्द्रः कलाशेषः तुच्छकलः सन् न शोभते । बालललना बालिका सुरतमृदिता संभोगपीडिता न शोभते । तथा पुनर्नराः मनुष्याः गलितविभवाः सन्तः अर्थिषु याचकेषु न शोभन्ते । किंभूतास्ते ? । निम्ना अधोमुखाः ।
मणिः शाणोल्लीढः समरविजयी हेतिनिहतो
मदक्षीणो नागः शरदि सरितः यानपुलिनाः । कलाशेषश्चन्द्रः सुरतमृदिता बालललना
न निम्नाः शोभन्ते गलितविभवाश्वार्थिषु नराः ॥ ६ ॥
शिखरिणी छन्दः । लक्षणं तस्य - 'रसै रुद्रैरिछन्ना यमनसभला गः शिखरिणी' ।। ६ ।। परिक्षीणः कश्चित् स्पृहयति यवानां प्रसृतये
कान्त्या ।
अवस्था समयः । वस्तूनि पदार्थान् । प्रथयति विस्तारयति । च अन्यत् । संकोचयति संक्षेपयति । कथं कथम् ? । कश्चित् पुमान् परिक्षीणः सन् यवानां प्रसृतये विस्ताराय स्पृहयति वाञ्छां कुरुते । स परिक्षीणः प्राणी पश्चात् संपूर्णः सन् वृद्धिं प्राप्तः सन् धरित्रीं वसुन्धरां तृणसमां तृणसमानां गणयति । अतः अस्मात् कारणाद् धनिनामीश्वराणां अर्थेषु पदार्थेषु गुरुलघुतया अनेकान्तं व्यस्तचित्तत्वमनेकचित्तत्वं वर्तते । यतः समय एव करोति बलोलम् । शिखरिणी छन्दः ॥ ७ ॥
स पश्चात् संपूर्णो गणयति धरित्रीं तृणसमाम् । अतश्चानेकान्तं गुरुलघुतयाऽर्थेषु धनिनाम्
अवस्था वस्तूनि प्रथयति च संकोचयति च ॥ ७ ॥
१ च. हेतु । २ ग. क्षाम । ३ ग. बालवनिता । ४ टीका. नराः । ५ ग. घ.
Page #40
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. ८-१०]
नीतिशतकम् शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमा
विख्याताः कवयो वसन्ति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः। तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य सुधियो ह्यर्थ विनापीश्वारः • कुत्साः स्युः कुपरीक्षकैर्न मणयो यैरैर्धतः पातिताः ॥ ८॥
यस्य प्रभोः यस्य स्वामिनः विषये देशे कवयः कवीश्वराः निर्धना वसन्ति । किं. कवयः । शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः । शास्त्रेभ्यः उपस्कृता एकत्रीकृता ये शब्दाः तैः सुन्दरा गीर्वाणी येषां ते शास्त्रोपस्कृतशब्दसुन्दरगिरः । पुनः किं० कवयः ? । शिष्यप्रदेयागमाः। शिष्येभ्यः प्रदेयाः दातुं योग्या आगमाः शास्त्राणि [येषां] ते शिष्यप्रदेयागमाः । पुनः किं. कवयः ? । अत एव विख्याताः प्रसिद्धा इत्यर्थः । तत्तु वसुधाधिपस्य राज्ञो जाड्यं मूर्खता । यतो हि निश्चितम् । सुधियः पण्डिताः अर्थ विनापि ईश्वराः निर्ग्रन्थचक्रवर्तिनः । मणयो रत्नानि कुपरीक्षकैः कुत्सिता(कुत्साः) न स्युः कुत्सिता न भवेयुः । यैः कुपरीक्षकैः मूढैरर्धतः पातिताः अर्धमूल्यीकृताः।
शार्दूलविक्रीडितं छन्दः-'सूर्याश्वैर्मसजस्तताः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम्' ॥अतिशयालंकारः ॥८॥ . विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः । यशसि चाभिरैतिर्व्यसनं श्रुतौ प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥९॥
हि निश्चितम् । महात्मनाम् उन्नतचित्तानां इदं वक्ष्यमाणं प्रकृतिसिद्धं स्वभावनिष्पन्नम् । इदं किं किम् ? । विपदि कष्टे सति धैर्यम् । अथ पश्चात् । अभ्युदये सति पदवी प्राप्तवति सति क्षमा । सदसि पण्डितसभायां वा राजसभायां वाक्पटुता वचनचातुरी । अथ च युधि संग्रामे विक्रमः पराक्रमः । च अन्यत् । यशसि अभिरतिः संतोषः । च अन्यत् । श्रुतौ शास्ने व्यसनम्। . द्रुतविलम्बितं छन्दः-'द्रुतविलम्बितमाह नभौ भरौ' ॥९॥ ‘अकरुणत्वमकारणविग्रहः'अग्रेऽस्ति वृत्तम् ॥
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु . लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेच्छम् । अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा
न्यायात् पथः प्रेविचलन्ति पदं न धीराः ॥ १० ॥ धीराः पुरुषाः न्यायात्पथः न्यायमार्गात् पदमपि न प्रविचलन्ति । नीतिनिपुणाः पुस्ताः न्यायवन्तः पुरुषात निन्दन्तु निन्दां कुर्वन्तु । वा अथवा । यदि चेत् स्तुवन्तु स्तुति
१ ग. घ. कुत्स्याः । २ क. ख. ग. घ. अर्घतः। ३ ग. रुचि।४ घ. च. यथेष्टम् । ५क.च. प्रति।
Page #41
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[१. ११-१२] कुर्वन्तु । लक्ष्मीः समाविशतु सम्यग् गृहे समायातु । वा अथवा । यथेच्छं गच्छतु । अद्यैव मरणमस्तु वा अथवा युगान्तरे ।
वसन्ततिलका छन्दः । लक्षणमिदम्-'उक्ता वसन्ततिलका तभजा जगौ गः' ॥ १० ॥ हर्तुति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति सर्वात्मना
प्यर्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं वृद्धि परां गच्छति । कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं
येषां तान् प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः समं स्पर्धते ॥११॥ __हे नृपाः ! येषां विदुषां विद्याख्यमन्तर्धनं वर्तते तान् प्रति मानमुज्झत गर्व परित्यजत । तैः विद्वद्भिः समं कः स्पर्धते ? कः स्पर्धा करोति ? । येषां पण्डितानां विद्याख्यमन्तर्धन हर्तुः हरणशीलस्य पुरुषस्य गोचरं न याति । अन्यच्च किमपि अनिर्वचनीयं शं सौख्यं पुष्णाति । केन ? । सर्वात्मना सर्वबलेन । अपि पुनः । यत् धनं अर्थिभ्यो याचकेभ्यो दीयमानं अनिशं निरन्तरं वृद्धिं गच्छति प्राप्नोति । यद्विद्याख्यमन्तर्धनं कल्पान्तेष्वपि निधनं न प्रयाति विनाशं न गच्छति । तैः पण्डितैः समं का स्पर्धा ? । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ ११ ॥
अधिगतपरमार्थान् पण्डितान् मावमंस्थास्
तृणमिव लघु लक्ष्मी व तान् संरुणद्धि । अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां __ न भवति बिशतन्तुर्वारणं वारणानाम् ॥ १२ ॥
हे पण्डिता इति मा अवमंस्थाः हे विद्वन् इति मा जानीयाः । इतीति किम् ? । लघुलक्ष्मीःतान् पण्डितान् न संरुणद्धि न व्यामोहयति । किं० पण्डितान् ? । अधिगतपरमार्थान् । अधिगतो ज्ञातः परमार्थो यैस्ते, तान् अधिगतपरमार्थान् ज्ञाततत्त्वान् । किं० लक्ष्मीः ? । [लघु ] तृणमिव न किंचिदित्यर्थः । अमुमेवार्थ कविदृष्टान्तेन द्रढयति । बिशतन्तुः पद्मिनीतन्तुः वारणानां गजानां वारणं न भवति । किं० वारणानाम् ? । अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानाम् । अभिनवा या मदलेखा अभिनवमदलेखास्तानिः श्यामो गल्लस्थलो येषां ते अभिनवमदलेखाश्यामगल्लस्थलास्तेषाम् ।
मालिनी छन्दः- 'ननमयययुतेयं मालिनी भोगिलोकैः' ॥ १२ ॥ क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलोणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरपि प्राणेषु गच्छत्स्वपि । १ ग. घ. यत्सर्वदा। २ घ. प्राप्नोति वृद्धि पराम्। ३ ग. घ. ज. सह । ४ हं. लेखश्याम' टीकायामपि च। ५ क. ख. र. प्रायोपि।
Page #42
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १. १३-१५]
नीतिशतकम् मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भकवलग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केशरी ॥ १३ ॥ केशरी सिंहः किं जीणं तृणं अत्ति भक्षयति ? । अपि तु न। किं० सिंहः। क्षुत्क्षामः क्षुधा क्षामः क्षुत्क्षामः । पुनः कथंभूतः ? । जराकृशोऽपि वार्धक्यदुर्बलोऽपि । शिथिलप्राणोऽपि हीनपराक्रमोऽपि । पुनः कथं० । कष्टां दशामापन्नोऽपि दुःखावस्थां प्राप्तोऽपि । पुनः कथं० । विपनदीधितिरपि अस्ततेजोऽपि । केषु सत्सु ? । प्राणेषु गच्छत्स्वपि । पुनः कथं० सिंहः ? । मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भकवलग्रासैकबद्धस्पृहः । मत्तश्चासौ इभेन्द्रः मत्तेभेन्द्रः, तस्य विभिन्नं विदारितं यत्कुम्भं कुम्भस्थलं तदेव कवलम् , तस्य ग्रासे एका बद्धा स्पृहा वाञ्छा यस्य सः । पुनः कथं० ? । मानमहतां अग्रेसरः अहंकारिणां धुरीणः । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ १३ ॥
असन्तो नाभ्यर्थ्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः
प्रिया न्याय्या वृत्तिर्मलिनमसुभङ्गेऽप्यसुकरम् । विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महतां
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥ १४ ॥ सतां उत्तमानां इदं विषमं असिधाराव्रतं केनोद्दिष्टं केन कथितम् । इदं साभिप्राय वचः । इदं किम् ? । महता पुरुषेण असन्तो नीचाः न अभ्यर्थ्याः न याच्याः । च अन्यत् । सुहृदपि मित्रोऽपि कृशधनो गतवित्तो न याच्यः । च अन्यत् । सतां न्याय्या वृत्तिः प्रिया वल्लभा । च अन्यत् । सतां मलिनं कर्म असुभङ्गेऽपि प्राणत्यागेऽपि असुकरं दुःकरम् । च अन्यत् । सतां विपदि सति कष्ट सति, उच्चैः स्थेयं मानपरायणैः स्थातव्यम् । च अन्यत् । महतां पदमनु लक्ष्यीकृत्य विधेयं कर्तव्यम् ।।
शिखरिणी छन्दः । तस्य लक्षणम्-'रसै रुद्वैश्छिन्ना यमनसभला गः शिखरिणी' ॥ १४ ॥ मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाम्
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः । परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः॥ १५ ॥ कियन्तः सन्तः एवंविधाः सन्ति । सन्तः किं कुर्वन्तः ? । निजहदि विकसन्तः । किं कृत्वा ? । परगुणपरमाणून् नित्यं निरन्तरं पर्वतीकृत्य । किं० सन्तः ? । मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णाः । [.. मनसि चित्ते वचसि वचने काये शरीरे च पुण्यामृतभृतः] । पुन किं कुर्वन्तः । उपकारश्रेणिभिः त्रिभुवनं प्रीणयन्तः। मालिनी छन्दः ॥ १५ ॥
१ घ. कचिट्टीकासु च. केसरी
Page #43
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१. १६-१८] इतः स्वपिति केशवः कुलमितस्तदीयद्विषाम्
इतश्च शरणार्थिनः शिखरिपत्रिणः शेरते । इतश्च वडवानलः सह समस्तसंवर्तकैः __ अहो विततमूर्जितं भरसहं च सिन्धोर्वपुः ॥ १६ ॥
अहो इति आश्चर्ये । सिन्धोः समुद्रस्य वपुः शरीरं विततं (हं. चिंतितं) विस्तीर्णम् । ऊर्जितं गर्जितं [ट. बलयुक्तं] वा । च अन्यत् । भरसहं भारक्षमं विलोक्यताम् । केन प्रकारेण ? । इतः एकस्मिन् प्रदेशे, केशवो नारायणः स्वपिति शयनं कुरुते । वर्षाकाले जलशायित्वात् । इतः अन्यस्मिन् प्रदेशे, तदीयद्विषां तस्य नारायणस्य वैरिणां कुलं कुटुम्बम् । च अन्यत् । इत: कस्मिंश्चिदपि प्रदेशे, शिखरिपत्रिणः पर्वतपक्षिणः शेरते शयनं कुर्वते। इतः कस्मिंश्चिदपि प्रदेशे, समस्तसंवर्तकैः जीवैः समं सह वडवानलो वर्तते ।
पृथ्वीगुरुच्छन्दः-'जसौ जसजला वसुग्रहयतिश्च पृथ्वी गुरुः' ॥ १६ ॥ उदन्वच्छन्ना भूः स च निधिरपां योजनशतं
सदा पान्थः पूषा गगनपरिमाणं कलयति । इति प्रायो भावाः स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिताः ___सतां प्राज्ञोन्मषः पुनरयमसीमा विजयते ॥ १७ ॥
प्रायो बाहुल्येन वा सर्वेऽपि भावाः निखिला अपि पदार्थाः । इति अमुना प्रकारेण । स्फुरदवधिमुद्रामुकुलिताः मुद्राङ्किता वर्तन्ते । कोऽर्थः ? । स्फुरन्ती या अवधिमुद्रा स्फुरदवधिमुद्रा, ताभिः मुकुलिताः मर्यादीकृताः संनिबद्धा इत्यर्थः । के के भावाः ? । इतीति किम् । भूः पृथ्वी उदन्वच्छन्ना वर्तते समुद्रान्ता वर्तते । स च अपां निधिः योजनशतं योजनानां शतं शतसहस्रलक्षादियोजनप्रमित इत्यर्थः । पूषा पान्थः सदा सर्वदा गगनपरिमाणं कलयति आकाशसीमा मर्यादां करोति । पुनः पुनरपि । अयं सतां उत्तमानां प्राज्ञोन्मेषः मतिसमुल्लासः असीमा मर्यादारहितो विजयते सर्वोत्कर्षेण वर्तते । सतां उत्तमानां प्राज्ञोन्मेषस्य मतिवैभवस्य सीमा नास्तीत्यर्थः । शिखरिणी छन्दः ॥ १७॥
कचिद् भूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कर्शयनः
क्वचिच्छाकाहारः क्वचिदपि च शाल्योदनरुचिः । कचित् कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो
मनखी कार्यार्थी गणयति न दुःखं न च सुखम् ॥ १८ ॥ १ टीकासु शय्यः। २ क्वचिन्मातृकासु शयनं। ३ घ. ट. न गणयति ।
Page #44
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. १९-२०
नीतिशतकम् प्राणी कचिद् भूमौ शय्यो भवति । च अन्यत् । क्वचिदपि च पयङ्कशयनः । कोऽर्थः । शय्याभावे प्राणी कर्करकण्टकाकुलायां भूमौ शयनं कुरुते । लाभे सति क्वचिदपि च पर्यशयनो भवति । च अन्यत् । भोजनाभावे क्वचिच्छाकाहारो भवति । अपि पुनर्लाभे सति कचिच्छाल्योदनरुचिर्भवति । शालेरोदनं शाल्योदनम् , शाल्योदनस्य रुचिः शाल्योदनरुचिः । विरूपान्नं न रोचते इत्यर्थः । च अन्यत् । क्वचिदिव्याम्बरधरः क्वचित्कन्थाधारी स्यात् । तत् किम् ? । मनस्वी पुमान् कार्यार्थी दुःखं च अन्यत् सुखं न गणयति । शिखरिणी छन्दः ॥ १८ ॥
ये संतोषसुखप्रमोदमुदितास् तेषां न भिन्ना मुदो
ये त्वन्ये धनलुब्धसंकुलधियस् तेषां न तृष्णा हेता । इत्थं कस्य कृते कृतः स विधिना ताहक पदं संपदा
स्वात्मन्येव समाप्तहेममहिमा मेरुर्न मे रोचते ॥ १९ ॥ अयं मेरुमें मह्यं न रोचते न सुखायते । विधिना दैवेन । स मेरुः इत्थं अमुना प्रकारेण ताहक संपदां पदं तादृक् सुवर्णानां भाजनं कस्य कृते कृतः । अपि तु न कस्यापि । इत्थं कथम् ? । ये यतीश्वराः संतोषसुखप्रमोदमुदिताः तेषां मुदो न भिन्नाः । संतोषो न स्फेटितः (ट. संतोषेण स्फोटितः) संतोषस्य सुखं संतोषसुखं तस्य योऽसौ प्रमोदो हर्षः तेन मुदिता हर्षिताः (ट. हृष्टाः)। तु पुनः । अन्ये ये धनलुब्धसंकुलधियस्तेषां तृष्णा न हता न हृता । कि० मेरुः ? । स्वात्मन्येव समाप्तहेममहिमा । एतावता अयं मेरुन किंचिदपि । शार्दूलविक्रीडितं छन्दः ॥ १९ ॥ '
नमस्यामो देवान् ननु हतविधेस् तेऽपि वशगा
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः । फलं कर्मायत्तं यदि किममरैः किं च विधिना
नमस् तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ॥ २० ॥ इदानीं कर्मणः स्वरूपं विवक्षुरित्याह कविः यद्देवान् नमस्यामः । कथम् ? । सकलकार्यकरणसामर्थ्यात् । कश्चिदपि समधिक इत्याशङ्कयाह-पुनः ननु इत्याक्षेपे । ते अपि देवा हतविधेर्वशगाः वर्तन्ते । तदा(द)धीनत्वात् । अतः कारणात् सोऽपि विधिर्वन्धः। किं० विधिः । नियतकर्म प्रति एकफलदः । पुनराशङ्कयाह-यदि फलं कर्मायत्तं तदा किममरैः किं च विधिना। [तव] तस्मात् कारणात् कर्मभ्यो नमः । देवदानवमानवगणगन्धर्वादिकानां वश्यकरणत्वात् येभ्यः कर्मभ्यो विधिरपि न प्रभवति । शिखरिणी छन्दः ॥ २० ॥ १च. 'लब्ध । २ घ. छ. उ. हता। ३८. एवं । ४ ग. घ. च. ट. कर्मेभ्यो ।
२ शतकत्र.
Page #45
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[१. २१-२२ ]
'दौर्मन्यान् नृपतिर्विनश्यति यतिः सङ्गात् सुतो लालनाद् विप्रोऽनध्ययनात् कुलं कुतनयात् शीलं खलोपासनात् । मैत्री चाप्रणयात् समृद्धिरनयात् स्नेहः प्रवासाश्रयात्
स्त्री गर्वादनवेक्षणादपि कृषिस् त्यागात् प्रमादाद् धनम् ॥ २१ ॥
इदानीं यो यस्माद् विनश्यति तदाशङ्कयाह - नृपतिर्नरेन्द्रः दौर्मत्र्याद् विनश्यति क्षयं याति । दुर्मन्त्रस्य ( छ. दुर्मत्रिणो ) भावः दौर्मध्यम्, तस्मात् दौर्म० । कुमन्त्रिणः इत्यर्थः । यतिः सङ्गात् गृहवासिनां प्रसङ्गाद् विनश्यति । सुतो लालनादित्यादि । विप्रोऽनध्ययनात् । कुलं वंशः कुतनयात् कुपुत्रात् । तथा शीलं सदाचारत्वं खलोपासनात् दुर्जनसंसर्गात् । च अन्यत् । मैत्री अप्रणयात् निःस्नेहात् । च अन्यत् । समृद्धिः अनयात् अन्यायात् । च अन्यत् । स्नेहः प्रवासाश्रयात् परदेशगमनात् । च अन्यत् । स्त्री गर्वाद् अहंकारात् । कृषिः अनवेक्षणात् असंभालनात् । धनं [त्यागाद् दानात् (ट. वितरणात् )] प्रमादाद् [ कुव्यसनसेवनाद् ] विनश्यति ॥ २१ ॥
अथ गुणद्वेषितामुद्दिश्याह
जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं
शूरे निर्घृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि । तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वैक्तर्यशक्तिः स्थिरे
तत् को नाम गुणो भवेत् सुगुणिनां यो दुर्जनैर्नाङ्कितः ॥२२॥
तत् तस्मात्कारणात् । नाम इति संबोधने । सुगुणिनां पुरुषाणां को गुणो भवेत् यो दुर्जनैर्नाङ्कितोऽस्ति । कथं कथम् ? । ह्रीमति पुरुषे लज्जाभाजिजने दुर्जनैः जाड्यं गण्यते । व्रतरुचौ तपःक्रियासंयमवाञ्छके पुंसि दम्भो गण्यते । शुचौ पुरुषे पवित्राभिलाषुके जने ( छ. कैवं ) कपटं गण्यते । पाषण्डः कथ्यते । शूरे पुंसि निर्घृणता निर्दय ( हं. क. छ. यि ) ता गण्यते । ऋजौ सरले जने विमतिता दुर्बुद्धिता गण्यते । प्रियालापिनि जने मधुरभाषिणि नरे दैन्यं इति गण्यते । तेजस्विनि पुंसि अवलिप्तता पापाधिक्यं गण्यते । एवं वक्तरि पुरुषे मुखरता वाचाटत्वं गण्यते । स्थिरे धीरे पुरुषे अशक्तिर्गण्यते । तस्मात् कारणाद् 'दुर्जनानां गुणेष्वप्यनादरः ॥ २२ ॥
१८. उत्तरार्धे - ह्रीमद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रयानं मैत्रीचाप्रणयात् समृद्धिरनयात् त्यागात् प्रमादाद् धनम् ।
२ हंक. ग. च. छ. सूरे । ३ ग. ट. [आ]र्जवे । ४ च. वक्तव्य । ५ ग. घ. स गुणिनां ।
Page #46
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. २३-२४]
नीतिशतकम् अथ लोभिनां पुरुषाणां चेतश्चमत्कारकारि वाक्यमाह___ जातियतु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतां शीलं शैलतटात् पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना। ' शौर्ये वैरिणि वज्रमाशु निपैतत्वर्थोऽस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः सैमस्ता इमे ॥ २३ ॥
नोऽस्माकं अर्थ एवास्तु । नापरैः कैश्चिदपि गुणैः प्रयोजनम् । तत्कथम् ? । जातिः रसातलं यातु पातालं यातु । गुणगणः (हं. °णाः) गुणसमूहः (हं. हाः) तस्या अपि जातेरपि (तस्यापि तस्य रसातलस्यापि ?) अधो गच्छतां नीचैर्गच्छतु । शीलं ब्रह्मचर्यलक्षणं शैलतटात् पर्वतशृङ्गात् पततु झम्पां ददातु । अभिजनः परिकरः वह्निना दह्यतु । येन एकेन अर्थेन विना एते समस्ता अपि गुणास्तृणलवप्रायाः वर्तन्ते । यतः
बुभुक्षितैर्व्याकरणं न भुज्यते पिपासितैः काव्यरसो न पीयते ।
न छन्दसा केनचिदुद्धृतं कुलं हिरण्यमेवार्जय निःफलाः कलाः॥ शार्दूलविक्रीडित छन्दः ॥ २३ ॥
संप्रति दैवस्वरूपं व्याख्यातुमाह कविः-कश्चिदहितुण्डिको वनखण्डं गत्वा बिलान्तर्गतं पन्नगं ज्ञात्वा मन्त्रेणाक्षतानभिमध्य तस्य बिले क्षिप्त्वा आकर्ण्य (ट. कृष्य) च पन्नगं धृत्वा करण्डे क्षिप्तवान् । तदनु स पन्नगः क्षिप्तकरण्डकः सन् प्रोच्छलित्वोच्छलित्वा स्वकीयं शरीरं परिघृष्य परिघृष्य निर्विण्णो भूत्वा स्वस्थीभूय स्थितः । तदनु रजन्यामाखुः समाजगाम । तेन तत्करण्डकं विलोक्य स्वकीयचापल्यभावाच्चकर्ष । विवरं कृत्वा यावदन्तः प्रविशति तावत्तेन सर्पण गन्धं लब्ध्वा सावधानीभूय च स मूषकस्तेन निजिगिले । शीघ्रं समाहितो(ट. ती) भूय तेनैव मार्गेण निर्ययौ । तं दृष्ट्वा कविः कवित्वमाह
भग्नाशस्य करण्डपिण्डिततनो नेन्द्रियस्य क्षुधा
कृत्वाखुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुखे भोगिनः । तृप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव यातः पथा
खस्थास्तिष्ठत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये चाकुलम् ॥ २४ ॥ हे प्राणिनः ! स्वस्थाः तिष्ठत धीरा भवत । यतः प्राणिनां वृद्धौ च अन्यत् क्षये आकुलं सोत्सुकं दैवमेव वर्तते । यतो यस्मात् कारणात् आखुनक्तं रात्रौ स्वयं स्वयमेव भोगिनः सर्पस्य मुखे निपतितः। कं कृत्वा । करण्डके विवरं कृत्वा । किंलक्षणस्य भोगिनः? । भग्नाशय - १ ग. ट. गच्छतु । २ ट. निपतितस्त्वर्थो । ३ट. समस्तारिमे । ४ ज. ट. पीडित । ५च. वाकुलम् ; कारणम् ट.।
Page #47
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[१.२५-२७ ]
भग्ना व्यर्थीभूता आशा यस्य स भग्नाशः, तस्य भग्नाशस्य । पुनः किं० भोगिनः ? । करण्डपिण्डित ( हं. ज. ट. पीडित ) तनोः करण्डेन पीडितं तनुः शरीरं यस्य । वा पिण्डितं पिण्डीकृतं तनुः शरीरं यस्य स तथाविधस्तस्य । पुनरपि किं० भोगिनः ? । क्षुधा बुभुक्षया ग्लानेन्द्रियस्य ग्लानीभूतानि ग्लानिं प्राप्तानि इन्द्रियाणि यस्य सः, तस्य । एवंविधः स पन्नगः तत्पिशितेन तस्य मूषकस्य मांसेन तृप्तो जातः संतुष्टः । असौ सत्वरं शीघ्रं तेनैव पथा स्वकीयं ईप्सितं स्थानं यातः । तस्माद्यद् दैवं करोति तद्भवति । किमुत्स (सु) कैः प्राणिभिरित्यागमः ॥ २४॥
अथ भाग्यवतामवस्था स्वरूपमाह
पातितोऽपि कराघातैरुत्पतत्येव कन्दुकः ।
प्रायेण सांधुवृत्तानामेस्थायिन्यो विपत्तयः ॥ २५ ॥
कन्दुकः सूत्रगेन्दुकः उत्पतत्येव उन्नतिं वा भजत्येव । किं० कन्दुकः ? । कराघातैः हस्तप्रहारैः पातितोऽपि । तथान्यायेन प्रायेण स्वभावेन साधुवृत्तानां विपत्तयः कष्टानि अस्थायिन्यो भवन्ति । न चिरं तिष्ठन्तीत्यर्थः ॥ २५ ॥
अथ भाग्यवतामवस्थास्वरूपं पुनराह -
प्रायः कन्दुकपातेनै पत्यार्यः पतन्नपि ।
तथा त्वनार्यः पतति मृत्पिण्डर्पेतनं यथा ॥ २६ ॥
आर्यः पुण्यवान् प्रायः स्वभावेन कन्दुकपातेन गेन्दुकपातवत् उत्पतति उन्नतिं भजते । किं० आर्यः ? । पतन्नपि पतनं प्राप्नुवन्नपि । तथा पुनः अनार्यो नीचः पतति । यथा शब्द इवार्थे वर्तते । क इव ? | मृत्पिण्डपतनमिव । यथा मृत्पिण्डः पतनं पतति परं उन्नतिं न प्राप्नोति ॥२६॥
अथ पुण्यफलमाह
प्रीणाति यः सुचरितैः पितरं स पुत्रो
यद् भर्तुरेव हितमिच्छति तत् कलत्रम् ।
तन् मित्रमापदि सुखे च सैमक्रियं यद्
एतत् त्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ॥ २७ ॥
1
स एव पुत्रः यः पितरं जनकं सुचरितैः सदाचारैः प्रीणाति । यद् भर्तुरेव पत्युरेव हितमिच्छति परिणामसुन्दरं वाञ्छति तदेव कलत्रं सैव भार्या । मित्रं तदेव यदापदि कष्टे, 'च अन्यत्, [ सुखे ] सुखोदये समक्रियं सदृशस्नेहम् । वाऽपरम् । केवलम् एतत् त्रयं पूर्वोक्तं जगति पृथिव्यां पुण्यवन्तो ( ट. पुण्यकृतो ) लभन्ते, नापरे ॥ २७ ॥
१ ग. हि सुवृ । २. च. आस्थायिन्यो । ३ ग. घ. छ. पातेनोत्पत । ४ घ. गुडिका । ५. क. च. समं क्रिय ।
Page #48
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.२८-३१]
नीतिशतकम् अथ महतां चेष्टितमाहसंपत्सु महतां चित्तं भवेदुत्पलकोमलम् ।
आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम् ॥ २८ ॥
महतां चित्तं महानुभावानां मनः संपत्सु उत्पलकोमलं भवेत् कमलवत् सुकुमारं (ट. समाकुलं) स्यात् । च अन्यत् । आपत्सु कष्टेषु महाशैलशिलासंघातकर्कशं भवेत् । महांश्चासौ शैलो महाशैलः महागिरिः, तस्य शिलायाः संघातः महाशैलसंघातः, तद्वत् कर्कशं कठोरं चित्तं भवति ॥ २८॥
रक्तत्वं कमलानां सत्पुरुषाणां परोपकारित्वम् ।
असतां च निर्दयत्वं स्वभावसिद्धं त्रिषु त्रितयम् ॥ २९ ॥
कमलानां पङ्कजानां रक्तत्वम् । सत्पुरुषाणां महतां परोपकारित्वम् । च अन्यत् । असतां दुर्जनानां निर्दयत्वं निःकृपत्वम् । त्रिषु स्थानकेषु पूर्वोक्तमेतत् त्रितयं स्वभावसिद्धं भवति सहजसिद्धं स्यात् ॥ २९ ॥
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्यया भूषितोऽपि सन् । मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयंकरः ॥ ३० ॥ सुगमम् ॥ ३०॥ अथ मैत्रीसौन्दर्यस्वभावमाहक्षीरेणात्मगतोदकाय हि गुणा दत्ताः पुरा तेऽखिलाः
क्षीरे तापमवेक्ष्य तेन पयसा ह्यात्मा कृशानौ हुतः । गन्तुं पावकमुन्मनस् तेंदभवद् दृष्ट्वा तु मित्रापदं
युक्तं तेन जलेन शाम्यति सतां मैत्री पुनस्त्वीशी ॥ ३१ ॥ जगति पृथिव्यां पुनमैत्री सुहृत्ता (ट. सुहृदो भावः) ईदृशी भवति । यथा क्षीरनीरयोः । कीदृशी सा मैत्री ? । क्षीरेण दुग्धेन आत्मगतोदकाय स्वसमीपसंयुक्ताय वारिणे पुरा पूर्वमपि तेऽखिलाः समस्ता अपि स्वकीयाः प्रोज्ज्वलित (हं. क. प्रोज्ज्वलिम; ट. गरिम) गुणा दत्ताः । अथ पश्चात् हि निश्चितम् । तेन पयसा तेन वारिणा क्षीरे तापमवेक्ष्य स्वमित्रस्य दुग्धस्य कष्टं विलोक्य आत्मा कृशानौ वैश्वानरे हुतः आहुतीकृतः । तदनु च, पयसः पानीयस्य तादृशं स्वरूपं अवलोक्य प्रेमस्वरूपमपि प्रेक्ष्य तत् दुग्धं उन्मनः सन् पावकं गन्तुं अभवत् । वैश्वानरे पतिसुमभिललाष । किं कृत्वा ? | मित्रापदं तु दृष्ट्वा । तदुद्धान्तं क्षीरं नीरेण
१ घ. भवत्युत्पल ।२ घ.आपत्स्वपि शिलाशैल। ३ ज. तापमवेत्य, घ.क्षीरं तप्तमवेश्य। ४ग. घ. उन्मनाः। ५घ. समभवद् । ६ नु. तु. वर्णयोःप्रायोन मेदः। ७ग. ताहशी।
Page #49
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ १.३२-३३ ] ( हं. नारीजनः । क. च. छ. नारीजनेन ) सहसा मेलितेन जलेन वारिणा शाम्यति उपशा (ट. •श) मं गच्छति तदा युक्तम् । यतस्तयोः क्षीरनीरयोः प्रीतिः तमामधिकतरा ( ट . क्षीरनीरयोः प्रीतिरधिकतरा ) इत्यर्थः ॥ ३९॥
सांप्रतं देवतातिशयस्वरूपमाह
या साधूंश्च खलान् करोति विदुषो मूर्खान् हितान् द्वेषिणः प्रत्यक्षं कुरुते परोक्षममृतं हालाहलं तत्क्षणात् ।
तामाराधय चक्रिकां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो ! त्वेमतो गुणेषु विफैलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः ॥३२॥
हे साधो ! त्वं तां चत्रिकां चक्रेश्वरीं देवीम् आराधय । या साधून मित्रान् खलान् करोति । च अन्यत् । खलान् दुर्जनान् साधून् कुरुते । च अन्यत् भगवती विदुषः पण्डितान् मूर्खान् करोति । मूर्खान् जडान् विदुषः करोति । च अन्यत् । हितान् उपकारिणः द्वेषिणः करोति । द्वेषिणो हितान् करोति । च अन्यत् । या भगवती प्रत्यक्षं पञ्चेन्द्रियगोचरं परोक्षं अदृश्यं च प्रत्यक्षं कुरुते । या भगवती अमृतं तत्क्षणात हालाहलं कुरुते । च अन्यत् हालाहलं तत्क्षणाद् अमृतं कुरुते । अतः कारणात् अखिलेषु गुणेषु वृथा आस्था मा कृथाः मा कुर्याः । किंलक्षणेषु गुणेषु । तां भगवतीं विना विफलेषु । शार्दूलविक्रीडितम् ॥ ३२ ॥
अथ तुच्छजनस्य स्वरूपमाह कविः - कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसप्रीत्या खादन् नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
गणयति न हि क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ॥ ३३ ॥ हि निश्चितम् । क्षुद्रो जन्तुः तुच्छप्राणी परिग्रहफल्गुतां मिथ्यामोहत्वं न गणयति । यतः श्वा भषणः सुरपतिमपि सुरेन्द्रमपि पार्श्वस्थं समीपस्थं विलोक्य न शङ्कते न शङ्कां कुरुते । श्वा किं कुर्वन् ? । नरास्थि मानुषास्थिशकलं निरुपमरसप्रीत्या खादन् निरुपमश्चास्यै रसः निरुपमरसस्तस्य प्रीतिर्निरुपमरसप्रीतिः, तया । किं० नरास्थि ? । निरामिषं निर्गतं आमिषं यस्मात्तन्निरामिषं मांसरहितमित्यर्थः । पुनः किंलक्षणं नरास्थि ? । कृमिकुलचितं कृमीणां कुलानि कृमिकुलानि, कृमिकुलैश्चितं कृमिकुलचितं, तत् । पुनरपि किं० नरास्थि ? । लालाक्लिन्नं लालाव्याप्तम् । पुनरपि किं० नरास्थि ? । विगन्धि दुर्गन्धि | पुनरपि किं० नरास्थि ? । जुगुप्सितं निन्दितम् । एवंविधं नरास्थि भक्षन् (ट. भक्षयन् ) इन्द्रमपि किमपि न मन्यते । तुच्छजीवस्य स्वभावोऽयम् ॥३३॥
•
१ घ. व्यसनैर् । २ घ. विपुले, छ. विमले । ३ रसं घ. । ४ शंसते । ५ घ. न हि गणयति ।
-
Page #50
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. ३४-३६]
नीतिशतकम् अथ सभाग्यनिर्भाग्ययोः प्रकृति प्रकटयन्नाहखल्पस्नायुवशादशेषमलिनं निर्मासमप्यस्थिकं
श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न च तत् तस्य क्षुधाशान्तये । सिंहो जम्बुकमङ्कमागतमपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं
सर्वः कृच्छ्रगतोऽपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् ॥३४॥ श्वा कुर्कुरः अस्थिकं लब्ध्वा परितोषं संतोषं एति [प्राप्नोति] । कुत्सितं अस्थि आस्थिकं “अज्ञाते कुत्सिते च एव ।” कप्रत्ययः । किं० अस्थिकम् ? । निर्मासमपि भक्ष्यस्वादविवर्जितमित्यर्थः । पुनः किं० अस्थिकम् ? । अशेषमलिनं धूलीकचवरादिव्याप्तम् । कस्मात् ? । खल्पस्नायुवशाद् अल्पनशाजालहेतुत्वात् । च अन्यत् । अस्थिकं तस्य शुनः क्षुधाशान्तये न बुभुक्षां निर्गमयितुं अशक्तम् । सिंहः द्विपं हन्ति गजेन्द्रं विदारयति । किं कृत्वा ? । अङ्कागतमपि उत्सङ्गप्राप्तमपि जम्बुकं शृगालं त्यक्त्वा । तत्र किं कारणम् ? । सर्वो जनः सत्त्वानुरूपं फलं वाञ्छति खभाग्यसदृशं फलोदयमभिलषति । किं० सिंहः ? । कृच्छ्गतोऽपि कष्टदशां प्राप्तोऽपि ॥ ३४ ॥
अथ मित्रस्य लक्षणमाह कविःपापान निवारयति योजयते हिताय
गुह्यं निगृहति गुणान् प्रकटीकरोति । आपद्गतं च न जहाति ददाति काले
सन्मित्रलक्षणमिदं प्रवदन्ति सन्तः ॥ ३५॥ - सन्तः पण्डिताः सन्मित्रलक्षणमिदं वदन्ति ईदृशं लक्षणं वदन्ति । कीदृशम् ? । सन्मित्रं (है. क. छ. 'त्रः) पापानिवारयति पापानि कर्तुं न ददातीत्यर्थः । हिताय योजयते परिणामसुन्दरकर्मणि प्रेरयति । चान्यस्मात् गुह्यं मर्म निगृहति (ट. निगृहति) “गुहू संवरणे ।" आच्छादयति।च अन्यत् । मित्रो गुणान् प्रकटीकरोति जने महिमानमाविःकरोति। च अन्यत् । मित्रः आपद्गतं संपन्नकष्टं न जहाति न परित्यजति । काले समये समागते (हं. च. ट. समायाते) सति ददाति वाञ्छितं वितनोति (छ. वितरति)। अत एव इदं सन्मित्रलक्षणम् ॥ ३५॥
मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोष विहितवृत्तीनाम् । लुब्धकधीवरपिशुना निःकारणवैरिणो जगति ॥ ३६ ॥ सुगमम् ॥ ३६ ॥ १ ज..निष्कारण।
Page #51
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
अथ संसर्गफलमाह कविः
संतप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते । स्वाती सागरशुक्तिसंपुटगतं तज्जायते मौक्तिकं प्रायेणाधममध्यमोत्तमगुणः संवासतो जायते ॥ ३७ ॥
प्रायेण स्वभावेन प्राणिनां अधममध्यमोत्तमगुणः (ट. गुणाः ) संवासतो संसर्गतो जायते भवति । अधमश्च मध्यमश्चोत्तमश्च अधममध्यमोत्तमाः । अधममध्यमोत्तमश्चासौ गुणः अधममध्यमोत्तमगुणः । कथमिति ? । पयसः पानीयस्य नामापि न ज्ञायते मूलतोऽपि क्षयं यातीत्यर्थः । किं० पयसः ? । संतप्तायसि प्रज्वलिते लोहे संस्थितस्य मुक्तस्य । तदेव पयो नलिनीपत्रस्थितं मुक्ताकार (हं. रि ) तया राजते । मुक्ताया आकारः मुक्ताकारः, मुक्ताकारस्य भावो मुक्ताकारता, तया । तत् पयः । स्वातौ स्वातिनक्षत्रे मेघसमायोगे (ट. गमे ) मौक्तिकं जायते मुक्तामणिर्भवति । किं० मौक्तिकम् । सागरशुक्तिसंपुटगतम् । सागरस्य शुक्तिः सागरशुक्तिः, सागरशुक्तेः संपुटं सागरशुक्तिसंपुटम्, तत्र गतं प्राप्तं सागरशुक्तिसंपुटगतम् । अत एव प्राणिनां उत्तमसंसर्ग एव विलोक्यते ॥ ३७ ॥
अथ कर्मणः स्वरूपमाह कविः -
ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तः सदा संकटे । रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने तस्मै नमः कर्मणे ॥ ३८ ॥
[ १.३७-१९ ]
तस्मै कर्मणे नमः नमस्कारोऽस्तु । येन कर्मणा ब्रह्मा (ट. प्रजापतिः ) ब्रह्माण्डभाण्डोदरे त्रिभुवनजठरपिठरे कुलालवन्नियमितः कुम्भकारवन्नियुक्तः । अथ च येन कर्मणा विष्णुस्त्रिलोकीपतिः दशावतारगहने क्षिप्तः दशभवग्रहणे [च] आमितः । किं० दशावतारगहने ! | निरन्तरं दुःखसंकुले । अपि च येन कर्मणा रुद्रो महेशः कपालपाणिपुटके कर्परहस्तपुढे भिक्षाटनं भिक्षाभ्रमणं कारितः । अन्यच्च सूर्यः सहस्रकिरणो यस्मात्कर्मणो नित्यमेव गगने नभोमण्डले भ्राम्यति प्रत्यहं परिभ्रमणं कुरुते । ततोऽस्य कर्मणो नमस्कारः ॥ ३८ ॥
कविर्मनस्विनः स्थितिमाह
कुसुमस्तबकस्येव द्वयी वृत्तिर्मनखिनः ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य शीर्यते वन एव वा ॥ ३९॥
१ घ. गुणाः । २ क. भ्रामति । ३ घ. लोकानां स्थीयते ।
४ छ. एव च ।
Page #52
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.४०-४१]
नीतिशतकम् - मनखिनः पुरुषस्य मानिनो नरस्य द्वयी वृत्तिर्भवति । द्वयी का ? । वा अथवा । सर्वलोकस्य निखिलजगतो मूर्ध्नि भवति मस्तकसमारूढस्तिष्ठति । महत्त्वात् । वा अथवा । वने एव शीर्यते उग्रतपस्त्वात् कृशो भवति । मनस्विनः कस्येव ? । कुसुमस्तबकस्येव पुष्पगुच्छस्येव (हं. भलुछस्येव)। यथा कुसुमस्तबकस्य द्वयी वृत्तिर्भवति । वा अथवा सर्वलोकस्य मूर्ध्नि मस्तके समारूढः सन् तिष्ठति । वा अथवा वने एव शीर्यते विलयं यातीत्यर्थः ॥ ३९ ॥
अथ सेवादुःखमाह कविःमौनान्मूकः प्रवचनपटुर्वातलो जल्पको वा
धृष्टः पार्थे भवति च तथा दूरतश्च प्रमादी । क्षान्त्या भीर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजातः
सेवाधर्मः परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ॥ ४० ॥ सेवाधर्मः परमगहनो वर्तते । महदुःखात् । कथम् ? । सेवको मौनात् स्वल्पभाषकात् (छ. भाषणात्) मूक इव कथ्यते । गुणादपि दोषाविर्भावः । सेवकः प्रवचनपटुः शास्त्रवक्ता वातलो वा जल्पकः कथ्यते । तत्रापि गुणान्नैर्गुण्यं जातम् । यदि मूकत्वं दुर्जनैर्दूषितं तदा वक्तृत्वमपि दूषितम् । च अन्यत् । पार्वे भवति समीपवर्ती सेवकः स्यात् , तदा धृष्टः कथ्यते । यतोऽयं गृहतोड्डकवत् न याति दुराशयः क्वापि । तत्रापि गुणाद् दोषता जाता । चेद् दूरतस्तिष्ठति, संकोचशङ्कया तदाऽप्यप्रगल्भः कथ्यते । वा प्रमादी कथ्यते । तत्रापि गुणैर्गलितम् । सेवकः क्षान्त्या क्षमया भीरुः कथ्यते यतोऽयं रको वर्तते । कियानयमस्माभिः संमुखं (हं. सन्मुखं) जस्पितुं कथं शक्तः समर्थः ? । यदि चेन्न सहते साभिमानत्वात् तदा प्रायसः (शः) स्वभावान् नामिजातः अहंकारीति कथ्यते। एवं कृत्वा सेवकस्य सेवाधर्मः परमगहनः कथमपि कर्तुं न शाशक्यते । अन्यदपि गहनं केनापि सेवयितुमशक्यम् । तथायमपि च सेवागहनः । किं० सेवाधर्मः परमगहनः ? । योगिनामप्यगम्यः । अन्यो गहनो योगिभिः साध्यते । लघुसाध्यो (हं. लब्धं साध्यो न) भवति । परमयं सेवाधर्मः परमगहनो योगिभिरपि ज्ञातुं न पार्यते । एतावता सेवा दुःखमयी रहस्यमिति ॥ ४०॥ ___ अथ सत्पुरुषचरित्रस्वरूपमाह कविःनम्रत्वेनोन्नमन्तः परगुणकथनैः स्वान् गुणान् ख्योपयन्तः
खार्थान् संपादयन्तो विततपृथुतरारम्भयत्नाः परार्थे । क्षान्त्यैवाक्षेपरूक्षाक्षरमुखरमुखान् दुर्मुखान् दूषयन्तः
सन्तः साश्चर्यव(च)र्या जगति बहुमताः कस्य नाभ्यर्चनीयाः॥४॥ १ घ. दूरतश्चाप्र । २ हं. क्षाप। ३ घ. पृथुफलारम्भ। ४ हं. क. च. वापेक्ष्य; ज 'बोपेक्ष। ५ घ. श्वाश्चर्यचर्या हं. च. साश्चर्यवर्या ।
३ शतकत्र
Page #53
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[१.४२] सन्तः सत्पुरुषाः। जगति पृथिव्यां कस्य नाभ्यर्चनीयाः ? । अपि तु सर्वस्यापि । किं. सन्तः । बहुमताः बहुभिर्मानिताः । पुनः किं० सन्तः ? । साश्चर्यवर्याः सह आश्चर्येण वयं वर्या सौन्दर्य येषां ते साश्चर्यवर्याः। वा अथवा सह आश्चर्येण चर्या आचरणं येषां ते। तथा सन्तः किं कुर्वन्तः ? । नम्रत्वेन उनमन्तः विनयेन नमनशीलत्वेन उन्नतिं भजन्तः । एतावता नतिः उत्तमानामेव भवति । पुनरपि किं कुर्वन्तः । स्वान् गुणान् ख्यापयन्तः कथयन्तः। कैः । परगुणकथनैः परेषां गुणाः परगुणाः, परगुणानां कथनं परगुणकथनं, तैः । ननु परगुणान् त एव बदन्ति ये उत्तमाः स्युः । सन्तः पुनरपि किं कुर्वन्तः? । परार्थे विततपृथुतरारम्भयत्नाः सन्तः । खार्थान् संपादयन्तः साधयन्तः । वितता विस्तीर्णाः पृथुतरा महान्तः आरम्भयत्नाः येषां ते विततपृथुतरारम्भयत्नाः। एतावता महान्ति परकीयानि कार्याणि कृत्वा स्वकीयानि कार्याणि कुर्वन्ति साधयन्ति । सन्तः पुनरपि किं कुर्वन्तः ? । दुर्मुखान् दूषयन्तः । वा दुःखयन्तः तोदनां (हं. नो दानं ) ददतः । कया? । क्षान्त्यैव क्षमयैव । किं० दुर्मुखान् ? । आक्षेपलक्षाक्षरमुखरमुखान् । आक्षेपेण रूक्षाणि आक्षेपरूक्षाणि यानि अक्षराणि तानि आक्षेपरूक्षाक्षराणि, तैः मुखराणि वाचालानि मुखानि येषां ते क्षान्त्यैवाक्षेपरूक्षाक्षरमुखरमुखाः (हं. च. मुखाः) तान् । एवंविधाः सन्तो भवन्ति ॥ ४१॥
अथ निःशेषनिर्णयमाह कविः
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः ___ सत्यं चेत् तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् । सौजन्यं यदि किं निजैः खमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥ ४२ ॥ रे चेतः!। चेत् यदि लोभः तदाऽगुणेन किम् ? । लोभेन गुणा गलिता एव । तदा नैर्गुण्यमेव जातम् । यतो 'लोभमूलानि पापानि' । यत्र पापं (क. प्रान्ते. छ. लोभो) तत्र अगुणाः स्वयमेव संभवन्तीत्यर्थः । यदि चेत् पिशुनता तदा पातकैः किम् ? । यतः पातकानां मूलं सैव । चेद् यदि सत्यं तदा तपसा किम् ? । तपसां मूलं सत्यमेव । यदि चेत् शुचि मनः तदा तीर्थेन किम् । तीर्थ निर्मलं मन एव । यतस्तत्त्वं किं मनः 'जउ मन चंगा तउ कठउती गंगा' (टें. इति लोकोक्तिः)। यदि चेत् सौजन्यं तदा निजैः किम् ? । तस्य निखिलः संसारी निज एव । सौजन्यखभावात् । यदि चेत् खमहिमा तर्हि मण्डनैः किम् ? । यतः सत्पुरुषाणां महिमैव मण्डनम् । महिमानमन्तरेण मण्डनैः किमित्यर्थः । यदि चेत् सद्विद्या तर्हि धनैः किम् ? । महतो सद्विद्या एव धनं गुरूणां प्रसादतः। चेद् यदि अपयशः तर्हि मृत्युना किम् ? । प्राणिनां मृत्युस्तदेव यदपयशः । यतः स जीवन्नपि मृतः यस्य लोकेऽपश्लोकः ॥ ४२ ॥ ___ १ हं. क. तपसापि. श्लोकस्योत्तरार्ध, हं. कोशे न दृश्यते।
Page #54
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. ४३-४४]
नीतिशतकम् सत्त्ववतः पुरुषस्य सत्त्वमुद्दिश्यान्योक्तिमाहअम्भोजिनीवननिवासविलासमेव
हंसस्य हेन्त नितरां कुपितो विधाता । न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां __वैदेग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ॥ ४३ ॥
हन्त इति खेदे । विधाता विश्वेश्वरो हंसस्य नितरां अतिशयेन कुपितः सन् अम्भोजिनीवननिवासविलासमेव हतु समर्थः । अम्भोजिन्या वनं अम्भोजिनीवनम् , अम्भोजिनीवने निवासस्य विलासः अम्भोजिनीवननिवासविलासः, तं अम्भो० । न त्वसौ विधाता अस्य राजहंसस्य वैदग्ध्यकीर्ति अपहर्तुं समर्थः । विदग्धस्य भावो वैदग्ध्यम् , वैदग्ध्यस्य कीर्तिः वैदग्ध्यकीर्तिः, ताम् । किं० वैदध्यकीर्तिम् । दुग्धजलभेदविधौं प्रसिद्धाम् । दुग्धं च जलं च दुग्धजले, दुग्धजलयोर्भेदः दुग्धजलभेदः, दुग्धजलभेदस्य विधिः दुग्धजलभेदविधिः, तस्मिन् दुग्धअलमेदविधौ प्रसिद्धाम् ॥ ४३ ॥
अथाभाग्यवतः पुरुषस्य स्वरूपमाह कविः
खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैः संतापितो मस्तके __ वाञ्छन् देशमनातपं विधिवशाद् बिल्वस्य मूलं गतः । तत्राप्यस्य महाफलेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ॥ ४४ ॥ प्रायः खभावेन यत्र भाग्यरहितो भाग्यहीनो गच्छति तत्रैव आपदो यान्ति । आपदस्तु अभाग्यवन्तमन्तरेण आधाराधेयन्यायेन [न] तिष्ठन्ति । एतावता यत्राभाग्यवान् पुमान् तत्रैवापदोऽनुगामिन्यः । कथम् । खल्वाटो मस्तककचवर्जितः बिल्वस्य मूलं गतः। किं कुर्वन् ? । अनातपं देश प्रदेशं वाञ्छन् । किं० खल्वाटः ?। दिवसेश्वरस्य सूर्यस्य किरणैः 'मस्तके संतापितः खलु । खल्वाटस्य सूर्यकिरणास्तपर्तुपूर्णाः (हं. पूर्ती; च. ट. पूर्तो) मस्तके समुद्वेजयन्ति।तत्रापि बिल्वमूलेऽपि विधिवशात् प्रबलवातेन वाता (?) एकेन अस्स बिल्वस्य महाफलेन पतता सशब्दं शिरो भग्नम् । तस्माद् भाग्यरहितस्य पुंसः सर्वत्रापि भाग्यं फलति ॥ ४४ ॥
अथ प्राणिनां भाग्यस्वरूपमाह कविः
नैवाकृतिः फलति नैव कुलं न शीलं । विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।
१ ग. घ.ज. हन्ति । २ क.च.छः वैदग्ध । ३ छ. घ. मूले । ४ घ. तत्रापदां भाजनम् ।
Page #55
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१.४५-४७] भाग्यानि पूर्वतपसा किल संचितानि
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ॥ ४५ ॥ पुरुषस्य भाग्यानि काले कर्मफलोदये फलन्ति प्रादुर्भवन्ति । किंलक्षणानि भाग्यानि । किल इत्यागमे । पूर्वतपसा संचितानि । आकृति व फलति । कुलं नैव फलति । शीलं नैव फलति । विद्या नैव फलति । च अन्यत् । यत्नकृता सेवापि न फलति । अतः कारणात् तपःसंचयमेव कुर्वन्तु । किमपरैरुपायैर्बहुभिः ? ॥ ४५ ॥
अथ सारासारसमाहारः[२] प्राह कविःऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो
ज्ञानस्योपशमः शमस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः । अक्रोधस्तैपसां क्षमा प्रभवितुर्धर्मस्य निर्व्याजता __ सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ॥ ४६ ॥
ऐश्वर्यस्य महत्ताया विभूषणमलंकरणं सुजनता सौजन्यं वर्तते । शौर्यस्य पराक्रमस्य वाक्संयमः स्वल्पभाषणं विभूषणम् । ज्ञानस्य विभूषणं उपशमः । शमस्य उपशमस्य विनयः विभूषणम् । पात्रे व्ययं (यः) वित्तस्य विभूषणम् । तपसो विभूषणम् अक्रोधः। प्रभवितुः महारथिनः क्षमा विभूषणम् । निर्व्याजता निःकपटता धर्मस्य विभूषणम् । इदं शीलं परं प्रकृष्टं भूषणं वर्तते । किं० शीलम् ? । सर्वेषामपि पूर्वोक्तानां प्रकाराणां सर्वकारणं परमालंकरणम् (च. परमानन्दकरणं; ट. परमं कारणम् ) ॥ ४६ ॥
अथोत्तममध्यमजघन्यपुरुषाणां स्वरूपमाहएते सत्पुरुषाः परार्थघटकाः खार्थ परित्यज्य ये
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाविरोधेन ये ।
तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं खार्थाय निम्नन्ति ये - ये तु नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ॥ ४७ ॥
ये स्वार्थ परित्यज्य स्वकीयं कार्य मुक्त्वा परार्थघटकाः परकार्ययोजकाः [एते सत्पुरुषाः] । तु पुनः एते सामान्याः ये परार्थ परकार्ये उद्यमभृतः उत्साहधराः । केन ? । खार्थाविरोधेन । कोऽर्थः ? । स्वकीयोऽर्थः स्वार्थः, तस्याविरोधः अपरिहारः स्वार्थाविरोधः । तेन खार्थाभ नेत्यर्थः । अमी ते प्रोच्यमानाः मानुषराक्षसाः नरयातुधानाः। के ?। ये परहितं परकार्य
१. खलु. २ ग. यथेह । ३ घ. ज. तपसः। ४ छ. ज. ते । ५ ध.ये स्वार्थतो हन्यते ।
Page #56
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.४८-४९]
नीतिशतकम् (क. छ. ये ) स्वार्थाय निघ्नन्ति विनाशयन्ति । स्वार्थमन्तरेण परेषां कार्य विनाशयन्ति । कविः ससंशयं प्राह-वयं ते के न जानीमहे । तु पुनः ये अधमाधमाः निरर्थकं स्वार्थविहीनं परहितं परकार्य नन्ति विनाशयन्ति ।। ४७ ॥
अधुना संगतेः फलमाह कविः
जाड्यं धियो हरति सिञ्चति वाचि सत्यं ___ मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्ति
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ॥ ४८ ॥ हे विद्वन् ! । कथय निवेदय । पुंसां पुरुषाणां सत्संगतिरुत्तमसंसर्गः किं न करोति। अपि तु सर्वमपि । काको(कू)क्तिरियम् । किं किं कुरुते ? । धियो बुद्धेर्जाड्यं मौढ्यं हरति स्फेटयति । वाचि वाण्यां सत्यं सिञ्चति क्षरति । पुनः सत्संगतिः किं करोति ? । मानोनतिं महत्त्वप्रौढिं दिशति ददाति । पुनः सत्संगतिः किं करोति ? । पापमपाकरोति निराकुरुते । पुनरपि सत्संगतिः चेतः प्रसादयति नैर्मल्यं करोति । पुनरपि सत्संगतिः दिक्षु दशस्वपि ककुप्सु कीर्ति तनोति विस्तारयति । अतः कारणात् सत्संगतिः मनोभीप्सितं ददातीत्यर्थः] ॥ ४८॥
अथोत्तमानां गुणवर्णनं प्राह कविःवाञ्छा सज्जनसंगमे परगुणे प्रीतिगुरौ नम्रता
विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादाद् भयम् । भक्तिश्चार्हति शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खले
ऐते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ॥ ४९ ॥ तेभ्यो नरेभ्यो नमो नमस्कारं करोमि । येषु पुरुषेषु अतिनिर्मलगुणा वसन्ति । एते के के ? । येषामुत्तमपुरुषाणां सजनसंगमे उत्तमपुरुषसंसर्गे वाञ्छा । अन्यच्च । येषां परगुणे प्रीतिः । परेषां गुणः परगुणः तस्मिन् । येषां च पुरुषाणां गुरौ पूज्ये नम्रता नमनशीलत्वम् । येषां सत्पुरुषाणां व्यसनं विद्यायां न तु द्यूतादि (छ. 'दौ)। येषामुत्तमानां रतिः संतोषः खयोषिति । न तु परनारीप्रभृति(च. छ. 'त)पापेषु । अन्यच्च येषां सत्पुरुषाणां भयं लोकापवादाद्, न तु वैरिप्रमुखपदार्थेभ्यः। च अन्यत् । येषां सत्पुंसां भक्तिरर्हति श्रीपरमपुरुषे न तु यक्षक्षेत्राधिपतिषु । च अन्यत् । येषां शक्तिरात्मदमने न तु खरतुरगादिषु । येषां विदुषां संसर्गमुक्तिः खले दुर्जने पुरुषे न तु देवगुरुषु । ये एतैर्गुणैरलंकृतशरीरा गुणवन्तो धीरास्तेभ्यो नमो (च. ट. नरेभ्यो) नमः ॥ ४९ ॥
१ ग. घ. शूलिनि। २ ज. येष्वेते निवसन्ति ।
Page #57
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१.५०-५१] अथ नारीणां दोषानाह कविः
अग्राह्यं हृदयं यथैव वदनं यदर्पणान्तर्गतं ___ भावः पर्वतसूक्ष्ममार्गविषमः स्त्रीणां न विज्ञायते । चित्तं पुष्करपत्रतोयचपलं विद्वद्भिराशंसितं
नारी नाम विषाङ्कुरैरिव लता दोषैः समं वर्धिता ॥ ५० ॥ नाम इति संबोधने । नारी दोषैः समं वर्धिता वर्तते । नारी केव ? । लतेव वल्लीवद् । यथा लता विषाङ्करैः विषप्ररोहैः समं वर्धिता भवति । कथम् ? । यस्या नार्या हृदयं अग्राह्यं वर्तते ग्रहीतुं अशक्यम् । यथा शब्दो इवार्थे वर्तते । नारीहृदयं क(कि)मिव ? । दर्पणान्तर्गत आदर्शप्रतिबिम्बितं वदनमिव । एवं निश्चयेन । यथा दर्पणान्तर्गतं वदनमग्राह्य ग्रहीतुमशक्यं तथा तस्या हृदयमपि । तु पुनः । स्त्रीणां नारीणां भावश्चित्ताभिप्रायो न विज्ञायते नावगम्यते । किं० भावः ? । पर्वतसूक्ष्ममार्गविषमः । पर्वतस्य सूक्ष्ममार्गः पर्वतसूक्ष्ममार्गः, अलभ्यमार्ग इत्यर्थः । तद्वद्विषमः पर्वतसूक्ष्ममार्गविषमः । यस्याः नायिकायाः चित्तं विद्वद्भिः पण्डितैः पुष्करपत्रतोयचपलं आशंसितं कथितम् । अतः कारणात् नारी दोषवसतिः (छ. तिगृहं) प्रोच्यते ॥ ५० ॥
अथात्मसंबोधनमाह कविः
तृष्णां छिन्धि भज क्षमां जहि मदं पापे रतिं मा कृथाः . सत्यं ब्रूह्यनुयाहि साधु पदवीं सेवस्व विद्वज्जनान् । मान्यान् मानय विद्विषोऽप्यनुनय प्रच्छादय खान् गुणान्
कीर्तिं पालय दुःखिते कुरु दयामेतत् सतां चेष्टितम् ॥५१॥ रे चेतः! । तृष्णां छिन्धि निराशय । क्षमां भज । मदं जहि त्यज । रतिं पापे मा कृथाः । सत्यं ब्रूहि । साधुपदवीं अनुयाहि अनुगमनं कुरु । विद्वज्जनान् सेवख । मान्यान् पूज्यान् मानय पूजय । विद्विषोऽपि अनुनय प्रसादय । स्वान् स्वकीयान् गुणान् प्रच्छादय आवृणु । कीर्तिं पालय । दुःखितेषु जनेषु दयां कुरु । सतां साधूनां एतच्चेष्टितम् । अस्मिन् मार्गे साधवो गच्छन्तीत्यागमः ॥ ५१ ॥
अथाधैर्यशिष्या(क्षा)माह कविः गुण दगुणवद्वा कुर्वता कार्यजातं
परिणतिरवधार्या यत्नतः पण्डितेन । १. घ. तथैव । २ घ. णान्तः स्थितम् । ३ घ. तरलं। ४ क. कार्यमदौ ।
Page #58
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीतिशतकम्
अतिरभसकृतानां कर्मणामाविपत्तेर
भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ॥ ५२ ॥
पण्डितेन मनुष्येण यत्नतः कार्याणां परिणतिरवधार्या परिणामश्चिन्तनीयः । पण्डितेन किं कुर्वता ? । कार्यजातं कर्तव्यसमूहं गुणवद् गुणसहितं अगुणवद् गुणरहितं कुर्वता । इदं परिणामसुन्दरं इदमपरिणामसुन्दरं इति विचारं कुर्वता । कथमिति ? । अतिरभसकृतानां कर्मणां अत्युत्सुकतया समाचरितकार्याणां हृदयदाही मानसदाहात्मकः शल्यतुल्यो विपाको भवति । तस्य कर्मणो हृदयदाहं दुःखं भवति ॥ ५२ ॥
एको देवः केशवो वा जिंनो वा एका भार्या सुन्दरी वा दरी वा । एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा एको वासः पत्तने वा वने वा ॥ ५३ ॥ अधुनोपदेशसूचकमर्थमाह कविः -
सुगमम् ॥
स्थाल्यां वैडूर्यमय्यां पचति तिलखलं चन्दनैरिन्धनौधैः सौवर्णैर्लाङ्गलायैर्विलिखति वसुधामर्कतूलस्य हेतोः । छित्त्वा कर्पूरखैण्डान् वृतिमिह कुरुते कोद्रवाणां समन्तात्
प्राप्येमां कर्मभूमिं विचलति मनुजो यस्तैपो मन्दभाग्यः ॥५४
[ १. ५२-५५]
यो मन्दभाग्यो मनुजस्तपो विचलति ( ट . न चरति ) । किं कृत्वा ? । इमां कर्मभूमिं प्राप्य । स किं कुरुते ? । वैडूर्यमय्यां मरकतमणिसमुद्भवायां स्थाल्यां हण्डिकायां तिलखलं पचति । ननु रे मूढ ! वैडूर्यमय्यां स्थाल्यां किं तिलखलः पच्यते ? । एतावता स एव मूढो यस्ता - दृग्विधायां स्थाल्यां तादृक्कर्म करोति । कैः ? । चान्दनैरिन्धनौधैः चन्दनसमुद्भवकाष्ठसमूहैः । सौवर्णैर्लाङ्गलायैः अर्कतूलस्य हेतोः वसुधां धरणीं (क. छ. भूमिं ) विल( छ. खिति । ननु मूर्ख ! सौवर्णैर्लाङ्गलायैः अर्कतूलस्य हेतोः त्वामन्तरेण कश्चिद् वसुधां विल ( छ. लि)खति । समूढः कर्पूरखण्डान् छिवा समन्तात् चतुर्दिशं इह अस्मिन् जीवलोके कोद्रवाणां वृत्तिं ( वृतिं ) रक्षणवृतिभित्तिं कुरुते । इह पुण्यमयं क्षेत्रं प्राप्य प्रत्यहं पापं कुरुते ॥ ५४ ॥
कविः सुकृतस्य माहात्म्यमाह
भीमं वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं
सर्वो जनः स्वजनतामुपयाति तस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य ॥ ५५ ॥
२३
१ हं चान्दनैर । २ च. छ. मूलस्य । ३ घ खण्डं । ४ घ. न चरति । ५ हं. यत्तपो । ६ क, ग, घ. सुजनताम् । ७ च. विफलं ।
Page #59
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[१. ५६-५८] यस्य नरस्य विपुलं विस्तीर्ण पूर्वसुकृतं पुरा कृतं पुण्यं अस्ति । तस्य पुंसः भीमं वनं पुरं नगरं भवति । किं पुरम् ? । प्रधानम् गढमढमन्दिरप्राकारसहितम् । तस्य पुंसः सर्वो जनो निखिललोकः स्वजनतां मित्रतां याति प्राप्नोति । च अन्यत् । कृत्स्ना हं. कृष्णा] भूः समस्ताऽपि वसुंधरा सनिधिरत्नपूर्णा भवति । सत्प्रधानानि निधीनि संनिधीनि, सन्निधीनां रत्नैः पूर्णा सन्निधिरत्नपूर्णा । सन्निधानरत्नैः संभृता इत्यर्थः। अत एव प्राणिनां पूर्वकृतपुण्यमेव विलोक्यते ॥ ५५॥
पुनः पुण्यप्रभावमाह कविःवने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा ।
सुप्तं प्रमत्तं विषमैस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुरा कृतानि ॥ ५६ ॥
प्राणिनां पुरा कृतानि पुण्यानि रक्षन्ति । कं प्राणिनम् ? । सुप्तं प्रमत्तम् । वा अथवा विषमस्थितम् । क? । वने रणे । पुनः क ? । शत्रुजलाग्निमध्ये । पुनरपि क ? । महार्णवे पर्वतमस्तके वा ॥ ५६ ॥
अथ कविः कर्मस्वभावमाहमजत्वम्भसि यातु मेरुशिखरं शत्रु जयत्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवनादि सकला विद्याः कलाः शिक्षतु । आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत् कृत्वा प्रयत्नं पुनर्
नाभाव्यं भवतीह कर्मवशतो भाव्यस्य नाशः कुतः ॥ ५७ ॥ इह अस्मिञ् जीवलोके अभाव्यं न भवति । कर्मवशतो भाव्यस्य पदार्थस्य कुतो नाशः। अम्भसि पानीये (च. ट. जले) मञ्जतु झम्पां ददातु । अन्यच्च । प्राणी मेरुशिखरं सुरगिरिशृङ्गं यातु । आहवे संग्रामांगणे शत्रु वैरिणं जयतु । वाणिज्यं करोतु । कृषिसेवनादि करोतु । सकला: समस्ताः विद्याः कलाः शिक्षतु । पुनः पुनरपि यत्नं कृत्वा अभियोग[मुद्यमं] विधाय विपुलं आकाशं खगवत् पक्षिवत् प्रयातु गच्छतु । तथाप्यभाव्यं न भवति ।। ५७ ॥
अथ विवेकस्थितिमाह कविःवरं प्राणच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश
प्रहारैरुद्गच्छद्बहुलदहनोद्गारगुरुभिः । तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे
न चासौ संपातः पयसि पयसां पत्युरुचितः ॥ ५८ ॥ अहह इति खेदे । तुषाराद्रेः सूनोः हिमाचलस्य पुत्रस्य मैनाकस्य पयसां पत्युः समुद्रस्य पयसि पानीये संपातो निपातो नोचितः । क सति । पितरि हिमाचले क्लेशविवशे
१. च संकटे। २. ग. च. विषमं ।
Page #60
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १.५९-६१]
नीतिशतकम् सति दुःखविह्वले सति । समदमघवन्मुक्तकुलिशप्रहारैः प्राणच्छेदो वरं जीवनाशो वरम् । समदो मदसंयुक्तो योऽसौ मघवा इन्द्रः तेन मुक्ताः ये कुलिशप्रहाराः वज्राघाताः, तैः । किं० कुलिशप्रहारैः ! । उद्गच्छद्धहुलदहनोद्गारगुरुभिः ऊर्ध्वं गच्छन्तो ये बहुलाः प्रचुराः दहनस्य वैश्वानरस्य उद्गाराः तैरुदारैर्गुरवः प्रबलास्ते, तैः । परं तथापि जनके क्लेशनिमग्ने सति स्वयमात्मरक्षाय (2) समुद्रे पतितुं न युक्तम् ॥ ५८ ॥
अधुना कविर्दैवगति प्राहनेता यत्र बृहस्पतिः प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः
खर्गो दुर्गमनुग्रहः खलु हरेरावणो वारणः । इत्यैश्वर्यबैलान्वितोऽपि मघवान् भग्नः परैः संगरे
तद् व्यक्तं ननु दैवमेव शरणं धिग् धिग वृथा पौरुषम् ॥५९॥ , मघवान् (छ. बलभिद्) इन्द्रः संगरे संग्रामे परैर्वैरिभिः भन्नः । किं० मघवान् ? । इति प्रोच्यमानः । ऐश्वर्यबलान्वितोऽपि स्वामित्वसैन्य( हं. सौम्य )संयुक्तोऽपि । यस्य मघवतो बृहस्पतिर्नेता शिष्या (क्षा )दाता । यस्य मघवतः प्रहरणं शस्त्रं वज्रम् । यस्य मघवतः सैनिकाः सेनाचराः सुराः देवाः । यस्य मघवतो दुर्गो (ट. दुर्ग) वप्रः स्वर्गः । खलु निश्चितम् । हरेः श्रीवासुदेवस्य अनुग्रहः प्रसादः । यस्य मघवतः ऐरावणो वारणो गजः । तथापीन्द्रो दैत्यैर्भमः । किं कारणम् ? । तत् तस्मात्कारणात् । ननु निश्चितं व्यक्तं प्रकटं दैवमेव शरणम् । विग धिग् वृथा पौरुषम् । एतावता दैवात् समर्थः कोऽपि नास्ति ॥ ५९॥
अथ व्यवसायाधिक्यमाह कविः
कर्मायत्तं फलं पुंसां बुद्धिः कर्मानुसारिणी। ... तथापि सुधिया भाव्यं सुविचार्यैव कुर्वता ॥ ६० ॥
पुंसां पुरुषाणां फलं कर्मायत्तं वर्तते । बुद्धिः कर्मानुसारिणी वर्तते । तथापि सुधिया पुंसा सुविचार्यैव कुर्वता भाव्यं विचार्य विचार्य कार्य कार्यम् ॥ ६० ॥
अन्यच्च
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महारिपुः। नास्त्युद्यात् परो बन्धुर् यं कृत्वा नावसीदति ॥ ६१ ॥
हि निश्चितम् । मनुष्याणां महारिपुरालस्यं प्रमादो वर्तते। किं० प्रमादः । शरीरस्थः। उद्यमात्परो व्यवसायादन्यो बन्धुर्बान्धवो नास्ति । किं कृत्वा ? । प्राणी यं उद्यम बन्धुं कृत्वा । न अवसीदति न दुःखी भवति ॥ ६१ ॥
१ज. ऐरावतो। २. हं. रावणः; घ. वाहनः । ३ घ. समन्वितो। ४ छ. घ. बलमिद ग. बलिभिर ज. मघवा । ५ ग. तद्युक्तं । ६ग. च. 'म परो; घ.मसमो। ७ घ. कृत्वा थे।
४ शतकत्र.
Page #61
--------------------------------------------------------------------------
________________
२६
भर्तृहरिकृत- शतकत्रयम्
अथ मूर्खजनसंसर्गफलमाह
वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह ।
"मा मूर्खजनसंसर्गः सुरेन्द्र भवनेष्वपि ॥ ६२ ॥ पर्वतदुर्गेषु वनचरैः सह शशक-संबर- हरिणप्रमुखैः सह वने भ्रान्तं वरम् । मूर्खजनसंसर्गः सुरेन्द्रभ(च. ट. भु ) वनेषु इन्द्रसभायाम् अपि न वरम् । एतावता विद्वज्जनसंसर्ग एव प्रधानः ॥ ६२ ॥
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ ६३ ॥ इति सुगमार्थः ॥ ६३ ॥ अथ काञ्चनगुणाना कविः -
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान् गुणज्ञः । स एव वैक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ति ॥६४॥ • सर्वे गुणाः काञ्चनं सुवर्ण आश्रयन्ति । कथम् ? । यस्य पुंसः वित्तं सुवर्णमस्ति स नरः अकुलीनोऽपि कुलीनः । यस्य वित्तमस्ति सः अपण्डितोऽपि पण्डितः । यस्य वित्तं स मूर्खोऽपि श्रुतवान् विद्वान् । यस्य वित्तं सोऽविनीतोऽपि विनीतः । यस्य वित्तं सः अवक्तापि वक्ता । यस्य वित्तं सः अदर्शनीयोऽपि कुरूपोऽपि दर्शनीयः । अतः कारणात् सर्वे गुणाः वित्तवति भवन्ति ॥ ६४ ॥
अथ धीरत्वमाह कविः
[ १. ६२-६६ ]
रत्नैर्मास्तुतुषुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् ।
सुधां विना न प्रययुर्विरामं नै निश्चितार्थाद् विरमन्ति धीराः ॥ ६५ ॥
महार्थैः बहुमूल्यै रत्नैः पदार्थैः देवा न तुतुषुः न जहर्षुः [ जहृषुः ] । देवा भीमविषेण रौद्रगरेण भीतिं न भेजिरे । देवाः सुधां विना विरामं न प्रययुः विरतिं न प्रापुः । कथं० धीराः ? । प्राणिनो निश्चितार्थात् सत्यार्थात् न विरमन्ति न व्याघुटन्ति ॥ ६५ ॥ अथ सत्पौरुषीं प्रकृतिमाह कविः -
सन्त्यन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयोऽसंभाविनः पञ्चषास्
तान् प्रत्येष विशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिनेश्वर - निशाप्राणेश्वरौ भास्करौ
भ्रातः ! पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषाकृतिः ॥ ६६ ॥
१. भुवने । २ घ. श्रुतिमान् । ३ घ. युक्ता । ४ च. जनाः । ५ क. ग. घ. व. छ. ज. महार्हेस् । ६ घ. विनिश्चिता । ७ ग. घ. संभाविताः । ८ घ. भास्वरौ ।
Page #62
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १.६७-६९ ]
नीतिशतकम्
हे भ्रातः ! पश्य पश्य अवलोकयावलोकय । दानवपती राहुः । पर्वणि सूर्यचन्द्रग्रहणे. (ग्रहण -) समये द्वावेव ग्रसते । द्वौ कौ ? । दिनेश्वर निशाप्राणेश्वरौ सूर्याचन्द्रमसौ । किं० दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ ? | भास्करौ दीप्तिकरौ । अन्येऽपि बृहस्पतिप्रभृतयः पञ्चषा वर्तन्ते पञ्चषट् संख्या येषां ते पञ्चषाः ? । एष ( क. छ. एषो ) राहुः तान् प्रति सोमयमगुरुशुक्रादीन् प्रति वा मङ्गलबुध (क. च. छ. 'बुद्ध ) गुरुशुक्रशनिप्रभृतीन् प्रति न वैरायते न वैरं करोति । प्रसते द्वयोः सूर्याचन्द्रमसोरेव । किं० दानवपती राहु: ? । शीर्षावशेषाकृतिः शीर्षमेव मस्तकमेव अवशेषा आकृतिः शरीरं यस्य सः । शरीरं मूलतो नास्ति । एकेन शीर्षेणैव सूर्या (च. ट. सूर्य ) चन्द्रमसौ सर्वदा निगलितौ ॥ ६६॥
1
श्रोत्रं श्रुतेनैव न कुण्डलेन दानेन पाणिर्न तु कङ्कणेन । आभोति कायः करुणापराणां परोपकारेण न चन्दनेन ॥ ६७ ॥
•
श्रोत्रं श्रवणं एव निश्चयेन । श्रुतेन शास्त्रेण आभाति । कुण्डलेन न कर्णाभरणेन न । तथा तेन प्रकारेण पाणिर्हस्तो दानेन आभाति शोभते । न तु कङ्कणेन । करुणापराणां दयापराणां कायः परोपकारेण आभाति न चन्दनेन । महतां मण्डनं बाह्यमण्डनादपि अभ्यन्तरं महत् ॥ ६७ ॥
जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
नास्ति येषां यशः काये जरामरणजन्मभीः ॥ ६८ ॥
2७
ते सुकृतिनः पुण्यवन्तो जयन्ति । रससिद्धाः कवीश्वराः जयन्ति सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते । कथम् ? । येषां सुकृतिनां कवीश्वराणामपि यशः काये जरामरणजन्मभीर्नास्ति । जरा च मरणं च जन्म च जरामरणजन्मानि तेषां भीः जरामरणजन्मभीः । येषां यशः शरीरं निश्चलं तेषां जरामरणभीः का ? ॥ ६८ ॥
अथ तत्त्वविदः प्राह कविः -
यात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद्वा धनं
तत् प्राप्नोषि मरुस्थलेऽपि नितरां मेरौ च नातोऽधिकम् । तरो भव वित्तवत्सु कृपणां वृत्तिं वृथा मा कृथाः
कूपे पश्य पयोनिधावपि घटो गृह्णाति तुल्यं जलम् ॥ ६९ ॥
प्राणिन् । तत् तस्मात्कारणात् धीरो भव । किमुत्सुकत्वेन ? । तस्मात् कस्मात् ? । धात्रा विधात्रा यत् स्तोकं वा महद् धनं निजभालपट्टलिखितं वर्तते । तत् प्राप्नोषि (ट. °ति ) । मरुस्थलेऽपि नीरसदेशेऽपि । परं नितरां अतिशयेन चेदधिकं वाञ्छसि तदा मेरौ सुरगिरावपि
१ घ. श्रुतं । २ घ. विभाति । ३ग. घ. प्राप्नोति ।
Page #63
--------------------------------------------------------------------------
________________
२८
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[१.७०-७२]
अतो नाधिकम् । तत् तस्मात्कारणात् धीरो भव । वित्तवत्सु धनवत्सु कृपणां वृत्तिं लोभवृत्तिं मा कृथाः । नो चेन्मन्निवेदितं मन्यसे तदा पश्य पश्य । कूपे, अपि पुनः । पयोनिधौ घटः कुम्भः तुल्यं जलं गृह्णाति । स्वभरणान्नाधिकम् । यादृशं भरणं तादृशं भाग्यम् । भाग्यादधिकं कापि किमपि न प्राप्यते । तत्त्वमिदम् ॥ ६९ ॥
अथ धीराधीरयोः स्वरूपमाह कविः -
लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातं भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च । श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्क्ते ॥ ७० ॥
वा भषणः । पिण्डदस्य हनदायकस्य लाङ्गूलचालनं पुच्छो (हं. लो) डनं कुरुते । च अन्यत् । अधश्चरणावपातं कुरुते । श्वा पिण्डदस्य वदनोदरदर्शनं च कुरुते । वदनं चोदरं च वदनोदरं तयोर्दर्शनं वदनोदरदर्शनम् । किं कृत्वा ? । भूमौ निपत्य । तु पुनः । गजपुङ्गवो गजेन्द्रो धीरं विलोकयति । च अन्यत् चाटुशतैः भुङ्क्ते । एवं धीराधीरयोः स्वरूपं भवति ॥७०॥ अथ राजशिष्या (क्षा ) माह कवि :
राजन् ! दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेन
तेनोद्य (?) वत्समिव लोकर्ममुं पुषाण ।
तस्मिंस्तु सम्यगनिशं परिपोष्यमाणे
नानाफला फलति कॅल्पलतेव भूमिः ॥ ७१ ॥
हे राजन् ! यदि चेत् । एनां क्षितिधेनुं दुधुक्षसि दोग्धुमिच्छसि । तेन कारणेन अमुं लोकं पुषाण । 'पुष पुष्टौ' । प्रजापोषणं कुरु । कमिव ? । वत्समिव । यथा धेनुं दोग्धुकामः पुमान् वत्सं तर्णकं पुष्णाति प्रतिपालयति । तु पुनः । लोकवत्सं ( छ. °से) अनिशं निरन्तरं सम्यक् परिपोष्यमाणे भूमिकामधेनुः नानाफला फलति । केव ? । कल्पलतेव । यथा कल्पलता परिपोष्यमाणा सती नानामनोरथफला फलति ॥ ७१ ॥
अथ नृपनीतिस्वरूपमाह कवि :
सत्यानृता च परुषा प्रियवादिनी च
हिंसा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या । नित्यव्यया प्रचुर नित्यर्धनागमा च
वाराङ्गनेव नृपनीतिरनेकरूपा ॥ ७२ ॥
१ क. छ. वा । २ घ. ज. एतां । ३ क. ग. घ. तेनाद्य । ४ ग. घ. इमं । ५ ग. ताश्च । ६ ग. घ. नानाफलैः । ७ ग. कामलतेव । ८ ग. पुरुषा । ९ घ. समागमा ।
Page #64
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.७३]
नीतिशतकम् नृपनीतिरनेकरूपा वर्तते। किं० नृपनीतिः । सत्यानृता सत्या चानृता च सत्यान्ता । हंहो या सत्या सा अनृता कथम् ? । अनृता सा सत्या कथम् ? । परस्परविरोधः । अथ विरोधपरिहार इत्थम् । न भो या राजनीतिः सत्याप्युच्यते अनृता चालीकानामपि मन्दिरम् । पुनः किं० राजनीतिः ? । परुषा । च अन्यत् प्रियवादिनी । ननु या परुषा कठोरा सा प्रियवादिनी कथम् ? । या प्रियवादिनी सा कठोरा कथम् ? । अत्रापि परस्परविरोधः । नेत्थं भो या राजनीतिः परुषा कठोरापि कठोरवाक्यानि प्रोच्यन्ते । अन्यच्च प्रियवादोऽप्युच्यते । इति विरोधपरिहारः। पुनरपि किं० राजनीतिः ? । हिंस्रा मारणात्मका । अपि पुनः । दयालुः । हहो या हिंसा सा दयालुः कथम् ? । या दयालुः सा हिंस्रा कथम् ? । अत्रापि विरोधः । अथ विरोधपरिहार एवम्या राजनीतिः हिंसा हिंसामन्तरेण न भवति । दयालुरपि भवति । पुनरपि किं० राजनीतिः । अर्थपरा च अन्यत् । वदान्या दानशीला । ननु भो । या अर्थपरा अर्थपरायणा सा वदान्या दात्री कथम् ? । या दात्री सा अर्थपरा कथं स्यात् ? । इहापि.विरोधः । अथ विरोधपरिहारः एवम्-न हि । या नृपनीतिरर्थपरा अर्थसंग्रहशीला । तथा च वदान्या दानशीला रोरुविहण्डिनी [दारिद्यखण्डिनी] । पुनरपि किं० नृपनीतिः ? । नित्यव्यया चान्यत् प्रचुरनित्यधनागमा। कोऽर्थः । निरन्तरं नित्यम् । निरन्तरं व्ययो यस्यां सा नित्यव्यया । प्रचुरो नित्यं धनागमो यस्यां सा प्रचुरनित्यधनागमा । ननु भो विद्वन् ! या नित्यव्यया सा प्रचुरनित्यधनागमा कथम् ? । या प्रचुरनित्यधनागमा सा नित्यव्यया कथम् ? । अत्रापि परस्परं वाक्ययोर्विरोधः । अथ विरोधसंक्षेपः । ननु या राजनीतिः नित्यव्यया भवति प्रचुरनित्यधनागमापि भवति । नृपनीतिः केव । वाराङ्गनेव । यथा वाराङ्गना अनेकरूपा भवति । यथा वाराङ्गना अनृतापि सत्यापि भवति । परुषापि प्रियवादिनी भवति । अपि पुनः हिंस्रा दयालुर्भवति । अर्थपरा लोभिन्यपि वदान्या दायिनी भवति । नित्यव्ययापि प्रचुरनिस्वधनागमा भवति । यादृशी वाराङ्गना तादृशी नृपनीतिरुदाहृता ॥ ७२॥
अथ भूपानां नैर्गुण्यतामाह कविः
न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम् । . होतारं जुहृतमपि स्पृष्टो दहति पावकः ॥ ७३ ॥ • नाम इति संबोधने । चण्डकोपानां अत्यन्तक्रोधिनां भूभुजां राज्ञां कश्चिदात्मीयो न । अमुमेवार्थ कविर्दृष्टान्तेन ह(ट. द्र)ढयति-पावको वैश्वानरो होतारमपि अमिहोत्रिणमपि दहति । किं० होतारम् ? । जुह्वतमपि आहुतिं ददतमपि ॥ ७३ ॥
अथ विधेस्तिरस्कारमाह कविःविरम विरसायासादस्माद् दुरध्यवसायतो
बिपदि महतां धैर्यध्वंसं यदीक्षितुमीहसे । १ घ. होतारमपि जुह्वन्तं ।
Page #65
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
अपि जडविधे ! कल्याणाय व्यपेतनिजक्रमाः
कुलशिखरिणः क्षुद्रा नैते न वा जलराशयः ॥ ७४ ॥
हे जडविधे हे मूर्खदैव ! अस्माद्दुरध्यवसायतो दुष्टाभिप्रायतो विरम विरतिं भज किं० दुरध्यवसायतः । विरसायासात् । विरसो विरङ्गो आयासो यस्य स विरसायासः; तस्मात् । हे विधे ! यत्त्वं विपदि कष्टे सति महतां धैर्यध्वंसं साहसविनाशं ईक्षितुमीहसे विलोकयितुं वाञ्छसि । हे जडविधे ! एते कुलशिखरिणः कुलगिरयः वा अथवा जलराशयः समुद्राः क्षुद्रा न अणवो न । किं० कुलशिखरिणः तथा जलराशयः ? । कल्याणाय व्यपेतनिजक्रमाः स्वकीय अनुक्रमाः । एतावता महतां साहसव्यपगमं धैर्यध्वंसं न कोऽपि कर्तु क्षमः ॥ ७४ ॥ अथ दुरात्मनां प्रकृतिमाह कविः
अकरुणत्वमकारणविग्रहः परंधनाय रतिः परयोषिति ।
स्वजनबन्धुजनेष्वसहिष्णुता प्रकृतिसिद्धमिदं हि दुरात्मनाम् ॥७५॥
हि निश्चितम् । दुरात्मनां इदं प्रकृतिसिद्धं सहजसंपन्नम् । इदं किम् ? । अकरुणत्वं निर्दयत्वम् । दुरात्मनां सहजेन अकरुणत्वं भवति । अन्यच्च । दुरात्मनां अकारणविग्रहो भवति । तथा दुरात्मनां परधनाय रतिर्भवति परधनहरणे संतोषो भवति । अपरं स्वजनबन्धुजनेषु कुटुम्बवर्गेषु असहिष्णुता भवति मत्सरः स्यात् ॥ ७५ ॥ अथ धीरस्य धीरत्वमाह कविः --
कान्ताकटाक्षविशिखा न खनन्ति यस्य
चित्तं न निर्दहति कोपकृशानुतापः । कर्षन्ति भूरिविषयाश्च न लोभपाशा
[१.७४-७७]
लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ॥ ७६ ॥
स धीरः इदं कृत्स्नं समस्तं लोकत्रयं जयति जयनशीलो भवति । यस्य सत्पुरुषस्य कान्ताकटाक्ष विशिखा प्रियाकटाक्षबाणाः । चित्तं न खनन्ति । 'खन विदारणे' । न विदारयन्ति । अन्यच्च यस्य चित्तं कोपकृशानुतापः क्रोधवैश्वानरतप्तिः । चित्तं न निर्दहति न प्रज्वालयति । चान्यद् लोभपाशा न कर्षन्ति नाक्रमन्ति । किं० लोभपाशाः ? । भूरिविषयाः भूरिः प्रचुरो विषयो गोचरो येषां ते भूरिविषयाः । त एव धन्या येषामेते विशेषाः प्रधनं (च. ट. प्रधानं ) यान्ति ॥ ७६ ॥
अथ खल- सज्जनयोः प्रीतेः स्वरूपमाह कविः -
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण लध्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् । दिनस्य पूर्वार्धपरार्धभिन्ना छायेव मैत्री खल-सज्जनानाम् ॥ ७७ ॥
१ क. छ. क्षुद्रो । २ ग. परधनापहृतिः परयोषितः । ३ ग. प्रकृत ।
Page #66
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१. ७८-८० ]
नीतिशतकम्
३१
खल-सज्जनानां मैत्री दिनस्य पूर्वार्ध - परार्धतुल्या वर्तते । यथा दिवसस्य पूर्वार्धपरार्धे वर्तेते । तथा खलसज्जनानां मैत्रीति तात्पर्यम् । कथम् ? । खलस्य मैत्री आरम्भगुर्वी क्रमेण शनैः शनैः क्षयिणी त्रुटनशीला । सज्जनस्य मैत्री पुरा पूर्वं लघ्वी पश्चात् शनैः शनैः वृद्धिमती वर्धनशीला । इति दुर्जन- सज्जनयोः प्रीतेः स्वभावः ॥ ७७ ॥
पुनः सत्पुरुषचेष्टितमाह कविः -
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते संभ्रमविधिः
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः । अनुत्सेको लक्ष्म्या निरभिभवसाराः परकथाः
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ॥ ७८ ॥
सतां सत्पुरुषाणां इदं असिधाराव्रतं खड्गधारोपमव्रतम् । केनोद्दिष्टम् । किं० व्रतम् ? । दुःकरम् । इदं किम् ? । प्रच्छन्नं गुप्तं प्रदानं निर्घातदानम् । अन्यच्च गृहं उपगते पुरुषे संभ्रमविधिः आदरक्रिया । पुनः प्रियं कृत्वा मौनम् । चान्यत् उपकृतेः सदसि सभायां कथनम् । अपरं किम् ? | लक्ष्म्या अनुत्सेको (क. हं. च. अनुच्छेदो) निरहंकारता । पुनः किम् ? । परकथा निरभिभवसाराः, अपरा भवसाराः । सतां सत्पुरुषाणाम् इदं व्रतम् ॥ ७८ ॥
पुनः सतां चेष्टितमिदम्
छिन्नोऽपि रोहति तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः ।
इति विमृशन्तः सन्तः संतप्यन्ते ने ते विपदा ॥ ७९ ॥
ते सन्तो विपदा न संतप्यन्ते न दुःखिनो भवन्ति । सन्तः किं कुर्वन्तः ? । इति विमृशन्तः इत्थं विचिन्तयन्तः । इतीति किम् ? । तरुर्वृक्षः छिन्नोऽपि रोहति उद्गच्छति । चन्द्रः शशी क्षीणोऽपि क्षयं यातोऽपि पुनरुपचीयते वृद्धिं प्राप्नोति । इति विमर्शनां कुर्वन्तः सन्तो विपदि कष्टेऽपि सति नो दीनमानसा भवन्ति ॥ ७९ ॥
'भवन्ति नम्रास्तरवः फैलोद्गमे नवाम्बुर्भिर्भूरिविलम्बिनो घनाः । अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥ ८० ॥
परोपकारिणां परकार्यनिरतानां एष स्वभाव एव सहजमेव । यत्तु सत्पुरुषाः समृद्धिभिः संपद्भिः अनुद्धताः भवन्ति अनुत्सेका भवन्ति । [ युक्तमिदं तरवो वृक्षाः फलोद्गमे फलाम्रा भवन्ति नमनशीलाः स्युः । घना मेघाः अम्बुभिः पानीयैः भूरिविलम्बिनो न संवन्ति ] प्रचुरमार्गातिक्रमिणो न भवन्ति । यतः 'परोपकाराय सतां विभूतयः' इति रहस्यम् ॥ ८० ॥
१ ग. 'नीया । २ ग. न. विधुरेऽपि । ३ घ फलोद, मैर ४ भूमिं ।
Page #67
--------------------------------------------------------------------------
________________
३२
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१.८१-४] पद्माकर दिनकरो विकेचं करोति चन्द्रो विकाशयति कैरवचक्रवालम् । नाभ्यर्थितो जलधरोऽपिजलं ददाति सन्तःवयं परहितेषु कृताभियोगा॥१॥
सन्तः सत्पुरुषाः परहितेषु परकार्येषु स्वयं कृताभियोगा भवन्ति कृतोद्यमाः स्युः । यथा दिनकरः सूर्यः पद्माकरं कमलवनखण्डं विकाशं विकस्वरं करोति । चन्द्रः कैरवचक्रवालं कुमुदिनीवृन्दं स्वयं विकाशयति । अपि पुनः । जलधरो नाभ्यर्थितोऽपि अयाचितोऽपि जलं ददाति । तथा सत्पुरुषाः स्वयमेव परकार्यपरायणाः भवन्ति ॥ ८१ ॥
अधुना शीलप्रतिपालनयनस्वरूपमाह कविःवरं शृङ्गोत्तुङ्गाद् वैरशिखरिणः कापि विषमे
पतित्वाऽयं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितः। वरं न्यस्तो हस्तः फणपतिमुखे तीक्ष्णदशने
वरं वह्नौ पातस् तदपि न कृतः शीलविलयः ॥ ८२ ॥ प्राणिनां वरशिखरिणः क्वापि विषमे पतित्वा अयं कायः कठिनदृषदन्तर्विदलितो घरं प्रधानम् । किं० वरशिखरिणः ? । शृङ्गोत्तुङ्गात् शृङ्गमुत्तुङ्गं उच्चैस्तरं यस्य सः शृलोत्तुनः, तस्मात् । अन्यच्च हस्तः फणपतिमुखे पन्नगवदने न्यस्तः क्षिप्तो वरम् । किं० फणपतिमुखे । तीक्ष्णदशने तीक्ष्णा दशना दन्ता यस्य स तीक्ष्णदशनः, तस्मिन् तीक्ष्णदशने । देहिनां वही पातो (च. छ. ट. पातौ ) अग्नौ निपतनं वरं सुन्दरम् । तदपि तथापि शीलविलयः कृतो न परं न भव्यः ॥ ८२ ॥
अथ सूरपुरुषस्याधिक्यमाह कविःएकेनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् । क्रियते भास्करेणेव स्फुटं स्फुरिततेजसा ॥ ८३ ॥
शूरेण शूरपुरुषेण एकेनापि महीतलं पादाक्रान्तं क्रियते । शूरेण केनेव ? । भास्करेणेव । यथा भास्करेण सूर्येण महीतलं पादाक्रान्तं किरणाक्रान्तं स्फुटं प्रकटं क्रियते विधीयते । किं० भास्करेण ? । स्फुरिततेजसा दीप्रप्रतापेन ।। ८३ ॥
अथ धीरस्य धैर्यवृत्तिमाह कविःकदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेन शक्यते धैर्यगुणः प्रमाष्टुम् ।
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्वेर्नाधः शिखा यान्ति कथंचिदेव ॥८॥ सुधैर्यवृत्तेः पुरुषस्य धैर्यगुणो धीरमहिमा प्रमाष्टुं स्फेटयितुं न शक्यते। किं० धैर्यवृत्तेः ।
१ ग. विकची । २ घ. तोऽपि जलदः सलिलं ददाति । ३ घ. गुरु। ४ हं. फणि । ५. क. छ. सूरेण। ६ग. क्षमातलम्। ७ग. स्फुरत्-ध. स्फार-। ८क. छ. तेजसाम् । ९ग. घगुणं । १० ग. घ. कदाचिदेव ।
Page #68
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.८५-८७ ] नीतिशतकम्
३३ कदार्थतस्यापि विडम्बितस्यापि । अमुमेवार्थ कविर्दृष्टान्तेन दृढीकरोति-वडूः शिखाः ज्वालाः अधो न यान्ति नीचैर्न गच्छन्ति । किं० वह्नः ? । अधोमुखस्यापि कृतस्य नीचैर्मुखविहितस्य ॥ ८४॥
अथ शीलस्य महिमा [ नम् ] आह कविः
वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात् - मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते । व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूषवर्षायते
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति ॥ ८५ ॥ तस्य पुरुषस्य वह्निर्वैश्वानरो जलायतेऽमृतायते । तम्य पुंसः तत्क्षणात् जलनिधिः समुद्रः कुल्यायते नीकायते । तस्य पुंसो मेरुर्लक्षयोजनप्रमाणोऽपि स्वल्पशिलायते ह्रस्वशिला इवाचरति । तस्य पुंसः सद्यस्तत्कालं मृगपतिः सिंहः कुरङ्गायते मृग इव भवति । तस्य पुंसः [व्यालो] दुष्टः सर्पो माल्यगुणायते कुसुममाला इव भवति । तस्य पुंसः विषरसः पीयूषवर्षायते अमृतवर्षा इव भवति । यस्य अङ्गे यस्य शरीरे शीलं समुन्मीलति समुल्लसति । किं० शीलम् ? । अखिललोकवल्लभतमम् । अखिलश्चासौ लोकः [ अखिललोकः ], अखिललोकस्य प्रकृष्टं वल्लभ अखिललोकवल्लभतमम् । 'प्रकृष्ट तरतमौ' । तमप्रत्ययः ॥ ८५ ॥
अथ तेजखिनः पुरुषस्य स्वरूपमाह कविः
यदचेतनोऽपि पादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः । . तत् तेजस्वी पुरुषः परकृतनिकृतिं कथं संहताम् ॥ ८६ ॥
यद् अचेतनोऽपि इनकान्तः सूर्यकान्तः सवितुः श्रीसूर्यस्य पादैः (ट. किरणैः) स्पृष्टः सन् चरणैः संघट्टितः सन् प्रज्वलति अग्निज्वालां विमुञ्चति । तत् तदा तेजस्वी पुरुषः परकृतनिकृति परकृतावहेलनां कथं सहताम् ? ॥ ८६ ॥
अथ दुर्जनप्रतिक्रियास्वरूपमाह कविःव्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोढुं समुज्जृम्भते
भेत्तुं वज्रमणीन् शिरीषकुसुमप्रान्तेन संनह्यते । माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते
नेतुं वाञ्छति यः सतां पथि खलान् सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ॥८७॥ यो मन्दबुद्धिः [सूक्तैः ] खलान् दुर्जनान् सतां पथि उत्तमानां मार्गे नेतुं वाञ्छति १क. ग. च. यदि चे। २ ग. स्पृष्टोऽपि ज्व। ३ ज. तुः सूर्यकान्तः। ४ घ. यस्तेजस्वी। ५ क निकृतं । ६ घ. सहते। ७ घ. संनह्यति । ८ क. क्षीराम्बुधेरी ।
५ शतकत्र.
Page #69
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[१.८८-९०]
प्रतिबोधयितुमिच्छति । कथंभूतैः सूक्तैः ? । सुधास्यन्दिभिः अमृतसाविभिः । स किं कर्तुमिच्छति ? । असौ मूढः व्यालं दुष्टगजं बालमृणालतन्तुभिः कोमलपद्मतन्तुभिः रोद्धुं समुज्जृम्भते बद्धुं समीहते । रे मन्दमते ! व्यालं बालमृणालतन्तुभिः कश्चित् रोद्धुं समर्थो भवति ? । अपि तु न । स सरलाशयः शिरीषकुसुमप्रान्तेन सप्तच्छदपुष्पाग्रेण वज्रमणीन् मेत्तुं हीरकरत्नं वेद्धुं संनह्यते सज्जीभवति । रे मूढ ! । वज्रमणयः शिरीषकुसुमप्रान्तेन केनापि विध्यन्ते ? । अपि तु न । स मूर्खः क्षाराम्बुधेः समुद्रस्य माधुर्य मधुबिन्दुना रचयितुं ईहते समभिलषति । रे अज्ञान ! एकेन मधुबिन्दुना क्षारसमुद्रस्य माधुर्यं कोऽपि कर्तुं क्षमो भवति ? । अपि तु न । स दुर्जनानां ( ? नानू ) प्रतिबोधयितुं समर्थः स्यात् ॥ ८७ ॥
अथ पार्थिवसेवा फलमाह कवि :
३४
आज्ञा कीर्तिः पालनं सज्जनानां दानं भोगो मित्रसंरक्षणं च । येषामेते षड् गुणा न प्रवृत्ताः कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥ ८८ ॥
तेषां पुरुषाणां पार्थिवोपाश्रयेण नरेन्द्रसेवनया कोऽर्थः किं फलम् ? । येषां पुरुषाणामेते षड् गुणाः षाड्गुण्यता न प्रवृत्ताः । ते के षड् गुणाः ? । आज्ञा येषां भूपतिसेविनां लोकेषु आज्ञा न भवति तेषां नृपसेवनेन किम् ? । अन्यच्च कीर्तिः न भवति तदा किम् ? । सज्जनानां पालनं न भवति । सज्जनाः पालयितुं न शक्यन्ते इत्यर्थः । दानं दातुं न शक्यते । अपि तु भोगोऽपि न, पञ्चेन्द्रियसौख्यं न । च अन्यत्, मित्रसंरक्षणं न मित्राणां रक्षितुं न शक्यते । तदा नृपसेवनया किम् ? । एते षड् गुणाः नृपसेवनतो भवन्ति ॥ ८८ ॥
अथ जडशिष्या (क्षा) माह
स्वायत्तमेकान्तहितं विधात्रा विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।
1
विशेषतः सर्वविदां समाजे विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ॥ ८९ ॥ विधात्रा वेधसा । कोऽर्थः ? । अज्ञतायाः मूर्खतायाः, छादनं विनिर्मितं गोपनकं कथितम् । किं० छादनम् ? | स्वायत्तं आत्मायत्तम् । एकान्त हितं सर्वथापि हितकारि । किं तत् छादनम् ? । सर्वविदां समाजे विद्वत्सभायां विशेषतोऽपण्डितानां मूर्खाणां विभूषणं मौनमेव तूष्णीकतैव ॥ ८९ ॥
अथ नीचसंगतेः फलमाह -
उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य
नीचस्य गोचरतैः सुखमास्यते कैः ॥ ९० ॥
१ घ. भूषणमज्ञ । २ घ. 'गतेः ।
Page #70
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १.९१-९२ ]
नीतिशतकम्
३५
कैः पुरुषैः अस्य नीचस्य गोचरगतैः सुखमास्यते उपविश्यते ? । अपि तु न कैरपि । किं० नीचस्य ? । उद्भासिताखिलखलस्य । उद्भासिताः उदयं प्रापिता अखिलाः समस्ताः खलाः दुर्जना येन सः, तस्य उद्भासिताखिलखलस्य उदयं प्रापितसमस्तनीचजनस्य । पुनः किं० नीचस्य : । विशृङ्खलस्य भ्रष्टस्य शिथिलस्य । पुनः किं० नीचजनस्य ? | प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तेः । प्राग्जाता पूर्व निर्मिता चान्यत् विस्मृता निजा आत्मीया अधमकर्मवृत्तिर्येन स प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तिः, तस्य पूर्वकृतविस्मारितनिजाधमकर्मणः । पुनः किं० ? । दैवादवाप्तविभवस्य । दैवात् दैवयोगात् अवाप्तः प्राप्तो विभवो धनं येन स दैवादवाप्तविभवः, तस्य । पुनरपि किं० नीचस्य ? । गुणद्विषः गुणानां द्वेषो यस्य असौ गुणद्विट्, तस्य गुणद्विषः । अतः कारणात् नीचानां संगतौ सुखं न भवति ॥ ९० ॥
अथ विद्याप्रौढिमा ( मां ) प्राह
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या बन्धुजनो' विदेशगमने विद्या परं दैवतं
विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥ ९१ ॥ नास इति संबोधने । नरस्य पुंसः विद्या अधिकं रूपम् । यतः प्रोक्तं “विद्या रूपं कुरूपाणाम् ।" अन्यच्च, विद्या प्रच्छन्नं गुप्तं धनम् । च विद्या भोगकरी पञ्चाङ्गभोगसंपादयित्री । पुनर्विद्या यशःसुखकरी । पुनर्विद्या गुरूणां गुरुः । विद्या विदेशगमने बन्धुजनः मित्रजनः । विद्या परं दैवतम् । विद्या राजसु पूज्यते राजमण्डलेषु अर्च्यते । न हि धनं पूज्यते । किं बहुनोक्तेन ? । विद्याविहीनः पशुः ॥ ९९ ॥
अथ शिष्या ( क्षा ) माह
दाक्षिण्यं स्वजने दया परजने शाठ्यं जने दुर्जने
प्रीतिः साधुजने स्मयः खलजने विद्वज्जने चार्जवम् । शौर्य शत्रुजने क्षमा गुरुजने नारीजने धूर्तता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ॥९२॥
च अन्यत् । ये पुरुषाः एवंविधा भवन्ति लोकस्थितिस्तेष्वेव, नापरेषु । किं० ते ? | कलासु कुशलाः निपुणाः । येषां पुरुषाणां स्वजने स्वकीयलोके दाक्षिण्यम् । येषां पुरुषाणां परजने परलोके दया । येषां दुर्जने जने शाठ्यं दुष्टाभिप्रायः । येषां साधुजने सुजनजने. प्रीतिः स्नेहः । येषां पुंसां खलजने दुर्जनजने स्मयः कोपः । येषां पुंसां च अन्यत् विद्वज्जने आर्जबम् । येषां शत्रुजने वैरिवर्गे शौर्यम् । येषां पुरुषाणां गुरुजने क्षमा । येषां पुंसां नारीजने धूर्तता चातुर्यता । एभिर्गुणैर्गुरुतामारोहति जनः ॥ ९२ ॥
१ च. बन्धुजने ! २ ग. पूजिता ।
Page #71
--------------------------------------------------------------------------
________________
३६
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
पुनरपि शिष्या (क्षा ) माह
करे श्लीष्यत्यागः शिरसि गुरुपादप्रणयिता मुखे सत्या वाणी विजयभुजयोर्वीर्यमतुलम् | हृदि स्वच्छा वृत्तिः श्रुतमधिगतं च श्रवणयोर् विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ॥ ९३ ॥
प्रकृतिमहतां स्वभावमहतां पुरुषाणां ऐश्वर्येण विनापि इदं वक्ष्यमाणं मण्डनम् । इदं किं किम् ? | करे श्लाघ्यस्त्यागः ( ट. प्रशंसनीयं वितरणम्) । पुनः किम् ? । शिरसि मस्तके गुरुपादप्रणयिता (ट. नमनं ) गुरुचरणनम्रता । पुनरपि किम् ? । मुखे सत्या वाणी । पुनरपि किम् ? | विजयभुजयोः जयकारिदोर्दण्डयोः अतुलं प्रबलं वीर्य पराक्रमः (क. छ. प्राक्रमः) । पुनरपि किम् ? । हृदि स्वच्छा वृत्तिः स्वच्छप्रकृतिः । चान्यत् । श्रवणयोः श्रुतम् । चान्यत् । अधिगतं अधीतं महतां मण्डनमिदम् ॥ ९३ ॥ अथ महतां चरित्रविभूतिमाह
वहति भुवनश्रेणी शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्ये कष्टं सदा स च धार्यते ।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादराद्
[१.९३-९५]
अहह महतां निःसीमानश् चरित्रविभूतयः ॥ ९४ ॥
1
शेषः पन्नगाधीशः भुवनश्रेणीं चतुर्दशभुवनमालां फणाफलकस्थितां फणावलीसमारोपितां वहति धारयति । कमठपतिना कूर्माधिपतिना मध्ये पृष्ठोपरि सदा सर्वदा कष्टं कृच्छ्रेण यथा भवति स शेषो धार्यते । पयोधिः समुद्रः तमपि शेषनागाधिराजं अनादरात् लीलया क्रोडाधीनं कुरुते उत्सङ्गाधीनं विदधाति । अहहेति आश्चर्ये । महतां चरित्रविभूतयो निःसीमानो वर्तन्ते ॥ ९४ ॥
अथ विजयश्रीस्वरूपमाह
स्पृहयति भुजयोरन्तरमायत करवालकररुह विदीर्णम् । विजयश्रीवराणां व्युत्पन्नप्रौढवनितेव ॥ ९५ ॥
[विजयश्रीवराणां ] भुजयोर्बाह्वोरन्तरं अन्तरालं स्पृहयति वाञ्छति । [ केव ? | प्रौढवनितेव । ] या प्रौढवनिता भवति सा वीराणां भुजयोरन्तरं स्पृहयति । ननु किं० भुजयोरन्तरम् ? । आयतकरवालकररुहविदीर्णम् । आयतो विस्तीर्णो योऽसौ करवालः खं इव ये
१ ग. श्लाघस्त्यागौं । २ ग. घ. प्रणमनं, ग. मातृकायां यतेरनन्तरं द्वितीयतृतीयचरणभागौ व्यत्यस्तौ । ३ग. घ. विजयि; ग. 'भुजयोः पौरुषमहो । ४ ग. श्रुतिमधिगते । ५ ज.. भवन । ६ ग. घ. पृष्ठं । ७ ग. सदैव च घ. तदेव हि । ८ ग. दीयते । ९ ग. च. छ. व्युत्पन्ना ।
Page #72
--------------------------------------------------------------------------
________________
[१.९६-९८]
नीतिशतकम् कररुहाः नखास्तैर्विदीर्ण आयतकरवालकररुहविदीर्णम् । यथा व्युत्पन्नप्रौढवनिता वीराणां भुजयोरन्तरालं वाञ्छति तथा विजयश्रीरपि वीराणां भुजयोरन्तरालं वाञ्छतीत्यागमः। पथ्याछन्दः॥९५॥
सभाग्य-निर्भाग्यजातयोराधिक्यमाहपरिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते । स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ॥ ९६ ॥
अस्मिन् संसारे को न मृतः पराशु(सुतां को न प्राप्तः ? । वा अथवा को न जायते । अपि तु सकलोऽपि संसारः । [कथंभूते संसारे ? । परिवर्तिनि विनश्वरे ।] येन जातेन वंशः समुन्नतिं याति स एव जातः । अपरैर्बहुभिर्जातैः किमित्यर्थः ॥ ९६ ॥ अथ तेजस्विनां गुणानाह
लज्जागुणौघजननी जननीमिवै वाम् । ___ अत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाः । तेजस्विनः सुखमसूनपि संत्यजन्ति
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुनः प्रतिज्ञाम् ॥ ९७ ॥ तेजखिनः पुरुषाः सुखं यथा भवति असूनपि प्राणानपि संत्यजन्ति । न पुनः प्रतिज्ञा संत्यजन्ति । किं० तेजस्विनः ? । सत्यव्रतव्यसनिनः । सत्यव्रतस्य व्यसनं विद्यते येषां ते सत्यव्रतव्यसनिनः, सत्यवादिन इत्यर्थः । पुनः किं. तेजस्विनः ? । स्वां प्रतिज्ञामनुवर्तमानाः । किं० प्रतिज्ञाम् । लजागुणौघजननीम् । लज्जा च गुणौघश्च लज्जागुणौघौ, तयोर्जनयितुं शीलमस्याः सा लज्जागुणौघजननी, ताम् । किं० प्रतिज्ञाम् ? । अत्यन्तशुद्धहृदयाम् । अत्यन्तं शुद्धं हृदयं यस्याः सा अत्यन्तशुद्धहृदया, तां अतिनिर्मलरहस्यामित्यर्थः । प्रतिज्ञां कामिव ? । स्वां जननीमिव । यथा तेजस्विनः असूनपि परित्यजन्ति न पुनः स्वां जननीं परित्यजन्ति । किं० जननीम् ? । लज्जागुणौघजननीम् । पुनः किं० जननीम् ? । अत्यन्तशुद्धहृदयाम् । तेजस्विनः किंकुर्वाणाः ? । स्वां जननीमनुवर्तमानाः । पुनः किं० तेजस्विनः ? । सत्यव्रतव्यसनिनः ॥ ९७ ॥
अथ सत्त्वमहिमानमाहसिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु । प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥ ९८ ॥
सत्त्ववतामियं प्रकृतिः । खलु निश्चितम् । तेजसो हेतुः न वयः न वर्षातिक्रमः (हं. वरिषा)। कथम् ? । शिशुरपि सिंहः गजेषु गजेन्द्रेषु निपतति संमुखं गत्वा गजकुम्भस्थलमनु निपतति (ट. अनुपतति)। किं० गजेषु ? । मदमलिनकपोलभित्तिषु । मदमलिनाः
१ ग. कोपि। २ ग. इवार्याम्। ३ ग. परिवर्त ।
Page #73
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ १.९९-१०० ]
,
कपोलभित्तयो गण्डपाल्यो येषां ते मदमलिनकपोलभित्तयः तेषु । एतावता शिशुरपि सिंहो गजेन्द्राणां निर्वहणं कुरुते । तदा सत्त्वमेव प्रधानम्, न वयः प्रधानम् ॥ ९८ ॥
३८
अथ प्रतिपन्ननिर्वाहस्वरूपमाह
किं कूर्मस्य भरव्यथा न वपुषि क्ष्मां न क्षिपत्येव यः
किं वा नास्ति परिश्रमो दिनपतेरास्ते न यो निश्चलः । किं चाङ्गीकृतमुत्सृजन्ने मनसा श्लाघ्यो जनो लज्जते
निर्वाहः प्रतिपन्नवस्तुनि सतामेतद्धि गोत्रव्रतम् ॥ ९९ ॥
हि निश्चितम् । सतां सत्पुरुषाणां एतद्गोत्रवतं वर्तते । कुलाचारो वर्तते । यत् प्रतिपन्ने वस्तुनि निर्वाहः । केन न्यायेन ? | किमित्याक्षेपे । कूर्मस्य पातालकच्छपस्य । वपुषि शरीरे भरव्यथा भारस्य दुःखं नास्ति । यत् क्ष्मां पृथ्वीं न क्षिपति न परित्यजति । वा अथवा । किं दिनपतेः सूर्यस्य परिश्रमो नास्ति ?, यो निश्चलो न आस्ते । किं च श्लाघ्यो जनः अङ्गीकृतं उत्सृजन् सन् [मनसा ] मानसे न लज्जते ?, अपि तु लज्जत एव । अतः कारणाद् महतां व्रतं प्रतिपन्ननिर्वाहः एव ॥ ९९ ॥
अथ मन्त्रिणो मन्त्रस्वरूपमाह
दूरादर्थं घटयति नवं दूरतचापशब्द
कृत्वा भूयो भवति निरतः सत्सभापादनेषु ।
मन्दं मन्दं रचयति पदं लोकचित्तानुवृत्त्या
कामं मत्री कविरिव सदा खेदभारैरमुक्तः ॥ १०० ॥
मन्त्री कामं अत्यर्थ सदा सर्वदा खेदभारैरमुक्तो भवति । कथं ० मन्त्री ? । दूरात् परमण्डलाद् नवं नवीनमर्थं धनं घटयति संपादयति । च अन्यत् । दूरतः अपशब्द अन्यायं घटयति संपादयति । कार्यं कृत्वा । सत्सभा पण्डितसभा । [ तस्या ] आपादनेषु व्यापारणेषु निरतो भवति । पुनर्मत्री मन्दं मन्दं शनैः शनैः पदं रचयति स्थानं करोति । कया ? । लोकचित्तानुवृत्त्या । लोकानां चित्तानि लोकचित्तानि, लोकचित्तानां अनुवृत्त्या लोकाचित्तानुवृत्त्या जनचित्तावर्जने -- नेत्यर्थः । मन्त्री क इव ? | कविरिव । यथा कविः खेदभारैश्चिन्ताभरैरमुक्तो भवति । कविः किं कुरुते ? । दूरात् आत्मशक्तेः नवं अर्थ शास्त्रार्थं घटयति । चान्यत् दूरतोऽपशब्दं घटयति । शास्त्राणि कृत्वा भूयः पुनरपि सत्सभापादनेषु विस्तारणेषु निरतो भवति सावधानः स्यात् । च अन्यत् । मन्दं मन्दं पदं रचयति योजयते । कया ? | लोकचित्तानुवृत्त्या । विद्वल्लोकानां 'मनोरक्षणेन, मा विद्वांसोऽपशब्द निष्कासयन्तु । अत एव कवि - मन्त्रिणौ सर्वदापि चिन्ताचान्तौ स्तः ॥ १०० ॥
१ क. तु मनसा इत्यपि ग. सुमनसा । २ घ. त्यक्त्वा ।
Page #74
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ १. १०१-१०३ ]
नीतिशतकम्
अथ प्राप्तेः स्वरूपमाह -
दैवेन प्रभुणा स्वयं जगति यद् यस्य प्रमाणीकृतं तत् तस्योपनयेन् मनागपि मैदान् नैवाश्रयः कारणम् । सर्वाशापरिपूरके जलधरे वर्षत्यपि प्रत्यहं
सूक्ष्मा एव पतन्ति चातकमुखे द्वित्राः पयोबिन्दवः ॥ १०१ ॥
दैवेन जगति पृथिव्यां स्वयं यत् यस्य प्रमाणीकृतं प्रमाणोपेतं कृतमित्यर्थः । मनागपि स्तोकमपि । तत् तस्योपनयेत् ढौकयेत्, प्राप्नोतीत्यर्थः । मदाद् गर्वात् । आश्रयः कस्याप्याधारः कारणं नैव । अमुमेवार्थं कविर्दृष्टान्तेन द्रढयति - जलधरे मेघे प्रत्यहं वर्षत्यपि परं चातकमुखे सूक्ष्मा एव पयोबिन्दवः पतन्ति । किं० बिन्दवः ? । द्वित्राः । द्वौ वा त्रयो वा प्रमाणं येषां ते द्वित्राः । एतावता यस्य यद् भाग्यलभ्यं तदेव भवति ॥ १०१ ॥
अथ संग्राममृतस्य कलामाह
अभिमुखनिहतस्य सतस्तिष्ठतु तावज् जयोऽथवा स्वर्गः । उभयबलसाधुवादः श्रवणसुखोऽसौ बैलात्यर्थम् ॥ १०२ ॥
३९
सतः सत्पुरुषस्य वा शूरस्य तावज्जयः अथवा स्वर्ग तिष्ठतु । असौ श्रवणसुखः अत्यर्थ बलातिबलं बध्नाति । किं० श्रवणसुखः ? । उभयबलसाधुवादः । उभयबले उभयसैन्ये साधुवादो यस्य स उभयबलसाधुवादः । किं० सतः ? | शूरस्य अभिमुख निहतस्य संग्रामसंमुखमारितस्य ॥ १०२ ॥
वचनकलाधिक्यमाह
केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालंकृता मूर्धजाः । वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयन्ते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ॥ १०३ ॥
पुरुषं केयूरा बाहुरक्षकाः न विभूषयन्ति । पुरुषं हारा न विभूषयन्ति । किं० हाराः ? । चन्द्रोज्वलाः चन्द्रवन्निर्मलाः । पुरुषं स्नानं न विभूषयति । विलेपनं न विभूषयति । कुसुमं न विभूषयति । अलंकृता मूर्धजाः केशा न विभूषयन्ति । एका वाणी पुरुषं समलंकरोति । या वाणी संस्कृता संस्कृतवत्रा पुरुषेण धार्यते । खलु निश्चितम् । भूषणानि श्रीयन्ते क्षयं यान्ति । परं प्राणिनां वाग्भूषणं भूषणम् [न क्षीयते ] | एतावता एकैव वचनकला विलोक्यते ॥ १०३ ॥
१ घ. महान् । २ घ. परिपूजके । ३ क. बलात्यर्थे; छ. बलात्यत्यर्थम् ।
Page #75
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[१. १०४] अथ स्वजनचेष्टितमाह अन्योक्त्यायदि नाम दैवगत्या जगदसरोजं कदाचिदपि जातम् । अवकरनिकरं विकिरैति तत् किं कृकवाकुरिव हंसः ॥ १० ॥
नाम इति संबोधने । यदि चेत् कदाचिदपि दैवगत्या जगत् असरोजं जातं निःकमलं जातम्, तत् किं हंसो राजहंसः अवकरनिकरं कचवरपुञ्ज विक(किरति विवरणं (क. छ. चरणविक्षेप) करोति ? । अपि तु न । हंसः क इव ? । कृकवाकुरिव कुर्कुट इव । यथा कृकवाकुरवकरनिकरं विकरति तथा राजहंसो न ॥ १०४ ॥
श्रीसिद्धसूरिगुरुसंनिहितप्रतापाच
छश्वत् कवित्वमतिमाप्य विचारदृष्ट्या । रम्येह भर्तृहरकाव्यवरस्य टीका
श्रीपाठकेन विदधे धनसारनाम्ना ॥१॥
॥ इति प्रथमशतकस्य नीतस्य टीकेयं [ समाप्ता] ॥
000000cccom
१ ग. संजातं।
२ घ. बिनाऽन्यत्र विकरति ।
Page #76
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ द्वितीयं शृङ्गारशतकम् ।
अथ हरचरणस्मरणप्रथमकाव्यमाह
-
'चूडोत्तंसितचारुचन्द्रकलिकाचञ्चच्छिखाभस्करो लीलादग्धविलोलकामशलभः श्रेयोदशाग्रे स्फुरन् ।
अन्तःस्फूर्जद पारमोहतिमिरप्राग्भारमुच्छेदयंश्
चेतः सद्मनि योगिनां विजयते ज्ञानप्रदीपो हरः ॥ १ ॥
हरो महेशः योगिनामवगत तत्त्वविचारा ( क. रिणां चेतः सद्मनि मानसमन्दिरे विजयते सर्वोत्कर्षेण वर्तते । किं० हरः ? | ज्ञानप्रदीपः । ज्ञानस्य प्रदीपः ज्ञानप्रदीपः । जगदुद्द्योतकत्वात् । किं० ज्ञानप्रदीपः ?। चूडोत्तंसितचारुचन्द्र कलिकाचञ्चच्छ्रिखाभास्करः । चूडावन् मुकुटवदुत्तंसिता (क. छ. चोर्ध्वकृता ) चार्वी ( क. छ. चारुः ) मनोज्ञा चन्द्रकलिका तस्याः, चञ्चच्छिखायां भासं दीप्तिं करोतीति चूडोत्तंसितचारुचन्द्रकलिका चञ्चच्छिखाभास्करः । अन्योऽपि प्रदीपः चञ्च( हं.° पंच ̊ )च्छिखाभास्करो भवति । अत्रापि चारुचन्द्रकलिकाचञ्चच्छिखाभास्करो वर्तते - कान्तिकरो वर्तते । पुनः कथंभूतः ज्ञानप्रदीपो हरः ? । लीलादग्धविलोलका मशलभः । लीलया दग्धो विलोलश्चञ्चलः कामशलभो येन स लीलादग्धविलोलकामशलभः । युक्तोऽयमर्थः - अन्योऽपि प्रदीपः शलभानां पतङ्गानां दहति । तथाऽयं ज्ञानप्रदीपो हरः कामशलभस्य दाहं कुरुते । पुनः किं० ज्ञानप्रदीपो हरः ? । श्रेयोदशाग्रे स्फुरन् । श्रेयांस्येव कल्याणान्येव दशायं श्रेयोदशाग्रम् । तत्र स्फुरतीति श्रेयोदशाग्रे स्फुरन् । युक्तम् । अन्योऽपि दीपो दशाग्रे स्फुरति । ननु अयमपि हरः प्रदीपः श्रेयोदशाग्रे स्फुरतीति भावः । पुनः किं कुर्वन् । अन्तःस्फूर्जदपारमोह तिमिर प्राग्भारमुच्छेदयन् । अन्तर्गतं स्फूर्जदुल्लसत् अपारं मोहतिमिरस्य प्राग्भारम् उच्छेदयन् स्फेटयन् । अत एव ज्ञानप्रदीपो हरः कथ्यते ॥ १ ॥
अधुना शुभाशुभकर्मणोः फलमाह -
शुभ्रं सद्म सविभ्रमा युवतयः श्वेतातपत्रोज्ज्वला
लक्ष्मीरित्यनुभूयते स्थिरमतिस्फीते शुभे कर्मणि ।
विच्र्च्छिन्ने नितरामनङ्गकलहक्रीडात्रुटत्तन्तुकं
मुक्ताजालमिव प्रयाति झटिति भ्रस्यद् दिशो दृश्यताम् ॥ २ ॥ प्राणिना शुभे कर्मणि इत्यनुभूयते एवं फलमुपभुज्यते । किं० शुभे कर्मणि ? । स्थिरमतिस्फीते । स्थिरा चासौ मतिः स्थिरमतिः, स्थिरमतेर्नरस्य स्फीतं स्थिरमतिस्फीतं, तस्मिन् । इतीति किम् ? । शुभ्रं सद्म महद्भवलं गृहम् । अन्यच्च सविभ्रमा युवतयः हावभाव - १ घ. भास्वरो । २. ख. उद्भेदयन् छ. अच्छेदयन् । ३ग. स्थिरमिव; घ. स्फिरमिव । ४. ग. छिन्नस्मिन् । ५. घ. झटति.; ज. त्रुटिति ।
६ शतकत्र०
Page #77
--------------------------------------------------------------------------
________________
४२ भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[२. ३-४] विभ्रमविलाससंयुक्ता नार्यः । अन्यच्च लक्ष्मीः प्राप्यते । किं० लक्ष्मीः? । श्वेतातपत्रोवला । श्वेतातपत्रेण उज्वला श्वेतातपत्रोज्वला । नितरामतिशयेन शुभे कर्मणि विच्छिन्ने सति क्षयं याते सति । इत्यनुभूयते फलमिति प्राप्यते । सौख्यं मुक्ताजालमिव भ्रस्यत् सत् दिशो दृश्यतां (हं. 'ऽदृश्यतां) प्रयाति । (ट. दृशोऽदृश्यतां प्रयाति अधः पतन्नेत्रोऽदृश्यतां प्रयाति) किं० मुक्ताजालं मुक्ताहारम् ? । अनङ्गकलहक्रीडात्रुटत्तन्तुकम् । [अनङ्गस्य कलहः अनङ्गकलहः ] अनङ्गकलहस्य क्रीडा अनङ्गकलहक्रीडा, तया त्रुटत्तन्तुकं सूत्रं यस्य तत् अनङ्गकलहक्रीडात्रुटत्तन्तुकम् । साकाझं कर्मात्र । ॥२॥
अथ प्राणिनां विकारपदमाह
तावदेव कृतिनामयं स्फुरत्येष निर्मलविवेकदीपकः । . यावदेव न कुरङ्गचक्षुषां ताड्यते चटुललोचनाञ्चलैः॥३॥
अयं एष निर्मलविवेकदीपकः कृतिनां तावदेव स्फुरति जागर्ति । यावद् विवेकदीपकः कुरङ्गचक्षुषां नायिकानां चटुललोचनाञ्चलैने ताड्यते । [चटुलानि लोचनान्येव अञ्चला वस्त्रप्रान्ताः (क. छ. प्रान्तः)] चटुललोचनाञ्चलाः, तैः । एतावता प्राणिनां तावदेव विवेको यावन्नायिकानां वशं ना(च. छ. न )याति इत्यर्थः ( क. इति तात्पर्यम् ; छ. नात्यर्थम्) ॥३॥
पुनस्तदेवाहधन्यास्त एव चपलायतलोचनानां
तारुण्यदर्पघनपीनपयोधराणाम् । क्षामोदरोपरिलसत्रिवलीलतानां
दृष्ट्वाऽऽकृति विकृतिमेति मनो न येषाम् ॥ ४॥ त एव धन्याः, येषां मनः चपलायतलोचनानां आकृतिं शरीरं दृष्ट्वा विकृति न एति न प्रामोति । चपलानि चायतानि कमलदलवद्विस्तीर्णानि लोचनानि यासां ताश्चपलायतलोचनाः, तासाम् । किं० चपलायतलोचनानाम् ? । तारुण्यदपेघनपीनपयोधराणाम् । तारुण्यदर्पण घनौ निबिडौ पीनौ उन्नतौ पयोधरौ यासां ताः। तासां पुनः किं० । क्षामोदरोपरिलसत्रिवलीलतानाम् । क्षामं यदुदरं क्षामोदरं, क्षामोदरस्योपरि लसत्रिवलीलता यासां ताः क्षामोदरोपरिलसत्रिवलीलताः, तासाम् । वा क्षामोदरे परिलसत्रिवलीलतानां [इति] पाठः, तत्र क्षामोदरे कृशोदरे ॥ ४ ॥
अथ योगिनः पुरुषस्य स्वरूपमाहसदा योगाभ्यासे नवनववधूसंगमरसैर्
अविच्छिन्ना मैत्री स्फुरति कृतिनस् तस्य "किमिमैः । १. ग. 'नां हृदि, घ. 'नामपि। २. ज. चपल'। ३. ज. आदर्श चतुर्थपादः प्रथमपादानन्तरं दृश्यते। ४. ख. संगमनसोइ. ५. ग. किमुतैः।
Page #78
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. ५-७]
नीतिशतकम् प्रियाणामालापैरधरमधुभिर्वक्त्रमैधुरैः
सनिःश्वासामोदैः सकुचकलशाश्लेषसुरतैः ॥ ५॥ यस्य कृतिनः तत्त्वावबोधिनः अविच्छिन्ना मैत्री सदा सर्वदा योगाभ्यासे स्फुरति । तस्य कृतिना इमैः नवनववधूसंगमरसैः किम् ? । (छ. अपि तु किमपि न ।) च अन्यत् । प्रियाणामालापैः किम् ? । अधरमधुभिः किम् ? । किं० अधरमधुभिः ? वक्त्रमधुरैः। पुनः किं अधरमधुभिः ? । सनिःश्वा(ट. श्वा )सामोदैः । पुनरपि किं० अधरमधुभिः । सकुचकलशाश्लेषसुरतैः (ट. सहकुचकलशाश्लेषेण सुरतं यत्र तैरित्यर्थः ) ॥ ५ ॥
अथ स्त्रीणामाधिक्यमाह कविःभवति वचसि सङ्गयांगमुद्दिश्य वाती
श्रुतमुखरमुखानां केवलं पण्डितानाम् । जघनमरुणरत्नग्रन्थिकाञ्चीकलापं
कुवलयनयनानां को विहातुं समर्थः ॥ ६ ॥ कः पुमान् कुवलयनयनानां जघनं रमणप्रदेशं विहातुं त्यक्तुं समर्थः । अपि तु न कोऽपि । किं० जघनम् ? । अरुणरत्नग्रन्थिकाञ्चीकलापं अरुणानि यानि रत्नानि अरुणरत्नानि माणिक्यानि, अरुणरत्नानां ग्रन्थिः अरुणरत्नग्रन्थिः, अरुणरत्नग्रन्थिमयः काञ्चीकलापो यस्य सः अरुणरत्नग्रन्थिकाञ्चीकलापः, तम् । पण्डितानां वचसि केवलं सङ्गत्यागमुद्दिश्य वार्ता भवति । किं० पण्डितानाम् ? । श्रुतमुखरमुखानां श्रुतेन शास्त्रेण मुखराणि मुखानि येषां ते, तेषाम् ॥ ६॥
अथ कन्दर्पाधिक्यमाहमत्तेभकुम्भदलने भुवि सन्ति शूराः
केचित् प्रचण्डमृगराजवंधेऽपि दक्षाः । किं तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य
कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥ ७ ॥ भुवि पृथिव्यां मत्तेभकुम्भदलने शूराः सन्ति । केचित् पुरुषाः [प्रचण्ड] मृगराजवधेऽपि सिंहविदारणेऽपि दक्षाः सन्ति । तु पुनः । किमपि बलिनां पुरतः [प्रसह्य बलात्कारेण ] ब्रवीमि कथयामि । ते मनुष्याः विरला ये कन्दर्पदर्पदलने दक्षाः शूराः । ते विरला अल्पा इत्यर्थः ॥ ७॥
१. ख. घ. मधुरैर् । २. ख. मधुभिः; घविधुभिः । ३. ख. घ. वचसि भवति । ४.ख. च.भ्यासम्। ५. ह. क. च. सूराः। ६. ग. विधेपि।
Page #79
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. ८-१०] अथ स्त्रीणां मोहाधिक्यमाहस्मितेन भावेन च लज्जया धिया पराङ्मुखैरर्धकटाक्षवीक्षितैः। वचोभिरीयाकलहेन लीलया समस्तभोवैः खलु बन्धनं स्त्रियः॥८॥
स्त्रियो नार्यः । खलु निश्चितम् । समस्तभावैः सकलप्रकारैः बंधनं वर्तन्ते । कैः कैः प्रकारैः ? । स्मितेन हास्येन । च अन्यत् । भावेन चित्ताभिप्रायेण, लञ्जया ब्रीडया, धिया बुद्धया । परामुखैः विपरीतवदनैः अर्धकटाक्षवीक्षितैः । पुनः कैः ? । वचोभिः । पुनः केन ? । ईर्ष्याकलहेन । पुनः कया ? । लीलया । एतैः प्रकारैः स्त्रियः पुरुषाणां बन्धनमेव ॥ ८ ॥
अथ तासामेवाधिक्यमाह कविःएताश चलद्वलयसंहतिमेखलोत्थ___ झंकारनूपुररंवाहृतराजहंस्यः। कुर्वन्ति कस्य न मनो विवशं तरुण्यो
विति॒स्तमुग्धहरिणीसदृशाक्षिपातैः ॥ ९॥ एताः तरुण्यः इमा युवत्यः कस्य मनो विवशं विह्वलं न कुर्वन्ति ? अपि त्वखिलजगतः । कैः। वित्रस्तमुग्धहरिणीसदृशाक्षिपातैः । वित्रस्ता चासौ मुग्धा वित्रस्तमुग्धा, वित्रस्तमुग्धा या हरिणी तत्सदृशा ये अक्षिपाताः वित्रस्तमुग्धहरिणीसदृशाक्षिपाताः, तैः । चपलकटाक्षपातैरित्यर्थः । किं० तरुण्यः ? । चलद्वलयसंहतिमेखलोत्थझंकारनूपुररवाहृतराजहंस्यः । चलन्तो ये वलयाः (क. ट. कङ्कणाः) चलद्वलयास्तेषां संहतिः श्रेणिः, चलद्वलयसंहतिश्च मेखलोत्थझंकाराश्च नूपुररवास्तैः । आ समन्तात् भावेन हृता राजहंस्यो याभिः, ताः चलठ्ठलयसंहतिमेखलोत्थझंकारनूपुररवाहृतराजहंस्यः । एतावता सलावण्यनारीणां रूपं दृष्ट्वा कस्य मनो विह्वलं न भवतीत्यागमः ॥ ९॥
अथ नारीभ्यः सुखदुःख[ स्वरूप ]माह कविःसत्यं जना वच्मि न पक्षपाताल लोकेषु सप्तस्वपि तथ्यमेतत् । नान्यन् मनोहारि नितम्बिनीभ्यो दुःखैकहेतुर्नहि कश्चिदन्यः ॥१०॥ __ हे जनाः लोकाः! सत्यं वच्मि अवितथं कथयामि । न पक्षपाताद् वच्मि । यत्तु सप्तस्वपि लोकेषु एतत्तथ्यं ( क. च. तथ्यं)। तत् किम् ? । नितम्बिनीभ्यो युवतीभ्योऽन्यन्मनोहारि किमपि न । अन्यत् [अन्यः] कश्चित् (ख. ट. किंचित् ) नितम्बिनीमन्तरेण दुःखैकहेतुर्नहि नास्त्येव ॥ १० ॥ ! .. १. ख. रीऑ । २. ख. "भावे । ३. ख. ग. घ. हंसाः ; ज. हंसः। ४. ख. चित्रस्थ०; घ. चित्रस्य । ५. हं. क. च. यत्सप्तस्वपि; ज. सर्वेषुच । ६. ख. घ. किंचिदन्यत् ।
Page #80
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. ११-१२]
नीतिशतकम् तासामेव स्वरूपमाह कविःलीलावतीनां सहजा विलासास् त एव मूढस्य हृदि स्फुरन्ति । रागो नलिन्या हि निसर्गसिद्धेस् तत्र भ्रमत्येव मुधा षडद्धिः ॥ ११ ॥
लीलावतीनां ललनानां विलासाः सहजाः स्वभावजाता वर्तन्ते । परं मृढस्य हृदि त एव स्फुरन्ति । कोऽर्थः ? । मूढजनश्चेतसीदं विचिन्तयति- इयं प्रमदा मां दृष्ट्वा दृष्ट्वा हावभावविभ्रमविलासान् कुरुते । तन्मुधैव । यतः प्रोक्तं नाममालायाम् (ख. ट. हेमाचार्यैः )।
“मोट्टायितं कुट्टमितं ललितं गर्हितं तथा।
विभ्रमश्चेत्यलंकाराः स्त्रीणां स्वाभाविका दश ॥" इति रहस्यम् । अमुमेवार्थ कविदृष्टान्तेन मूढजनमवबोधयति-नलिन्याः रक्तकमलिन्या रागो निसर्गसिद्धो वर्तते स्वभावोत्पन्नो वर्तते । षडर्भिमरः । तत्र कमलिन्यां मुधा (छ. ट. मुग्धा ) भ्रमति ॥ ११ ॥
सिद्धाध्यासितकन्दरे हरवृषस्कन्धावगाढद्रुमे
गङ्गाधौतशिलातले हिमवतः स्थाने स्थिति स्थेयसि । कः कुर्वीत शिरःप्रणाममलिनं मानं मनस्वी जनो
यद्युत्रस्तकुरङ्गशावनयना न स्युः स्मरास्त्र स्त्रियः॥१२॥ यदि चेत् स्त्रियो न स्युः । यत्तदोर्नित्यसंबन्धः । इति ज्ञायात् । तदा को मनखी जनः खकीय मानं शिरः प्रणाममलिनं कुर्वीत ? । अपि तु न कोऽपि । किं० स्त्रियः ? । उनस्तकुरङ्गशावनयनाः। उत्रस्तो योऽसौ कुरङ्गः तस्य शाववद् बालकवन् नयने यासां ता उत्रस्तकुरङ्गशावनयनाः। पुनः किं० स्त्रियः ? । स्मरास्त्र कामास्त्रम् । आविष्टपुल्लिङ्गः (हं. क. छ. 'पुल्लिङ्ग) एवंविधा नार्यश् चेन्न स्युः तदा मानं कश्चिदपि नोज्झिष्यत ( नौज्झिष्यत्)। क सति । हिमवतो हिमाचलस्य पर्वतस्य स्थाने स्थिति (छ. स्थितं) स्थेयसि निश्चले सति । किं० हिमवतः स्थाने ? । गङ्गाधौतशिलातले गङ्गया भागीरथ्या धौतं प्रक्षालितं शिलातलं यस्य स० तस्मिन् । पुनः किं० हिमवतः स्थाने ? । हरवृषस्कन्धावगाढद्रुमे । हरस्येश्वरस्य वृषो बलीवर्दः हरवृषः (हं. च. हरिवृषः ), तस्य स्कन्धेन अवगाढा घर्षिता द्रुमा वृक्षा यत्र स हरवृ० तस्मिन् । [पुनः किंभूते हिमवतः स्थाने ? सिद्धाध्यासितकन्दरे सिद्धैरध्यासिता कन्दरा यस्य स तस्मिन् । ] चेद्धिमवतो निरञ्जनानि शृङ्गाणि आत्मार्थसाधकानि वर्तन्ते, तदा परसेवां कः कुर्वीत ? | चेन्नार्यों न भवन्ति ॥ १२ ॥
मनस्विना एकावस्थोपदेशमाह कविःदिर्श वनहरिणीभ्यो वंशकाण्डस्थलीनां
कवलमुपलकोटिच्छिन्नमूलं कुशानाम् ।। १. क. च. स्मरंति। २ च. सिद्धिस् । ३. ग. भ्रमत्येष। ४ ग. हरिवृष। ५. ख. घ. स्थिते । ६. ख. दिनवन ।
Page #81
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. १३-१५] शुकयुवतिकपोलापाण्डु ताम्बूलवल्ली
दलमरुणनखात्रैः पाटितं वा वधूभ्यः ॥ १३ ॥ हे मनस्विन् ! वधूभ्यः सुन्दरीभ्यः नागवल्लीदलं ताम्बूलनागवल्लीदलं; (ट. ताम्बूलवल्लीदलं) वीटकं दिश वितर । वा अथवा वनहरिणीभ्यः वनमृगीभ्यः कुशानां दर्भाणां केवलं दिश देहि । किं० नागवल्लीदलम् ? । अरुणनखाग्रेः पाटितं विदारितं विनशीकृतम् । पुनरपि किं विशिष्टं नागवल्लीदलम् ? । शुकयुवतिकपोलापाण्डु । शुकयुवती शुकी [तस्याः ] कपोलवत् आ समन्ताद् भावेन पाण्डु गौरवर्णम् । "पुंवद्भाषितपुंस्कानूङ पूरण्यादिषु स्त्रियाम् ।" तुल्याधिकरणे युवतीस्थाने युवति । कवलं कासां ? वंशकाण्डस्थलीनां वंशानां काण्डस्थली वंशकाण्डस्थली, [तेषां ] वंशपल्लवानां कवलमित्यर्थः । किं० कवलम् ? । उपलकोटिच्छिन्नमूलम् । उपलः प्रस्तरस्तस्य कोटिः अग्रविभागः तया छिन्नं मूलं यस्य स उपलकोटिच्छिन्नमूलस्तम् , उप० ॥ १३ ॥
अथ विषयरसविशेषाधिक्यमाहअसाराः सन्त्येते विरतिविरसों ये च विषया
जुगुप्सन्तां यद्वा ननु सकलदोषास्पदमिति । तथाप्यन्तस्तत्त्वप्रणिहितधियामप्यतिबल
स्तदीयोऽनाख्येयः स्फुरति हृदये कोऽपि महिमा ॥ १४ ॥ च अन्यत् । ये ( क. के ख. ट. एते) विषयास्ते पण्डितैः । यद्वा अथवा इति जुगुप्सन्तां तिरस्क्रियन्ताम् । इतीति किम् ? । ननु निश्चितम् । विषयाः सकलदोषास्पदम् । पुनः इतीति किम् ? । एते विषया विरतिविरसाः सन्तः असाराः सन्ति । तथापि एवं सत्यपि । अन्तस्तत्वप्रणिहितधियां अपि महात्मनामपि विदुषामपि । तदीयो महिमा तस्य विषयस्य महिमा । हृदये कोऽपि अपूर्व इव स्फुरति । किं० महिमा ? । अनाख्येयः वक्तुमशक्यः । अन्तर्गतत्वेन प्रणिहिता सत्यीकृता स्थापिता धीर्बुद्धिर्येषां ते अन्तस्तत्त्वप्रणिहितधियः, तेषामपि कामरसव्याप्ती सत्यां तत्त्वं तदेव जागर्ति । न तु शास्त्रादिको रसः ॥ १४ ॥
अथ मनसो रुचिस्वरूपमाह कविःभवन्तो वेदान्तप्रणिहितधियामत्र गुरवो
विचित्रालापानां वयमपि कवीनामनुचराः । तथाप्येतद् ब्रूमो न हि परहितात् पुण्यमधिकं
न चास्मिन् संसारे कुवलयदृशो रम्यमपरम् ॥ १५ ॥ १ग, सन्त्वेते। २ ग. विरसायास; घ. विरसाश्चापि। ३. घ. जुगुप्सन्तं । ४. ग.' शकल०। ५. ख. घ. मपि। ६ ग. च. बलं तदी. ७. ग. कोप्यमहिमा।
Page #82
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. १६-१८]
नीतिशतकम् __ हे पूज्याः ! भवन्तोत्र संसारे वेदान्ततत्त्वप्रणिहितधियां वेदरहस्यनिश्चलबुद्धीनां गुरवो वर्तन्ते । वयमपि कवीनामनुचरा वर्तामहे । किं० कवीनाम् ? । [विचित्रालापानाम् ।] विचित्रो आलापो येषां ते विचित्रालापाः, तेषां वि० । तथापि एवं सत्यपि । किमपि वयमपि एतद् ब्रूमः । किम् ? । न हि परहितात् अधिकं पुण्यं नास्ति । असिन् संसारे कुवलयदृशः नार्याः अपरं न च रम्यं न किमपि सुन्दरम् ॥ १५॥
अथ पृच्छां चिकीर्षुराह कविःमात्सर्यमुत्सार्य विचार्य कार्यमार्याः समर्यादमिदं वदन्तु । सेव्याः नितम्बाः किमु भूधराणामुत स्मरस्मेरविलासिनीनाम् ॥१६॥
हे आर्याः हे पण्डिताः ! । इदं समर्यादं वाक्यं वदन्तु । भोः किं कृत्वा ।। मात्सर्यमुत्सार्य परिहृत्य । अपि च कार्य विचार्य । तत् किम् ? । किमु भूधराणां पर्वतानां नितम्बाः उत स्मरस्मेरविलासिनीनां सुन्दरीणां नितम्बाः सेव्याः ? । तत्सत्यावहं मम पुरस्तानिवेदयन्तु (ख. ट. अस्मत्पुरुषानिवेदयन्तु)॥ १६ ॥
अथ मनसो रुचिः प्राह कविःकिमिह बहुभिरुक्तैर्वस्तुशून्यैः प्रलापर्
द्वैयमपि पुरुषाणां सर्वदा सेवनीयम् । अभिनवमदलीलालालसं सुन्दरीणां
स्तनभरपरिखिन्नं यौवनं वा वनं वा ॥ १७ ॥ हे तत्त्वार्थिनः ! इह अस्मिन्नर्थे बहुभिरुक्तैः किम् ? किंलक्षणैर्बहुभिरुक्तैः ।। वस्तुशून्यैर्युक्तिशून्यैः [पुनः किंलक्षणैरुक्तैः ? । प्रलापैः अनर्थकवचोभिः ] । पुरुषाणां धर्मार्थकामयुक्तानां सर्वदा सर्वकालं द्वयमपि सेवनीयं द्वयोरपि परिशीलनं कर्तव्यम् । सुन्दरीणां रमणीनां यौवनं वा, वनं वा । किं० यौवनम् ? । अमिनवमदलीलालालसं अभिनवा मदलीला अभिनवमदलीला, तामिालसम् । पुनः किं० यौवनम् ? । स्तनभरपरिखिन स्तनभरेण परिखिन्नं स्तनभरपरिखिन्नम् ॥ १७ ॥
अथ जितेन्द्रियस्वरूपमाह कविःबाले लीलामुकुलितममी मन्थरा दृष्टिपाताः __किं क्षिप्यन्ते विरम विरम व्यर्थ एष श्रमस्ते । संप्रत्येते वयमैपरतं बाल्यमास्था वनान्ते
क्षीणो मोदस्तृणमिव जगज्जालमालोकयामः ॥१८॥ १. ग. अर्थ', ख. घ. युक्ति। २ ग. द्वयमिह । ३ ख. घ. उपरतं; च. अपि रतं।
Page #83
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ २.१९-२०
हे बाले ! अभी मन्थराः दृष्टिपाताः लीलामुकुलितं यथा भवति किं क्षिप्यन्ते किं प्रेर्यन्ते । विरम विरम । एष ते तव श्रमः व्यर्थो मुधैव । संप्रति एते वयं जगज्जालं तृणमिव आलोकयामो विलोकयामः । कथम् ? । बाल्यं अपरतं विरमितं (ख. ट. उपरतं विरतं ) । आस्था वनान्ते । मोहः क्षीणः । अस्माकमीदृशं स्वरूपं वर्तते । संप्रति वयमीदृशाः स्मः ॥ १८ ॥
अथ कामिनः कामतत्त्वमाह
ટ
मत्तेभकुम्भपरिणाहिनि कुङ्कुमद्रे कान्तापयोधरतटे रतिखेदखिन्नः ।
वक्षो निधाय भुजपञ्जरमध्यवर्ती
धन्यः क्षिप क्षिपयति क्षणलब्धनिद्रः ॥ १९ ॥
धन्यः प्राणी एवंविधां क्षिपां रजनीं क्षिपयति निर्गमयति । किं कृत्वा ? । वक्षो हृदयं पिधाय (च. ट. विधाय ) आच्छाद्य । कथंभूतः सन् ? । भुजपञ्जरमध्यवर्ती सन् । किं० धन्यः ? | कान्तापयोधरतटे रति ( हं. रत० ) खेदखिन्नः । किं० कान्तापयोधरतटे ? । मत्तेभकुम्भपरिणाहिनि । मत्तेभकुम्भवत् परिणाहो विस्तारो विद्यते यस्य स तस्मिन् । पुनः किं०धन्यः ? | क्षणलब्धनिद्रः क्षणमात्रं लब्धा निद्रा येन स क्षणलब्धनिद्रः ॥ १९ ॥ अथ कश्चित्पुमान् कांचिन्नायिकां प्रत्याहअनाघ्रातं पुष्पं किशलयमलूनं कररुहैर्
अनाविद्धं रत्नं निर्धुवनमनास्वादितरसम् ।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव भवद्रूपमनघं
न जाने भोक्तारं क इह समुपस्थास्यत इति ॥ २० ॥
हे भद्रे ! अन भवद्रूपं प्रति अरमत्यर्थं भोक्ता इति अमुना प्रकारेण क इह अस्मिन् रूपे समुपस्थास्यते । तदहं न जाने । किं० भवद्रूपम् । अनाघ्रातं पुष्पमिव कररुनं नखाग्रैरचुण्टितं किशलयमिव । उत्प्रेक्षते - अनाविद्धं अनुत्कीलितं ( हं. रितं ) रत्नमिव । अनास्वादितरसं ( हं. निधुवनमिव अभुक्तं सुरतमिव शुद्धपाठः ) निधुवनमिव हारहूरमिव । पुनः किं० भवद्रूपम् ? | पुण्यानामखण्डं अक्षतं फलमिव । एतावता नाहं जाने तव पतिं कं विधास्यति भगवान् ॥ २० ॥
अथ दुर्भगसेवकमाश्रित्य कान्तास्वरूपमाह -
राजंस्तृष्णाम्बुराशेर्नहि जगति गतः कश्चिदेवावसानं
को वाप्यः प्रभूतैः स्ववपुषि गलिते यौवने सानुरागः ।
१ क. च. छ. ज. माद्रे । २ हं. धन्याः ।
५ हैं. पुष्कं । ६ ख. मधुवनम ।
३ क. घ. क्षपां । ४ ग. घ. क्षपयति ।
Page #84
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.२१-२३]
शृङ्गारशतकम् गच्छामः सद्म यावद् विकसितकुमुदेन्दीवरालोकिनीनाम् ।
आक्रम्याऽऽक्रम्य रूपं झटिति न जरया लुच्यते प्रेयसीनाम् ॥२१॥ हे राजन् !, तृष्णाम्बुराशेः तृष्णासमुद्रस्य कश्चिदवसानं प्रान्तं [जगति ] गतः १ । अपि तु न । वा अथवा, यौवने स्ववपुषि गलिते सति प्रभूतैरप्यर्थः प्रचुरैरपि धनैः कः सानुरागो भवति ? । अपि तु न कोऽपि । हे राजन् ! स्वं सम गच्छामः यावत् प्रेयसीनां वल्लभानां रूपं झटिति शीघ्रं जरया आक्रम्याक्रम्य न लुच्यते न लुण्ट्यते । किं० प्रेयसीनाम् ? । विकसितकुमुदेन्दीवरालोकिनीनाम् । विकसिते कुमुदेन्दीवरे विकसितकुमुदेन्दीवरे, तयोर्यदालोको यासां ता विकसितकुमुदेन्दीवरालोकिन्यः, तासाम् । विकसितकमलदलनयनानामित्यर्थः ॥ २१॥
अथ वर्षासमये पथिकस्वरूपमाह
उपरि घनं घनपटलं तिर्यग्गिरयोऽपि नर्तितमयूराः । क्षितिरपि कन्दलधवला दृष्टिं पथिकः क्व पातयतु ॥ २२ ॥
पथिकः दृष्टिं क्क पातयतु ? । कथम् ? । उपरि आकाशे घनं निबिडं घनपटलम् । तिर्यग् गिरयोऽपि नर्तितमयूराः नर्तिता मयूरा यस्मिंस्ते (छ. येषु ते) नर्तितमयूराः । इयं क्षितिरपि कन्दलधवला कन्दलैः कन्दैः धवलाः कन्दलधवलाः प्रसरितकन्दा इत्यर्थः । एवंविधं स्वरूपं दृष्ट्वा पथिकस्य हृदयं समुल्ललास । कया ? । स्वगृहयानोत्कण्ठया ॥ २२ ॥
अथ पुनरपि मनस्विनां स्वरूपमाहसंसारेऽस्मिन्नसारे परिणतितरले द्वे गती पण्डितानां __ तत्त्वज्ञानामृताम्भालतलुलितधियां यातु कालः कदाचित् । नो चेन्मुग्धाङ्गनानां स्तनजघनघनाभोगसंभोगिनीनां
स्थूलोपस्थस्थलीषु स्थगितकरतलस्पर्शलोलोद्यतानाम् ॥ २३ ॥ अस्मिन्नसारे संसारे पण्डितानां विदुषां द्वे गती । किं० संसारे ? । परिणतितरले परिणामचञ्चले । द्वे के गती पण्डितानाम् ? । कदाचित् तत्त्वज्ञानामृताम्भःप्लतलुलितधियां कालो यातु । तत्त्वस्य ज्ञानं तत्त्वज्ञानं शुक्ल (क. छ. शुभ; ट. मुक्त) ध्यानमित्यर्थः । तत्त्वज्ञानमेव अमृताम्भः तत्त्वज्ञानामृताम्भः, तेन प्लुता भिन्ना लुलिता च धीर्बुद्धिर्येषाम् , ते तत्त्वज्ञानामृताम्भःप्लुतललितधियः, तेषाम् । नो चेद् एवं न । मुग्धाङ्गनानां मनोहारिणीनां स्त्रीणाम् । स्थूलोपस्थस्थलीषु स्थगितकरतलस्पर्शलोलोधतानां कालो यातु । कोऽर्थः ? । स्थूला या उपस्थस्थली नितम्बस्थली स्थूलोपस्थस्थली, तासु स्थगितो योऽसौ करतलः स्थगितकरतलः, तस्य स्थगितकरतलस्य, संस्पर्शो योऽसौ लोलो लौल्यं बिभ्राणः, तत्रोद्यताः, स्थगितकरतलस्पर्शलोलोद्यताः,
१ घ. आलोकनीनाम् । २ ख. घ. लुण्ट्यते । ३ क. छ. पातयति । ४ क. छ. 'लुत।
७ शतकत्र.
Page #85
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. २४-२५] तेषाम् । कि० मुग्धाङ्गनानाम् ? । स्तनजघनघनाभोगसंभोगिनीनाम् । स्तनश्व जघनश्च स्तनजघनौ, स्तनजघनयोः घनः प्रचुरो आभोगो विस्तारः स्तनजघनघनाभोगः तस्य सम्यग् भोगो विद्यते यासां ताः स्तनजघनघनाभोगसंभोगिन्यः, तासाम् ॥ २३ ॥
अथ मोहस्य दुश्चेष्टितमाहकान्तेऽत्युत्पललोचनेऽतिविपुलश्रोणीभरेत्युन्नमत्
पीनोत्तुङ्गपयोधरेऽतिसुमुखाम्भोजेऽतिसुभूरिति । दृष्ट्वा माद्यति मोदतेऽभिरमते प्रस्तौति विद्वानपि
प्रत्यक्षाशुचिपुत्रिकां स्त्रियमहो मोहस्य दुश्चेष्टितम् ॥ २४ ॥ विद्वानपि पुमान् स्त्रियं इति अमुना प्रकारेण दृष्ट्वा माद्यति मोदते अभिरमते प्रस्तौति । अहो मोहस्य दुश्चेष्टितं दुर्विलसितम् । तत्र माद्यति-मदी हर्षे । मोदते-मुद संमोदने । अभिरमते- रम (ट. रमु ) क्रीडायाम् । प्रस्तौति- 'ष्टुञ् स्तुतौ'। 'टु धात्वादेः षः सः ष्टु । निमित्ताभावेस्तु सर्वत्र वर्तमाने या निष्पत्तिः । इतीति किम् ? । हे कान्ते। 'कमु कान्तौ'। कमु काम्यते स्म । 'निष्ठा क्तः' तप्रत्ययः । ‘पञ्चमौपधाया दीर्घः'। का इति निष्पन्नम् । मनोर० । स्त्रियामा० । तस्याः संबोधनं विधीयते। हे कान्ते । हे अत्युत्पललोचने। लोचनाभ्यामतिक्रान्तानि उत्पलानि यया सा अत्युत्पललोचना, तस्याः संबोधनं विधीयते हे अत्युत्पललोचने । हे अतिविपुलश्रोणीभरे । अतीव विपुलं श्रोणीभरं यस्याः सा० । तस्याः संबोधनम् । हे अतिविपुल० । हे अत्युन्नमत्पीनोत्तुङ्गपयोधरे । अति उन्नमन्तौ पीनौ उत्त(तु )ङ्गो पयोधरौ यस्याः, सा०, तस्याः संबोधनम् । हे अतिसुमुखाम्भोजे अतिक्रान्तं सुमुखेन अम्भोज कमलं यया सा०, तस्याः संबोधनम् । हे अतिसुभ्र । अतीव सुष्टे [ ठु] ध्रुवौ यस्याः सा०, तथा तस्याः संबोधनम् । एवंविधां वर्णनां कृत्वा कृत्वा मोहमूढो जनः स्त्रियं स्तौति । किं० स्त्रियम् ? । प्रत्यक्षाशुचिपुत्रिकाम् । प्रत्यक्षं अशुचेः पुत्रिका प्रत्यक्षाशुचिपुत्रिका, ताम् । मोहस्य विडम्बनेति ॥ २४ ॥
अथ रमणीनामङ्गोत्थगुणवर्णनमाह
कचित्सुभ्रूभङ्गैः क्वचिदपि च लज्जापरिगतैः ___ क्वचिद्भीतित्रस्तैः कचिदपि च लीलाविलसितैः । कुमारीणामेतैर्वदनसुभगैर्नेत्रवैलितैः
कैचिल्लीलाब्जानां प्रकरपरिकीर्णा इव दिशः ॥ २५ ॥ कुमारीणां सुन्दरीणाम् । एतैर्नेत्रवलितैः नेत्रविभ्रमैः दिशः लीलानानां प्रकरपरिकीर्णा इव वर्तन्ते । किं० नेत्रवलितैः ? (चलितैः) वदनसुभगैः । मुखलावण्येन शोभापरायणैः । किं०
१ ख. घ. सभ्रूभङ्गैः। २ ग. घ. चलितैः। ३ ख. घ. स्फुरल्लीला' ।
Page #86
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.२६-२८]
शृङ्गारशतकम् नेत्रवलितैः । क्वचित्सुभ्रूभङ्गैः सुष्टो [°ष्ठु] भ्रूभङ्गो येषां ते सुभ्रूभङ्गास्तैः । पुनः किं० नेत्रवलितैः । क्वचिदपि च लजापरिगतैः । लजया परि समन्ताद्भावेन गता मिलिता लज्जापरिगतास्तैः । पुनः किं० नेत्रवलितैः ? । कचिद्भीतित्रस्तैः भीत्या त्रस्ता भीतित्रस्तास्तैः । पुनः किं० नेत्रवलितैः । क्वचिदपि च लीलाविलसितैः । लीलया (क. च. लीलाया) विलसितानि येषां तानि [तैः ] । एवंविधैः चेष्टितैः कृत्वा दिशः कमलप्रकरपरिकीर्णा इव भान्ति ॥ २५॥
युवतीनां स्वाभाविकमण्डनमाहवकं चन्द्रविडम्बि पङ्कजपरीहासक्षमे लोचने
वर्णः वर्णमपाकरिष्णुरेलिनीजिष्णुः कचानां चयः। वक्षोजाविभकुम्भविभ्रमहरौ गुर्वी नितम्बस्थली
वाचां हारिषु मार्दवं युवतिषु स्वाभाविकं मण्डनम् ॥ २६ ॥
युवतिषु तरुणीषु इदं स्वाभाविकं मण्डनं वर्तते । इदं किम् ? । वक्रं चन्द्रविडम्बि चन्द्रानुकारि । लोचने पङ्कजपरीहासक्षमे कमलहास्यसमर्थे । पुनः किं० । वर्णः स्वर्णमपाकरिष्णुः निराकरिष्णुः । पुनः किं० । कचानां चयः अलिनी (नीं) जिष्णुः भ्रमरीवर्णजयनशीलम् (लः)। पुनः किंम् । वक्षोजो कुचौ इभकुम्भविभ्रमहरौ (हं. ज. करौ)। पुनः किम् ? गुर्वी नितम्बस्थली । पुनः किम् ? वाचां मार्दवं सौकुमार्यम् । किंलक्षणासु युवतिषु ? । हारिषु मनोहारिणीषु (ख. च. हारिषु) पुरन्ध्रीणां सहजमण्डनमिदम् ॥ २६॥
नामृतं न विषं किंचिदेकां मुक्त्वा नितम्बिनीम् । सैवामृतमैयी रक्ता विरक्ता विषवल्लरी ॥ २७ ॥
सुगमार्थोऽस्ति । परं तथापि नितम्बिन्या अमृतविषस्वरूपमाह कविः - एकां नितम्बिनीं मुक्त्वा किंचिन्नामृतं न विषम् । एतावता इदमेवामृतं इदमेव विषम् । सैव नितम्बिनी रक्ता सती अमृतमयी विरक्ता सती विषवल्लरी विषवेलिः (हं. वीरुध् ; ख वीरुद् च भीरुत् ;) इत्यर्थः ॥ २७ ॥ एनमेवार्थमाह
भ्रूचातुर्याकुञ्चिताक्षाः कटाक्षाः
स्निग्धा वाचो लज्जितान्ताश्च हासाः। लीलामन्दं प्रस्थितं चे स्थितं च
. स्त्रीणामेतद् भूषणं चायुधं च ॥२८॥ १ घ. विडम्ब । २ क. छ. अलिनीं। ३ ख. घ. लता । ४ ग, तास्ते च । ५ ख. घ. सुस्थितं।
Page #87
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.२९-३१] स्त्रीणां नारीणाम् । एतद्भूषणम् । च अन्यत् । आयुधमपि । एतत्किम् ? । कटाक्षाः । किं० कटाक्षाः ? । भ्रूचातुर्याकुञ्चिताक्षाः भ्रूचातुर्येण आकुञ्चितानि अक्षीणि याभिस्ता भ्रूचातुर्याकुञ्चिताक्षाः । पुनः किं० । स्निग्धा वाचा मधुरवाण्यः । च अन्यत् । लजितान्ता हासाः । पुनः किं०। प्रस्थितं गमनम् । च अन्यत् । स्थितम् । किं० प्रस्थितं च स्थितं । लीलामन्दं लीलया मन्थरं (क. छ. मन्थिर; च. मन्दिरं)। स्त्रीणामेतानि भूषणानि । परमनोवेधनशस्त्रमपि ॥२८॥
तासां तारुण्यस्वरूपमाहस्मितं किंचिद्वनं सरलतरलो दृष्टिविभवः
पैरिस्पन्दो वाचामैभिनवविलासोक्तिसरसः। गतीनामारम्भः किशलयितलीलापरिकरः
स्पृशन्त्यास्तारुण्यं किमिवें न हि रम्यं मृगदृशः ॥ २९ ॥ तारुण्यं स्पृशन्त्या मृगदृशः । हि निश्चितम् । किमिव (ह) रम्यं न ? । अपि तु रम्यमेव । रम्यं किम् किम् ? । वकं किंचित् सितं हास्ययुक्तम् । दृष्टिविभवः सरलतरलः। वाचा वाणीनां परिस्पन्दो निर्गमः (ख. च. ट. निगमः) अभिनवविलासोक्तिसरसः। अभिनवविलासोक्त्या सरसः अभिनवविलासोक्तिसरसः । पुनः किम् ? । गतीनामारम्भः किशलयितलीला. परिकरः अङ्कुरितलावण्यपरिवारः । तारुण्यसमये पुरन्ध्रीणां किं किं न सुन्दरमित्यर्थः ॥ २९॥
अथ नायिकानां विकारमाहस्मृता भवति तापाय दृष्टी तूंन्मादवर्धनी। स्प॑ष्टा भवति मोहाय सा नाम दयिता कथम् ॥ ३० ॥
नाम इति संबोधने । सा दयिता कथमुच्यते ? । या स्मृता सती तापाय भवति । तु पुनः दृष्टा सती उन्मादवर्ध (°धि) नी भवति । या दयिता स्पृष्टा सती मोहाय भवति, तस्याः [नाम ] दयिता कथं कथ्यते ? ॥ ३० ॥
अथ तासामेव विषन्न [ण्ण ] तामाहआवर्तः संशयानामविनयभवनं पत्तनं साहसानां
दोषाणां संनिधानं कपटशतमयं क्षेत्रमप्रत्ययानाम् । वर्गद्वारस्य विघ्नं नरकपुरमुखं सर्वमायाकरण्डं
स्त्रीयत्रं केन सृष्टं विषममृतमयं प्राणिलोकस्य पाशः ॥ ३१ ॥ १ ग.तरला दृष्टिविशिखा। २ ख. ग. परिस्फन्दो। ३ ग. अभिमति । ४ ख. घ. 'लयति; च. °लयत । ५ क. ग. छ. किमिह । ६ ग. घ. च. दृष्ट्रा । ७ ख. ग. घ. ज. चोन्मादवर्धिनी। ८ घ. दृष्टा । ९ ग. भुवनं । १० हं. पातनं । ११ घ. स्पृष्टं । १२ ग. निभं प्राणिनां मोहपाशः। १३ घ. पाशम् ।
Page #88
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. ३२-३३] शृङ्गारशतकम्
५३ ___ अहो! इदं स्त्रीयत्रं केन सृष्टम् । किं० स्त्री० ? । विषममृतमयम् । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । प्राणिलोकस्य पाशः। पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । संशयानां संदेहानां आवर्तः । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । अविनयभवनम् । पुनः किं० स्त्रीयत्रम् ? साहसानां पत्तनम् । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । दोषाणां संनिधानम् । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । कपटशतमयम् । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । अप्रत्ययानां अविश्वासानां क्षेत्रं भूमिः । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । स्वर्गद्वारस्य विनम् । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । नरकपुरमुखं । पुनः किं० स्त्रीयन्त्रम् ? । सर्वमायाकरण्डम् । इदं यन्त्रं प्राणिलोकस्य पाशकृते कृतमस्ति । बन्धनार्थम् ॥ ३१ ॥
अथ नारीरूपतिरस्कारमाहनो सत्येन मृगाङ्क ऐष वदनीभूतो न चेन्दीवर
द्वन्द्वं लोचनतां गतं न कनकैरप्यङ्गयष्टिः कृता । किं त्वेवं कविभिः प्रतारितमनास्तत्त्वं विजानन्नपि
त्वग्मांसास्थिमयं वपुर्मुगदृशां मैत्वा जनः सेवते ॥ ३२ ॥ अहो कष्टं विलोक्यताम् । जनो मृगदृशां नारीणां वपुः शरीरं सेवते । किं० वपुः ? । त्वग्मांसास्थिमयम् । त्वचां मांसानां अस्थीनां च विकारोऽवयवो वा । एकस्वरान्नित्यं मयट्मयप्रत्ययः । कथम् ? । सत्येन एष मृगाङ्कश्चन्द्रो वदनीभूतः ? । अपि तु न । च अन्यत् । इन्दीवरद्वन्द्वं कस्यापि लोचनतां गतम् १ । अपि तु न । अपि पुनः अङ्गयष्टिः कस्यापि कनकैः कृता । अपि तु न । किं० जनः ? । किंत्वेवं पूर्वोक्तप्रकारेण कविभिः प्रतारितमनाः विप्रतारितचेताः । पुनः जनः किं कुर्वन् ? । तवं विजानन्नपि अवगच्छन्नपि परं तथापि मानवो मुह्यते । अतत्त्वमपि तत्त्वं वेत्ति ॥ ३२ ॥
अथ पुरुषाणां मोहनस्वरूपमाहसन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति हि नरस्तावदेवेन्द्रियाणां
लज्जा तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः श्रवणपथजुषो नीलपक्ष्माण एते __ यावल्लीलावतीनां न हृदि धृतिमुषो दृष्टिबाणाः पतन्ति ॥३३॥
नरः सन्मार्गे तावदास्ते तावत्कालं तिष्ठति । हि निश्चितम् । नरो मनुष्यः तावदेव तावत्कालमेव इन्द्रियाणां प्रभवति जयं कुरुते पराभवति वा । नरः प्राणी लजां तावद्विधत्ते तावन्तं कालं लजां करोति । प्राणी विनयमपि तावदेव समालम्बते बिभर्ति । यावल्लीला
१ख. ग. घ. एव । २ ख. चेन्दीवरं । ३ क. च. छ. 'दृशामन्धो; ग. °दृशां मन्दो। ४ ज. सदाल । ५ ख. घ. पथगता। ६ क. मुषाः; ख. मुखाः , ग. ज. °मुखो ; घ. ट. मुखा, छ. मुखः।
Page #89
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. ३४-३५] वतीनां ललनानां एते दृष्टिबाणा न पतन्ति । किं० दृष्टिबाणाः ? । हृदि धृतिमुषः । पुनः किं० दृष्टिबाणाः ? । नीलपक्ष्माणः । अन्येऽपि बाणा नीलपक्ष्माणो भवन्ति ननु । एतेऽपि तथैव । पुनरपि किं० दृष्टिबाणाः ? । श्रवणपथजुषः। श्रवणयोः पन्थास्तं जुषन्तीति श्रवणपथजुषः । कर्णप्रान्तनेत्रे इत्यर्थः । पुनः किं० दृष्टिबाणाः ? । भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः। भ्रूचापेन आकर्णान्तं आकृष्टमुक्ताः भ्रूचापाकृष्टमुक्ताः । तावदेव प्राणी यावद्युवतीनां नयनकटाक्षबाणा न प्रस्फुरन्ति । स एव शूरो यस्य ते न लगन्ति ॥ ३३ ॥
अथ वैराग्यतत्त्वमाह
यदेतत् पूर्णेन्दुद्युतिहरमुदाराकृतिधरं ____ मुखाब्जं तन्वङ्गयाः किल वसति यत्राधरमेधुः ।
इदं तत् किंपाकद्रुमफलमिवातीव विरसं ___ व्यतीतेऽस्मिन् काले विषमिव भविष्यत्यसुखदम् ॥ ३४ ॥
तत् इदं वक्ष्यमाणं अस्मिन् यौवने काले व्यतीते व्यतिक्रान्ते सति विषमिव असुखदं भविष्यति । यदेतत्तन्वङ्गयाः कृशोदयी इदं मुखाब्जं पूर्णेन्दुद्युति हरम् । किं० मुखाब्जम् ? । उदाराकृतिधरम् । किल इत्यलीके । यत्र मुखाब्जे अधरमधु वसति । तत् किंपाकद्धमफलं विषवृक्षफलमिव परिणामे अतीव विरसं कालातिक्रमेण अतीव दुःखदं भवति ॥ ३४ ॥
अथ विषादवाक्यमाह
संसारेऽस्मिन्नसारे कुनृपतिभवनद्वारसेवालङ्क ___ व्यासङ्गव्यस्तधैर्य कथममलधियो मानसं वा विदध्युः । यद्येताः प्रोद्यदिन्दुद्युतिनिचयभृतो न स्युरम्भोजनेत्राः
प्रेङ्खत्काञ्चीकलापाः स्तनभरविनमन्मध्यभागास्तरुण्यः॥३५॥ यदि चेत् अस्मिन् असारे संसारे अम्भोजनेत्राः कमलाक्ष्यो न स्युः। 'यत्तदोर्नित्यसंबन्धः' इति न्यायात् । तदा अमलधियो निर्मलबुद्धयो मानसं चित्तं व्यासङ्गव्यस्तधैर्य संगतिनिराकृतसाहसं कथं वा विदध्युः कुर्युः ? । [ किंभूते संसारे ? । कुनृपतिभवनद्वारसेवाकलङ्के कुनृपतिभवनद्वारसेवायाः कलको यस्मिन् तस्मिन् । ] किं० अम्भोजनेत्राः ? । प्रोद्यदिन्दुद्युतिनिचयभृतः । प्रोद्यत् [न] योऽसौ इन्दुः चन्द्रः तस्य द्युति [ निचयं कान्तिसमूहं बिभर्तीति [बिभ्रतीति ] इन्दुद्युति ] निचयभृतः । पुनः किं० अम्भोजनेत्राः ? । प्रेङत्काञ्चीकलापाः । शब्दत्कटि(ख. शब्दकृत्कटि) मेखलाः । पुनरपि किं० अम्भोजनेत्राः ? । स्तनभरविनमन्मध्यभागाः । स्तनभरेण विनमन् मध्यभागो यासां ताः स्तनभ० । पुनः किं० अम्भोजनेत्राः। तरुण्यः युवत्यः ॥ ३५ ॥
१ ग. तत्त्वज्ञाः। २ ग. ज. मधु। ३ ग. इदानीमतिरसं। ४ घ. ष्यति सुखदम्। ५ख. घ. कलङ्क ज. कलंको। ६ख. घ. त्यक्त।
Page #90
--------------------------------------------------------------------------
________________
शकारशतकम्
[२. ३६-३८]
अथ नासामुक्ताफलकवर्णनमाहसुधामयोऽपि क्षयरोगशान्त्यै नासाग्रमुक्ताफलकच्छलेन ।
अनङ्गसंजीवनदृष्टिशक्तिः मुखामृतं ते पिबतीति चन्द्रः ॥ ३६ ॥
हे नायिके! । चन्द्रः ते तव मुखामृतमिति पिबति । केन ? । नासाग्रमुक्ताफलकच्छलेन नासाया अयं नासाग्रं, नासाग्रस्य मुक्ताफलं नासाग्रमुक्ताफलम् । स्वार्थे कः । नासाग्रमुक्ताफलकं । तस्य छलं नासाग्रमुक्ताफलकच्छलम् । तेन नासा० । [ किमर्थं पिबति ? । क्षयरोगशान्त्यै क्षयरोगोपशमनाय । किं० चन्द्रः? । अनङ्गसंजीवनदृष्टिशक्तिः अनङ्गस्य संजीवनं अनङ्गसंजीवनं, अनङ्गसंजीवनस्य दृष्टेः ] शक्तिर्यस्य सः स० ॥ ३६॥
परिमलभृतो वाताः शाखा नवाङ्करकोटयो
मधुपतिरतोत्कण्ठाभाजः प्रिया पिकभाषिणी । विरलसुरतखेदोद्गारा वधूवदनेन्दवः
प्रसरति धनाढ्यानां ग्रीष्मे कुतोऽपि गुणोदयः ॥ ३७॥ वधूवदनेन्दवः गुणोदयः ग्रीष्मे ग्रीष्मकाले कुतोऽपि [धनाढ्यानां] धन्यानां प्रसरति। कोऽसौ गुणोदयः ? । परिमलभृतो वाताः गन्धवाहाः पवनाः । शाखाः नवाङ्करकोटयः । पुनः कोऽयं गुणोदयः ? । विरलसुरतखेदोदाराः। किं० सुरतवेदोद्गाराः ? । मधुपतिरतोत्कण्ठाभाजः। पुनरपि कोऽयं गुणोदयः ? । प्रिया पिकभाषिणी । एवंविधो गुणोदयः धन्यानां गृहे भवति ॥ ३७॥
अथ कामवर्धनगुणानाहअच्छाच्छचन्दनराकरा मंगाक्ष्या
धारागृहाणि कुसुमानि च कौमुदी च । मन्दो मरुत् सुमनसः शुचि हर्म्यपृष्ठं
ग्रीष्मे मदं च मदनं च विवर्धयन्ति ॥ ३८ ॥ एते प्रकाराः ग्रीष्मे तपौ मदं चान्यत् मदनं विवर्धयन्ति । के के प्रकाराः । । मृगाक्ष्याः (०क्षी; क्ष्यो) अच्छाच्छचन्दनरसाईकराः ("रा)। अच्छश्च अच्छश्च अच्छाच्छः। अच्छाच्छेन चन्दनरसेन आज़े करौ यस्याः सा अच्छाच्छचन्दनरसाईकराः [] । पुनः के के ?। धारागृहाणि च अन्यत् कुसुमानि । च अन्यत् कौमुदी च अन्यत् सुमनसः। कुसुमस्य मन्दो मरुत् । अन्यत् शुचि हर्म्यपृष्ठम् । एते प्रकारा मदनवर्धना इत्यर्थः ॥ ३८ ॥
१सर्वा मातृका नाशान' इति पठन्ति । २ ख. मधुपतिविरुतो'; ग. मधुरविरुतों'; घ. मधुपतिविरतोच. मधुपरिरतों। ३ ज. आच्छाद्य । ४ हैं. रसार्ध°। ५ क. मृगाक्षी इत्यपि, ख. ग. घ. मृगाक्षा; छ. मृगाक्षी; हं. मृगाक्ष्यो। ६ घ. °पृष्ठे।
Page #91
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
शास्त्रज्ञोऽपि प्रगुणितनयोऽप्यात्मबोधोऽपि बाढ़ संसारेऽस्मिन् भवति विरलो भोजनं सद्गतीनाम् । येनैतस्मिन् निरयनगरद्वारमुद्घाटयन्ती
वामाक्षीणां भवति कुटिला भ्रूलता कुञ्चिकेव ॥ ३९ ॥
अस्मिन् संसारे विरलो जनः सद्गतीनां भाजनं भवति । किं० जनः ? | शास्त्रज्ञोऽपि प्रगुणितनयोऽपि प्रगुणितः प्रगुणीकृतो नयो येन सः । वाढमात्मबोधोऽपि । आत्मानं बोधयतीत्यात्मबोधः । एवं सत्यपि सद्गतिभाग् भाग्यवानेव नापरः । तत्कथम् ? | येन कारणेन वामाक्षीणां वामनयनानां कुटिला भ्रूलता भवति । किं० भ्रूलता ? । उत्प्रेक्ष्यते - कुञ्चिका इव । कुञ्चिका किं कुर्वती ? | निरयनगर द्वारमुद्घाटयन्ती निरय एव नगरं निरयनगरं नरकपुरम् । तस्य द्वारमुद्घाटयितुं शीलं अस्याः सा० । युक्तोऽयमर्थः - अन्यापि या कुञ्चिका भवति सा द्वारमुद्घाटयति ननु । इयं नायिका कुञ्चिका नरकद्वारकपाटमुद्घाटयति ॥ ३९ ॥
अथ नारीनदीवैपम्यतामाह
५६
उन्मीलत्रिवलीतरङ्गवलया प्रोत्तुङ्गपीनस्तनद्वंद्वेनोद्यतचक्रवाक मिथुना वक्राम्बुजोद्भासिनी । कान्ताकारधरा नदीयमभितः क्रूराशया नेष्यते
संसारार्णवमज्जनं यदि ततो दूरेण संत्यज्यताम् ॥ ४० ॥
आत्मन् ! | यदि चेत् ते तव संसारार्णवमज्जनं संसारसमुद्रस्य ब्रुडनं ते तव न इष्यते न वाञ्छ्यते । ततः तदा त्वया इयं नदी दूरेण संत्यज्यतां दूरतः परिवर्ज्यताम् । किं० नदी ? | कान्ताकारधरा कान्तायाः वल्लभाया आकारं दधतीति ( क. विधर्तीति; हं. छ. दिध[ धरतीति ? ] ) कान्ताकारधरा । वा अथ वा कस्य पानीयस्य अन्ता कान्ता [ अन्तं कान्तं ] आकारं (क. छ. अकारं ) दधतीति ( क. विधर्तीति; हं. छ. दिधर्तीति ) कान्ताकारधरा । पुनः किं० नदी ? | अभितश्चतुर्दिशं सर्वैरपि प्रकारैः क्रूराशया दुष्टपरिणामा । पुनः किं० नदी ? | उन्मीलत्रिवली तरङ्गवलया उन्मीलन्त उल्लसन्तः त्रिवलीतरङ्गानां [णां ] वलया यस्यां सा० । युक्तोऽयमर्थः । यत्र नदी भवति तत्र तरङ्गवलयाः स्युः । या कान्ताकारघरा नदी वर्तते सापि त्रिवलीतरङ्गवल्या भवति ननु । पुनरपि किंविशिष्टा नदी : । प्रोत्तुङ्गपीनस्तनद्वंद्वेनोद्यतचक्रवाक - मिथुना । प्रोपीनस्तनद्वंद्वं प्रोतुङ्गपीनस्तनद्वंद्वम् । तेन प्रोत्तुङ्गपीनस्तनद्वंद्वेन उद्यतं उदयं प्राप्तं चक्रवाकमिथुनं यस्याः सा उद्यतचक्रवाकमिथुना । इदमपि युक्तम् । नद्यस्तु चक्रवाकमिथुना भवन्ति । इयमपि कान्तानदी पीनस्तनद्वंद्वेनोद्यतचक्रवाकमिथुना । पुनः किं० नदी ? | वक्राम्बु
१. ह्यात्म । २. ग. गाढं ।
[ २. ३९-४० ]
३ क. भोजनं ।
४ ज. कुञ्चितेव । ५. मर्जनं ।
Page #92
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ २. ४१-४३ ]
शृङ्गारशतकम्
जोद्भासिनी । वक्रमेव अम्बुजं वक्राम्बुजं वक्राम्बुजमुद्भासयितुं शीलं अस्याः सा वक्राम्बुजोगासिनी । युक्तोऽयमर्थः । यत्र नदी भवति तत्राम्बुजानामुद्भास उत्पत्तिर्भवति । इयं कान्ता नदी वाम्बुजोद्भासिनी ॥ ४० ॥
अथ पञ्चेन्द्रियाणां चेष्टितमाह
इह हि मधुरगीतं रूपमेतद्रसोऽयं
स्फुरति परिमलो'ऽसौ स्पर्श एष स्तनानाम् । इति हृतपरमार्थैरिन्द्रियैर्भ्राम्यमाणः
स्वहित करणधूर्तेः पञ्चभिर्वञ्चितोऽसि ॥ ४१ ॥
हे आत्मन् ! | त्वं पञ्चभिरिन्द्रियैर्वञ्चितोऽसि । किं० इन्द्रियैः ? | स्वहितकरणधूर्तेः । स्वस्य हितं स्वहितम् । स्वहितकरणे धूर्तास्तैः स्वहितकरणधूर्तेः । पुनः किं० इन्द्रियैः ? । हृतपरमार्थैः । किं० त्वम् ? । इति अमुना प्रकारेण इन्द्रियैर्भ्राम्यमाणः भ्रान्ति प्राप्यमाणः । इत किम् ? । हि निश्चितम् । इह मधुरगीतं इति श्रवणयोर्हितम् । एतद्रूपमिति नेत्रयोर्हितम् । अहो अयं रसः कटुतिक्ता ( हं. क. ख. च. त्यक्ता ) म्लमधुरमिष्टक्षारलवण इति रसनाया हितम् । असौ परिमलः सुगन्धलक्षणः परिस्फुरतीति नासिकाया हितम् । एष सौकुमार्यः स्तनादीनां स्पर्श इति पञ्चभिरिन्द्रियैः स्वस्वहिताय वशीकृतोऽसि ॥ ४१ ॥
अथ स्त्रीभ्यः संसारनिस्तारे विषयवैषम्यतामाह
संसार तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी ।
अन्तरा दुस्तरा न स्युर्यदि रे मदिरेक्षणाः ॥ ४२ ॥
रे संसार ! तव पर्यन्तपदवी तव निस्तारमार्गता न दवीयसी न दूरा । रे इति आक्षेवाक्ये । रे संसार ! यदि चेत् अन्तरा [ मध्ये ] मदिरेक्षणा नार्यो न स्युः । किं० मदिरेक्षणाः ? | दुस्तराः दुःखेन तीर्यन्ते इति दुस्तराः । एतावता यद्येता नितम्बिन्यो न भवन्ति तदा संसारतरणस्य का किं वदन्ती ! ॥ ४२ ॥
अथ मनसः शिक्षामाह
कामिनीकायकान्तारे कुचपर्वतदुर्गमे ।
मा संचर मनःपान्थ यंत्रास्ते स्मरतस्करः ॥ ४३ ॥
हे मनःपान्थ ! कामिनीकाय कान्तारे मा संचर संक्रमणं मा कुरु । किं० कामिनीकायकान्तारे ? । कुचपर्वतदुर्गमे । कथम् ? । तत्र स्मरतस्करः आस्ते तिष्ठति ॥ ४३ ॥
१ ख. 'लोऽयं । २ घ. हतपरमा ।
८ शतकत्र०
१९५७
३ क. ख. च. छ. तत्रास्ते ।
Page #93
--------------------------------------------------------------------------
________________
५८
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
अथ धन्यपुरुषस्य वर्णनमाह
शृङ्गारमनीरदे प्रसृमर क्रीडारसश्रोतसि प्रद्युम्नप्रियबान्धवे चतुरतामुक्ताफलोदन्वति । तन्वीनेत्रचकोरपार्वणविधौ सौभाग्यलक्ष्मीनिधौ
धन्यः कोऽपि नै विक्रियां कलयति प्राप्ते नवे यौवने ॥ ४४ ॥
[ २. ४४-४६ ]
कोऽपि धन्यः पुमान् विक्रियां न कलयति विकारं न भजतीत्यर्थः । क ? | नवे यौवने प्राप्ते सति । किंविशिष्टे यौवने ? । शृङ्गारद्रुमनीरदे शृङ्गार एव द्रुमः शृङ्गारद्रुमः, शृङ्गारद्रुमस्य नीरदो मेघः शृङ्गारद्रुमनीरदः, तस्मिन् । पुनरपि किं० यौवने ? | प्रसृमरक्रीडारसश्रोतसि । कोऽर्थः ? । प्रसृमरः प्रसरणशीलः योऽसौ क्रीडारसः तस्य श्रोतः प्रवाहः प्रसृमरक्रीडारसश्रोतः, तस्मिन् । पुनः किं० यौवने ? | प्रद्युम्नप्रियबान्धवे । प्रद्युम्नस्य कामस्य प्रियो वल्लभो बान्धवः प्रद्युम्नप्रियबान्धवः, तस्मिन् । कन्दर्पवल्लभसहोदरे । पुनः किं० यौवने ? । चतुरतामुक्ताफलोदन्वति । चतुरता एव मुक्ताफलानि चतुरतामुक्ताफलानि । तेषामुदन्वान् समुद्रः चतुरतामुक्ताफलोदन्वान्, तस्मिन् चातुर्यमुक्तामणिसमुद्रे । पुनः किं० यौवने ? | तन्वीनेत्रचकोर पार्वणविधौ तन्व्या नेत्रचकोरौ तन्वीनेत्रचकोरौ, तन्वीनेत्र चकोरयोः पार्वणविधुः पूर्णि ( ख. पौर्ण ) मासीचन्द्रः । तस्मिन् । पुनः किं० यौवने ? | सौभाग्यलक्ष्मीनिधौ ( हं. विधौ ) सौभाग्यस्य लक्ष्म्याः निधिः सौभाग्यलक्ष्मीनिधिः; तस्मिन् । एवंविधे नवे यौवने प्राप्ते स एव विद्वान् यो विक्रियां न भजते ॥ ४४ ॥ अथ पुण्यशिष्या [क्षा ] माह कवि:
यथातुरः पथ्यमरोचमानं जिजीविषुर्भेषजमाददीत
तथा यियासुर्भुवि लोकयात्रां भुञ्जीत भोगानविषक्तचित्तः ॥ ४५ ॥
यथा आतुरः रोगी जिजीविषुः जीवितुमिच्छुः पथ्यमरोचमानं भेषजमौषधम् आददीत गृह्णीत । तथा तेन न्यायेन । भुवि पृथिव्यां लोकयात्रां मोक्षमार्ग यियासुः प्राणी गन्तुमुत्कण्ठितः प्राणी भोगान् अविषक्तः सन् नीरागचित्तः सन् भुञ्जीत । यथा च प्रोक्तम् " आसन्नकालभवसिद्धियस्स जीवस्स लक्खणं इणमो । विसयसुहेसु न रच्चइ सच्चत्थामेसु उज्जमइ" इति रहस्यम् ॥ ४५ ॥ - अथ यौवनस्य दोषानाह
रागस्यागारमेकं नरकशत महादुःखसंप्राप्तिहेतुर्
मोहस्योत्पत्तिबीजं जलधरपटलं ज्ञानताराधिपस्य । कन्दर्पस्यैकमित्रं प्रकटितविविधस्पष्टदोष प्रबन्धं
लोकेऽस्मिन् नह्यनर्थव्रजकुसुमवनं यौवनादन्यदस्ति ॥ ४६ ॥
१ ज. स्त्रोतसि । २ घ. सौरभ्य' । ३ हं. न च क्रियां ।
Page #94
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.४७-४८ ]
५९
अस्मिन् लोके अनर्थव्रजकुसुमवनं यौवनादन्यत् नहि अस्ति । अनर्थानां व्रजः समूहः तस्य कुसुमवनम् अनर्थव्रजकुसुमवनम् । किं० यौवनादन्यत् ? । रागस्यागारमेकम् । रागस्य एकं आगारं गृहम् । पुनः किं० यौवनम् ? | नरकशत महा दुःख संप्राप्तिहेतुः । नरकस्य शतानि यानि महादुःखानि तेषां या संप्राप्तिः तस्या हेतुः कारणम् । पुनरपि किं० यौवनम् ? | मोहस्योत्पत्तिबीजम् । पुनरपि किं० यौवनम् ? । ज्ञानताराधिपस्य ज्ञानचन्द्रस्य जलधरपटलं मेघवृन्दम् । पुनः किं० यौवनम् ? । कन्दर्पस्यैकमित्रम् | पुनरपि किं० यौवनम् ? । प्रकटितविविधस्पष्टदोषप्रबन्धम् । प्रकटिता विविधा ये स्पष्टदोषाः तेषां प्रबन्धं प्रकटितविविधस्पष्टदोषप्रबन्धं दोषाणां समूहमित्यर्थः । एतावता अनर्थस्य मूलं यौवनमेव ॥ ४६॥
अथ पञ्चाक्षरसस्वादमाह -
शृङ्गारशतकम्
द्रष्टव्येषु किमुत्तमं मृगदृशः प्रेमप्रसन्नं मुखं
घातव्येष्वपि किं तदास्यपवनः श्रव्येषु किं तद्वचः । किं स्वाद्येषु तदोष्ठपल्लवरसः स्पर्शेषु किं तैंत्तनुर्
ध्येयं किं नवयौवने सुहृदयैः सर्वत्र तद्विभ्रमः ॥ ४७ ॥
द्रष्टव्येषु पदार्थेषु किं उत्तमम् १ । मृगदृशो नायिकायाः मुखम् । किं० मुखम् ? | प्रेमप्रसन्नं स्नेहोल्लसितम् । घ्रातव्येष्वपि पदार्थेषु किमुत्तमम् । तदास्यपवनः तस्या नायिकाया आस्यस्य पवनः। श्र(श्रा)व्येषु [ श्रवणार्हेषु ] पदार्थेषु किमुत्तम् । तद्वचः तस्या वचः वचनम् । स्वाद्येषु [ स्वादनार्हेषु ] पदार्थेषु उत्तमं किम् ? । तदोष्ठपल्लवरसः तस्या ओष्ठपल्लवरसः । स्पर्शेषु पदार्थेषु किमुत्तमम् ? । तत्तनुः तस्याः शरीरम् | सहृदयैः [ पुरुषैः ] नवयौवने नवीनतारुण्ये सर्वत्र किं ध्येयम् ? । तद्विभ्रमः तासां विभ्रमः तद्विभ्रमः । पञ्चानामपीन्द्रियाणां पञ्चस्थानानि प्रोक्तानि तासां विभ्रमस्तु सर्वत्र ॥ ४७ ॥
अथ वाराङ्गना दोषानाह
जात्यन्धाय च दुर्मुखाय च जराजीर्णाखिलाङ्गाय च
ग्रामीणाय च दुः कुलाय च गलत्कुष्ठाभिभूताय च । यच्छन्तीषु मनोहरं निजवपुर्लक्ष्मीलवस्पर्धया
पण्यस्त्रीषु विवेककल्पलतिकाशस्त्रीषु रज्येत कः ॥ ४८ ॥
को विवेक पुमान् पण्यस्त्रीषु वाराङ्गनासु रज्येत स्नेहं कुर्वीत ? । अपि तु न कोऽपि । किं कुर्वतीषु । मनोहरं निजवपुः जात्यन्धाय यच्छन्तीषु ददतीषु । च अन्यत् । दुर्मुखाय
~
2
१ ज. दृष्टव्येषु । २ ख. घ. ज. श्राव्येषु । ३ ज. स्वादेषु । ४ ग. तद्वपुः । ५ ख. घ. किं ध्येयं । ६ हं. ग. च. सहृदयैः । ७ ख ग घ तद्विभ्रमः । ८ छ. दुःकलाय ।
९ ख.
ग. घ. श्रद्धया ।
Page #95
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.४९-५१] निजवपुर्यच्छन्तीषु । जराजीर्णाखिलाङ्गाय च निजवपुर्यच्छन्तीषु । जराजीणं अखिलं अङ्गं यस्य स जराजीर्णाखिलाङ्गः, तस्मै जराजीर्णाखिलाङ्गाय । ग्रामीणाय पामराय निजं वपुर्यच्छन्तीषु । च अन्यत् । दुःकु(क)लाय पुरुषाय यच्छन्तीषु । गलित (गलत्) कुष्ठाभिभूताय निजमङ्गं यच्छन्तीषु । किं० वपुः ? । मनोहरम् । कया ? । लक्ष्मीलवस्पर्धया (श्रद्धया)। एवंविधासु पण्यस्त्रीषु कोऽधुना रज्येत ?। किं. पण्यस्त्रीषु ? । विवेककल्पलतिकाशस्त्रीषु विवेक एव कल्पलतिका विवेककल्पलतिका, तां प्रति शस्त्री विवेकल्पलतिकाशस्त्री, तासु विवेककल्पलतिकाशस्त्रीषु ॥ ४८ ॥
पुनरपि तस्या एव तिरस्कारमाहकश्चम्बति कुलपुरुषो वेश्याधरपल्लवं मनोज्ञमपि । चारभेटचौरचेटकनटविटनिष्ठीवनशरावम् ॥ ४९ ॥
कः कुलजातः पुरुषः को वंशजातो वेश्याधरपल्लवं चुम्बति ? । अपि तु न कोऽपि । किं० वेश्याधरपल्लवम् ? । मनोज्ञ(हं. न्य-)मपि । धौतप्रक्षालितताम्बूलरञ्जितमपि । पुनरपि किं०१। चारभटचौरचेटकनटविटनिष्ठीवनशरावं चारभटाश्च नगारिणः, चौराः तस्कराः, चेटका दासाः मूल्यविक्रयगृहीताः, नटा भण्डाः, विटाः उत्तीर्णाः, तेषां निष्ठीवनस्य शरावस्तम् । एतादृशं वेश्याधरं कः कुलवान् चुम्बेत् ? । अपि तु न कोऽपि ॥ ४९ ॥
पुनस्तमेवार्थमाह
वेश्यासौ मदनज्वाला रूपेन्धनसँमेधिता । कामिभिर्यत्र हूयन्ते यौवनानि धनानि च ॥ ५० ॥
असौ वेश्या मदनज्वाला कामज्वाला वर्तते । किं० ज्वाला ? । रूपेन्धनसमेधिता। रूपमेवेन्धनं रूपेन्धनं, रूपेन्धनेन समेधिता संधुक्षिता (हं. संधूकिता) रूपेन्धनसमेधिता । चान्यत् । यत्र कामिभिः भुजंगिभिः यौवनानि चान्यत् धनानि हूयन्ते प्रज्वाल्यन्ते । पण्याङ्गनानामेतत्स्वरूपं विलोक्य को रज्येत ? । अपि तु न कोऽपि ॥ ५० ॥ ..
एतत् कामफलं लोके येद् द्वयोरेकचित्तता।
अन्यचित्तकृते कामे शवयोरिव संगमः ॥ ५१ ॥
लोके लोकमध्ये एतत्कामफलं यद् द्वयोः स्त्रीपुंसोरेकचित्तता चेतसि ऐक्यम् । कामे अन्यचित्ते कृते सति अन्योन्यरागरहिते संगमः संयोगः शवयोरिव मृतकयोरिव वर्तते ॥५१॥
१ह. मनोन्यमपि । २ ग. भट्ट। ३ क. ख. चोर । ग. भट। ४ख. समृद्धता।. ५ख. घ. छ. स्त्रीपुंसोरे'। ६ ग. अन्यचित्ते । ख. घ. अन्योन्यरागरहितः संगमः शवयोरिव। ७क. संगमे।
Page #96
--------------------------------------------------------------------------
________________
(२.५२-५५]
शृङ्गारशतकम् अथ कोकिलालापस्वरूपमाहमधुरयं मधुरैरपि कोकिलाकलकलैर्मलयस्य च वायुभिः । विरहितान् प्रणिहन्ति शरीरिणो विपदि हेन्त सुधापि विषायते ॥५२॥
अयं मधुर्वसन्तः विरहितान् विरहिणः शरीरिणः प्रणिहन्ति । कैः ? । कोकिलाकलकलैः। च अन्यत् । मलयस्य च वायुभिः । किं० कोकिलाकलकलैः ? । किं० मलयस्य वायुभिः ? । मधुरैरपि अतीव मिष्टैरपि । चेत् कोकिलाकलकलाः मलयस्य च वायवो मिष्टा वर्तन्ते । तदा जनाः नियन्ते कथम् ? । सत्यं परम् । हन्त इति खेदे । विपदि कष्टे सति सुधापि विषायते विषमिवाचरति ॥ ५२ ॥
तावन्महत्त्वं पाण्डित्यं विवेकत्वं कुलीनता। यावज्ज्वलति नाङ्गेषु हतः पञ्चेषुपावकः ॥ ५३ ॥ सुगममिदम् ॥ ५३ ॥ अथ कन्दर्पाधिक्यमाहशंभुवयंभुहरयो हरिणेक्षणानां
येनाक्रियन्त सततं गृहकर्मदासाः। वाचामगोचरचरित्रपवित्रिताय
तस्मै नमो भगवते मकरध्वजाय ॥ ५४ ॥ तसै मकरध्वजाय कन्दर्पाय नमः। किं० मकरध्वजाय ? । भगवते अचिन्तितमहिमयुक्ताय। येन मकरध्वजेन शंभुवयंभुहरयः ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः हरिणेक्षणानां मृगाक्षीणां सततं निरन्तरं गृहकर्मदासा अक्रियन्त । पुनः किं० । वाचामगोचरचरित्रपवित्रिताय वाचामगोचरेण वक्तुमशक्येन चरित्रेण पवित्रितः वाचामगोचरचरित्रपवित्रितः, तस्मै ॥ ५४ ॥
पुनरपि तस्यैव महिमानमाहस्त्रीमुद्रां मकरध्वजस्य परमां सर्वार्थसंपत्करी ___ ये मूढाः प्रविहाय यान्ति कुधियः स्वर्गादिलोभेच्छया । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं नग्नीकृता मुण्डिताः
केचित् पञ्चशिखीकृताश्च जटिलाः कापालिकाश्चापरे ॥ ५५ ॥ १ ग. घ. विरहिणः। २ ग. छ. हन्ति। ३ ग. घ. कुलीनत्वं विवेकिता। ख. मातृकायां अयं श्लोकः 'तावदेवामृतमयी'ति श्लोकेन सह मिश्रितः। ४ च. हरिणीक्ष। ५ग. कुम्भ । ६ ग. कुसुमायुधाय । ७ ख. (शोधनात्पूर्वे) झषकेतनस्य नृपते; ज. कुसुमायु. धस्य परमा। ८ज. ते।
Page #97
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.५६-५८] ये कुधियः ये कुबुद्धयः मकरध्वजस्य राज्ञः परमां प्रकृष्टां स्त्रीमुद्रां विहाय परित्यज्य । स्वर्गादिलोभेच्छया यान्ति व्रजन्ति । किं० स्त्रीमुद्राम् ? । सर्वार्थसंपत्करी कीम् । किं० ? । ते मूढाः मूर्खाः । ते कुधियः । तेनैव कन्दर्पण नग्नीकृताः मुण्डिताः । केचित् पञ्चशिखीकृताः पञ्चशिखतापसीकृताः । चान्यत् जटिलाः जटाधारिणः । चान्यत् अपरे कापालिकाः भरट्टकाः [हं. भट्टारकाः ] । कृत्वा कृत्वा विगोपिताः। किं कृत्वा ? । निर्दयतरं निहत्य कुट्टयित्वा ॥ ५५ ॥
पुनस्तदेवाहविस्तारितं मकरकेतनधीवरेण स्त्रीसंज्ञितं बडिशमन भवाम्बुराशौ। येनाविशत्तदधरामिषलोलमर्त्यमत्स्यान्विकृष्य स पचत्यनुरागवह्नौ ॥५६॥
मकरकेतनधीवरेण अत्र अस्मिन् भवाम्बुराशौ संसारसमुद्रे स्त्रीसंज्ञितं [स्त्री] नामाभिधानं बडिशं मत्स्यबंधनं विस्तारितम् । येन कारणेन (क. छ. उच्चरत् ) तदधरामिषलोलमर्त्यमत्यान् विकृष्य जलात् निष्कास्य अनुरागवह्नौ (ख.+स.) पचति संस्कारं करोति ॥ ५६ ॥
अङ्गनानां कृत्यमाह- . उन्मत्तप्रेमसंरम्भादारम्भन्ते यदङ्गनाः । तत्र प्रत्यूहमाधातुं ब्रह्मापि खलु कातरः॥ ५७ ॥
अङ्गना नार्यो यदारम्भन्ते । कस्मात् ? । उन्मत्तप्रेमसंरम्भात् । उन्मत्तश्चासौ प्रेमः [मा ] उन्मत्तप्रेमः [ मा ] तस्य संरम्भः उन्मत्तप्रेमसंरम्भस्तस्मात् उन्मत्तप्रेमसंरम्भात् । तत्र प्रत्यूहमाधातुं विघ्नं कर्तुम् । खलु निश्चितम् । ब्रह्मापि कातरः कर्तुमशक्तः । एतावता यदङ्गनाभिर्भवति तत्ताभिरेव नापरेण ॥ ५७ ॥
मृगीदृशां प्रेमस्वरूपमाह- . प्रणयमधुरप्रेमोद्गारा रेसादलसास्तथा
भणितमधुरा मुग्धप्रायाः प्रकाशितसमदाः। प्रकृतिसुभगा विश्रम्भार्हाः स्मरोदयदायिनो
रहसि किमपि स्वैरालापा हरन्ति मृगीदृशाम् ॥ ५८ ।। मृगीदृशां नायिकानां स्वैरालापाः रहसि एकान्ते किमपि हरन्ति तद्वक्तुं न शक्यते । किं० स्वैरालापाः ? । प्रणयमधुरप्रेमोद्गाराः प्रणयेन स्नेहेन मधुराः प्रणयमधुराः एवंविधाः प्रेमोद्गाराः । पुनः कथंभूताः स्वैरालापाः ? । रसात् कामरसात् अलसाः मन्थराः । पुनः किं०
१ क. (शोधनादनन्तरं) छ. येनोच्चरत्त; ख. घ. येनाचिरात्त । २ ग. छ. आरभंते) घ. आरंमेते । ३ घ. दैवोपि । घ. पद्यं नास्ति । ४ ख. ज. मधुराः। ५ग. रसातलस्तथा । ६ ग. मुग्धाप्रायाः।
Page #98
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. ५९-६१ ]
शृङ्गारशतकम्
६३
स्वैरालापाः ? । भणितमधुराः भणितं मधुरं यैः ते भणितमधुराः । पुनः किं० खैरालापाः ? । मुग्धायाः प्रायेण मुग्धा मनोज्ञाः मुग्धप्रायाः । पुनः किं० स्वैरालापाः ? | प्रकाशितसंमदाः । प्रकाशितः संमदो हर्षो यैः ते प्रकाशितसंमदाः । पुनः किं० स्वै० : । प्रकृतिसुभगाः । प्रकृत्या सुभगाः प्रकृतिसुभगाः सौभाग्योल्लासिनः । पुनः किं० स्वैरालापाः ? । विश्रम्भार्हाः विश्वासयोग्याः । पुनः किं० स्वैरालापाः० ? । स्मरोदयदायिनः । स्मरस्य कामस्य उदयं ददतीति स्मरोदयदायिनः । अत एव मृगीदृशां वचांसि व्यामोहकानि भवन्ति ॥ ५८ ॥
अथ मनोभीष्टमाह
मालती शिरसि जृम्भणोन्मुखी चन्दनं वपुषि कुङ्कुमाविलम् । वक्षसि प्रियतमा मैदालसा स्वर्ग एष परिशिष्ट आगतः ॥ ५९ ॥
प्राणिनां एष परिशिष्टः प्रशस्तः स्वर्गः आगतः । एष कः? । शिरसि मस्तके मालती जृम्भणोन्मुखी मघमघायमाना । एकस्त्वयं स्वर्गः । अन्यच्च वपुषि शरीरे चन्दनं कुङ्कुमाविलं कुङ्कुममिश्रितम् । वक्षसि हृदये मदालसा प्रियतमा मदनतारुण्यदर्पेण असा । पक्षे मदालसा देवी । अयमेव स्वर्गः ॥ ५९ ॥
1
पुनरेनमेवार्थमाह
कुङ्कुमपङ्ककलङ्कितदेह गौरपयोधरकम्पितहौरा ।
नूपुरहंसरणत्पदपद्मा कं न वशं कुरुते भुवि रामा ॥ ६० ॥
रामा नारी । भुवि पृथिव्यां कं कं वशं न कुरुते ? । अपि तु सर्वमपि । किं० रामा ? | कुङ्कुमपङ्ककलङ्कितदेहा । कुङ्कुमस्य पङ्केन कलङ्कितो लिप्तो देहो यस्याः सा० । पुनः किं० रामा ? । गौरपयोधरकम्पितहारा । गौरौ यौ पयोधरौ ताभ्यां कम्पितो हारो यस्याः सा० । पुनः किं० रामा ? । नूपुरहंसरणत्पदपद्मा । नूपुरेण हंसवद् रणन्तौ शब्दं कुर्वन्तौ पदपद्मौ यस्याः सा० । एवंविधा नितम्बिनी कं कं वशं न कुरुते ? । अपि तु जगदपि ॥ ६० ॥
अधुना कामिनीनामतिशयाधिक्यमाह
नूनं हि ते कविवरा विपरीतबोधा
ये नित्यमाहुरबला इति कामिनीनाम् । याभिर्विलोलतरतारकदृष्टिपातै
रुद्रोऽपि विजित अबलाः कथं ताः ॥ ६१ ॥
१ घ. कोशे पद्यमिंदं नास्ति । हं. ख. मदालसाः । २ घ. कोशे पद्यमिदं नास्ति । हैं. 'देहाः । ३ हं. हाराः ४ घ. कोरो मूलं नास्ति । टीकामात्रमस्ति ॥ च. छ. ज. शक्रा । ५ ख. ग. 'जितास्त्वबलाः ।
Page #99
--------------------------------------------------------------------------
________________
६४
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.६२-६३] - हि निश्चितम् । ते कविवराः नूनं विपरीतबोधाः । पराङ्मुखतत्त्वज्ञानिनः । यत्ते कविवराः नित्यं निरन्तरं कामिनीनां नारीणां अबला इत्याहुः । ता अबलाः कथम् ? । याभिः विलोलतरतारकदृष्टिपातै रुद्रादयोपि विजिताः जिताः । महेशादयोऽपि हतविप्रहताश्चक्रिरे। विलोलतरा अत्यन्तं तारकदृष्टिपाताः विलोलतरतारकदृष्टिपातास्तैः ॥ ६१ ॥
कविस्तमेवोद्दिश्याहउद्धृत्तस्तनभार एष तरले नेत्रे चले भूलते
रेकाधिक्यतमोष्ठपल्लवदलं कुर्वन्तु नाम व्यथाम् । सौभाग्याक्षरपत्रिकेव लिखिता पुष्पायुधेन स्वयं ___मध्यस्था हि करोति तापमधिकं रोमावली केन सा ॥ ६२ ॥
सा रोमावली केन कारणेन अधिकं तापं करोति ? । किं० रोमावली ? मध्यस्था। ननु यः कोऽपि मध्यस्थो भवति स कस्यापि तापं कुरुते ? । अपि तु न । इयं रोमावली नायिकायाः मध्यस्थापि तापं कुरुते इति दुःखं महत् । या रोमावली पुष्पायुधेन कामेन स्वयं स्वहस्तेन सौभाग्याक्षरपतिका इव लिखिता । सौभाग्यस्य अक्षराणि सौभाग्याक्षराणि, सौभाग्याक्षराणां पतिका इव पङ्क्तिका ननु या सौभाग्याक्षराणां पतिका उच्यते, तस्याः परेषां पीडा न युज्यते इति भावः। नाम इति संबोधने । एते पदार्था उच्यमानास्तापं कुर्वन्तु । एते के ? । य एष उद्धृत्तस्तनभारस्तापं करोतु । कथम् ? । उद्धृत्तः कोऽर्थः । उत् उन्नतं वृत्तं यस्य स उद्धृत्तः [आचारः तेन युक्तः स्तनभार उद्धृत्तस्तनभारः] । पुनः किं० १ । नेत्रे तरले । ताभ्यां तापोऽपि युक्तः । ये ननु तरला भवन्ति चञ्चलाः स्युः । तेभ्योपि तापमुद्वहते जनः । पुनः किं० । चले भूलते। युक्तस्ततोऽपि तापः । कथम् । ते चले तस्मात् । पुनः किं० १ । रेका [क. च. रैका, ग. एका; ख. घ. ट. ऐका ] धिक्यतमोष्ठपल्लवदलं । रेकेण (ख. घ. एकेन ) रागेण आधिक्यतमः योऽसौ उ[ओ]ष्ठस्य (ख. ट. आधिक्यतमं यदोष्ठ ) पल्लवदलं तापं करोतु । तदपि युक्तम् । योऽसौ रागाधिकः स तापं तनुते । यतो रागो हि कारणं अनर्थपरंपरायाः। एते चत्वारोऽपि तापं कुर्वन्ति तदा कुर्वन्तु । इयं रोमावली सरला (क. तरला; च. छ. सरला तरला ) मनोहरा सौभाग्याधिका तस्याः तु न. युक्तम् ॥ शार्दूलविक्रीडितं छन्दः । श्लेषालंकारः ॥ ६२ ॥
अथ युवतीगुणानाहखपरप्रतारकोऽसौ निन्दति योऽलीकपण्डितो युवतीम् । तेस्मात् तपसोऽपि फलं वर्गः खर्गेऽपि युवतयः सरसाः॥ ६३ ॥
१ग. रागाधिष्ठित घ. एकाधिक्यत। २ ज. मध्यस्थापि। ३ क. छ. निन्दते ।' ४ ग. युवतिम् । ५ ख. घ. कस्मात् । ६ है. सरसाः युवतयः; ज. 'तयोप्सरसः।
Page #100
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.६४-६६]
शृङ्गारशतकम् [असौ पण्डितः स्वपरप्रतारकः स्वं आत्मानं परं अन्यं प्रतारयतीति स्वपरप्रतारकः, योऽलीकपण्डितः युवतीं निन्दति । यस्मात्कारणात् तपसोऽपि फलं. वर्गः खर्गेऽपि सरसाः युवतयः।] तत् तस्मात् कारणात् सरसा युवतयः सलावण्यनार्यः पूर्वतपसैव प्राप्यन्ते । नान्यथा ॥ ६३ ॥
कस्या अपि वियुक्तायाः स्वरूपमाहविश्रम्य विश्रम्य वैनगुमाणां छायासु तन्वी विचचार काचित् । स्तनोत्तरीयेण कैरोद्धृतेन निवारयन्ती शशिनो मयूखान् ॥ ६४ ॥
काचिद् वियुक्ता नायिका वन (हं. क. छ. नव; च. ट. छाया) दुमाणां गृहोपवनवृक्षाणां छायासु विश्रम्य विश्रम्य विचचार । किं० नायिका ? । तन्वी कुमारी । किं कुर्वती । स्तनोंतरीयेण वस्त्रेण शशिनो मयुखान् चन्द्रमःकिरणान् निवारयन्ती । किं० स्तनोत्तरीयेण ? करोद्वदु]तेन दक्षिणकरचालितेन ।। ६४॥
अथ कामिनः स्वरूपमाहअदर्शने दर्शनमात्रकामा दृष्टौ परिष्वङ्गरसैकलोला ।
आलिङ्गितायों पुनरायताक्ष्यामाशास्महे विग्रहयोरभेदम् ॥ ६५ ॥
सा काचिन्मनोहरा नायिका अदर्शने सति दर्शनमात्रकामा वर्तते। विलोकनावसानमनोरथा वर्तते । सा नायिका दृष्टौ सत्यां परिष्वङ्गरसैकलोला वर्तते । आयताक्ष्यां विस्तीर्णनेत्रायां आलिङ्गितायां परस्परं विग्रहयोः शरीरयोः अभेदमाशास्महे आशां कुर्महे ॥ ६५ ॥
पुनर्विलासिनीनां स्वरूपमाहउपरि निपतितानां श्रस्तधम्मिल्लकानां
मुकुलितनयनानां किंचिदुन्मीलितानाम् । उपरि सुरतखेदेखिन्नगल्लस्थलीना
मधरमधु वधूनां पुण्यवन्तः पिबन्ति ॥ ६६ ॥ वधूनां नायिकानां अधरमधु पुण्यवन्तः पिबन्ति । किं० वधूनाम् ? । उपरि निपतितानाम् । पुनः किं० वधूनाम् । श्रस्तधम्मिल्लकानाम् । पुनः किं० वधूनाम् ? । मुकुलितनयनानाम्। पुनः किं० वधूनाम् ।। किंचिदुन्मीलितानाम्। पुनः किं० वधूनाम् ? । सुरतजनित (क. व. च. छ. उपरिसुरतखेद [ख. खेदा ] ) खिन्नगल्ल (ख: गण्ड) स्थलीनाम् ॥६६॥
१ग. नवदु। २ ख. घ. सु काचिद्विचचार तन्वी । ३ सर्वत्र मातृकासु 'करोद्वतेन'। ४ ज. लोलाः। ५ हैं. लिंगितायाः...रायतायाः माशास्महे । ६ ग. च. नाशास्महे । ७.ग. ज.सस्त। ८ हं. ज. सुरतजनित । ९ ख. खेदात् खिन्न; घ. खेदाक्लिन्न । १० ग. घ. गण्ड।११ ख. घ. भाग्यवन्तः ।
९ शतकत्र०
Page #101
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. ६७-६९] पारदेशिक (हं. पारिदेशक) स्वरूपमाहकिं गर्तेन यदि सा न जीवति प्राणिति प्रियतमा तथापि किम् ।
इत्यवीक्ष्य नवमेघमालिकां न प्रयाति पथिकः खमन्दिरम् ॥ ६७ ॥
पथिकः स्वमन्दिरं इति कारणात् न प्रयाति न गच्छति । किं कृत्वा ? । नवमेघमालिकां वीक्ष्य । नवोन्नतमेघं विलोक्य । सा मद्वल्लभा यदि चेन्न जीवति तदा गतेन किम् ? । प्रियतमा चेयदि मद्वियोगेन प्राणिति जीवति तथापि गतेन किम् ? । [ सा मयि मोहं न बिभर्ति अन्यथा जीवति ] कथम् ? ॥ ६७ ॥
अथ सुरतरसमाह
आमीलितनयनानां यः सुरतरसो न संविदं कुरुते ।
मिथुनैमिथोऽवधारितमर्चितमिदमेव कामनिर्वहणम् ॥ ६८ ॥ _यः सुरतरसः यो विषयरसः आमीलितनयनानां नायिकानां संविदं स्वादं न कुरुते । किं० स्वादं ? । मिथुनैमिथः परस्परं अवधारितं ज्ञातम् । कामनिर्वहणं इदमेव यत् अर्चितं मानितमित्यर्थः ॥ ६८॥
अथ स्त्रीचेष्टितमाहप्राङ् मा मेति मनोरमागतगुणं जाताभिलाषं ततः
सबीडं तदनु श्लथीकृततनु प्रत्यस्तधैर्य पुनः । प्रेमार्धस्पृहणीयनिर्भरतक्रीडाप्रगल्भं ततो
निःसङ्गाङ्गविकर्षणाधिकसुखं रम्यं कुलस्त्रीरतम् ॥ ६९ ॥ कुलस्त्रीरतं रम्यम् । किं० कुलस्त्रीरतम् ? । इति अमुना प्रकारेण मनोरमागतगुणं मनोरमो (?म)आगतो गुणः मनोरमागतगुणः, तम् । इतीति किम् ? । प्राक् पूर्व मा मा इति निषेधवाक्यम् । पुनः किं० कुलस्त्रीरतम् ? । जाताभिलाषं समुत्पन्नमनोरथम् । पुनः किं० कुलस्त्रीरतम् ? । तदनु सवीडं ब्रीडासंयुक्तम् । पुनरपि किं० ? । श्लथीकृततनु यथा भवति प्रत्यस्तधैर्य निराकृतसाहसम् । ततस्ततोऽनन्तरं प्रेमार्धस्पृहणीयनिर्भररतक्रीडाप्रगल्भम् । प्रेम्णः अर्ध प्रेमाध, प्रेमार्धन स्पृहणीयं प्रेमास्पृहणीयं तेन निर्भरं रतक्रीडाप्रगल्भं यस्य तत् । ततस्ततोऽनन्तरं निःसङ्गाङ्गविकर्षणाधिकसुखं निःशेषः सङ्गः निःसङ्गः, निःसङ्ग अङ्गं निस्संगाङ्गं तस्य विकर्षणेन अधिकं सुखं यस्य तत् निस्सं० । एभिः प्रकारैः कुलस्त्रीरतं रम्यम् ॥ ६९॥
.१ घ. प्राणति । २ ख. घ. इत्युदीक्ष्य । ३ ख. घ. यत् । ४ ख. घ. रतो। ५ग..मना. गनागतसुखं । ६ ग. श्लथोद्यम । ७ ग. प्रेमाई। ८ ग. निर्झररस। ९ग. निकर्षणा।
Page #102
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.७०-७३]
शृङ्गारशतकम् पुनस्तस्या एव हेत्वन्तरमाहतावदेवामृतमयी यावलोचनगोचेरे ।
चक्षुःपथादपेता तु विषादप्यतिरिच्यते ॥ ७० ॥
नायिका यावल्लोचनगोचरे ('रा) तावदेव अमृतमयी। तु पुनः चक्षुःपथात् दृष्टिमार्गात् अपेता सती (ख. चक्षुःसंपातविरहे सति) दूरभूता सती विषादपि गरादपि अतिरिच्यते अधिका भवति ॥ ७० ॥
अथ कामापस्मारमाहन गम्यो मत्राणां न च भवति भैषज्यविषयो
न चापि प्रध्वंसं व्रजति विविधैः शान्तिकशतैः । भ्रमावेशादङ्गे किमपि विदधद्भङ्गमसमं । ... स्मरापस्मारोऽयं भ्रमयति दृशं घूर्णयति च ॥ ७१ ॥
अयं स्मरापस्मारः दृशं दृष्टिं भ्रम ( क. छ. भ्राम ) यति । चान्यत् घूर्णयति । किं. स्मरापस्मारः ? । मन्त्राणां न गम्यः अन्योऽपस्मारः मत्राणां गम्यो भवति, परमयं न । अयं स्मरापस्मारः भैषज्यविषयो न भवति औषधसाध्यो न स्यात् । चान्यत् । अयं स्मरापस्मारः विविधैः शान्तिकशतैः प्रध्वंसं न ब्रजति स्फेटयितुं न शक्यते । अयं स्मरापस्मारः भ्रमावेशात् अङ्गे शरीरे किमपि अपूर्व भङ्गं विदधीत कुर्यात् । अतः कारणात् स्मरावेशो दुस्त्यजः ॥ ७१॥
पुनस्तदेवाह
नूनमाज्ञाकरस्तस्याः सुभ्रुवो मकरध्वजः । । यद्भुमनेत्रसंचारतूंचितोऽपि प्रवर्तते ॥ ७२ ॥
नूनं इति संभावनायाम् । मकरध्वजः कन्दर्पः तस्याः सुभ्रवो नायिकाया आज्ञाकरो वर्तते आदेशकृत् वर्तते । अहो निखिलमपि जगत् सर्व कामस्याज्ञावशंवदं वर्तते । स तु कामो नायिकायाः (ख. दयितायाः) आदेशकरः । कथमवगम्यते । यत् यस्मात्कारणात् तस्याः नायिकायाः । भुननेत्रसंचारसूचितोऽपि प्रवर्तते निजव्यापारं कुरुते ॥ ७२ ॥
विरहिणः स्वरूपमाह कविः
सति प्रदीपे सत्यग्नौ सत्सु नानामणीषु च । विना मे मृगशावाझ्या तमोभूतमिदं जगत् ॥ ७३ ॥ १ ख. कोशे इदं पद्यं द्विरस्ति । ख. अमृतमया इत्यपि। २ ख. गोचराः; ख. ग. घ. गोचरा (ख. शोधनात्प्राक् गोचरे)। ३ ग. चक्षुःसंपातविरहे विषादपरिरिच्यते । ४ च. दृशां । ५ ग. पूर्णयति । ६ हैं. संचारः शूचितेऽपि ।
Page #103
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[२.७४-७६]
वियोगी कामी इति वक्ति । अहो मृगशावाक्ष्या मृगनेत्रया वल्लभया विना मे मम इदं जगत् तमोभूतं वर्तते अन्धकाररूपं जातमस्ति । क सति ? | प्रदीपे सति । अन्यदन्धकारं प्रदीपे सति याति परं नैतत् । अग्नौ सत्यपि इतरदन्धकारं अग्नौ कृते सति याति नेदं । चान्यन् नानामणीषु सत्स्वपि विविधमणीषु आलयेषु दत्तेषु सत्सु अन्यदन्धकारं याति । परमेतन्न । एतावता सर्वेभ्योऽन्धकारेभ्यो विलासिनां विरहान्धकारं महत् ॥ ७३ ॥
६८
अथ नायिकानामङ्गोत्थगुणमाह
मुखेन चन्द्रकान्तेन महानीलैः शिरोरुहैः ।
पाणिभ्यां पद्मरागाभ्यां रेजे रत्नमयीव सा ॥ ७४ ॥
सा नायिका रत्नमयीव रेजे शुशुभे । केन ? । मुखेन । किं० मुखेन ? | चन्द्रकान्तेन चन्द्र इव कान्तं चन्द्रकान्तं तेन चन्द्रकान्तेन चन्द्रसदृशवदनेन । पक्षे चन्द्रकान्तेन मणिना । पुनः किं० ? । शिरोरुहैः मूर्धानकेशैः। किं० शिरोरुहैः । महानीलैः । महान्तश्च नीलाश्च महानीलाः तैः, कृष्णवर्णैरित्यर्थः । पक्षे महानीलैः महानीलमणिभिः । पुनः काभ्याम् ? । पाणिभ्यां हस्ताभ्यां । किं० पाणिभ्यां ? । पद्मरागाभ्यां पद्मवत् रागों ययोस्तौ पद्मरागौ ताभ्यां । पक्षे पद्मरागाभ्यां पद्मरागमणिभ्यां । अतः कारणात् सा कविना रत्नमयी प्रोचे ॥ ७४ ॥
तस्या एव वर्णनमाह ।
गुरुणा स्तनभारेण मुखचन्द्रेण भाखता ।
शनैश्चराभ्यां पादाभ्यां रेजे ग्रेहमयीव सा ॥ ७५ ॥
सा नायिका ग्रहमयीव रेजे । अहो मानुष्यपि ग्रहमयीव कथम् । तदुच्यते । केन ? । स्तनभारेण । किं० स्तनभारेण ? । गुरुणा स्थूलेन । पक्षे गुरुणा सुराचार्येण । पुनः केन ? । मुखचन्द्रेण । किं० मुखचन्द्रेण । भास्वता देदीप्यमानेन । पक्षे भास्वता सूर्येण । पुनः काभ्यां । पादाभ्यां शनैश्वराभ्यां शनैः गजमन्थरगत्या चरत इति शनैश्वरौ ताभ्यां शनैश्वराभ्याम् । पक्षे शनैश्वराभ्यां महाभ्याम् || अनया युक्त्या सा ग्रहमयीवोच्यते ॥ ७५ ॥
अस्याः भ्रुवौ [भ्रुवोः] वक्रत्वमाह -
असितात्मसु संबद्धः समविः कृतचापलः । भुजंगकुटिलस्तेन्या भ्रूविक्षेपः खलायते ॥ ७६ ॥
तन्व्याः सुकुमारशरीरायाः भ्रूविक्षेपः खलायते दुर्जन इवाचरति । किं० भ्रूविक्षेपः ? । असितात्मसु संबद्धः असितः कृष्णः आत्मा येषां ते असितात्मानः तेषु असितात्मसु दुर्जनेषु संबद्धः दुर्जनसंगत इत्यर्थः । अन्योऽपि दुर्जनः खलः असितात्मसु दुर्जनेषु संबद्धो भवति बद्धस्नेहो भवति । पुनः किं० भ्रूविक्षेपः ? । समाविः कृतचापलः समाविः कृतं प्रकटीकृतं चापलं येन सः । अन्योऽपि
१ घ. सरोरुहैः । २ ग. गृह । ३ ख. ज. संबन्धः । ४ ख. ग. घ. ज. समाविष्कृत | ५ ख. तस्या ।
Page #104
--------------------------------------------------------------------------
________________
६१
[२.७७-७९]
शृङ्गारशतकम् दुर्जनःप्रग(क)टितचापलो भवति। [पुनः किं० भ्रूविक्षेपः । भुजंगकुटिलः। भुजंगवत्कुटिलः भुजंगकुटिलः । अन्योऽपि खलः ] सर्पवत्कुटिलगतिः स्यात् । अतो भ्रुवोः खलसाम्यं युक्तं सदृक्षत्वात् ॥७६॥
अथ रामायाः विलासचातुर्यमाह'मुग्धे धानुष्कता केयमपूर्वा तव दृश्यते ।
यया विध्यसि चेतांसि गुणैरेव न सायकैः ॥ ७७ ॥
हे मुग्धे! इयमपूर्वा (हं. 'वंता) तव धानुष्कता का दृश्यते । या तव धानुष्कता चेतांसि विध्यति (छ. यया धानुष्कतया चेतांसि विध्यसि) परं गुणैरेव न सायकैः बाणैः ॥ ७७ ॥
अथ योगिभोगिनोर्निर्धारत्वमाहएको रागिषु राजते प्रियतमादेहाहारी हरो __ नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासङ्गो न यस्मात्परः। दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषयाँसक्तिमूढो जनः ।
शेषः कामविडम्बितो हि विषयान् भोक्तुं न मोक्तुं क्षमः॥७८॥ रागिषु पुरुषेषु एको हरो राजते । किं० हरः ।। प्रियतमादेहार्धहारी प्रियतमायाः पार्वत्याः देहार्धहारोऽस्यास्तीति [ प्रियतमा ] देहाहारी । नीरागेषु पुरुषेषु एको जिनो राजते। कि० जिनः ? । यस्मात्परोऽन्यो विमुक्तललनासङ्गो न । विमुक्तः ललनानां नारीणां सङ्गो येन स विमुक्तललनासङ्गः । शेषो जनो विषयान्भोक्तुं चान्यत् मोक्तुं न क्षमः । किं० शेषजनः ? । कामविडम्बितः। पुनः किं० शेषजनः ? । दुर्वारस्मरबाणपन्नगविषव्यासक्तिमूढः (व्यासङ्गमुग्धः) दुर्वारा वारयितुमशक्याः ये स्मरबाणाः त एव पन्नगाः तेषां विषस्य व्यासक्त्या मूढः (व्यासङ्गेन मुग्धो) दुरिस्मरबाणपन्नगविषव्यासक्तिमूढः ॥ ७८ ॥ दैवस्योचितानुचितस्वरूपमाह
इदमनुचितमक्रमश्च पुंसां
यदिह जरस्यपि मान्मथा विकाराः । यदपि च न कृतं नितम्बिनीनां __ स्तनपतनावैधिजीवितं रतं वा ॥ ७९ ॥
१हं. यथा। २ क. च. ज. विध्यति । ३ ज. जनो। ४ ख. ग. घ. व्यासङ्गमुग्धो। ५ग. °तोस्ति। ६ घ. तदपि । ७ज. यन्नितम्बि हं. नितम्बिन्यानां । ८ ज. तदपि । ९ हं. नादधि।
Page #105
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.८०-८२] पुंसां पुरुषाणां इदं अनुचितं अक्रमश्च । यत्तु इह जरस्यपि वार्धक्येऽपि मान्मथाः विकाराः कन्दर्पोद्भूतदोषाः । चान्यत् । यदपि नितम्बिनीनां नारीणां स्तनपतनावधिजीवितं वा अथवा रतं न कृतम् । तदपि अनुचितमक्रमश्च ॥ ७९ ॥
अथ वामाक्षीणां नेत्रपन्नगदंशस्वरूपमाहव्यादीभ्रुण चलेन वक्रगतिना तेजस्विना भोगिना - नीलाञद्युतिनाहिना वरमहं देष्टो न तच्चक्षुषा । देष्टे सन्ति चिकित्सका दिशि दिशि प्रायेण धर्मार्थिनो
मुग्धाक्षीक्षणवीक्षितस्य नहि मे मत्रो न चाप्यौषधम् ॥८॥ अहं अहिना दष्टो वरम् । परं तु तच्चक्षुषा दष्टो न वरम् । तस्याः नायिकायाः चक्षुः तच्चक्षुः तेन । किं० चक्षुषा । भोगिना। पुनः किं० चक्षुषा ? । नीलाब्जद्युतिना नीलकमलकान्तिना । पुनः किं० चक्षुषा ? । व्यादीर्पण कर्णान्तविश्रान्तेन । पुनः किं० चक्षुषा । चलेन चपलेन । पुनः किं० चक्षुषा ? । वक्रगतिना। पुनः किं० चक्षुषा ? । तेजस्विना प्रबलगरलभाजिना। एवंविधेन सर्पण दष्टो वरम् । परं नायिकायाश्चक्षुषा दष्टो न वरम् । कथम् । दष्टे सर्पदष्टे प्रायेण धर्मार्थिनः चिकित्सकाः दिशि दिशि सन्ति । पुनः मुग्धाक्ष्या ईक्षणवीक्षितस्य कटाक्षविद्धस्य मे मम न मत्रं चान्यत् न औषधम् । एतावता सर्पदंशात् कटाक्षवीक्षितं विषमम् ॥ ८० ।।
अथ विरहसंगमयोः खरूपमाहविरहेऽपि संगमः खलु परस्परं संगतं मनो येषाम् । हृदयमपि विघटितं संगमेऽपि विरहं विशेषयति ॥ ८१ ॥
येषां पुरुषाणां मनः परस्परं संगतं मिलितं वर्तते । खलु निश्चितम् । तेषां मनुष्याणां विरहेऽपि संगमः । अपि पुनः । हृदयं विघटितं सत् संगमेऽपि संयोगेऽपि विरहं विशेषयति । यदुक्तम्-आसन्ना दूरिहिं ठिया जे चित्तिहिं उब्विट्ठ।
चिहुं अंगुलकइ अंतरइ नयणे कन्न न दिट्ठ॥ ८१ ॥ [ एतदनन्तरं प्रथितः प्रणयवतीनां इति श्लोकः छ० कोशे दृश्यते ।] पुनस्तदे( ? मे)वार्थमाहअपसर सखे दूरादस्मात् कटाक्षविषानलात्
प्रकृतिविषमाद् योषित्सर्पाद् विलासफणाभृतः । इतरफणिना दष्टः शक्यश्चिकित्सितुमौषधैश्
चटुलवनिताभोगिग्रस्तं त्यजन्ति हि मत्रिणः ॥ ८२ ॥ १ ग. घ. वरमहो। २ ज. दृष्टो। ३ ज. दृष्टे । ४ हं. च. छ. सिका। ५ क. छ.. विरहोऽपि। ६ ग. ज. मनो न येषाम्। ७ ख.घ. अपि हृदयं; ग. हृदयमति। ८ ग. संगतेपि; ज. सत्सङ्ग। ९ग, साक्षाचिकित्सितुमौषधं ।
Page #106
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. ८३-८४]
शृङ्गारशतकम् .. हे सखे हे मित्र ! अस्मात् योषित्सात् दूरादपसर दूरे भव । किं० योषित्सर्पात् । । कटाक्षविषानलात् कटाक्ष एव विषानलः यस्य सः कटाक्षविषानलः तस्मात् । पुनः किं० योषित्सात् ।। प्रकृतिविषमात् प्रकृत्या विषमः प्रकृतिविषमः तस्मात् । पुनः किं० योषित्सर्पात् ।। विलासफणाभृतः विलासफणावलिं बिभर्ति इति विलासफणाभृत् तस्मात् । इतरफणिना दष्टः प्राणी औषधैश्चिकित्सितुं शक्यः । हि निश्चितम् । चटुलवनिताभोगिग्रस्तं प्राणिनं गारुडिकाः त्यजन्ति परिहरन्ति । एतावता अपरसर्पाद्योषित्सर्पस्तु महाभयंकरः ।। ८२ ॥
अथ चेतसः प्रतिबोधमाहतस्याः स्तनौ यदि घनौ जघनं च हारि
वक्रं च चारु तव चित्त किमाकुलत्वम् । पुण्यं कुरुष्व यदि तेषु तवास्ति वाञ्छा ,
पुण्यैर्विना नहि भवन्ति समीहितार्थाः ॥ ८३ ॥ - रे चित्त ! तव आकुलत्वं किम् । यदि चेत्तस्याः नायिकायाः स्तनौ निबिडौ । चान्यत् जघनं काञ्चीतटं हारि मनोहारि । चान्यत् वक्रं चारु मनोहारि । तदा किमपि किं लभ्यते । अपि तु न । यदि चेत्तव तेषु पदार्थेषु वाञ्छा वर्तते तदा पुण्यं कुरु । कथम् ? । पुण्यैर्विना समीहितार्था न भवन्ति ॥ ८३ ॥
अथ विरहिणीनां स्वरूपमाहपान्थस्त्रीविरहानलाहुतिकथामातन्वती मञ्जरी
माकन्देषु पिकाङ्गनाभिरधुना सोत्कण्ठमालोक्यते । . अप्यते नवपाटलापरिमलप्राग्भारपाटच्चरा
वान्ति क्लान्तिवितानतानवकृतः श्रीखण्डशैलानिलाः ॥ ८४ ॥ अधुना सांप्रतम् । एते श्रीखण्डशैलानिलाः मलयाचलपवनाः वान्ति स्फुरन्ति । किं. श्रीखण्डशैलानिलाः ? । क्लान्तिवितानतानवकृतः क्लान्तेर्वितानं क्लान्तिवितानम् । क्लान्तिवितानस्य क्लान्तिसमूहस्य तानवं विस्तारं कुर्वन्तीति क्लान्तिवितानतानवकृतः । पुनः किं० श्रीखण्ड० । नवपाटलापरिमलप्राग्भारपाटच्चराः नवा नवीना या पाटला नवपाटला नवपाटलानां परिमलप्राग्भारः समूहस्तेन पाटच्चराः स्फाटयन्तः (ख. ग्राहिणः)। अपि पुनः माकन्देषु सहकारवृक्षेषु मञ्जरी पिकाङ्गनाभिः कोकिलनायिकाभिः सोत्कण्ठं आलोक्यते निरीक्ष्यते । मञ्जरी किं कुर्वती? । पान्थस्त्रीविरहानलाहुतिकथामातन्वती विस्तारयन्ती । विरह एव अनलः विरहानलः । विरहानले आहुतेः कथा विरहानलाहुतिकथा ताम् ॥ ८४ ।।
१ ख. घ. आलिङ्घयते ।
Page #107
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२. ८५-८६॥ पुनरपि नायिकानां विरहस्वरूपमाहइतो विद्युहल्लीविलसितमितः केतैकितरु
स्फुरद्गन्धः प्रोद्यजलदनिनेनदत्स्फूर्जितमितः । इतः केकिक्रीडाकलकलरवाः पक्ष्मलदृशां
कथं यास्यन्त्येते विरहदिवसाः संभृतरसाः ॥ ८५ ॥ पक्ष्मलदृशां नायिकानां एते विरहदिवसाः वियोगवासराः कथं यास्यन्ति । किं० विरहदिवसाः। संभृतरसाः संभृतो रसो येषां ते संभृतरसाः । कथम् । इतो विद्युद्वल्लीविलसितम् विद्युदेव वल्ली विद्युदल्ली विद्युद्वल्ल्याः विलसितं विद्युद्वल्लीविलसितम् । इतः केतकितरुस्फुरद्गन्धः केतकीनां तरवः केतकितरवः, तेषां स्फुरद्गन्धः केतकितरुस्फुरद्गन्धः । इतः प्रोद्यञ्जलदनिनदस्फूर्जितम् प्रोद्यन्तः उन्नमन्तो ये जलदा मेघास्तेषां निनदतः (तां) स्फूर्जितं गर्जितं प्रोद्यज्जलदनिनदस्फूर्जितम् । इतः केकिक्रीडाकलकलरवाः केकिनां क्रीडा केकिक्रीडा केकिक्रीडायाः कलकलरवाः शब्दाः केकिक्रीडाकलकलरवाः । एवंविधसंयोगे विरहिणीनां महहुःखम् ॥ ८५ ॥
अथ रामाणां विलासमुद्दिश्याहइमे तारुण्यश्रीनवपरिमलाः प्रौढसुरत
प्रतापप्रारम्भाः स्मरविजयदानप्रतिभुवः । चिरं चेतश्चौरा अभिनवविकारैकगुरवो
विलासव्यापाराः किमपि विजयन्ते मृगदृशाम् ॥ ८६ ॥ मृगदृशां मृगाक्षीणां इमे विलासव्यापाराः सुरतोद्यमाः। किमपि अपूर्वा इव विजयन्ते सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते। किं० विलासव्यापाराः।। तारुण्यश्रीनवपरिमलाः तारुण्यश्रीणां नवाः नवीनाः परिमलाः येषां ते तारुण्यश्रीनवपरिमलाः । पुनः किं० विलासव्यापाराः। प्रौढसुरतप्रतापप्रारम्भाः प्रौढो योऽसौ सुरतप्रतापः तस्य प्रारम्भो विद्यते येषां ते प्रौढसुरतप्रतापप्रारम्भाः। पुनः किं० वि० । स्मरविजयदानप्रतिभुवः [स्मरस्य कामस्य विजयदानं स्मरविजयदानं तस्य प्रतिभुवः प्रतिसाक्षिणः स्मरविजयदानप्रतिभुवः।] पुनः किं० वि० ।चिरं चेतश्चौरा:मानसपश्यतोहराः। पुनः किं० वि०। अभिनवविकारैकगुरवः अभिनवविकारस्य एकगुरवः अभिनवविकारैकगुरवः । एवंविधाः विलासाः पुरन्ध्रीणां जयवादिनः प्रतिभान्ति ॥ ८६ ॥
१क. छ. केतकतरु'; ख. केतृकितरु'; ग. 'तरोः। २ घ. निनदस्फू। ३ च. तमिव । ४ज, केकी ५ग, कल इतः पक्ष्मलदृशः। ६ ग. यास्यन्ते । ७ ग. नवपरिमल'.
Page #108
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.८७-८८]
शृङ्गारशतकम् अथ विलासिनीनां (सिजनानां) विलासप्रकारमाहआवासः किलंकिञ्चितस्य दयितापार्श्वे विलासालसाः
कर्णे कोकिलकामिनीकलरवः स्मेरो लतामण्डपः । गोष्ठी सत्कविभिः समं कतिपयैर्मुग्धाः सितांशोः कराः
केषां चित् सुखयन्ति चात्र हृदयं चैत्रे विचित्राः स्रजः ॥ ८७ ॥
चान्यदत्र चैत्रे चैत्रमासे एते प्रकाराः केषां चित् हृदयं सुखयन्ति सुखमुत्पादयन्ति । के के प्रकाराः ? । किलकिश्चितस्य सुरतशब्दविशेषस्य आवासः । दयितापार्श्वे रमणीसमीपे विलासालसाः। पुनः किं० १ । कर्णे कोकिलकामिनीकलरवः कोकिलस्य कामिनी कोकिलकामिनी कोकिला इत्यर्थः । तस्याः कलरवः कोकिलकामिनीकलरवः । पुनः किं० ? । मेरो लतामण्डपः । पुनः किं० ? । कतिपयैः कविभिः (ख. सत्कविभिः ) समं गोष्ठी । पुनः किं० ? । मुग्धाः सितांशोः कराः मुग्धा मनोज्ञाः सितांशोः चन्द्रमसः कराः किरणाः । अन्यत् किं० ? । विचित्राः सजः कुसुमवणेः गुंफिता मालाः । भाग्यवतां पुंसां एते प्रकाराश्चैत्रे सुखाय भवन्ति ॥ ८७ ॥ पुनस्तदेवमाहसुधाशुभ्रं धाम स्फुरदमलरश्मिः शशिधरः
प्रियावक्राम्भोज मलयजेरजश्वातिसुरभिः। स्रजो हृद्यामोदास्तदिदमखिलं रागिणि जने
करोत्यन्तःक्षोभं ने तु विषयसंसर्गविमुखे ॥ ८८ ॥ तदिदं वक्ष्यमाणमखिलं समस्तं रागिणि जने विलासिनि पुरुषे अन्तःक्षोभं मानसविकारं करोति । न तु विषयसंसर्गविमुखे न हि जितेन्द्रिये । इदं किम् ? । सुधाशुभ्रं धाम । पुनः किं० ? । शशिधरः स्फुरदमलरश्मिः स्फुरन्त उल्लसन्तः अमलाः निर्मलाः रश्मयः किरणाः यस्य स स्फुरदमलरश्मिः । एवंविधः शशिधरः । पुनरपि किं० १ । प्रियावक्राम्भोज वल्लभावदनकमलम् । किं० वाम्भोज ? । मलयजरजश्वाति ( क. च. रजसा चाति; छ. जरसा चाति; ट. रसश्चात') सुरभिः (च. सुरति)। पुनरपि किं० ? । स्रजो हृद्यामोदाः मनोहरपरिमलाः । एते सर्वेऽपि रागिणि पुरुषे सुखावहाः । न तु विरागिणि ॥ ८८ ॥
... १ क. च. छ. किंचिदस्य । २ ग. ज. विलासालसा। ३ ग. स्मेरा। ४ क. ग. छ.
मण्डपाः। ५ग. सेव्याः। ६ ग. हिमांशोः; घ. शितांशोः। ७ ग. केषां चित्सुखदानचित्तहदयं चेष्टं विचित्राः स्रजः॥ ८ ग. शशधरः। ९क. रजसाश्चाति; छ. जरसश्वाति । १० क. छ. सुरमि। ११ छ. 'त्यन्तक्षोभं। १२ ज. ननु ।
१. शतकत्र.
Page #109
--------------------------------------------------------------------------
________________
।
अथ सा
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[२.८९-९१] कविरेकान्तस्थितिमाह
आवासः क्रियतां गाङ्गे पापारिणि वारिणि । स्तनमध्ये तरुण्या वा मनोहारिणि हारिणि ॥ ८९ ॥
रे चेतः ! गाङ्गे वारिणि पानीये आवासः क्रियताम् । गङ्गायाः इदं गानं तस्मिन् स्थितिर्विधीयताम् । किं० वारिणि ? । पापवारिणि पापस्फेटिनि । वा अथवा तरुण्याः स्तनमध्ये आवासः क्रियतां । किं० स्तनमध्ये? । हारिणि अपूर्वे । पुनः किं० ? । मनोहारिणि । सर्व वितथम् ॥ ८९॥ अथ स्वैरिणीनामुद्दिश्याह- . असूचीसंचारे तमसि नभसि प्रौढजलद
ध्वनिप्रादुर्भावे पतति पुंषतां नीरनिचये । इदं सौदामिन्याः कनककमनीयं विलसितं
__मुदं च म्लानिं च प्रथयति पथि स्वैरसुदृशाम् ॥ ९० ॥ इदं सौदामिन्याः विद्युतो विलसितं खैरसुदृशां स्वेच्छाचारिणीनां पथि मार्गे मुदं चान्यत् म्लानिं प्रथयति विस्तारयति । किं०. सौदामिन्याः विलसितम् ? । कनककमनीयं कनकवत्कमनीयं मनोज्ञं सुवर्णवन्मनोहरमित्यर्थः । क सति । तमस्यन्धकारे सति । किं० तमसि । असूचीसंचारे असूचीसंचारं सघनमित्यर्थः । पुनः किं० तमसि ? । नभसि आकाशे प्रौढजलदध्वनिप्रादुर्भावे सति प्रबले मेघशब्दे प्रकटिते सति । पृषतां जलकणानां [नीर] निचये अम्भोनिचये सति । खेच्छाचारिणीनां दुर्दिने घने सति हर्षोत्कर्षोऽपि भीतिरपि स्यात् ॥ ९० ॥ अथ रागस्थानमुद्दिश्याहकेशाः संयमिताः श्रुतेरपि परं पारं गते लोचने
अन्तर्वक्रमपि स्वभावशुचिभिः कीर्ण द्विजानां गणैः । मुक्तानां सतताधिवासरुचिरं वक्षोजकुम्भद्वयं
__ इत्थं तन्वि वपुः प्रशान्तमपि ते रागं करोत्येव नः ॥ ९१॥ हे तन्वि हे सुकुमारशरीरे ! ते तव वपुः शरीरं नोऽस्माकं रागं करोति एव । किं. वपुः ? । इत्थं प्रोच्यमानम् । प्रशान्तमपि । इत्थं कथम् ? । केशाः संयमिताः संबद्धाः । लोचने परं प्रकृष्टं श्रुतेरपि पारं गते कर्णप्रान्तगते । चान्यत् वक्रमपि अन्तर्मध्ये द्विजानां गणैः . १च. तारिणि; ज. हारिणि । २ घ. पारिणि । ३ ख. घ. मृगाक्ष्या। ४ ग. घ. अशूची। ५ग. घ. ज. °संसारे। ६ क. छ. पृषतानां च। ७ ख. ग. संयमिन।
Page #110
--------------------------------------------------------------------------
________________
७५
[२. ९२-९४]
शृङ्गारशतकम् दन्तानां समूहैः कीर्णं व्याप्तम् । किं० द्विजानां गणैः? । स्वभावशुचिभिः निसर्गनिर्मलैः । वक्षोजकुम्भद्वयं स्तनकलशयुगलं मुक्तानां मुक्तामणिहाराणां सतताधिवासरुचिरं निरन्तरनिवाससुन्दरम् । एवंविधं नायिकानां वपुः शरीरं रागोत्पत्तिकृद् भवति ॥ ९१ ॥
अथ मानिनीनां मानपरिहारमुद्दिश्याहप्रथितः प्रणयवतीनां तावत् पदेमातनोतु हृदि मानः। भवति न यावच्चन्दनतरुसुरभिर्मलयवमानः ॥ ९२ ॥
मानः प्रणयवतीनां नारीणां हृदि तावत् पदं स्थानं आतनोतु विस्तारयतु । किं० मानः? । प्रथितः न प्रच्छन्नः प्रकट इत्यर्थः । यावत् मलयपवमानः मलयाचलपवनो न भवति न वाति । किं० मलयपवमानः ? । चन्दनतरुसुरभिः चन्दनवृक्षवत्सुगन्धिः । तस्मिन् पवने वीयमाने मानिनीनां मानो गर्वो गलति ॥ ९२ ॥
अथ वसन्तप्रभावमाहसहकारकुसुमकेसरनिकरभवामोदमूछितदिगन्ते । मधुरमधुविधुरमधुपे मधौ भवेत् कस्य नोत्कण्ठा ॥ ९३ ॥
कस्य पुरुषस्य मधौ वसन्ते उत्कण्ठा न भवति । अपि तु सर्वस्यापि । किं० मधौ ? । मधुरमधुविधुरमधुपे मधुरो मनोज्ञो योऽसौ मधुस्तेन विधुरो विह्वलो मधुपो भ्रमरो यस्य [ सः] मधुरमधुविधुरमधुपः तस्मिन् । पुनरपि किं० मधौ ? । सहकारकुसुमकेसरनिकरभवामोदमूञ्छितदिगन्ते सहकारकुसुमस्य केसराः सहकारकुसुमकेसराः तस्य (तेषां ) निकरः समूहः तद्भवामोदेन तत्समुत्पन्नपरिमलेन मूछितं व्याप्तं दिगन्तं येन [ सः ] सहकारकुसुमकेसरनिकरभवामोदमूछितदिगन्तः तस्मिन् ॥ ९३ ॥ अथ विलासिनां निदाघमुद्दिश्याह
स्रजो हृद्यामोदा व्यजनपवनश्चन्द्रकिरणाः
परागः कासारो मलयजरजः सीधु विशदम् । शुचिः सौधोत्सङ्गः प्रतनु वसनं पङ्कजदृशो
निदाघर्तावेतद् विलसति लभन्ते सुकृतिनः ॥ ९४ ॥ निदाघौं विलसति सति एतदुच्यमानं सुकृतिनो लभन्ते नापरे । एतत् किम् ? । हृद्यामोदाः स्रजः कुसुममालाः हृद्य आमोदो गन्धो यासां ता हृयामोदाः मनोहरपरिमला इत्यर्थः । एवंविधाः स्रजः । पुनः किं० ? । व्यजनपवनः पक्षकवातः । पुनः किं० । चन्द्रकिरणाः । पुनः किं० ? । कासारः परागः अनुत्खातसरःशीतललहर्यः । पुनः किं० । मलय
जरजः चन्दनोत्पन्नचूर्णः। पुनः किं० ? । विशदं निर्मलं सीधु (ग. सिन्धु ) मद्यम् । पुनः .. १ है. क. च. प्रथित; ग. प्रायः। २ घ. °मातनोति। ३ ज. न भवति न याव । ४ ग. पवनः। ५ग. शीधु। ६ ख. घ. वचनं (ख. 'वसन' मित्यपि)।
Page #111
--------------------------------------------------------------------------
________________
७६
[ २. ९५-९७ ]
किं० ? | सौधोत्सङ्गः धवलगृहाङ्कम् । किं० सौधोत्सङ्गः ? | शुचिः पवित्रः । पुनः किं० १ । प्रतनु वसनं स्वच्छवस्त्रम् । पुनः किं० ? । पङ्कजदृशः कमलदलवद्दीर्घनयना नार्यः । उष्णकाले सुकृतिनो लभन्ते ॥ ९४ ॥
एतदनन्तरं छ. कोशे 'आसारेण न हर्म्यतः' इत्यादिश्लोको दृश्यते । ] अथ सौख्योत्पादक प्रदेशानाह
भर्तृहरिकृत -
- शतकत्रयम्
वियदुपरिसमेघं भूमयः कन्दलिन्यो नवकुटजकदम्बामोदिनो गन्धवाहाः । शिखिकुलकलके कारावरम्या वनान्ताः
सुखिनमसुखिनं वा सर्वमुत्कण्ठयन्ति ॥ ९५ ॥
एते पदार्थाः सुखिनं वा असुखिनं सर्वमुत्कण्ठयन्ति मनीषामुत्पादयन्ति । किं किम् ? । वियदाकाशम् उपरिसमेघं उन्नतजीमूतम् । पुनः किं० ? । भूमयः कन्द लिन्यः कन्दाङ्कुरिताः । पुनः किं० ? | गन्धवाहाः नवकुटजकदम्बामोदिनः नवानां नवीनानां कुटजकदम्बानां आमोदयितुं विकाशयितुं शीलं येषां ते नवकुटजकदम्बा मोदिनः । पुनः किं० ? । वनान्ताः शिखिकुलकलकेकारावरम्याः शिखिनां कुलानि शिखिकुलानि तेषां कलकेकाः (च. शिखिकुलानि च कलकेकिनश्च ) शिखिकुलकलकेकाः तेषां ( तासां ) रावेण शब्देन रम्या ये वनान्ताः [ ते ] शिखिकुलकलकेकारावरम्याः । एते प्रकाराः सौख्योत्पादकाः ॥ ९५ ॥
तरुणीवेषा दीपितेकामा विकसितजातीपुष्पसुगन्धिः ।
उन्नतपीनपयोधरभारा प्रवृद्र तनुते कस्य न हर्षम् ॥ ९६ ॥
एवंविधा रामा प्रावृषि वर्षाकाले कस्य पुरुषस्य हर्ष न तनुते न विस्तारयति । किं० रामा ? | तरुणीवेषा । पुनः किं० रामा ? | दीपितकामा दीपितः कामो यस्याः सा । पुनः किं रामा ? | विकसितजातीपुष्पसुगन्धिः विकसिता या जाती विकसितजाती विकसितजातीपुष्पवत् सुगन्धिः विकसित ० । पुनः किं० रामा: । उन्नतपीनपयोधरभारा उन्नतौ च यौ पीनौ उन्नतपीनौ । उन्नतपीनयोः पयोधरयोर्भारो यस्याः सा ॥ ९६ ॥
आसारेण न हर्म्यतः प्रियतमैर्यातुं बहिः शक्यते
शीतोत्कम्पनिमित्तमायतदृशा गाढं समालिङ्गयते । जालैः शीकरशीतलाश्च मरुतो रैत्यन्तखेदच्छिदो
धन्यानां बत दुर्दिनं सुदिनतां याति प्रियासंगमे ॥ ९७ ॥
१ ग. भेषा; ज. रेषा । २ क. दीप्ति । ३ ग सुगन्धी । ४ ख. घ. प्रावृषि ! ५ क. छ. दृशो; ख. घ. दृशां । ६ ग. ममा लिङ्ग्यते । ७ क. छ. ह्यत्यन्त ; ख. घ. चात्यन्त'; ग. व्यत्यन्त ।
Page #112
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२.९८-९९]
शृङ्गारशतकम् बतेति हर्षे । धन्यानां पुरुषाणां दुर्दिनं प्रियासंगमे सुदिनतां याति । दुर्दिनं मेघजं तमः । प्रियतमैः आसारेण हर्म्यतः बहिर्यातुं न शक्यते । आसारो वेगवान् वर्षः । आयतदृशो(? शा) नार्यः( ? र्या) शीतोत्कम्पनिमित्तं शीतापगमाय पतिं ( ? तिः) गाढं समालिङ्गयते। चान्यत् । मरुतः (हं. पुरतः) पवन( ? नाः )जालैर्गवा: रत्यन्तखेदच्छिदः । किं० मरुतः ? । शीकरशीतलाः शीकरैर्जलकणैः शीतलाः शीकरशीतलाः ॥ ९७ ॥
अर्ध नीत्वा निशायाः सरभससुरतायाससंश्लेषयोगैः __ प्रोद्भूतासह्यतृष्णो मधुमदनिरतो हर्म्यपृष्ठे विविक्ते । संभोगक्लान्तकान्ताशिथिलभुजलतावर्जितं कर्करीतो
ज्योत्स्नाभिन्नाच्छधारं ने पिबति सलिलं शारदं मन्दभाग्यः॥९८॥ मन्दभाग्यः पुमान् शारदं शरत्कालीनं सलिलं पानीयं न पिबति कर्करीतः गर्गर्याः (क. च. छ. गर्गार्याः)। किं० सलिलं ? । संभोगक्लान्तकान्ताशिथिलभुजलतावर्जितं संभोगेन क्लान्ता संभोगक्लान्ता एवंविधा या कान्ता [ नारी] तस्याः शिथिलभुजलतया आवर्जितं आनीतं । पुनः किं. सलिलं ? । ज्योत्स्नाभिन्नाच्छधारं ज्योत्स्नया [अ]भिन्ना [पृथग्दृश्या अच्छा निर्मला धारा यस्य तत् ज्योत्स्नाभिन्नाच्छधारम् । किं० मन्दभाग्यः ? । प्रोद्भूतासह्यतृष्णः प्रोद्भूता असह्या सोढुमशक्या तृष्णा येन स प्रोद्भूतासह्यतृष्णः । पुनः किं० मन्दभाग्यः ? । मधुमदनिरतः मधुनो मदः मधुमदः मधुमदेन निरतः मधुमदनिरतः । क ? । विविक्ते निर्जने (हं. निरंजने) हर्म्यपृष्ठे गृहपृष्ठप्रदेशे । किं कृत्वा ? । निशाया अर्धे नीत्वा । कैः ? । सरभससुरतायाससंश्लेषयोगैः सरभसः सोत्सुकः योऽसौ सुरतायासः तत्र ये संश्लेषास्तेषां योगास्तैः सर० ॥ ९८ ॥
प्रोद्यत्प्रौढप्रियङ्गुद्युतिभृति विदलत्कुन्दमाद्यद्विरेफे
काले प्रालेयवातप्रबलविकसितोदाममन्दारदाम्नि । येषां नो कण्ठलग्ना क्षणमपि तुहिनक्षोदरक्षा मृगाक्षी
तेषामायामयामा यमसदनसमा यामिनी याति यूनाम् ॥९९॥ तेषां यूनां तरुणानां यामिनी रात्रिः आयामयामा दीर्घप्रहरा सती यमसदनसमा याति । यत्तदोर्नित्यसंबन्धः । येषां जनानां मृगाक्षी क्षणमपि नो कण्ठलना । किं० मृगाक्षी ? । तुहिनक्षोदरक्षा (ख. दक्षा) तुहिनस्य तुषारस्य क्षोदाः तुहिनक्षोदाः तेषां रक्षतीति (ख. °दास्तत्र दक्षा ) तुहिनक्षोदरक्षा । क सति ? । प्रालेयवातप्रबल ( ख. °चल ) विकसितोद्दाममन्दारदाम्नि काले सति। प्रोद्यत्प्रौढप्रियङ्गद्युतिभृति काले सति, प्रोद्यन्तो ये प्रौढप्रियङ्गवः तेषां द्युतिं बिभर्तीति प्रोद्यत्प्रौढप्रियङ्गुद्युतिभृत् । तस्मिन् । पुनः क्व सति ? । विदलत्कुन्दमायद्विरेफे
१ग. सुप्त्वा। २ हं. योत्स्ना। ३ ग. पिबति न । ४ हं. क. च. छ. प्रचल। ५ क. च. छ. नोत्कण्ठ । ६ ग. घ. दक्षा। '७ ग. आयाति यामा।
Page #113
--------------------------------------------------------------------------
________________
७८
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[२. १०० - १०१ ]
काले सति । विदलन्तो ये कुन्दास्तेषु माद्यन्तो द्विरेफाः भ्रमराः यत्र सः विदलत्कुन्दमाद्यद्विरेफस्तस्मिन् ॥ ९९ ॥
पुनस्तदेव
हेमन्ते दधिदुग्धसर्पिरशना माञ्जिष्ठवासोभृतः काश्मीरद्रवसान्द्रदिग्धवपुषः खिन्ना विचित्रै रतैः वृत्तोरुस्तन कामिनीजनकृताश्लेषा गृहाभ्यन्तरे
ताम्बूलीदलपूगपूरितमुखा धन्याः सुखं शेरते ॥ १०० ॥
धन्याः पुरुषाः ताम्बूलीदल पूगपूरितमुखाः सुखं यथा भवति शेरते शयनं कुर्वते । ताम्बूलीदलानां पूगाः समूहाः तैः पूरितं मुखं येषां ते । अथ वा ताम्बूलैर्दलैः (ख. 'ल्या दलैः ) अन्यच्च पूगेन पूरितं मुखं येषां ते तथा । क ? | गृहाभ्यन्तरे मन्दिरान्तः । किं० धन्याः ? | वृत्तोरुस्तनकामिनीजनकृताश्लेषाः वृत्तोरुस्तनो यः कामिनीजनः तेन कृत आश्लेषो येषां ते वृत्तोरुस्तनकामिनीजनकृताश्लेषाः । पुनरपि किं० धन्याः ? | हेमन्ते शीतकाले दधिदुग्धसर्पिरशनाः दधिदुग्धस अशनं भोजनं येषां ते दधिदुग्धसर्पिरशनाः । पुनः किं० धन्याः ? । माजिष्ठवासोभृतः माजिष्ठानि वासांसि बिभर्ती (बिभ्रती ) ति मञ्जिष्ठवासोभृतः । पुनः किं० धन्याः ? । काश्मीरद्रवसान्द्रदिग्धवपुषः काश्मीरद्रवेण काश्मीरचन्दनयक्षकर्दमेन सान्द्रं सघनं दिग्धं लिप्तं वपुः शरीरं येषां ते । पुनः किं० धन्याः ? । विचित्रै रतैः खिन्नाः श्रान्ताः ॥ १०० ॥
पुनः शिशिरकालमुद्दिश्य तदेवाह -
केशानाकुलयन् दृशो मुकुलयन् वासो बलादाक्षिपन्
आतन्वन् पुलकोद्गमं प्रकटयन्नवेगकम्पं गतौ ।
वारं वारमुदारशीत्कृतमुखो दन्तच्छन्दान् पीडयन्
प्रायः शैशिर एष संप्रति मरुत् कान्तासु कान्तायते ॥ १०१ ॥
प्रायः स्वभावेन एष शैशिरो मरुत् संप्रति इदानीं कान्तासु रामासु कान्तायते कान्त व आचरति कान्तायते पतिरिव भाति । मरुत् किं कुर्वन् । कान्तानां केशानाकुलयन् धूनयन् । पुनः किं कुर्वन् मरुत् ? । दृशो मुकुलयन् संकोचयन् । पुनरपि किं कुर्वन् ? । वासः वस्त्रं बलादाक्षिपन् । पुनरपि किं कुर्वन् ? । पुलकोद्गमं रोमोद्गमं ( हं. रोमांचं ) आतन्वन् विस्तारयन् । पुनरपि किं कुर्वन् ? । गतौ गमने आवेगकम्पं प्रक (क. च. छ. प्रग) टयन् । पुनरपि किं कुर्वन् ? । दन्तच्छदानोष्ठान् पीडयन् । किं० मरुत् ? । वारं वारमुदारशीत्कृत - मुखः (हं. 'त्कृतिकृतः ) उदाराः शीत्कृताः शीत्कारा मुखे यस्मात् स उदारशीत्कृतमुखः ॥ १०१ ॥
१ ग. 'दिव्य' । २ ग. पीनोरु° । ३. घ. कोशान् । ४ ग. स्तोकं प्रकम्पं । ५ ख. घ. गते; ग. गतेः । ६ ख. घ. 'शीत्कृतकृतो; ग. 'शीत्कृतिकृतो ।
Page #114
--------------------------------------------------------------------------
________________
[२. १०२ - १०५ ] पुनस्तदेवाह -
चुम्बन्तो गण्डभित्तीरलकवति मुखे शीत्कृतान्यादधाना वैक्षः सूत्कञ्चुकेषु स्तनभरपुलकोद्भेदमापादयन्तः । ऊरूनाकम्पयन्तः पृथुजघनतटाच्छ्रंसयन्तोंऽशुकानि
व्यक्तं कान्ताजनानां विटचरितभृतः शैशिरा वान्ति वाताः ॥ १०२ ॥
शृङ्गारशतकम्
शैशिरा वाताः शिशिरकालीनाः वाताः पवनाः वान्ति । वाताः किं कुर्वन्तः ? | गल्लभित्तीः कपोलपालीः चुम्बन्तः । पुनः किं कुर्वाणा वाताः ? । मुखे शीत्कृतान्यादधानाः शीत्कारवचनानि बिभ्राणाः । पुनः किं कुर्वन्तो वाताः ? । स्तनभरपुलकोद्भेदमापादयन्तः रोमाञ्चोद्गममुत्पादयन्तः । केषु ? । वक्षःसु । किं० वक्षःसु ? । उत्कञ्चुकेषु उत् ऊर्ध्वं गताः कचुका येषां ते उत्कचुकास्तेषु । पुनरपि किं० वाता: ? । व्यक्तं कान्ताजनानां विटचरितभृतः । पुनः किं० वाता: ? । ऊरून् जंघाप्रदेशानाकम्पयन्तः । वाताः पुनः किं कुर्वन्तः ? । पृथुजघनतटात् अंशुकानि चीवराणि ( हं. वस्त्राणि ) श्रंसयन्तः ( क. छ. संश्रयन्तः स्पर्शयन्तः )
अपनयन्तः ॥ १०२ ॥
७९
अथ महतामवस्थामाह
gha काचिन् महतामवस्था सूक्ष्माणि वस्त्राण्यथ वा च कन्था । कराग्रलग्नाभिनवा च बाला गङ्गातरङ्गेष्वथ वाऽक्षमाला ॥ १०३ ॥ महतां पुरुषाणां काचिदवस्था एकैव । का ? । सूक्ष्माणि वस्त्राणि अथवा कन्था । ' अथवा कराग्रलग्ना अभिनवा यौवनाभिरामा बाला । अथ च नो चेत्तदा गङ्गातरङ्गेषु अक्षमाला जापग्योगस्थिता (हं. त्या ) ॥ १०३ ॥
वैराग्यं संश्रयत्येको नीचो भ्रमति चापरः ।
शृङ्गारे रमते कश्चिद् दृष्टिभेदः परस्परम् ॥ १०४ ॥
एकः कश्चित् पुमान् वैराग्यं संश्रयति नीरागत्वमाश्रयति । चान्यत् अपरो नीचो भ्रमति । कश्चित् पुमान् श्रृंगारे रमते । कथं ? । यथा भवति परस्परं दृष्टिभेदः ॥ १०४ ॥ यद् यस्य नाभिरुचितं न तत्र तस्य स्पृहा मनोज्ञेऽपि । रमणीयेऽपि सुधांशौ न नाम कामः सरोजिन्याः ॥ १०५ ॥
१ टीकायां गल्लभित्तीः । २ क. ख. घ. वक्षस्युत्क; हं. क. च. छ. ज. वक्षस्यूत्क' । ३ ख. घ. नीतौ ।
Page #115
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
यस्य प्राणिनो यदभिरुचितं न तत्र मनोज्ञेऽपि पदार्थे तस्य स्पृहा न भवति वाञ्छा न स्यात् । अमुमेवार्थं कविर्दृष्टान्तेन द्रढयति । नाम इति संबोधने । सरोजिन्याः कमलिन्याः सुधांशौ चन्द्रमसि कामो न भवति उल्लासो न स्यात् ( ? भवति ) । किं० सुधांशौ ? । रमणीयेऽपि ॥ १०५ ॥
८०
ऊकेशगच्छगगनाङ्गणदीप्त भानोः श्रीसिद्धसूरिगुरोर्महिमाधिकस्य । शिष्येण तस्य धनसारवरेण रम्या टीकेयमद्य ननु भार्तृहरी व्यधायि ॥ १ ॥
॥ इति श्रीभर्तृहरकाव्यस्य द्वितीयशतकस्य टीकेयं विदधे ॥
१ हं. व्यधत्त ।
Page #116
--------------------------------------------------------------------------
________________
अथ तृतीयं वैराग्यशतकम् ।
अथ वैराग्यशतकमाहदिक्कालाधनवच्छिन्नानन्तविज्ञानमूर्तये ।
खानुभूत्येकैमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥१॥
तस्मै शान्ताय तेजसे परब्रह्मणे नमः । किंविशिष्टाय शान्ताय (ख. च. कथंभूताय) तेजसे ?। स्वानुभूत्येकमानाय स्वकीयायाः अनुभूतेरनुभवात् एकं मानं यस्य स स्वानुभूत्येकमानस्तस्मै । पुनः किंविशिष्टाय शान्ताय तेजसे ? । दिक्कालाधनवच्छिन्नानन्तविज्ञानमूर्तये दिक् च कालश्च दिक्कालौ, ताभ्यां दिक्कालाभ्यां अनवच्छिन्ना अज्ञाता अनन्ता विज्ञानस्य मूर्तिर्यस्य स दिक्कालाधनवच्छिन्नानन्तविज्ञानमूर्तिः तस्म ॥ १ ॥
अथ गुणहीनतास्वरूपमाहबोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः।।
अज्ञानोपहतान्ये जीर्णमङ्गे सुभाषितम् ॥ २॥ बोद्धारो ज्ञातारो मत्सरग्रस्ताः विरोधव्याप्ताः। प्रभवो नृपाः स्मयदक्षिताः गर्वकलङ्किताः। चान्यत् । अन्ये अज्ञानोपहताः [ख. अबोधोपहताः] । अङ्गे शरीरे सुभाषितं जीणं स्मृतिहीनम् । एते प्रकाराः महिमानं न प्राप्नुवन्ति ॥ २ ॥ संसारस्यानित्यतामाह
न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं
विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः । महद्भिः पुण्यौवैश्विरपरिगृहीताश्च विषया ___ महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ॥ ३ ॥ संसारोत्पन्न चरितं कुशलं नानुपश्यामि । पुण्यानां विपाकः फलं विमृशतो मे मम भयं जनयति संसारपरिभ्रमणत्वात् । कथं बिभेषि ? । चान्यत् । महद्भिः पुण्यौधैः महान्तः पञ्चेन्द्रियगोचराः विषयाः चिरपरिगृहीताः सन्तः विषयिणां प्राणिनां व्यसनं दातुमिव जायन्ते ॥ ३ ॥ .. ट. कोशे श्लोको नास्ति । अवतारिका परं दृश्यते । १ख. घ. चिन्मात्र। २.ख.
. घ. त्यैक। ३ ख. घ. अबोधोप। ४ज. मन्ये। ५ ग. च. छ. पुण्योधैः । ६ख. घ. व्यसनिनाम् ।
११ शतकत्र.
Page #117
--------------------------------------------------------------------------
________________
८२
अथ तृष्णाधिकारमाह
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
भ्रान्त्वा देशमनेकदुर्गविषमं प्राप्तं न किंचित् फैलं त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला । भुक्तं मानविवर्जितं • पैरगृहे साशङ्कयो काकवत्
तृष्णे जृम्भणि पापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ॥ ४ ॥
हे तृष्णे पापकर्मनिरते जृम्भणि ( हं. म्भिणि) सोल्लासे अद्यापि न संतुष्यसि न संतुष्टा भवसि । तद्दोषानुपदर्शयति ( हं. देशयति ) । हे तृष्णे ! अनेकदुर्गविषमं देशं भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा किंचित्फलं न प्राप्तम् । हे तृष्णे ! उचितं योग्यं जातिकुलाभिमानं त्यक्त्वा निष्फला सेवा कृता । परगृहे मानविवर्जितं साशङ्कया भुक्तम् । किंवत् ? । काकवत् । हे तृष्णे ! सर्वमप्येतत्तदेवं (? वैव) चेष्टितम् ॥ ४ ॥
उत्खातं निधिशङ्कया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो
[ ३.४-६]
निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नने 'संतोषिताः । मंत्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः
लैब्धः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णेऽधुना मां त्यज ॥ ५ ॥
हे तृष्णे ! अधुना मां त्यज । कथम् ? । हे तृष्णे ! तव प्रभावात् निधिशङ्कया क्षितितलं उत्खातम् । कथमप्यहं निधानं लभे इति वाञ्छया । हे तृष्णे ! तव प्रेरणया गिरेर्धातवो माताः । कदाचिदपि सौवर्णखानिं लभे ( हं. लभते ) । तथाप्यलाभे सति हे तृष्णे ! सरितां पतिः समुद्रो निस्तीर्णः । हे तृष्णे ! नृपतयो यत्नेन संतोषिताः । हे तृष्णे ! मया श्मशाने निशा नीताः । केन ! | मंत्राराधनतत्परेण मनसा । तथापि मया काणवराटकोsपि घर्षितकपर्दकोऽपि न प्राप्तः ॥ ५ ॥
खेलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरैर्
निगृह्यान्तर्बाष्पं हसितमपि शून्येन मनसा । तश्चित्तस्तम्भः प्रतिहतधियामञ्जलिर पि
त्वमाशे मोघँसि किमपरमतो नर्तयसि माम् ॥ ६॥
१ ज. भ्रान्त्या ।
५ख.
२ ज. धनं । ३ हं. च. छ. निःफला । ४ क, परिग्रहे । घ. वाशङ्कितं । ६ ग. जृम्भसि च. ज्रम्भणि, हं. ज. जृम्भिणि । ७ घ. निरतो ! ८. घ. संतुष्यति । ९ ज. संसेविताः । १० ख. घ. ज. प्राप्तः । ११ ख. घ. तृष्णे सकामा भव, ज. तृष्णेऽधुना मुञ्च माम् । १२ ज. खलोल्लासाः । १३ हं. ख. च. ज कृतो चित्त' । १४ क. घ. ज. मोघाशे ।
Page #118
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३.७-८]
वैराग्यशतकम् हे आशे हे तृष्णे ! त्वं मोघासि निष्फला वर्तसे । अतो मां अपरं किं नञ्जयसि किं नर्तनं कारयसि ? । कथम् ? । खलोल्लापाः दुर्जनकठोरशब्दाः सोढाः अनुभूताः। कैः ।। कथमपि महता कष्टेन तदाराधनपरैः । अपि पुनः शून्येन मनसा हसितं दन्तनिष्कासनं (हं. 'चनं) कृतम् । किं कृत्वा ? । अन्तर्मानसे बाष्पं अश्रुपातं निगृह्य धृत्वा । [अपि पुनः] चिचस्तम्भः कृतः शून्यमानसं विदधे । अपि पुनः प्रतिहतधियां गतबुद्धीनां पुरस्तात् अञ्जलिः कृतः। एवं सत्यपि हे आशे! न कृतार्था असि ॥ ६॥
खादिष्ठं मधुनो घृतादिरसवद् यत् प्रस्रवत्यक्षरं
देवी वागमृतात्मनो रसवतस्तेनैव तृप्ता वयम् । कुक्षौ यावदमी भवन्ति धृतये भिक्षाहृताः सक्तवः ____तावद् दास्यकृतार्जनैर्न हि धनै गान् समीहामहे ॥ ७॥ वयं दास्यकृतार्जनैर्धनैः हि निश्चितम् भोगान् न समीहामहे न वाञ्छामहे । दाम्यत्वेन कृतमर्जनं समुपार्जितं (हं. पार्जनं) येषां धनानां "तानि दास्यकृतार्जनानि तैः । यावदमी मिक्षाहताः सक्तवः कुक्षौ धृतये भवन्ति संतोषाय स्युः । या देवी वाक् अमृतात्मनः कवीश्वरस्य अक्षरं प्रस्रवति (हं. प्रप्लवति ) प्रसूते तेनैव अक्षरेण वयं तृप्ताः संतुष्टाः । कथंभूतमक्षरम् ? । मधुनोऽपि स्वादिष्ठम् । किंवत् ? । घृतादिरसवत् यथा घृतादिरसः । आदिशब्दात् क्षीरखण्डघृतानीव । किं० अमृतात्मनः कवीश्वरस्य ? । रसवतः नवरसमयस्य ॥ ७ ॥ अथ प्रमादमुद्दिश्याह
आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितं ___ व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते । दृष्ट्वा जन्मजरावियोगैमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते
पीत्वा मोहमयी प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ॥ ८॥ इदं जगत् उन्मत्तभूतं वर्तते । किं कृत्वा ? । मोहमयीं प्रमादमदिरां पीत्वा । कथम् । अहरहः दिनं दिनं प्रति आदित्यस्य गतागतैर्जीवितं संक्षीयते आयुस्त्रुट्यति । बहुकार्यभारगुरुभिर्व्यापारैः कालो न विज्ञायते । चान्यत् । जन्मजरावियोगमरणं दृष्ट्वा त्रासो नोत्पद्यते । जन्म च जरा च वियोगश्च मरणं च जन्मजरावियोगमरणम् । अतः कारणात् प्रमादस्तु मदिरा प्रोच्यते । यथा मदिरापानी (श्यी) हालां पीत्वा चेतनां न धत्ते । जीवितं संक्षीयमाणं (छ. संक्षीयते मानं) नावगच्छति । अन्यच्च यान्तं कालं न जानाति । अन्यच्च त्रासो न समुत्पद्यते । तथा अयमपि प्रमादमदिरोन्मत्तो जीवो व्यतीयमानं जीवितं न वेत्ति वजन्तं कालमपि नाभिजानाति । मरणादिभ्यस्त्रासोऽपि न भवति ॥ ८॥
१ ग. च. प्रप्लव। २ ख. घ. यौवनं। ३ ख. ग. घ. विपत्ति । ४ज. वासस्तु ।
Page #119
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३.९-११] दीनादीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा ___ कोशद्भिः क्षुधितैनरैन विधुरा दृश्येत चेद् गेहिनी । याआभङ्गभयेन गद्गदगलतंत्रुट्यद्विलीनाक्षरं
__को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी पुमान् ॥९॥ को मनखी पुमान् कोऽभिमानी पुरुषः स्वदग्धजठरस्यार्थे स्वकीयदुःपूरोदरपूरणाय इति वदेत् ? । इतीति किम् ? । देहि । कथं ? । यथा भवति गद्गदगलतत्रुट्यद्विलीनाक्षरं गद्गदगलन्ति च त्रुट्यन्ति च विलीनानि च विलयं गतानि अक्षराणि यत्र तत् गददगल
त्रुट्यद्विलीनाक्षरम् । केन ? । याच्याभङ्गभयेन याच्ञाया भङ्गः याच्जाभङ्गः तस्य भयं याच्याभङ्गभयम् तेन । अन्यच्च । चेद्यदि नरैर्मनुष्यैर्गेहिनी गृहिणी सदैव सर्वदैव क्षुधितैः शिशुकैः आकृष्टजीर्णाम्बरा सती विधुरा न दृश्येत व्याकुला न विलोक्येत । किं० शिशुकैः ? । कोशद्धिः रुदद्भिः । पुनः किं० शिशुकैः ? । दीनादीनमुखैः । दीनानि च अदीनानि च मुखानि येषां ते दीनादीनमुखास्तैः ॥ ९॥
निवृत्ता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः
समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः । शनैर्यद्युत्थानं घनतिमिररुद्धे च नयने
अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ॥ १० ॥ अहो इत्याश्चर्ये । अयं कायः अयं देहः तदपि मरणापायचकितः। तदपि किम् । निवृत्ता भोगेच्छा । चान्यत् । पुरुषबहुमानो विगलितः । अन्यच्च समानाः समानवयसः सुहृदो मित्राणि [ सपदि शीघ्र ] स्वर्याताः सुरलोकं प्रापुः । किं० सुहृदः ? । जीवितसमाः प्राणतुल्याः।यदि चेत् शनैरुत्थानं अर्थादुपवि(वे)शनं च । चान्यत् । नयने घनतिमिररुद्धे जाते। तथाप्ययं कायः मरणाद् बिभेति मरणं नेच्छतीत्यर्थः । कि० कायः ।। धृष्टः निर्लज्जः ॥ १०॥
हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं धात्रा मरुत् कल्पितं
व्यालानां पशवस्तृणाङ्कुरभुजः सृष्टाः स्थलीशायिनः । संसारार्णवलङ्घनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां
यामन्वेषयतां प्रयान्ति सततं सर्व समाप्ति गुणाः ॥११॥ व्यालानां सर्पाणां धात्रा विधात्रा अशनं भोजनं मरुत् पवनः कल्पितम् । किं अशनम् ? । हिंसाशून्यं हिंसारहितम् । पुनः किं० अशनं । अयत्नल सुलभम् । तथा पशवः
१ ज. दीनां। २ ख. ग. ज. गलत्रु। ३ घ. सहृदो। ४ ज. यस्योत्थानं । ५ख. दृष्टः। ६ ग. स्पृष्टाः।
Page #120
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३. १२-१४]
वैराग्यशतकम् तणाकुरभुजः बालतृणपल्लवभोजिनः सृष्टाः निष्पादिताः। किं० पशवः ? । स्थलीशायिनः । धात्रा विधात्रा नृणां मनुष्याणां वृत्तिः सा काचिदनिष्टा कृता । यां वृत्तिं सततं निरन्तरं अन्वेषयतां सर्वे गुणाः समाप्तिं यान्ति निष्ठि[त]तां यान्ति । किं० नृणां ? । संसारार्णवलङ्घनक्षमधियां संसारसमुद्रतरणसमर्थबुद्धीनाम् ॥ ११ ॥
न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत् संसारविच्छित्तये __ स्वर्गद्वारकवाटपाटनपटुधर्मोऽपि नोपार्जितः । नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥ १२ ॥ वयं एव निश्चयेन केवलं [मातुः ] यौवनवनच्छेदे कुठाराः जाताः स्मः । कथम् ।। यत् ईश्वरस्य पदं परमानन्दस्वरूपं शुक्लध्यानं [विधिवत् ] न ध्यातम् । किमर्थम् ? । संसारविच्छित्तये संसारनिस्ताराय । अन्यच्च धर्मोऽपि नोपार्जितः । [किं० धर्मः ? । खर्गद्वारकवाटपाटनपटुः । ] तथा च नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वमेऽपि नालिङ्गितम् । अतः कारणात् मातुस्तारुण्यवनच्छेदे वयं शुद्धाः कुठाराः ॥ १२ ॥
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः। कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ॥१३॥
अस्माभिर्भोगा न भुक्ताः। वयमेव भुक्ताः । अस्माभिस्तपो न तप्तम् । तदा वयमेव तप्ताः नारकिकैः संतापिताः । कालो न यातः । वयमेव याताः प्रधनमा याताः । इयं तृष्णा कदाचिदपि न जीर्णा । वयमेव जीर्णाः ॥ १३ ॥ आत्मनो निरास(श)पदमाहक्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः
सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहानश नियमतः प्राणैर्न शंभोः पदं
तत् तत् कर्म कृतं तदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः॥१४॥ अस्माभिः मुनिभिः तदेव तत्तत्कर्म कृतम् । तैस्तैः फलैर्वश्चिताः सः । यत् यस्मात्कारणात् क्षमया न क्षान्तम् । अन्यच्च । गृहोचितसुखं न त्यक्तम् । कस्मात् ? । संतोषतः । तथा दुःसहशीतवाततपनाः न सोढाः तपो न तप्तं च । अन्यच्च अहर्निशं
१ ख. च. पटुंध.। २ ग. जुगलं; ज. 'युगुलं। ३ग. मातः। ४ ख. वने दे। ५ख. °तपनात्, ग. तवना; च. पवनात् । ६ ज. क्लेशान्न । ७ख. घ. छ. चित्तम् । ८ ख. ज. नियमितः। ९ख. घ. यदेव।
Page #121
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[३. १५-१७] नियमतः निश्चयतः प्राणैः वित्तं ध्यातं न शंभोः पदम् । अत एव प्राणिभिः तत्कर्म कृतं, येन कर्मणा तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः ॥ १४ ॥
वैलिभिर्मुखमाकान्तं पलितैरङ्कितं शिरः। गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते ॥ १५ ॥
मुखं वलिभिराकान्तं पलितैः शिरः अङ्कितम् । गात्राणि शिथिलायन्ते । एका दुराशया तृष्णा तरुणायते ॥ १५ ॥
अथानित्यतामाह
येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः। तेनैव च दिवा भानुरहो दौर्गत्यमेतयोः ॥ १६ ॥
निशि रात्रौ येनैव अम्बरखण्डेन चन्द्रमाः संवीतो गतः । च अन्यत् । तेनैव अम्बरखण्डेन दिवा वासरे भानुः सूर्यः संवीतः गतः । अहो इति दुःखे । एतयोः सूर्यचन्द्रमसोः दौर्गत्यं विलोक्यताम् ॥ १६ ॥ अथ विषयविरक्ततामाह
अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वापि विषेया
वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत् स्वयममून् । व्रजन्तः स्वातंत्र्यादतुलपरितापाय मनसः
खयं त्यक्ता ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ॥ १७ ॥ एते विषयाः पञ्चाङ्गभोगलक्षणाः अवश्यं निश्चितं यातारः गमिष्यन्ति । किं कृत्वा । चिरतरं चिरकालं उषित्वापि स्थित्वापि । जनो लोकः यत् अमृन् विषयान् स्वयं न त्यजति तद्वियोगे को भेदः किमाधिक्यम् ? । एते विषयाः स्वातंत्र्यात् [स्वाधीनात् आत्मवशात् ] व्रजन्तः गच्छन्तः मनसः आत्मनः अतुलपरितापाय भवन्ति प्रबलदुःखाय स्युः । हि निश्चितम् । एते स्वयं त्यक्ताः सन्तः अनन्तं शमसुखं उपशमशर्म (खं. च. शमसुखं) विदधति । अतः कारणात् एते विषयाः स्वयं त्यक्ता मोक्षमु( ? स्यो)त्पादका इत्यर्थः ॥ १७ ॥ अथ तृष्णामधिकृत्याहविवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा
परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः। . १ 'वलीभिः' इत्यपि मातृकासु। २ ख. घ. विषयान् । ३ ज. त्यक्त्वा। ४ ख. घ. विवेके। ५ ख. घ. विकसति च. विकशति ।
Page #122
--------------------------------------------------------------------------
________________
८
[३. १८-२०]
वैराग्यशतकम् . .. जराजीणैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणः
कृपापात्रं यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ॥ १८ ॥ तृषा तृष्णा शमे उपशमे सति शाम्यति उपशमं गच्छति । क सति ? विवेकव्याकोशे [विवेकस्य ] विकाशे विदधति सति । सा परिणतिः तृष्णापरिणामः तुङ्गे परिष्वङ्गे आश्लेषे सति [प्रसरतितरां] तरां (? नितरां) प्रसरति । युक्तोऽयमर्थः-अपरापि या विलासिनी भवति सा तुङ्गे परिष्वङ्गे सति तरां ( ? नितरां ) प्रसरति । न तु व्याप्तिं भजते । लब्धावकाशत्वात् । तथा सा तृष्णापि । मरुतां देवानामप्यधिपतिः इन्द्रः यस्यां तृष्णायां कृपापात्रं भवति । तुङ्गे परिष्वङ्गे छेत्तुं अशक्तो भवतीत्यर्थः । मनुजानां तु का कथा ? । किंविशिष्टो मरुतामधिपतिः ? । जराजीणेश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणः जरसा जीर्णमैश्वर्यं जराजीणैश्वर्यं तस्य ग्रसनेन यद् गहनं जराजीणेश्वर्यग्रसनगहनं तस्य आक्षेपे कृपणः विध्वंसे असमर्थः । अतः कारणात् तृष्णा गरीयसी ॥ १८ ॥ मदनविडम्बनामाहकृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो
व्रणी पूतिक्लिन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः । क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठेरजकपालार्पितगलः
शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः ॥ १९ ॥ श्वा कुर्कुरः शुनीमन्वेति । किं० श्वा ? । कृशो दुर्बलः काण एकदृक् खञ्जो भमपादः श्रवणरहितः छिन्नकर्णः पुच्छविकलो लांगूलरहितः । व्रणी पिटकव्याप्तः स्फोटकव्याप्तः । पूतिक्लिन्नः पिरु (ख. पिरू) परण्टितः । पुनरपि किं० श्वा ? । कृमिकुलशतैरावृततनुः । पुनः किं० श्वा ? । क्षुधाक्षामः । पुनः किं० श्वा ? । जीर्णः जरसाक्रान्तः । पुनः किं० श्वा है । पिठरजकपालार्पितगलः करण्डमुण्डसमर्पितमुखः । एवंविधो मर्तुकामोऽपि श्वा शुनीमन्वेति अनुसरति । तदपि मदन एव निश्चयेन हतमपि हन्ति ॥ १९॥ विषयाणां धिक्कारमाह
भिक्षाशनं तदपि नीरसमेकवारं __ शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रम् । वस्त्रं च जीर्णशतखण्डमयी च कन्था
हा हा तथापि विषया न परित्यजन्ति ॥ २० ॥ हा हा इति खेदे । विषयास्तथापि न परित्यजन्ति केटकं ( समीपं ) न मुञ्चन्ति । तथापि किम् ? । भिक्षीशनं तदपि नीरसं रसरहितं । तदप्यशनं एकवारम् । चान्यत् । शय्या
१ ज. क्षपणः। २ ख. छ. पिठरक । ३ ख. च. भिक्षासनं ।
Page #123
--------------------------------------------------------------------------
________________
मदहन
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[ ३.२१-२२] भूः । अन्यच्च परिजनो निजदेहमात्रम् । चान्यत् वस्त्रं शतखण्डमयी कन्था । तथापि विषयाः दुराशयाः [ विषोपमा ] विगोपयन्ति प्राणिनाम् उद्दका ( ? ) ॥ २० ॥ रूपतिरस्कारमाहस्तनौ मांसग्रन्थी कनककलशावित्युपमितौ
मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम् । स्रवन्मूत्रक्लिन्नं करिवरकरस्पर्धि जघनं
अहो निन्द्यं रूपं कैविजनविशेषैर्गुरु कृतम् ॥ २१ ॥ अहो इति दुःखे । रूपं निन्द्यम् । कविजनविशेषैः गुरु कृतम् । स्तनौ मांसग्रन्थी परमित्युपमितौ उपमानितौ । इतीति किम् ? । कनककलशौ। चान्यत् मुखं श्लेष्मागारं तदपि शशाङ्केन तुलितम् चन्द्रमसा समानं कृतम् । जघनं श्र(स)वन्मूत्रक्लिन्नं तथापि करिवरकरस्पर्धि गजेन्द्रशुण्डादण्डेन स्पर्धाकृत् स्पर्धाकारकम् । रूपस्येति स्वरूपम् । परं तु कविना व्यावर्णितम् ॥ २१॥ .
अजानन् माहात्म्यं पैंततु शलभस्तीवेदहने ___ स मीनोऽप्यज्ञानाद् बँडिशयुतमश्नातु पिशितम् । विजानन्तोऽप्येते वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ २२ ॥ अहह इति खेदे । मोहमहिमा गहनो वर्तते । यत्तु शलभः पतङ्गः दीपशिखायां पततु ।शलभः किं कुर्वन् ? । माहात्म्यमजानन् । अन्यच्च स मीनो मत्स्यः अज्ञानान्मौढ्यात् (छ. मौढ्यतः) बडिशयुतं पिशितं मांसं अश्नातु भक्षतु । इह अस्मिन् संसारे एते वयं विजानन्तोऽपि कामान्न मुञ्चामः । किं० कामान् ? । विपज्जालजटिलान् विपदां जालः विपज्जालस्तेन जटिला विपज्जालजटिलास्तान् विपज्जालजटिलान् । अत एव मोहमहिमा गहनो गरीयान् (हं० गरीयसी) ॥ २२ ॥ अथ दुर्जनमुद्दिश्याहबिशमलमशनाय स्वादुपानाय तोय
शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च । १ ख. छ. श्रवन्मू । २. ज. °कट । ३. ख. घ. कुकविविकल्पै; ज. कविवरविशेषैर् । ४ख. घ. छ. पतति। ५ ख. घ. तत्र। ६.घ.मीनोपज्ञानाद: च. शानाद् । ७ हं. विडश। ८ ख. घ. छ. अश्नाति । ९ख. विसमले; ग. छ. विशमल°; ग. ज. विषमल । १० हं. छ. पृष्ठं (टीकायामपि)। ११ हं. वल्कली वाससे, ख. घ. ' वाससी वल्कले।
मीनोपि
Page #124
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३. २३-२५]
वैराग्यशतकम् नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणां
___ अविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ॥ २३ ॥ वयं दुर्जनानां पिशुनानां अविनयमनुमन्तुं अङ्गीकर्तुं नोत्सहे नोत्साहं कुर्महे । कथंभूतानां दुर्जनानां ? । नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणाम् नवं नवीनोपार्जितं धनं नवधनं तदेव मधुपानं मदिरापानं तेन मधुपानेन प्रान्तानि सर्वाणि इन्द्रियाणि येषां ते नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियास्तेषाम् । अलं अत्यर्थम् । अशनाय भोजनाय बिशं कमलिनीकन्दं वरम् । चान्यत् । खादुपानाय तोयं वरम् । चान्यत् । अवनिपृष्ठशयनम् । चान्यत् । वाससे(सी) वल्कली (ले) वल्कलचीवरं वरम् ॥ २३ ॥ अथ मानिनामुद्दिश्याहविपुलहदयैर्धन्यैः कैश्विजगजनितं पुरा
विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा । इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दशभुञ्जते
कतिपयपुरेखाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ॥ २४ ॥ पुंसां पुरुषाणां क एष मदज्वरः । क सति ? । कतिपयपुरस्वाम्ये सति । धन्यैः कैश्चित पुरा पूर्व जगजनितं जगत् सृष्टम् । किं० धन्यैः? । विपुलहृदयैः बृहच्चेतोभिः । अपरैः कैश्चिदपि विधृतं निजभुजाभ्यां धारितम् । अन्यैः कैश्चिदपि पुरुषैः चान्यत् दत्तम् । किं कृत्वा ? । विजित्य । यथाशब्द इवार्थे वर्तते । जगत् कमिव ? । तृणम् इव । यथा तृणमनायासेन दीयते तथा जगद्विजित्य दत्तम् । हि निश्चितम् । इह अस्मिञ्जीवलोके । अन्ये धीराश्चतुर्दश भुवनानि भुञ्जन्ते (ते) । तदा स्वल्पस्वाम्ये कोऽयं गर्वः ॥ २४ ॥
अथ निःस्पृहाणामधिकारमाहत्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः ___ ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः। . इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं
- यद्यस्मासु पराङ्मुखोऽसि वयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः ॥२५॥ हे नरेन्द्र ! त्वं राजा वर्तसे । वयमपि उपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोनताः वर्तामहे । हे राजेन्द्र ! त्वं विभवैः ख्यातः । नो अस्माकं यशांसि महत्त्वानि कवयः कवीश्वराः दिक्षु प्रतन्वन्ति दशस्वपि दिशासु विस्तारयन्ति । हे मानद ! मानं ददातीति मानदः । वा 'दोऽवखण्डने' धातुः । दौ संध्यक्षराणामकारस्य विकरणे दोनइ दा । हे मानद मानखण्डन ! आव
१ घ. नृणां। २ है. छ. ज. पुरः वाम्ये । १२ शतकत्र.
Page #125
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३. २६-२८] योरुभयोरपि अन्तरं नातिदूरम् । हे राजेन्द्र ! यदि चेत् त्वं अस्मासु पराङ्मुखोऽसि अनादरोऽसि तदा वयमपि एकान्ततो निःस्पृहा वर्तामहे । त्वय्यनादराः त्वयि विषये अनादराः ॥ २५ ॥ राज्ञां गर्वतिरस्कारमुद्दिश्याह कविःअभुक्तायां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतैर्
भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम् । तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो
विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम् ॥ २६ ॥ जडाः मूर्खाः विषादे कर्तव्ये प्रत्युत सम्मुखं मुदं विदधति । कथम् ? । क्षितिभुजां राज्ञां तस्याः भुवः पृथिव्याः लाभे क इव बहुमानः । यस्यां पृथिव्यां अभुक्तायां सत्या नृपशतैः नरेन्द्रसहस्रैः क्षणमपि न यातं न गतम् । [ कथंभूताः जडाः । तदंशस्याप्यंशे तस्याः पृथिव्याः विभागस्यापि विभागे तदवयवलेशे तस्य अंशस्यापि लेशे पतयः स्वामिनः ॥२६॥ मृत्पिण्डो जलरेखया वलयितः सर्वोऽप्ययं ने त्वणुस्
त्वं स्वीकृत्य स एव संयुगशतै राज्ञां गणैर्भुज्यते । ते दद्युर्ददतेऽथ वा न किमपि क्षुद्रा दरिद्रा भृशं
धिर धिक् तान् पुरुषाधमान् धनकणं वाञ्छन्ति तेभ्योऽपि ये ॥२७॥
तान् पुरुषाधमान् धिर धिक् । ये अधुना तेभ्योऽपि धनकणं वाञ्छन्ति । कथम् ? । अयं मृत्पिण्डः पृथ्वीवलयः सर्वोऽपि जलरेखया वलयितः स न तु अणुः स्वल्प (हं. शल्य ?) प्रमाणः । तु पुनः स एव मृत्पिण्डः राज्ञां गणैर्भुज्यते । किं कृत्वा । संयुगशतैः संग्रामांगणशतैः स्वीकृत्य अङ्गीकृत्य (हं. छ. अंशीकृत्य )। ते क्षुद्राः दरिद्रा राजानः भृशं अत्यर्थ किमपि दद्युः अथवा न ददते । तानेव पुरुषान् धिक् । ये तेभ्योऽपि वाञ्छां कुर्वन्ति ॥ २७ ॥
अथ दुर्भगसेवकस्य वाक्यमाह-- .. न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः ।
नृपसद्मनि नाम के वयं कुचभारानमिता न योषितः ॥ २८ ॥ - नाम इति संबोधने । नृपसद्मनि वयं के ? । वयं नटाः न नृत्यकृतः (ख. नृत्यकारकाः) न । विटाः न उत्तीर्णाः न । न गायनाः। न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः परद्रोहे निबद्धाः बुद्धयो येषां ते परद्रोहनिबद्धबुद्धयः । वयं योषितोऽपि न । किंविशिष्टाः योषितः । कुचभारानमिताः कुचभारेण आ समन्ताद्भावेन नमिताः कुचभारानमिताः, एवंविधा अपि वयं न ॥ २८ ॥
१ ज. अभुक्तानां। २ हं. छ. ज. नन्वणुस । ३ ग. अंगीकृत्य; छ. ज. त्वंशीकृत्य । ४ ज. गायका।
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकम्
पुरा विद्वत्तासीदुपशमवतां क्लेशहतये
गता कालेनासौ विषयसुखसिद्ध्यै विषयिणाम् । इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखान्
अहो कष्टं सापि प्रतिदिनमधोधः प्रविशति ॥ २९ ॥
[ ३.२९-३१ ]
पुरा पूर्व उपशमवतां विद्वत्ता वैदुष्यं क्लेशहतये संसारनिवारणाय आसीत् । असौ विद्वत्ता कालेन गच्छता विषयिणां पुरुषाणां विषयसुखसिद्ध्यै गता । अहो इति खेदे । कष्टं विलोक्यताम् । इदानीं [तु] सापि विद्वत्ता प्रतिदिनं दिनं दिनं प्रति अधोधः प्रविशति । [ किं ? ] कृत्वा ? | शास्त्रविमुखान् क्षितितलभुजः प्रेक्ष्य निरीक्ष्य ॥ २९ ॥
साहंकारपुरुषस्योद्दिश्याह
स जातः कोऽप्यासीनमदनरिपुणो (१° णां ) मूर्ध्नि धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकार विधये ।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना
नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ॥ ३० ॥
स जातः कोऽपि पुरुषः आसीत् । यस्य पुरुषस्य कपालं उच्चैर्यथा भवति मदनरिपुणोर (? पुणा ) ( ख. रिपोर्) महेशस्य ( ° शेन ) मूर्ध्नि मस्तके अलंकार विधये (ख. च. विषये ) विनिहितम् । किं० कपालम् ? । धवलं उज्ज्वलं । अधुना इदानीं कैश्चिन्नमद्भिः (हं. अनमद्भिः) नृभिः पुंसां पुरुषाणां कोऽयं अतुलदर्पज्वरभरः । किं० नृभिः ? | प्राणत्राणप्रवणमतिभिः प्राणस्य त्राणं प्राणत्राणं प्राणत्राणे प्रवणा मतिः येषां ते प्राणत्राणप्रवणमतयः तैः । शिवस्य शिरः पूजाकारी मृतोऽपि धन्यः । अन्ये राज्यस्मृतोऽपि (3) जीवन्तोऽपि मृताः । शिवभक्त्यभावात् ॥ ३०॥
नामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीमहे यावदित्थं शूरस्त्वं वाग्मिदर्पज्वरशैमनविधावक्षयं पाटवं नः । सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा
मामप्यास्थानमेतत् त्वयि मम सुतरामेष राजन् गतोऽसि ॥ ३१ ॥
हे राजन् ! त्वं अर्थानां ईशिषे त्वं समर्थो भवसि । चान्यत् । वयमपि गिरां वाणीनां ईश्महे समर्थाः भवामः । चान्यत् । त्वं यावत् इत्थं अमुना प्रकारेण शूरो नो अस्माकं
१'हं. 'नाशौ । २ हं. ज. सा । ३ख. ग. मदनविजयिनो; घ. मदनजयिनो । ४ ज. विनिहतम् । ५ च 'प्रणव' । ६ ज. ज्वरमतुल' । ७ ख. घ. मामिह । मय्यप्यास्थानं, ग. मानाप्यास्थानं, च. मानप्यास्थानं । ९ ख. घ. गतोऽस्मि ।
८ ख. घ.
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३. ३२-३३] वाग्ग्मिदर्पज्वरशमनविधौ (हं. अनुविधौ ) अक्षयं निश्चलं पाटवं वर्तते । हे राजन् ! त्वां बुधाः (धनान्धाः?) सेवन्ते मामपि श्रोतुकामाः श्रोतारः सेवन्ते । किमर्थम् ? । मतिमलहतये बुद्धिकालुष्यस्फेटनाय । हे राजन् ! ममापि त्वयि विषये एतत् आस्थानं एषः त्वं सुतरां अतिशयेन मां प्रति गतोऽसि प्राप्तोऽसि । एतावता तव मम किमप्यन्तरं नास्ति ॥ ३१॥ .
आत्मनो गुणागुणविवेचनमाहयदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः। यदा किंचित् किंचिद् बुधजनसकाशादवगतं .. तदा मूर्योऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ॥ ३२ ॥
अहं यदा यस्मिन् प्रस्तावे [मदान्धः द्विप इव हस्तीव समभवम् । किं० अहम् । किंचिज्ज्ञः किंचिज्जानातीति किंचिज्ज्ञः । यत्तदोर्नित्यसंबन्धः । तदा मम मनः इति अवलिप्तं अभवत् । इतीति किम् ? । अझं (-2 'हं.) सर्वज्ञोऽस्मि । यदा यस्मिन् प्रस्तावे] बुधजनसकाशात् पण्डितवर्गसमीपात् किंचित् किंचित् अवगतं ज्ञातम् । तदा इति अमुना प्रकारेण मे मम मदो व्यपगतो दूरीभूतः । इतीति किम् ? । अहं मृोऽस्मि । मदः क इव ? । ज्वर इव । यथा कस्यापि ज्वरो याति तथा मे मम अहंकारो यातः ॥ ३२ ॥
अथ निर्ममतास्वरूपमाह
अतिक्रान्तः कालो लैटभललनाभोगसुभगो __ भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणिम् । इदानीं स्वःसिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः __ सुतारैः पूत्कारैः शिव शिव शिवेति प्रतनुमः॥ ३३ ॥
हे बाले ! लटभललनाभोगसुभगः कालो अतिक्रान्तो अतिचक्राम संपूर्णीकृतः । लटभाः सलावण्या या ललनास्तासां भोगेन सुभगो मनोज्ञः लटभललनाभोगसुभगः । इह अस्मिन् मर्त्यलोके संसारसरणिं सुचिरं भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः । इदानीं स्वासिन्धोः स्वर्गगङ्गायाः तटभुवि कच्छस्थलीषु शिव शिव शिवेति प्रतनुमः विस्तारयामः । कथंभूता वयं ? । सुतारैः पूत्कारैः समाक्रन्दनगिरः । रे बाले त्वं कासि ? । तव सम्मुखं न विलोकयामः ॥ ३३ ॥
माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थ प्रयातेऽर्थिनि
क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्योवजे । १ ख. ग. गज। २ ख. घ. ललित'। ३ ज. सुलभो। ४ ग. छ. व्यर्थे । ५ग. शनियौं ।
Page #128
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकम्
युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्रुकन्यापयः
पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरदरीकुञ्जे निवासः कचित् ॥ ३४ ॥
[ ३. ३४-३६ ]
०
सुधियां पुरुषाणां केवलं एतदेव युक्तम् । यजहुकन्यापयः पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरदरीकुञ्जे क्वचिन्निवासः । कोऽर्थः - जह्नुकन्यायाः गङ्गायाः पयसा पूताः पवित्रा ये ग्रावाणः तेषां योऽसौ गिरीन्द्रः पर्वतः तस्य या कन्दरस्य [ विवरस्य ] दरी गुफा (? हा ) तस्याः कुञ्जः जह्रुकन्यापयः पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरदरीकुञ्जः तस्मिन् । तत्र निवासो वरम् । क्क सति ? | माने म्लायिनि सति । चान्यत् । वसुनि खण्डिते सति । चान्यत् । अर्थिनि याचके व्यर्थे प्रयाते सति । चान्यत् क्व सति ? । क्षीणे बन्धुजने सति । पुनः क्क सति ? । परिजने गते सति । पुनः वसति । शनैः शनैः यौवने नष्टे सति । तदा वनवास एव रुचिरः ॥ ३४ ॥
परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बेहु हा .
प्रसादं किं नेतुं विशेसि हृदय क्लेशकैलितम् । प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणिगुणे
विमुक्तः (१क्ते) संकल्पः (१°ल्पात्) किमभिलषितं पुष्यति न ते ॥ ३५॥
1
हा इति खेदे । त्वं हृदय ! बहु प्रसादं किं नेतुं ग्रहीतुं विशसि ( ख. दिशसि ) । किं कृत्वा ? । परेषां अपरेषां चेतांसि प्रतिदिवसं दिवसं [ दिवस ] प्रति आराध्य । किं० प्रसादं ? | क्लेशकलितं ('लं ) कष्टमलिनम् । हे हृदय ! त्वयि अन्तर्मध्ये प्रसन्ने सति [ किम् ] अभिलषितं वाञ्छितं ते तव [न] पुष्यति । किं० त्वयि ? । स्वयमुदित चिन्तामणिगुणे । [ पुनः ] किं विशिष्टः (? °ष्टे ) त्वम् ( त्वयि ? ) ? । विमुक्तः (? ते) संकल्पः (? ल्पात् ) ( घ. विमुक्तेः मोक्षस्य संकल्पः ) ॥ ३५ ॥
* अनावर्ती कालो व्रजति स वृथा तन्ने गणितं
दशास्तास्ताः सोढा व्यसनशतसंपातविधुराः ।
कियद् वाचक्षामः किमिव बत नात्मन्यपकृतं
वयं यावत् तावत् पुनरपि तदेव व्यवसितम् ॥ ३६ ॥
[ स कालो व्रजति । अस्माभिः तन्न गणितम् । ] किं० काल: ? । अनावर्ती अपुनरागमी न पुनः आगमोऽस्यास्तीति असावपुनरागमी । तदस्यास्तीति इन्प्रत्ययः । अस्माभिस्तास्ताः दशाः सोढाः । तत् कियद् वा आचक्षामः । किं० दशाः ? । व्यसनशतसंपातविधुराः व्यस
१ ख. घ. बहुधा, ज. बहुधा हा । २ ख. दिशसि । ३ हं. छ. कलिलम् । ४ ध. विमुक्तेः । * हं. कोशे प्रथमपादोऽवशिष्टः । ५ घ. न गुणितं छ. निगणितं । ६ ख. वा वक्ष्यामः; व. वावक्षामः । ७ ख. घ. न्युपकृतं ।
Page #129
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३. ३७-३८] नानां कष्टानां शतं व्यसनशतं तस्य संपातेन विधुराः व्यसनशतसंपातविधुराः। बत इति खेदे । आत्मनि किमिव न अपकृतं विरूपं न कृतम् ? । यावद् वयं तावत् पुनरपि तदेव व्यवसितं उद्यमितम् । येन कर्मणा दुःखितैर्भूयेत ॥ ३६ ॥
[पुनरप्यभिमान( ? नितां प्राहन भिक्षा दुष्प्रापा पथि पथि मठारामसरितः
फलैः संपूर्णा भूर्विटपिमृगचर्मापि वसनम् । सुखे वा दुःखे वा सदृशपरिपाकः खलु तदा
त्रिणेनं कस्त्यक्त्वा धनलवमदान्धं प्रणमति ॥ ३६A ॥ कोऽभिमानी पुमान् [तदा] धनलवमदान्धं प्रणमति । किं कृत्वा ? । त्रिणेनं महेशं त्यक्त्वा । तदा इति कथम् ? । भिक्षा दुष्प्रापा न । पथि पथि मठारामसरितः। भूः पृथ्वी फलैः संपूर्णा । अपि पुनः विटपिमृगचर्म वसनं विटपिभूर्जत्वक् (१ ग्) मृगचर्मणी वस्त्रं । सुखे वा दुःखे वा सदृशपरिपाकः सदृक् कर्मणः फलं, खलु निश्चितम् । तदा धनलवमदान्धं कः प्रणमति ।
[हं. छ. ज. कोशेष्वेव अयं श्लोको दृश्यते । च. कोशे तु टीकामात्रम् अपूर्णम् ।] स्थितिः पुण्येऽरण्ये सह परिचयो हन्त हरिणैः
फलैर्मेध्या वृत्तिः प्रतिनदि च तल्पानि दृषदः। इतीयं सामग्री भवति हरभक्तिं स्पृहयतां
वनं वा गेहं वा सदृशमुपशान्तैकमनसाम् ॥ ३७ ॥ उपशान्तैकमनसां उपशान्तं [ अत एव ] एकं मनो येषां ते उपशान्तैकमनसः तेषां यतीनां वनं वा गेहं वा सदृशम् । इति अमुना प्रकारेण इयं सामग्री हरभक्तिं स्पृहयतां भवति । इतीति किम् ? । पुण्ये पवित्रेऽरण्ये स्थितः ( स्थितिः) । पुनः इतीति किम् ? । हन्त इत्यागमे । हरिणैः (ख. हिरणैः; हं. च. हिरण्यैः; छ. हरणैः ) सह परिचयः । चान्यत् फलैमध्या पवित्रा वृत्तिः (हं. ख. च. मेधा बुद्धिवृद्धिः)। प्राणवृत्तिरित्यर्थः । चान्यत् । प्रतिनदि नदी • नदी प्रति दृषदस्तल्पानि ॥ ३७॥
अमीषां प्राणानां तुलितबिशिनीपत्रपयसां
कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम् । यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां
कृतं वीतवीडैनिजगुणकथापातकमपि ॥ ३८ ॥ १ ज.स्थितः पुण्यारण्ये। २ हं. ख. च. मेधा वृत्तिः।३ ज.स्पृहयति।४ यदन्धाना ।
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३. ३९-४०]
वैराग्यशतकम् .. अस्माभिरमीषां प्राणानां कृते किं न व्यवसितमुद्यमितम् ? । [ किंभूतानां प्राणानां ? । तुलितबिशिनीपत्रपयसाम् तुलितं बिशिनीपत्रपयो यैस्ते तुलितबिशिनीपत्रपयसस्तेषाम् । ] किं० अस्माभिः ? । विगलितविवेकैः विगलितो विवेको येषां ते विगलितविवेकाः, तैः । विवेकरहितैरित्यर्थः । यदाढ्यानामग्रे धनवतां पुरः वीतवीडैर्गतलज्जैः अस्माभिः ( हं. च. छ. अस्मकाभिः) निजगुणकथापातकमपि कृतम् । निजगुणानां कथापातकम् निजगुणकथापातकम् । किं० आढ्यानां ? । द्रविणमदनिःसंज्ञमनसाम् । कोऽर्थः ? । द्रविणमदेन धनमदेन निःसझं मनो येषां ते द्रविणमदनिःसंज्ञमनसस्तेषां । धनमदाचेतना [ नाम् ] इत्यर्थः ।। ३८ ॥
भ्रातः कष्टमहो महान् स नृपतिः सामन्तचक्रं च तत्
पार्श्वे तस्य च सापि राजपरिषत् ताश्चन्द्रबिम्बाननाः । उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः
सर्व यस्य वशादगात् स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः ॥ ३९ ॥ । तस्मै कालाय नमः । अहो इत्याश्चर्ये । हे भ्रातः ! कष्टं विलोक्यताम् । किं. कष्टम् ? । स एव महान् नृपतिः । चान्यत् । तत् सामन्तचक्रम् । चान्यत् । तस्य पार्श्व सापि राजपरिषत् सापि राजसभा । चान्यत् । ताश्चन्द्रबिम्बाननाः नार्यः । चान्यत् । स राजपुत्रनिवहः नृपकुमारसमूहः । किं० राजपुत्रनिवहः ? । उद्रिक्तः सदर्पः । चान्यत् । ते बन्दिनः ते भट्टाः । चान्यत् । ताः कथाः । यस्य वशात् एतत् सर्व पूर्वोक्तं स्मृतिपदं अगात कथाशेषं जगाम । कालाय तस्मै नमः । यतः कालेन क्षीयते सर्वम् ॥ ३९ ॥
पुनः कालमुद्दिश्याह
वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलु ते - समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः । इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नप॑तनाद्
गतास्तुल्यावस्थां सिर्फतिलनदीतीरतरुभिः ॥ ४० ॥ येभ्यः समानवयोभ्यः समं [वयं] जाताः खलु निश्चितम् ते चिरपरिंगता एव मृता एव । वयं यैः समं संवृद्धास्तेऽपि स्मृतिविषयतां गमिताः । स्मृतेविषयता स्मृतिविषयता तां [गमिताः ] । स्मारिताः सन्तश्चेतोगोचरमायान्तीत्यर्थः । इदानीमेते वयं स्मः सावशेषाः । किं० वयम् ? । सिकतिलनदीतीरतरुभिः तुल्यावस्थां गताः । सिकतिला वे(वालुकाधिका नदी सिकतिलनदी तस्यास्तीरतरवः सिकतिलनदीतीरतरवस्तैः । एतावता सिकतिलनदीतीरतरवः पतनशीला . १ ख. सापि च। २ ज. उद्भिक्तः। ३ ग. सर्वे । ४ ख. घ. श्रुतिपदं । ५ हं. च. समापन । ६ ग. पतना। ७ ख. सिकतल ।
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३.४१-४२) भवन्तीत्यर्थः । सुकुमारभूमित्वात् यादृशास्ते तरवस्ताहगवस्थां वयं प्राप्ताः स्मः । कस्मात् ? । प्रतिदिवसं दिवसं [ दिवसं] प्रति आसन्नपतनात् आसन्नकालमरणात् । एतावता संसारस्यावस्था ईदृशी वर्तते ॥ ४० ॥
यंत्रानेकः क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको
यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः । इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन् द्वाविवाक्षौ
कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिसौरैः ॥४१॥ कालो मृत्युः काल्या सह कालराव्या सह प्राणिसारैः सत्त्व (हं. ख. च. 'त्वि) काष्ठशुष्कैः क्रीडति रमते (हं. च. छ. 'ति)। किं० कालः ? । बहुकला बही कला यस्यासौ बहुकलः । किं कुर्वन् ? । इमौ द्वौ [ रजनिदिवसौ इत्थं अमुना प्रकारेण अक्षाविव पाशकाविव दोलयन् प्रक्षिपन् प्रेरयन् । युक्तोऽयमर्थः । अन्योऽपि यो द्यूतकृत् क्रीडां कुरुते तस्य अक्षौ पाशको विलोक्येते । अत्र कालः द्यूतः (? छूतकृत्)।] रजनिदिवसावेव पाशकौ । इत्थं कथम् ? । यत्र कचिदपि गृहे अनेकः [अथ] तत्र एकस्तिष्ठति । अपि पुनः यत्र एकः तत्र [तदनु] बहवः । चान्यत् । यत्र बहवस्तत्र [अन्ते] एकोऽपि न । कालक्रीडाया इत्थं स्वभावतः (१वः) ॥४१॥
तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिर्वसामः सुरनदीं
गुणोदारान् दारानुत परिचरामः सविनयम् । पिबामः शास्त्रौघान् द्रुतविविधकाव्यामृतरसान
न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने ॥ ४२ ॥ जने लोके न विद्मः वयं किं कुर्मः। किमिति संशये । सुरनदीं गङ्गां निवसामः आश्रमं कुर्मः । किं० वयं ? । तपस्यन्तः सन्तः तपः कुर्वन्तः सन्तः । उत अथवा दारान् कलत्राणि (हं. च. छ. कलत्रान् ) परिचरामः परिचर्या कुर्मः । किं० दारान् ? । गुणोदारान गुणोत्कटान् । [ कथं परिचरामः ? । सविनयं । ] उत अथवा शास्त्रौघान् पिबामः शृण्मः । किं० शास्त्रौघान् ? । द्रुतविविधकाव्यामृतरसान् द्रुतः श्रुतः [सुतः ?] विविधकाव्यानां अमृतरसो येषु ते द्रुतविविधकाव्यामृतरसाः तान् । [ इत्थं ] चेतस्यस्माकं संशयो वरीवति । एतेषु पदार्थेषु किं कुर्मः ? । यो गुणाधिकस्तं सेवयामः ॥ ४२ ॥
गङ्गातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य
ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य ।। १ख. घ. यत्रानेका; च. यात्रानेकः। २ ज. कल्या। ३ग. प्राणसारै च. प्राणि-, सारे। ४ ख. घ. किमपि । ५ घ. न वसामः। ६ख. घ. विविधतम । ७ ख. घ. नरभसा।
Page #132
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकम्
किं तैर्भाव्यं मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशङ्काः
संप्राप्यन्ते जरंठहरिणाः शृङ्गकण्डूविनोदम् ॥ ४३ ॥
[ ३. ४३-४५ ]
किमिति संभावनायाम् । मम तैः सुदिवसैर्भाव्यम् । यत्र दिवसेषु जरठहरिणाः प्रौढमृगाः निर्विशङ्काः सन्तः [ निर्गता विशेषेण शङ्का येषां ते ] शृङ्गकण्डूविनोदं विषाणघर्षणलीलां संप्राप्यन्ते । किंभूतस्य मम ? । हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य हिमगिरिशिलायां बद्धं पद्मासनं येन [सः ] हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्तस्य । क ? । गङ्गातीरे । पुनः किं० मम ? | योगनिद्रां गतस्य योगस्य निद्रा योगनिद्रा [तां], योगनिद्रायां (निद्रां ) प्राप्तस्य । केन ? | ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना ब्रह्मध्यानस्य अभ्यसनं ब्रह्मध्यानाभ्यसनं, तस्य यो विधि : [ सः ] ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिः, तेन । एवंविधेन निर्मलभावेन सुखसाध्यसिद्धा (साध्या) सिद्धिः ॥ ४३ ॥ स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने
सुखासीनः शान्तध्वनिषु रजनीषु घुसरितः । भवाभोगोद्विमः शिव शिव शिवत्यार्तवचसा
कदा स्यामानन्दोद्गतबहुल बोलत
॥ ४४ ॥
अहं शिव शिव शिवेत्यार्तवचसा कदा स्याम् ? । किं० अहं ? । भवा भोगोद्विनः भवस्य संसारस्याभोगस्तत्र उद्विग्नः । किंभूतेन वचसा ? । आनन्दोद्गतबहुलबाष्पप्लुतदृशा [ आनन्देन उद्गतानि बहुलानि बाष्पाणि तैः प्लुते दृशौ यस्मिन् तत् ] आनन्दोद्गतबहुलबाष्पप्लुतदृक् तेन । क्व ? । द्युसरितः गङ्गायाः क्वापि निर्जने ( हं. निर्व्यजने ) पुलिने । [ किं० पुलिने ? | स्फुरत्फारज्योत्स्नाधवलिततले स्फुरन्ती दीप्यमाना स्फारा प्रचुरा या ज्योत्स्ना तया धवलितं शुकृतं तलं यस्य तत् तस्मिन् । किं भूतोऽहम् । ] सुखासीनः । कासु ? । रजनीषु । किं० रजनीषु ? | शान्तध्वनिषु उपशान्तशब्दासु । एवंविधाः वासराः भाग्यहीनानां ( छ. संभोगहीनानां ) न भवेयुः ॥ ४४ ॥
महादेवो देवः सरिदपि च सैवमरसरिद्
गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः ।
सुहृद् वा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यत्रतमिदं
कियद् वा वक्ष्यामो वैटविटप एवास्तु दयिता ॥ ४५ ॥
९७
१ ख. ग. संप्राप्स्यन्ते । २ हं. ग. च. छ. ज. जठर । ३ ज. 'विनोदाः । ४ छ. ज. स्फारा । ५ ख. ग. घ. सुखासीनाः । ६ ख. ग. गोडिनाः । ७ घ. व त्यात्त । ८ग. अ. 'वचसः । ९ ग. स्यामो हर्षोद्गल । १० ख. ग. 'बहल । ११ छ. ज. 'बापा' । १२ 'ढशः । १३ ख. सैवासुर । १४ ज. सरितः । १५ ख. व्रजतिमिदं । ९६ ख. घ. नट ।
१३ शतकत्र•
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३. ४६-४७ देवो महादेवो नान्यः (छ. मान्यः) । सरिदपि नद्यपि सैव अमरसरित् सुरनदी । आगारं गृहं गुहा एव । वसनमपि वस्त्रमपि हरितः दिशः । वा अथ वा सुहृत् मित्रं अयं कालः । इदं व्रतं अदैन्यव्रतं इदं । [वा अथवा ] कियत् वक्ष्यामः । दयिता कलत्रं पटविटप एव अस्तु ॥ ४५ ॥
शिरः शार्व वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
गिरीन्द्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् । . अधोऽधो गाङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथ वा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ॥ ४६ ॥ शाम (मा?)हेशं शिरः स्वर्गादधो वर्तते। पशुपतिशिरस्तः महेश्वरमस्तकात् क्षितिधरः (१९) [अधो जानीहि ] । उत्तुङ्गाद्रीिन्द्राद्' वर्तते ( ? ) अवनिं अधो जानीहि । अवनेश्थापि जलधि समुद्रं अधो जानीहि । स्तोकं गाङ्गेयं पदं अधोऽधः उपगतम् । अथवा विवेकभ्रष्टानां प्राणिनां विनिपातः शतमुखो भवति ॥ ४६ ॥
आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरङ्गाकुला
रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी । मोहावर्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी
तस्याः पारंगता विशुद्धमनसो नन्दन्तु योगीश्वराः॥४७॥ नामेति संबोधने । आशा नदी अस्ति । किं० आशा नदी ? । मनोरथजला मनोरथा एव जलानि यस्यां सा । पुनः किं० आशा नदी ? । तृष्णातरङ्गाकुला । अन्यापि या नदी भवति सा तरङ्गाकुला भवति । इयं नदी तृष्णातरङ्गाकुला । पुनः किं० आशा नदी ? । रागग्राहवती स्नेहग्राहयुक्ता । युक्तम् । अन्यापि या नदी [सा ] ग्राहजलचरजीववती भवति । पुनः किं० आशा नदी ? । वितर्कविहगा वितर्को [विरुद्धो] विचारः, त एव विहगाः पक्षिणो यस्यां सा । नद्यामपि विहगा भवन्ति । अस्यामपि तथैव । पुनः किं० आशा नदी ? । धैर्यद्रुमध्वंसिनी धैर्यद्रुमस्य ध्वंसोऽस्यास्तीति धैर्यद्रुमध्वंसिनी । अन्यापि नदी द्रुमध्वंसिनी भवति । पुनः किं० आशा नदी ? । मोहावर्तसुदुस्तरा मोहस्य आवर्तो मोहावर्तस्तेन सुदुस्तरा मोहावर्तसुदुस्तरा । अन्यापि नदी सुदुस्तरा भवति । पुनः किं. आशा नदी ? । अतिगहना अतीव गहनं यस्याः सा अतिगहना। अन्यापि नदी अतिगहना भवति । पुनः किं० आशा नदी ? । प्रोत्तुङ्गचिन्तातटी प्रोत्तुङ्गा चिन्ता एव तटी यस्याः सा । अन्यापि नदी तटिनी प्रोच्यते । तस्या नद्याः पारगंता योगीश्वरा नन्दन्तु सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ताम् । किंभूता योगीश्वराः ? । विशुद्धमनसो निर्मलमानसाः ॥ ४७॥
१ ख. ग. घ. सार्व। २ ख. ग. महीध्रात् । ३ ख. ग. घ. जलधिः । ४ ख. ग. घ.' अधो गङ्गा सेयं । ५ हं. मांगेयं । ६ हं. च. छ. उपगतं । ७ हं. पारिगता । ८ ग. नन्दन्ति ।
Page #134
--------------------------------------------------------------------------
________________
पा।
[३.४८-५०]
वैराग्यशतकम् आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात! तादृङ्
नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवागतो वा । योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढरूढाभिमानः
क्षीबस्यान्तःकरणकरिणः संयमालानलीलाम् ॥ ४८ ॥ _हे तात ! तादृक् कोऽपि पुमान् अस्माकं नयनपदवीं नेत्रगोचरं वा अथवा श्रोत्रवर्ती (ख. श्रोत्रमार्ग) श्रवणमार्गेण ( ? ) नागतः । यः अयं क्षीबस्यान्तःकरणकरिणः संयमालानलीलां धत्ते । किं० अयं? | विषयकरिणीगाढरूढाभिमानः विषय एव करिणी हस्तिनी तस्यां गाढरूढो (? ०ढः) अत्यन्तमारूढो( ? °ढः) अभिमानो यस्य सः । किंलक्षणानां अस्माकम् ? । आसंसारं यावत् इदं त्रिभुवनम् चिन्वतां संचयतां वर्धयताम् (?) । यो जितेन्द्रियः जेता स विरलः ॥४८॥
ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखदीर्घा • ... ये चाज्ञत्वं दधति विषयाक्षेपपर्यस्तबुद्धेः।
तेषामन्तःस्फुरितहसितं वासराणां स्मरेयं
ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्यानिषण्णः ॥ ४९ ॥ अहं तेषां वासराणां अन्तःस्फुरितहसितं ध्यानच्छेदे स्मरेयं चिन्तयामि । ये वासराः धनपतिपुरो धनाढ्यानां पुरस्तात् प्रार्थनादुःखदीर्घा वर्धन्ते । प्रार्थनादुःखेन दीर्घाः प्रार्थनादुःखदीर्घाः । चान्यत् । ये वासराः विषयाक्षेपपर्यस्तबुद्धेः प्राणिनः अज्ञत्वं अज्ञानत्वं दधति । विषयस्याक्षेपः आदरः विषयाक्षेपः विषयाक्षेपेण विषयादरेण पर्यस्ता निराकृता बुद्धिर्यस्य स विषयाक्षेपपर्यस्तबुद्धिः तस्य । किं० अहं ? । शिखरिकुहरग्रावशय्यानिषण्णः (हं. निषिन्नः ) शिखरिणः कुहरः शिखरिकुहरः, शिखरिकुहरस्य पर्वतविवरस्य ग्रावशय्यायां निषण्णः निविष्टः ॥ ४९ ॥
सांप्रतं निर्वेदतायाः स्वरूपमाहविद्या नाधिगता कलङ्करहिता वित्तं च नोपार्जितं __शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोन संपादिता । आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिङ्गिताः
कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया काकैरिव प्रेरितः ॥ ५० ॥ - अहो अयं कालोऽस्माभिः परपिण्डलोलुपतया काकैरिव प्रेरितः। परपिण्डस्य परग्रासस्य लोलुपता परपिण्डलोलुपता तया । कथम् ? । अस्माभिः विद्या नाधिगता न पठिता। किं० . १छ. वर्तन्ते । २ ख. ग. घ. दुःखभाजो। ३ ख. ग. घ. चाल्पत्वं; हं. ज. चान्तत्वं । ४ख. घ. स्फुरति। ५ हं. ख. च. नाधिगताः। ६ ख. विरहिता। ७ ग. शुश्रूषा च । ८घ. संपादिताः। ९घ. प्रेषितः ।
Page #135
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[ ३.५१-५२ ]
विद्या ? | कलङ्करहिता दोषरहिता । निस्तुषा इत्यर्थः । चान्यत् । वित्तं नोपार्जितम् । अपि पुनः समाहितेन मनसा निश्चलचित्तेन पित्रोः माताजनकयोः शुश्रूषापि न संपादिता न विहिता न कृता । चान्यत् स्वप्नेऽपि युवतयो नालिंगिताः । किं० युवतयः ? । आलोलायतलोचनाः आ समन्ताद् भावेन लोलानि चपलानि आयतानि दीर्घाणि लोचनानि यासां ता आलोलायतलोचनाः । तस्मात् कारणात् मुधैव जन्म गमितम् ॥ ५० ॥
ܘܕ
•
वितीर्णे सर्वस्त्रे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः
स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणामावधिगतीः । वयं पुण्येऽरण्ये परिणति ( १ त ) शरच्चन्द्रकिरणैस् त्रियामा नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः ॥ ५१ ॥
वयं पुण्ये पवित्रेऽरण्ये कदा त्रियामा (ख. मां ) नेष्यामः । कैः समम् ? | परिणति(? त) शरच्चन्द्रकिरणैः समम् । कोऽर्थः ? | परिणताः ( हं. 'णिताः ) परिणामं प्राप्ता ये शरत्कालीनाः चन्द्रकिरणाः [ते] परिणतशरच्चन्द्रकिरणा स्तैः । क्व सति । सर्वस्वे सर्वधने वितीर्णे सति । किं० वयम् ? । तरुणकरुणापूर्णहृदयाः तरुणकरुणया पूर्ण हृदयं येषां ते तरुणकरुणापूर्णहृदयाः । वयं किं कुर्वन्तः ? । संसारे विगुणपरिणामावधि गतीः स्मरन्तः । विगुणपरिणामाः अवधयो [ यासां तास्तथाविधाः ] गतयः विगुणपरिणामावधिगतयस्ताः । पुनः किं० वयम् । हरचरणचित्तैकशरणाः हरचरणावेव चित्तस्य एकं शरणं येषां ते हरचरणचित्तैकशरणाः ॥ ५१ ॥
वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या
सम इह परितोषो निर्विशेषविशेषः ।
स तु भवतु दरिद्रो यस्य तृष्णा विशाला
मनसि तु परितुष्टे को ऽर्थवान् को दरिद्रः ॥ ५२ ॥
हे ! राजेन्द्र ! इह् अस्मिन् संसारे वयं वल्कलैः कृत्वा परितुष्टाः । चान्यत् । त्वं लक्ष्म्या - परितुष्टः । एतावता संतोषस्य तत्त्वमेकमेव । इह अस्मिन्नर्थे परितोषः सम एव । किं० परितोषः ? | निर्विशेषावशेषः निर्विशेष एव अवशेषोऽवसानं यस्य स निर्विशेषावशेषः । विशेषश्चायम् - तु पुनः स दरिद्रो भवतु यस्य पुरुषस्य विशाला विस्तीर्णा तृष्णा । अनन्ततृष्णस्य पुंसः दरिद्रं (दारिद्र्यं ) क्वापि न यातीत्यागमः । तु पुनः मनसि परितुष्टे सति कोऽर्थवान् को दरिद्रः । अपि तु न कोऽपि ॥ ५२ ॥
१ हं. च. परिणिति ; छ. परिणित । २ ज. प्रियामा । ३ख. घ. हरि । ४ हं. ग. च. ज. 'शेषो वि' ।
५ ग. ज. च ।
Page #136
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०
[३. ५३-५५]
. वैराग्यशतकम् यदेतत् स्वाच्छन्धं विहरणमकार्पण्यमशनं
सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम् । मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्
न जाने कस्यैषा परिणतिरुदारस्य तपसः ॥ ५३ ॥ तदहं न जाने । एषा कस्य उदारस्य तपसः परिणतिः परिणामो वर्तते । एषा का परिणतिः ? । यदेतत् स्वाच्छन्दयं विहरणम् । अन्यच्च अकार्पण्यं अशनं प्रबलं भोजनम् । अन्यच्च सहायः (साहाय्यैः-सहायैः) संवासः परिकरेण सह निवासः । [अन्यच्च ] उपशमैकवतफलम् उपशमरसोद्भासितं श्रुतं शास्त्रम् । [अन्यच्च ] बहिरपि बाह्यप्रदेशेऽपि मनो मन्दस्पन्दं कल्पनारहितम् । अहं किं कुर्वन् । चिरस्य चिररात्राय [अपि] विमृशन् विमर्शनां कुर्वन् । चिरकालं चिन्तयन्नित्यर्थः ॥ ५३ ॥ .
पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं
विस्तीर्ण वस्त्रमाशादशकमपमलं तल्पमस्वल्पमुर्वी । येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणतिः खात्मसंतोषिणस्ते
धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्म निर्मूलयन्ति ॥ ५४॥ धन्यास्त एव ये कर्म निर्मूलयन्ति । किं० धन्याः ? । संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः संन्यस्तो निराकृतो दैन्यव्यतिकरस्य निकरो यैस्ते संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः । पुनः किं० ते ।। खात्मसंतोषिणः स्वात्मन्येव संतोषो येषां ते स्वात्मसंतोषिणः । अन्यच्च । येषां पुरुषाणां निःसङ्गवाङ्गीकरणपरिणतिः निःसङ्गतायाः अङ्गीकरणं निःसजताङ्गीकरणं तस्य परिणतिः निःसङ्ग । येषां पुरुषाणां पात्रं भोजनभाण्डं पाणिः हस्तः (ख. हं. च. हस्तौ)। पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यं अक्षयं(य्यं) अव्ययं अन्नम् अनघं । वस्त्रं विस्तीर्ण आशादशकं अपमलं निर्मलम् । अस्वल्पं विस्तीर्ण [तल्पं ] शय्या उर्वी पृथ्वी । एवंविधस्वरूपेण ये संसारपारं 'गच्छन्ति त एव धन्याः ॥ ५४॥
दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो
वयं च स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः। जरा देहं मृत्युहरति सैकलं जीवितमिदं
सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः ॥ ५५ ॥ . १ घ. साहाय्यैः; हं. सहायैः। २ घ. शकलं ।
Page #137
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ ३.५६-५७ ]
हे सखे ! जगति रसायां विदुषः पण्डितस्य तपसः अन्यत्र अन्यत् श्रेयः कल्याणं न । कथम् ? । स्वामी अधिपतिः दुराराध्यः । क्षितिभुजो राजानः तुरगचलचित्ताः तुरंगमवत चपलचेतसः । तु(च) पुनः वयं स्थूलेच्छाः । चान्यत् महति पदे मुक्तिलक्षणे बद्धमनसः । जरा देहं हरति मृत्युः इदं सकलं जीवितं हरति । ततस्तपसा विना श्रेयो न ॥ ५५ ॥ भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनी चञ्चला
१०२
आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद् भङ्गुरम् । लोला यौवनलालना तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं
।
योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विदे [द]ध्वं बुधाः ॥ ५६ ॥ बुधाः पण्डिताः ! योगे मनोवचनकायसंरोधलक्षणे बुद्धिं विद[द्]ध्वम् । इतरदखिलं 'तृणतुषप्रायम् । कथं ? । भोगाः पञ्चाङ्गाः मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चलाः कोऽर्थः ? । मेघवितानमध्ये विलसन्ती या सौदामिनी विद्युत् तद्वत् चञ्चलाश्चपलाः । चान्यत् । आयुर्जीवितं वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवत् भङ्गुरम् । वायुना विघट्टिता या अप तत्र लीनं यदम्बु पानीयं तद्वद् वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद् भङ्गुरं विनाशशीलम् । तनुभृतां प्राणिनां यौवनलालना तारुण्यप्रतिपालना लोला चञ्चला वर्तते । इति आकलय्य इति विचिन्त्य द्रुतं शीघ्रं योगे मनो विद [द्]ध्वम् । [ किं० योगे ? । धैर्यसमाधिसिद्धिसुलमे (सुभगे ) । ] ॥ ५६ ॥
पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्र्च्छन्नपालीं कपालीम्
आदाय न्याय गर्भद्विजहुतहुतभुग्भूमधूम्रोपकैण्ठम् ।
द्वारं द्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो
मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुरदिनं तुल्यकुल्येषु दीनः ॥५७॥
मानी प्राणी अभिमानी पुमान् क्षुधार्तः स धन्यः ( हं. छ. ज. सुधन्यः ) वरं सुष्ठु । ( छ. पुनः तुल्यकुल्येषु अनुदिनं दीनः न वरम् । तुल्यकुल्ये ( ? ले ) षु भवाः तुल्यकुल्याः तेषु । पुनः प्राणी ) उदरदरीपूरणाय द्वारं द्वारं प्रवृत्तो वरं । किं कृत्वा ? । महति ग्रामे वा अथवा कपाली कर्परं ( छ. कर्परीं ) आदाय गृहीत्वा । किं० कपालीं ? । सितपटच्छन्नपालीं सितपटेन श्वेतवस्त्रेण छन्ना अच्छादिता पाली यस्याः सा सितपटच्छन्नपाली तां । किं० ग्रामे वा वने ? | पुण्ये पवित्रे। किं० द्वारं ? । न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्भूमधूम्रोपकण्ठं न्यायगर्भेण [ हं. र्मितेन ] न्यायशास्त्रपठितेन द्विजेन हुतो योऽसौ हुतभुग् वैश्वानरः तस्य योऽसौ भूम (मा) प्रचुरो धूम्रस्तेन व्याप्तं उपकण्ठं यस्य तत् न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्भूमधूम्रोपकण्ठम् ॥ ५७ ॥
पालीं ।
१ हं. सौदामनी । २ ख. घ. छ. सुभगे । ३ छ. ददध्वं जनाः । ५ ग. छ. ज. धूमधूम्रोप° । ६ख. घ. कन्तम् ।
४. ग. छिन्न
Page #138
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०३
[३. ५८-६०]
वैराग्यशतकम् चण्डालः किमयं द्विजातिरथ वा शूद्रोऽथ किं तापसः
किं वा तत्त्वनिवेशपेशलमतियोगीश्वरः कोऽपि किम् । इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः संभाष्यमाणा जनैर्
न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यास्यन्ति ते योगिनः॥ ५८ ॥ त (ख. च. अत ) एव योगिनो ये पथि मार्गे जनैः एवं संभाष्यमाणाः न क्रुद्धाः यास्यन्ति नैव तुष्टमनसो यास्यन्ति । किं० जनैः । इत्यमुना प्रकारेण [ उत्पन्न ] विकल्पजल्पमुखरैः। इतीति किम् ? । अयं किं चण्डालः वा अथवा द्विजो ब्राह्मणः अथवा शूद्रः। अथ किं तापसः । किं वा अथवा योगीश्वरः। किं० योगीश्वरः ? । तत्त्वनिवेशपेशलमतिः तत्त्वनिवेशे पेशला मनोज्ञा मतिर्यस्य असौ । एवंविधा [ये निर्विकल्पास्त एव धन्याः॥५८॥
सखे धन्याः केचित् त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा
वनान्ते चित्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः । शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगनाभोगसुभगां
नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तकशरणाः ॥ ५९ ॥ हे सखे ! हे मित्र ! त एव धन्याः केचित् ये एवं प्रकारेण रात्रिं नयन्ते । किं० ते ! । सुकृतचयचित्तैकशरणाः सुकृतानां चयः समूहः सुकृतचयः, सुकृतचयः चित्ते एकं शरणं 'येषां ते सुकृतचयचित्तैकशरणाः । पुनः किं० ते ? । त्रुटितभवबन्धव्यतिकराः त्रुटितो भवबन्धस्य व्यतिकरो येषां ते त्रुटितभवबन्धव्यतिकराः । पुनः किं० ते ?। वनान्ते वनमध्ये चित्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः चित्तान्तः मानसमध्ये विषमो योऽसौ विषय एवाशीविषः दृष्टिविषोरगः [स] गतो येषां ते चित्तान्तर्विषयविषयाशीविषगताः । वा विषमविषयाशीविगलिताः पाठः । किं० रात्रिम् ? । शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगनाभोगसुभगाम् शरच्चन्द्रस्य ज्योत्स्ना शरच्चन्द्रज्योत्स्ना तया] शरत्कालीनचन्द्रमसः कान्त्या धवलेन गगनाभोगेन नभोविस्तारेण सुभगा मनोज्ञा सा शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगनाभोगसुभगा ताम् ॥ ५९॥
एतस्माद् विरमेन्द्रियार्थगहनादायासकादाश्रयाच्
छेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणात् । शान्तं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां गतिं
मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना ॥ ६०॥ १ हं. च. चाण्डालः। २ ज. वा। ३ हं. माना; ख. घ. मानो। ४ ख. ग. घ. 'यान्ति स्वयं । ५ हे. 'योत्स्ना। ६ ख. घ. नयन्त्येते। ७ छ. कोशे श्लोकोऽयं स्थलान्तरे रश्यते।
Page #139
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०४ . भर्तृहरिकृत शतकत्रयम्
[३. ६१-६२] हे चेतः! हे आत्मन् ! अधुना प्रसीद प्रसादं कुरु। एतस्मादिन्द्रियार्थगहनाद् विरम। किं० इन्द्रियार्थगहनात् ? । आयासकादाश्रयात् कुत्सितः आश्रयः कदाश्रयः, कदाश्रयस्य भावः कादाश्रयः, आयासेन कादाश्रयः आयासकादाश्रयः तस्मात् । क्षणात् शान्तं भावमुपैहि । किं० शान्तं भावम् ? । श्रेयोमार्ग मोक्षमार्गम् । पुनः किं० शान्तं भावम् ? । अशेषदुःखशमनव्यापारदक्षम् अशेषाणि यानि दुःखानि तेषां शमनव्यापारे दक्षः अशेषदुःखशमनव्यापारदक्षस्तम् । हे चेतः ! निजां कल्लोललोलां गतिं संत्यज परिहर । भूयः पुनरपि भङ्गरां विनश्वरां भवरतिं मा भज सेवय । एभिलक्षणैः संसारस्य वृद्धिरेव स्यात् । तत् तस्मात् कारणात् तानि चेष्टितानि त्यज ॥६०॥
पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना
भूशय्यानववल्कलैरकरणैरुत्तिष्ठ यामो वनम् । क्षुद्राणामविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणां सदा
चित्तव्याधि(ध्य )विवेकविह्वलगिरां नामापि न श्रूयते ॥ ६१॥ हे प्रणयिनि ! हे प्रिये ! उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ ! वनं यामः। यत्र ईश्वराणां धनवतां नामापि न श्रूयते । किं. ईश्वराणां ? । क्षुद्राणां तुच्छानाम् । अन्यच्च अविवेकमूढमनसां अविवेकेन मूढं मनो येषां तेषाम् । पुनः किं० ईश्वराणां ?। चित्तव्याधि(ध्य)विवेकविह्वलगिरां चित्तव्याधीनां अविवेकेन (छ. विवेकेन ) विह्वला गीर्वाणी येषां ते चित्तव्याधि(ध्य)विवेकविह्वलगिरः तेषाम् । हे प्रिये ! [ अधुना संप्रति ] पुण्यैः पवित्रैः मूलफलैः प्रीतिं कुरुष्व । अन्यच्च । भूशय्यानववल्कलैः प्रीतिं कुरुष्व । किं० भूशय्यानववल्कलैः ?। अकरणः क्रियत इति करणं न करणं अकरणं तैः अकरणैः करणक्रियारहितैरित्यर्थः ॥ ६१ ॥
मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ
चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटेंभुवामासङ्गमङ्गीकुरु । को वा वीचिषु बुबुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च . ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु कः(नः) प्रत्ययः ॥ ६२ ॥
रे चेतः! मोहं मार्जयतां दूरीक्रिय(१० कुरु)ताम् । रे प्राणिन् ! चन्द्रार्ध(च. चन्द्रार्क) चूडामणौ रतिं संतोषं उपार्जय । रे चेतः ! स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवां (जा) स्वर्गतरङ्गिणी गङ्गा [तस्याः तटभुवां तीरभूमीनां ] आसङ्गं संगतिं अङ्गीकुरु । नः अस्माकं वा अथवा को वीचिषु कल्लोलेषु प्रत्ययो विश्वासः। चान्यत् । जलबुबुदेषु वर्षावारिसंपुटेषु कः प्रत्ययः । चान्यत् ।
१ ख. घ. पुष्पै । २ ग. ज. वित्त । ३ ख. घ. "विकार'। ४ घ. चन्द्रार्क । ५ ह. च. तटभुजाम्। ६ च. तटिल्लेखा। ७ ग. च. नः; हं. न ।
Page #140
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०५
[३. ६३-६५]
वैराग्यशतकम् तडिल्लेखासु सौदामिनीषु कः प्रत्ययः । चान्यत् । स्त्रीषु कः प्रत्ययः। चान्यत् । ज्वालाग्रेषु कः प्रत्ययः । चान्यत् । पनगेषु कः प्रत्ययः । चान्यत् । सरिद्वेगेषु तटिनीप्रवाहेषु कः प्रत्ययः। यथा एतेषु स्थानेषु (हं. स्थानकेषु ) नः अस्माकं प्रत्ययो नास्ति तथा जीवितेषु ॥ ६२ ॥
अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः __ पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् । यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटत्वं ।
नो चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ ॥ ६३ ॥ रे चेतः! यदि एवमस्ति तदा भवरसास्वादने लम्पटत्वं कुरु । एवं किम् ? । यदि तवाग्रे स्फीतं प्रचुरं गीतं भवति । अन्यच्च पार्श्वतो दाक्षिणात्याः दक्षिणदेशीयाः सरसकवयः भवन्ति । अन्यच्च पृष्ठे चामरग्राहिणीनां सुन्दरीणां [लीला] वलयरणितं शब्दं (ब्दो) भवति । यदि एवंविधं सौख्यं भवति तदा संसारस्य ममतां कुरु । रे चेतः! चेदेवं नो तदा सहसा निर्विकल्पे समाधौ प्रविश प्रवेशं कुरु ॥ ६३ ॥
विरमत बुधा योषित्सङ्गात् सुखात् क्षणभङ्गरात
कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञावधूजनसंगमम् । न खलु नरके हाराकान्तं घेनस्तनमण्डलं
शरणमथ वा श्रोणीबिम्बं रणन्मणिमेखलम् ॥ ६४ ॥ हे बुधाः! योषित्सङ्गात सुखात् विरमत विरतिं भजत। किं० सुखात् ? । क्षणभङ्गरात् । करुणामैत्रीप्रज्ञावधूजनसंगमं कुरुत विदधत । करुणा च मैत्री च प्रज्ञा च करुणामैत्रीप्रज्ञा) सैवरता एव)वधूजनः(नाः तस्य तेषां)संगमः करुणामैत्रीप्रज्ञावधूजनसंगमः तम् । खलु निश्चितम् । नरके घनस्तनमण्डलं अथवा श्रोणीबिम्बं नितम्बबिम्बं न शरणम् । किं० स्तनमण्डलम् । हाराकान्तं हारविभूषितम् । पुनः किं० श्रोणीबिम्बम् ? । रणन्मणिमेखलम् रणन्ती शब्दन्ती मणिमेखला यस्मिन् तत् रणन्मणिमेखलम् ॥ ६४ ॥
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् । तृष्णाश्रो(स्रो)तोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्या सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिश्रेयसामेष पन्थाः ॥ ६५ ॥ १एतच्छोकानन्तरं है. कोशे 'कार्कश्यं स्तनयोर्' इति श्लोको दृश्यते । 'ओधाक्षिपकोऽयं' इति टीकायाम् । तदनन्तरं 'एता हसन्ति च'। २६. छ. ज. घनं स्तन ।
१४ शतकत्र०
Page #141
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
[३.६६-६८] ... हे आत्मन् ! अनुपहतविधिश्रेयसौ पुरुषाणां एष पन्थाः । न उपहतः न निराकृतः अनु. पहतः, तेन अनुपहतेन विधिना मार्गेण श्रेयो येषां ते अनुपहतविधिश्रेयसः तेषां । मुक्तानामित्यर्थः । तेषां एष मार्गः। क एष मार्गः ? । प्राणाघातानिवृत्तिः जीवहिंसाविरमः । परधनहरणे परद्रव्यापहारे संयमः। 'यम उपरमे' सं-पूर्वः । संयमनं संयमः परिहारः । पुनः किम् ? । सत्यवाक्यम् । पुनः किम् ? । काले शत्या प्रदानम् । पुनः किम् ? । परेषां युवतिजनकथामूकभावः । पुनः किम् ?। तृष्णाश्रो(स्रो)तोविभङ्गः लोभप्रवाहविच्छेदः । चान्यत् । गुरुषु विनयः । पुनः किम् ? । सर्वभूतानुकम्पा सर्वप्राणिदया । किंभूता प्राणिदया ? । सर्वशास्त्रेषु सामान्या समानस्य भावः सामान्यं तदस्ति यस्यां सा] सामान्या समानभावा इत्यर्थः । मोक्षमार्गिणां एष मार्गः ॥६५॥
मातर्लक्ष्मि भजस्व कं चिदपरं मत्कासिणी मा स्म भूर्
भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निःस्पृहाणामसि । सद्यःस्यूतपलाशंपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते
भिक्षासक्तुभिरेव संप्रति वयं वृत्ति समीहामहे ॥ ६६ ॥ . हे मातर्लक्ष्मि ! कं चिदपरं भजस्व । मत्काशिणी मा स्म भूः मा भूयाः । वयं भोगेभ्यो न स्पृहयालवः नेच्छवः । निःस्पृहाणां निरीहाणां त्वं कासि । वयं मिक्षासक्तुभिरेव संप्रति इदानीं वृत्तिं दिनगमनिकां समीहामहे वाञ्छामहे(मः)। क सति ? । सद्यस्तत्कालं स्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते सति । यद्येवमस्माकं स्थितिस्तदा वयं त्वया किं कुर्मः ॥६६॥
यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः । किंजातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम् ॥ ६७ ॥
हे मित्र ! आवयोरिति मतिरासीत् इयत्कालम् । इतीति किम् ? । यूयं वयं, वयं यूयम् । अधुना इदानीं किं जातम् । येन यूयं यूयं वयं वयम् ॥ ६७॥
बाले लीलामुकुलितममी मन्थरा दृष्टिपाताः
किं क्षिप्यन्ते विरम विरम व्यर्थ एष श्रमस्ते । संप्रत्यन्ये वयपरतं बाल्यमास्था वनान्ते
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोकयामः ॥ ६८ ॥ हे बाले हे सुन्दरि ! तावकीनं लीलामुकुलितम् । अमी मन्थरा दृष्टिपाताः अस्मासु किं क्षिप्यन्ते । विरम विरम । एषः ते तव श्रमो व्यर्थो निरर्थकः । संप्रति वयं अन्ये ते न भवामः । अस्माकं बाल्यमुपरतम् (हं. मपरतं गतम् ) । अस्माकमास्था वनान्ते । कथम् । क्षीणो मोहः । जगज्जालं विश्वसमूहं तृणमिव आलोकयामः ॥ ६८॥ ..' १ ख. घ.प्रीतिरा।२ ग. किमभूदधुना; हं कोशप्रान्ते 'इदानीमर्थसंपात्तः' पाठोस्ति। ३ हं. मपरतं ।
Page #142
--------------------------------------------------------------------------
________________
बैराग्यशतकम्
इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदलप्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनेया ।
[ ३.६९-७१]
तो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाणव्यतिकरज्वरज्वाला शान्ता तदपि न वराकी विरमति ॥ ६९ ॥
[ इयं बाला मां प्रति चक्षुर्नेत्रं अनवरतं निरन्तरं किं क्षिपति । ] कथंभूतं नेत्रम् ? । इन्दीवरदलप्रभाचोरं इन्दीवरस्य कमलस्य दलं इन्दीवरदलं तस्य प्रभां चोरयतीति इन्दीवरदलप्रभाचौरम् | अनया किमभिप्रेतं किं वाञ्छितम् । अस्माकं मोहो गतः । स्मरकुसुमबाणव्यतिकरज्वरज्वाला शान्ता । वराकी तदपि न विरमति ॥ ६९ ॥
रम्यं हर्म्यतलं न किं वैसतये श्रव्यं न गेयादिकं
किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकप्रीतये । किं तद्भान्तपतत्पतंग पवनव्यालोलदीपाङ्कर
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकॅलं सन्तो वनान्तं गताः ॥ ७० ॥
2013
सन्तः सत्पुरुषा वनान्तं गताः । किमिति संभावनायाम् । तेषां वसतये निवासाय हर्म्यातलं रम्यं नाभूत् । [ किमिति संभावनायाम् । वा अथवा श्रव्यं श्रवणार्ह गेयादिक गीतादि नाभूत् । अपि तु बभूव । वा अथवा किमिति संभावनायाम् । प्राणसमासमागमसुखं प्राणसमा प्राणतुल्या प्रिया तस्याः समागमः सङ्गः तस्य सुखं प्राणसमासमागमसुखं । अधिकप्रीतये अतिप्रसन्नतायै नाभूत् । अपि तु अभूत् । ] तथापि सन्तो वनान्तं गताः वनं सेवयामासुः । [ तु पुनः किं किमर्थं वनं सेवयामासुः ? । उद्भ्रान्तपतत्पतंगपवनव्यालोलदीपाङ्कुरच्छायाचश्चलं उद्भ्रान्तः चक्षुर्लेभेन भ्रमं प्राप्तः योऽसौ पतत्पतंगः तस्य पवनेन व्यालोला चञ्चला या दीपाङ्कुरस्य छाया कान्तिस्तद्वच्चञ्चलं ] सकलं जीवलोकं आकलय्य विचिन्त्य हृदये ज्ञात्वा इत्यर्थः ॥ ७० ॥ किं कन्दाः कन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा वा गिरिभ्यः
प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वर्कलेभ्यश्च शाखाः । वीक्ष्यन्ते यन्मुखानि प्रसभमुपगतप्रश्रयाणां खलानां • दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवैशपत्र नानर्तित भ्रूलतानि ॥ ७१ ॥
१ च. छ. ज. चौरं । २ ज. 'मनसा । हं. कोशे प्रथमपादो लभ्यते । ३ हं. वसंत• समये । ४ ज. श्राव्यं । ५ ख. घ. प्राणसमं । ६ ख. घ. नैवाधिकं । ७ ख. घ. सततं । ८ घ. ज. निर्जरा । ९ हं. वल्कलिभ्यश्च । १० च. 'चित्तस्मय' । ११ ज. 'विष' ।
Page #143
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ ३. ७२-७४ ]
यत् तु खलानां दुर्जनानां मुखानि वीक्ष्यन्ते विलोक्यन्ते । यत्तदोर्नित्यसंबन्धः । तत् किं कन्दरेभ्यः कन्दाः प्रलयमुपगताः क्षयं जग्मुः । वा अथवा गिरिभ्यः पर्वतेभ्यः निर्झराः प्रलयमुपगताः । वा अथवा वल्कलेभ्यस्तरुभ्यः शाखाः प्रध्वस्ताः विनाशमुपजग्मुः । किं० शाखाः ? । सरसफलभृतः सरसानि फलानि बिभ्रतीति सरसफलभृतः । किं० खलानां ? । प्रसभं यथा भवति ( तथा ) उपगतप्रश्रयाणां प्रोल्लसद्गर्वाणां । किं० मुखानि ? । दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयनशपवनानर्तितभ्रूलतानि दुःखेन उपात्तं उपार्जितं यदपं वित्तं तस्य स्मयवशपवनेन आ समन्ताद्भावेन नर्तिता भ्रूलता यैः तानि दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानर्तितभ्रूलतानि ॥ ७१ ॥ गङ्गातरङ्गकणशीकरशीतलानि विद्याधराध्युषितचारुशिलातलानि ।
२०८
स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि
यत् सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः ॥ ७२ ॥
मनुष्याः यत् सावमानपरपिण्डरता वर्तन्ते । तत् किं हिमवतः स्थानानि प्रलयं गतानि । किं० हिमवतः स्थानानि ? । गङ्गातरङ्गकणशीकरशीतलानि गङ्गायास्तरङ्गा गङ्गातरङ्गतः तेषां कणशीकरैः शीतलानि गङ्गातरङ्गकणशीकरशीतलानि । पुनः किं० हिमवतः स्थानानि ? विद्याधराध्युषितचारुशिलातलानि विद्याधरैरध्युषितानि सेवितानि अधिष्ठितानि चारुशिलातलानि येषां तानि । एवंविधानि स्थानानि चेत् न स्युस्तदा परतिरस्कारपिण्डरताः नराः भवेयुः । एतावता परावमानात् तान्येव स्थानानि सेवितानि वरम् ॥ ७२ ॥
यदा मेरुः श्रीमान् निपतति युगान्ताग्निनिहेतः
समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलयाः । धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता
शरीरे का वार्ता करिकलभकर्णाग्रचपले ॥ ७३ ॥
यदा श्रीमान् मेरुः युगान्ताग्निनिहतो ( हं. 'हितो ) निपतति । समुद्राः शुष्यन्ति ( हूं. पुष्यन्ति ) । किं० समुद्रा: : । प्रचुरनिकरग्राहनिलयाः प्रचुराश्च ते निकराः समूहाः [ ते.. सन्ति येषां तेषां ] ग्राहाणां जलचरजीवानां निलयाः गृहाणि येषु ते प्रचुरनिकरग्राहनिळ्याः । अपि पुनः धरा वसुंधरा अन्तं गच्छति विलयं व्रजति । किं० धरा ? | धरणिधरपादैः धृतापि अवलम्बितापि । तदा शरीरे का वार्ता । किं० शरीरे ? । करिकलभकर्णाग्रचपले करिकलभानां कर्णाग्रवत् चपलं करिकलभकर्णाचपलं तस्मिन् ॥ ७३ ॥
एकाकी निःस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः । कदा शंभो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥ ७४ ॥
१ ज, सदा । २ छ. 'निहितः ।
३ घ. छ. धृताः । ४. शंभुवि ।
Page #144
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३.७५-७७]
वैराग्यशतकम् [हे प्रभो ] हे शंभो! अहं एतादृशः कदा भविष्यामि । किं. अहम् ? । एकाकी अद्वितीयः। पुनः किं० अहम् ? । निस्पृहः । पुनः किं० अहम् ? । शान्तः । पुनः किं० अहम् ।। पाणिपात्रः पाणिरेव पात्रं भाण्डं यस्य स पाणिपात्रः । पुनः किं० अहम् ? । दिगम्बरः दिश एव अम्बरं यस्य असौ दिगम्बरः । पुनः किं० अहम् ? । कर्मनिर्मूलनक्षमः कर्मणां निर्मूलनं कर्मनिर्मूलन कर्मनिर्मूलने क्षमः कर्मनिर्मूलनक्षमः ॥ ७४ ॥
प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं
दत्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् । सन्मानिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं
कल्पं स्थितं तनुभृतां तनुभिस्ततः किम् ॥ ७५ ॥ श्रियो लक्ष्म्यः प्राप्ताः ततः किम् । किं० श्रियः ? । सकलकामदुधाः समस्तमनोरथदोग्ध्यः । विद्विषतां शिरसि मस्तके पदं दत्तं (ख. न्यस्तं) ततः किम् । प्रणयिनः स्नेहिनः विभवैर्धनैः सन्मानिताः ततः किम् । तनुभृतां प्राणिनां [ तनुभिः] शरीरैः कल्पं कल्पान्तं यावत् स्थितं प्राणितं ततः किम् । एतावता संसारस्य निर्ममतैव वरम् ॥ ७५ ॥
भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं __स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः । संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता
वैराग्यमस्ति किमतः परमार्थनीयम् ॥ ७६ ॥ अतः परं वैराग्यमस्ति । तत् किम् ? । भक्तिर्भवे महेशे । अन्यच्च हृदिस्यं मरणजन्मभयम् । अन्यच्च बन्धुषु स्नेहो न । अन्यच्च मन्मथजाः कामोद्भवा विकारा न । अन्यच्च वनान्ताः विजनाः जनरहिताः । किं० वनान्ताः । संसर्गदोषरहिताः संसर्गस्य दोषः संसर्गदोषः तेन रहिताः संसर्गदोषरहिताः । अतोऽपि वैराग्यं किमपि नास्ति । किं० वैराग्यम् ।। परमार्थनीयं परमत्तत्त्वयुक्तम् (हं. 'युतम् ) ॥ ७६ ॥
जीर्णा कन्था ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किं
एका भार्या ततः किं हेयकरिसुगणैरावृतो वा ततः किम् । भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरान्ते ततः किं ___ व्यक्तं ज्योतिर्न चान्तर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम् ॥७॥
१ घ. संमानिताः। २ ग. परमर्थ । ३ ज. परं पट्टकूल। ४ च. त्वेका; ज. 'एषा। ५ च. करितुरगगणैरा। ६ ख. वान्तं । हं. श्लोकोऽयं न दृश्यते । ख. जीणेति सुगमम् । च. अस्य टीका न ।
Page #145
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् [ ३.७८-८०.] तस्मादनन्तमजरं परमं विकाशि
तेद् ब्रह्म वाञ्छत जना यदि चेतनस्थाः। यस्यानुषङ्गिण इमे भवनाधिपत्य
भोगादयः कृपणलोकरता भवन्ति ॥ ७८ ॥ हे जनाः! यदि यूयं चेतनस्थाः तत तस्मात ब्रह्म वाञ्छत । किं. ब्रह्म ? । अनन्तं अन्तरहितं अजरं जरावर्जितं । पुनः किं० ब्रह्म ? । परमं विकाशि । यस्य परब्रह्मणः इमे भवनाधिपत्यभोगादयः अनुषङ्गिणो भवन्ति अनुयायिनो वर्तन्ते । किं० भवनाधिपत्यभोगादयः ? । कृपणलोकरताः तुच्छजनविभ्रमाः ॥ ७८ ।।
पातालमाविशसि यासि नभो विलय
दिग्मण्डलं भ्रमसि मानसचापलेन । भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथात्मनीनं
तद् ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ॥ ७९ ॥ रे मूढ ! पातालमाविशसि । अन्यच्च नभः आकाशं विलय यासि । अन्यच्च दिग्मण्डलं भ्रमसि । केन ? । मानसचापलेन मानसस्य चापलं मानसचापलं तेन । जातु कदा चित् भ्रान्त्यापि तद् ब्रह्म कथं न स्मरसि । येन ब्रह्मणा निवृतिम् ( मातृकासु 'निर्वृत्ति') एषि मुक्तिं प्रामोषि । किं० ब्रह्म ? । आत्मनीनं । कोऽर्थः ? । आत्मने हितं आत्मनीनम् । पुनः किं० ब्रह्म । विमलं निर्मलम् ॥ ७९ ॥ ... रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो
धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तक्रियाः । व्यापारैः पुनरुक्तभुक्तविषयैरेवंविधेनामुना
संसारेण कदर्थिता वयमहो मोहान्न लज्जामहे ॥ ८० ॥ अहो इति दुःखे । अमुना एवंविधन संसारेण कदर्थिताः। कस्मात् ? । मोहात मौढ्यात् । कथं ? । न लज्जामहे । कैः ? । व्यापारैः । किं० व्यापारैः ? । पुनरुक्तमुक्तविषयैः पुनरुक्तानि पुनर्विहितानि यानि भुक्तानि भोजनानि अन्यच्च विषयाः तैः । बुधाः पण्डिताः जन्तवः प्राणिनः उद्यमिनः उद्यमवन्तो धावन्ति । किं. जन्तवः ? । तथैव पुनः पुनः निभृतप्रारब्धतत्तक्रियाः वारं वारं निभृताः प्रारब्धाः तत्तक्रिया यैस्ते । किं० कृत्वा ? । तां रात्रि मत्वा पुनः तथैव दिवसं मत्वा ज्ञात्वा । यतः प्रोक्तम्. १ ख. विकासि; ग. विशोकं । २ ग. तब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः। ३ ख." घ. भुवना। ४ग. मता। ५ छ. आत्मनीयं ।
Page #146
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३. ८१-८२]
वैराग्यशतकम् 'पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि मासः पुनरपि वर्षम् ।
पुनरपि वृद्धः पुनरपि बालः पुनरपि याति समेति च कालः ॥ १॥ एवंविधं संसारस्य स्वरूपं मत्वा तस्मात् संसारात् विरक्ता [बुधा ] एव भवन्ति न जडाः॥ ८०॥
महीशय्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता
वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः। स्फुरदीपश्चन्द्रो विरतिवनितासङ्गमुदितः
सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव ॥ ८१ ॥ शान्तो मुनिः सुखं यथा भवति [ तथा ] शेते । यस्य मुनेः महीशय्या शय्या पृथ्वीस्वापः शयनम् । यस्य मुनेर्विपुलमुपधानं गण्डूषः [?] भुजलता भुजवल्ली । चान्यत वितानं चन्द्रोदयः आकाशम् । अयमनुकूलः शीतलः [अनिलः] पवनः व्यजनं तालवृन्तः । चान्यत् चन्द्रः स्फुरद्दीपः । चान्यत् विरतिवनितासङ्गं प्रति उदितः। मुनिः क इव ? । नृप इव यथा नृपः । महीशय्या पृथ्वीशायिनी शय्या भवति । अन्यच्च विपुलोपधानो भवति विस्तीर्णगण्डूषो (ख. गण्डपो; च. 'गण्डशो ) भवति । चान्यत् । आकाशोपरि (हं. 'शं प्रति) मस्तकोपरि वितानं भवति । चान्यत् व्यजनानिलेन वीजितो भवति । अन्यच्च स्फुरद्दीपो भवति । अन्यच्च वनितासङ्गं प्रति उदितो भवति । किं० मुनिः ? । चान्यत् नृपः? । अतनुभूतिः । अतन्वी भूतिर्विभूतिर्यस्य [सः] । पक्षे लक्ष्मीः ॥ ८१ ॥
त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन् महाशासने . तल्लैब्धासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः ।
भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जम्भते • यत्स्वादाद् विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः ॥ ८२ ॥ • हे आत्मन् ! तत् परब्रह्म लब्धा (हं. ध्वा) भोगे रति मा कृथाः। यस्मिन परब्रह्मणि एव निश्चयेन त्रैलोक्याधिपतित्वं विरसं वर्तते । किं० परब्रह्मणि ? । महाशासने प्रौढमते । किं० भोगे? । आसनवस्त्रमानघटने । आसनं सिंहासनं सुखासनादि वस्त्राणि चीनांशुकपट्टकूलादि ( ? ०दीनि ) मानं महत्त्वाभिमानादि तेषां घटनं आसनवस्त्रमानघटनं तस्मिन् । एवंविधे भोगे का रतिः । कोऽपि स भोग एक एव परमो ब्रह्म नित्योदितः सन् उज्जृम्भते ।
१ ख. घ. मही शय्या रम्या; ग. च. मही रम्या शय्या। २ ग. शान्तं । ३. तल्लब्ध्वा । ४ ज. एष। ५ख. नित्योर्दितो। ६ हं. 'तोज़ुभते । ७ ख. घ. वशशास्; ग. विभवास्।
Page #147
--------------------------------------------------------------------------
________________
१९२
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् [३. ८३-८५] यत्वादात् यस्य ब्रह्मणो रसात् त्रैलोक्यराज्यादयो विषयाः विरसा भवन्ति मोक्षादाय (हं. 'यि ) कत्वात् ॥ ८२ ॥
किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः ___वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः । मुक्त्वैकं भवभारदुःखरचनाविध्वंसकालानलं
खात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः ॥ ८३ ॥ वेदैः किं, स्मृतिभिः किं, पुराणपठनैः किं, शास्त्रैः किम् । किं० शास्त्रैः । महाविस्तरैः महान् विस्तरो येषां ते महाविस्तरास्तैः । [अन्यच्च ] कर्मक्रियाविभ्रमैः किम् । किं० कर्मक्रियाविभ्रमैः । स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदैः स्वर्गग्रामस्य कुटी स्वर्गग्रामकुटी तस्याः निवासफलं ददतीति स्वर्गग्रामकुटीनिवासफलदास्तैः । एकं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं मुक्त्वा ( छ. भव्यं)। स्वकीयोऽसौ आत्मा स्वात्मा तस्य यत् आनन्दपदं स्वात्मानन्दपदं तस्य प्रवेशकलनं स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं । [ किं० तत् ? । भवभारदुःखरचनाविध्वंसकालानलं ।] शेषाः क्रियाः वणिग्वृत्तयः वणिगाचरणम् ॥ ८३॥
आयुः कल्लोललोलं कतिपयदिवसस्थायिनी यौवनश्रीर्
अर्थाः संकल्पकल्पा घनसमयतडिद्विभ्रमा भोगेपूराः । कण्ठाश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत् प्रियाभिः प्रणीतं
ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम् ॥ ८४ ॥ हे उत्तमाः ! ब्रह्मणि परब्रह्मणि आसक्तचित्ता भवत (क. च. भवतु; ख. ग. घ. भवन्तु ) यूयं । किं कर्तुम् ? । भवभयाम्भोधिपारं तरीतुं । भवभयाम्भोधेः पारः भवभयाम्भोधिपारस्तम् । शेष समस्तमस्थिरम् । किं किम् ? । आयुः कल्लोललोलं समुद्रकल्लोलवच्चपलम् । यौवनश्रीः कतिपयदिवसस्थायिनी कतिपयदिवसान् स्थातुं शीलमस्याः सा कतिपयदिवसस्थायिनी। अर्थाः संकल्पकल्पाः संकल्पतुल्याः । भोगपूराः (छ. पूगाः) घनसमयतडिद्विभ्रमाः घनसमयतडिद्वत् विभ्रमो येषां ते घनसमयतडिद्विभ्रमाः । प्रियाभिः प्रणीतं यत् कण्ठश्लेषोपगूढं तदपि न चिरं । तस्मिन् कारणे परब्रह्म एव शाश्वतम् ॥ ८४॥
ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः।
शेफरीस्फुरितेनाब्धेः क्षुब्धता जातु जायते ॥ ८५ ॥ १ ग. भवबंध घ. भुवभार। २६ कालानिलं। ३ छ. भोगपूगाः। ४ ख. ग.. भवतु। ५ घ. शबरी ।
Page #148
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३.८६-८७ ]
वैराग्यशतकम्
११३
मनस्विनः जितेद्रियस्य ( इं . यतेंद्रियस्य ) ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय जायते । अपि तु न । ब्रह्माण्डस्य मण्डली ब्रह्माण्डमण्डली ब्रह्माण्डमण्डली एव मात्रा यस्य तत् ब्रह्माण्डमण्डली - मात्रम् । अब्धेः समुद्रस्य शफरीस्फुरितेन मत्सिकावेल्लनेन ( ख. वेलितेन ) जातु कदाचित् क्षुब्धता (च. क्षुद्रता ) क्षोभना ( छ. क्षोभमाना ) जायते । अपि तु न । तथा मनखिनः पुरुषस्य ब्रह्माण्डं लोभाय न जायते ॥ ८५ ॥
यदासीदज्ञानं स्मरतिमिर संस्कारजनितं तदा दृष्टं नारीमयमिदमशेषं जगदपि । इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां
समीभूता दृष्टिस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ॥ ८६ ॥
यदा यस्मिन् प्रस्तावे अज्ञानमासीत् तदा इदं अशेषं जगदपि मया नारीमयं दृष्टम् । किं लक्षणमज्ञानम् ? । स्मरतिमिरसंस्कारजनितं स्मरस्य कन्दर्पस्य यत् तिमिरमन्धकारः तस्य संस्कारेण पूर्वभवोद्भवपरिणामेन जनितम् । इदानीं सांप्रतं अस्माकं समीभूता दृष्टिः समतापरिणामेनालंकृतं चेतः त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते परब्रह्मरूपं विस्तारयति । किं० अस्माकम् ? | पटुतरविवेकाञ्जनजुषां प्रकृष्टः पटुः पटुतरः पटुतरो योऽसौ विवेकः पटुतरविवेकः [ स एव ] अञ्जनं पटुतरविवेकाञ्जनं तेन पटुतरविवेकाञ्जन(?ञ्जनेन जुषः ('? जुट् ) सेवनं येषां ते पटुतरविवेकाञ्जनजुषस्तेषाम् । अथ यथास्थितं संसारस्य स्वरूपं पश्यामः ॥ ८६ ॥
रम्याश्चन्द्रमरीचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थली
रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथोः । कोपोपाहितबाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं
सर्वं रम्यमनित्यतामुपगते चित्ते न किंचित् पुनः ॥ ८७ ॥
चन्द्रमरीचयो रम्याः । वनान्तस्थली रम्या । किं० स्थली ? । तृणवती शाद्वलवणयुता । •साधुसमागमः रम्यः । शमसुखं रम्यम् । काव्येषु कथा रम्याः ( हं. रम्या ) । अन्यच्च प्रियायाः मुखं रम्यम् । किं० मुखम् ? । कोपोपा हितबाष्पबिन्दुतरलं कोपोपाहितं कोपाटोपनिवेशितं यद् बाष्पबिन्दु तेन तरलं चञ्चलं कोपोपाहितबाष्पबिन्दुतरलम् । पुनः अनित्यतां उपगते संप्राप्ते चित्ते सर्व रम्यं न किंचित् ॥ ८७ ॥
भिक्षाशी जनमध्यसङ्गरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित् तपस्वी स्थितः ।
१ ख. समसुखं । २ हं. कथा ।
१५ शतकत्र•
Page #149
--------------------------------------------------------------------------
________________
११४
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् [३. ८८-९०] रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः संप्राप्तकन्थासखो
निर्मानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः ॥ ८८ ॥ एवंविधः तपस्वी कश्चिद् विरलः स्थितो वर्तते । कीदृशः? । भिक्षाशी भिक्षाभोजनः । पुनः किं० ?। जनमध्यसङ्गरहितः। पुनः किं० तपस्वी ? । सदा सर्वदा स्वायत्तचेष्टः स्वाधीनमानसपरिणामः । पुनः कीदृशः?। दानादानविरक्तमार्गनिरतः दानं च आदानं च दानादाने दानादानयोर्विरक्तमार्गः [तत्र निरतः सावधानः । ] पुनः कीदृशः। रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः संप्राप्तकन्थासखः रथ्यायाः क्षीणानि विशीर्णानि (हं. विस्तीर्णानि) जीर्णानि वसनानि रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनानि तैः कृत्वा संप्राप्ता कन्था सखी पत्नी सहायिनी येन सः । पुनः कीदृशः। निर्मानः नोमानी गर्वरहितः ब्रह्मज्ञः (च. छ. आत्मज्ञः)। पुनः किं०। निरहंकृतिः निरहंकारः। पुनः किं० । शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः शमस्य सुखं शमसुखं [ तस्य आभोगः अनुभवः तत्र ] शमसुखाभोगे विस्तारे एका बद्धा स्पृहा येन सः ॥ ८८॥ . , मातर् मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जल
भ्रातर् व्योम निबद्ध एष भवतामन्त्यप्रणामाञ्जलिः। युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्मल
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लीये परब्रह्मणि ॥ ८९ ॥ . हे मातः ! हे मेदिनि ! हे तात मारुत ! हे सखे तेजः ! हे सुवन्धो जल! (ख. ग. ज्वल) हे भ्रातर व्योम! भवतां पञ्चतत्त्वानां एषः अन्त्यप्रणामाञ्जलिः निबद्धोऽस्ति । तथाविधेयं यथा परब्रह्मणि लीये लीनो भवामि । किं० अहम् ।। युष्मत्सङ्गवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरनिर्मलज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा युष्माकं सङ्गः [ युष्मत्सङ्गस्तस्य वशस्तेन ] युष्मत्सङ्गवशेन उपजातो योऽसौ सुकृतोद्रेकः तस्य स्फुरनिर्मलज्ञानेन अपास्ता (? तो) निराकृता ( ? 'तः ) समस्तमोहमहिमा येन स युष्म० ॥ ८९॥
यावत् स्रस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत् क्षयो नायुषः । आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महान
आदीप्ते भवने तु कूपख ने प्रत्युद्यमः कीदृशः ॥ ९ ॥
१च. शमसुखो। २ ख. ग. च. सुबन्धोज्वल । ३ ग. अन्त्यः । ४ग. परे ब्रह्मणि । ५घ. स्वास्थ्यमिदं। ६ च. शरीरमरुजं । ७ ग. प्रोद्दीप्ते; हं. ज. उद्दीते। ८ख.. भुवने। ९ख. घ. न. हं. च. हि। १० क. ख. ग. घ. खनन ।
Page #150
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३.९१-९३]
वैराग्यशतकम् विदुषा पण्डितेन आत्मश्रेयसि स्वमोक्षोपाये (हं. ख. च. सुमोक्षाय ) तावदेव महान् प्रयत्नः कार्यः । [यावदिदं कलेवरगृहं शरीरमन्दिरं खस्थं वर्तते समाधानपरायणं वर्तते । चान्यत् । यावत् जरा दूरे वर्तते । चान्यत् यावत् इन्द्रियशक्तिः अप्रतिहता वर्तते । चान्यत् । यावदायुषः क्षयो नास्ति । तावदेव स्वहिते प्रयत्नः कार्यः।] [तु पुनः] भवने [आदी] (च. उद्दीपिते) सति प्रदीप्ते सति । (ख. च. हि निश्चितम् ) । कूप (हं. छ. प्रकूप) खनने कीदृशः प्रत्युद्यमः । ननु प्रदीपने प्रदीप्ते सति कूपं खनितुं न शक्यते ॥ ९०॥
नाभ्यस्ता भुवि वादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता
खड्गागः करिकुम्भपीठदलनैकिं न नीतं यशः। कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये
तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ॥ ९१ ॥ भुवि पृथिव्यां विद्या न अभ्यस्ता । किं० विद्या ?। वादिवृन्ददमनी । पुनः किं० विद्या ? । विनीतोचिता विनयवतः पुरुषस्य योग्या । खगाणैः कृपाणधाराभिः यशो नाकं स्वर्गलोकं प्रति न नीतम् । किं० खड्गाप्रैः ? । करिकुम्भपीठदलनैः करिणां कुम्भपीठं करिकुम्भपीठं तद्दलने शीलं येषां ते करिकुम्भपीठदलनास्तैः । चान्यत् । चन्द्रोदये कान्ताकोमलपल्लवाधररसो न पीतः । अहो इति खेदे । तारुण्यं यौवनं निष्फलमेव गतम् । किंवत् । शून्यालये दीपवत् ॥ ९१ ॥
ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं केषां चिदेतन्मदमानकारणम् । स्थानं विविक्त यमिनां विमुक्तये कामातुराणामतिकामकारणम्॥९१
सतां सत्पुरुषाणां ज्ञानं मानमदादिनाशनं भवति । केषां चिदधमानां एतत ज्ञानं मदमानकारणं भवति । अमुमेवार्थ कविदृष्टान्तेन द्रढयति। यमिनां मुनीनां विविक्तं स्थानं एकान्तप्रदेशः विमुक्तये भवति संसारोच्छेदनाय स्यात् । कामातुराणां पुरुषाणां तदेव विविक्तं . निर्जन (हं. नियंजनं ) जनरहितं [स्थानं] अतिकामकारणं भवति कामविकाराय स्यात् ॥१२॥
जीर्णा एव मनोरथाः खहृदये याँतं जरी यौवनं
हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां योता गुणज्ञैर्विना । किं युक्तं सहसाभ्युपैति बलवान् कालः कृतान्तोऽक्षमी ..
ह्याज्ञातं त्रिपुरान्तकाङ्गियुगलं मुक्त्वाऽस्ति नान्या गतिः ॥९३ १ज. 'दन्तिदमनी। २ ज. दन्तदलनैः। ३ ख. घ. नीतं न नाकं। ४६. क. ग. निम्फल। ५. विमुक्त। ६ ग. सुहृदये। ७ ख. घ. ज. जातं; छ. व्याप्तं । ८क. 'जरा। ९ख. घ. जाता। १० घ. कामः। ११ ख. ग. च. ह्याझानं घ. शशान । १२ ज. युगुलं। १३ ग. मुक्तास्ति ।
Page #151
--------------------------------------------------------------------------
________________
११६
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् _ मनोरथाः स्वहृदये जीर्णाः एव । यौवनं [जरां यातं ] जराव्याप्तम् । हन्तेति खेदे । चान्यत् । गुणा [ अङ्गेषु ] वन्ध्यफलतां गुणविना जाताः । अक्षमी बलवान् कालो यमः सहसा अभ्युपैति । किं युक्तम् ? | हि निश्चितम् । आज्ञातम् आ समन्ताद्भावेन ज्ञातं । [ किम् आज्ञातम् ?।] त्रिपुरान्तकाझियुगलं मुक्त्वा अन्या गतिनास्ति । किं० कालः ? । कृतान्तः कृतोऽन्तो येन सः कृतान्तः ॥ ९३ ॥
तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादुसुरभि
क्षुधातः सञ् शालीन् केवलयति शाकादिवलितान् । प्रदीप्ते रागाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं . प्रतीकारो व्याधेः सुखमिव विपर्यस्यति जनः ॥ ९४ ॥ - प्राणी सलिलं पानीयं पिबति । क्व सति ? । आस्से वदने तृषा शुष्यति सति । किं० सलिलम् ? । स्वादुसुरभि । प्राणी क्षुधार्तः सन् शालीन कवलयति अत्ति । किं० शालीन् ? । शाकादिवलितान् । प्राणी रागानौ प्रदीप्ते सति सुदृढतरं यथा भवति वधूं भार्या आश्लिष्यति आलिङ्गते । जनः प्राणी व्याधेः प्रतीकारः उपचारः [ योऽस्ति तं] सुखमिव विपर्यस्पतिः विपर्यासं करोति ।। ९४ ॥ ... स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो त्वां
ध्येये ध्यानं निवेय क्षितिधरकुहरग्रावपर्यङ्कले । आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात् स्मरारे
दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तव चरणरतो ध्यानमार्गप्रश्नः ॥ ९५ ॥ - हे स्मरारे ! कदा दुःखान्मोक्ष्ये । किं कृत्वा ? । गाङ्गैः पयोभिः (है. ख. च. त्यां) स्नात्वा। हे विभो! चान्यत् शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा । पुनः किं कृत्वा । क्षितिधरकुहरग्रावपर्यङ्कमूले ध्येये कर्मणि ध्यानं निवेश्य । क्षितिधरस्य कुहरं क्षितिधरकुहरम् । क्षितिधरकुहरस्य यत् प्रावं तदेव पर्यंकं तस्य यन्मूलं [ तत् ] क्षितिधरकुहरगावपर्यङ्कमूलं तस्मिन् । किं० अहम् ? । आत्मारामः। पुनः किं० अहम् ? । फलाशी। पुनः किं० अहम् ।। त्वत्प्रसादाद् गुरुवचनरतः। पुनः किं० अहम् ? । ध्यानमार्गकप्रश्न: (घनः, प्रश्नः)। [पुनः किं० अहम् ।।] तव चरणरतः ॥९५॥ . शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरूणां त्वचः।
सारङ्गाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कोमलैः। . १ ज. कुवलयति । २ च. सुहृदतर । ३ ग. सुखमिति। ख. ग. घ. नियोज्य । ५हं. मूलं। ६.ग. रामोपलीनो। ७छ. दुःखान् । ८ख. मोक्षे कदाहं, घ. मोक्षकदाह। ९च. प्रश्नः; हं. छ. ज. °घनैः।
Page #152
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३.९६-९८]
वैराग्यशतकम् । येषां 'नैझरमम्बु पानमुचितं रत्यैवे विद्याङ्गना
मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवाञ्जलिः ॥ ९६ ॥ येषां पुरुषाणामेवंविधा स्थितिः, अहमेवं मन्ये त एव परमेश्वराः । सा का स्थितिः।। शैलशिला शय्या। गिरिगुहा गृहम् । तरूणां त्वचो वस्त्रम् । सुहृदः सारङ्गाः। ननु निश्चितं क्षितिरुहां वृक्षाणां कोमलैः फलैः वृत्तिः । नैझरमम्बु पानं । एव निश्चयेन रत्या सह उचितम् अङ्गना विद्या । येषामिति स्थितिः ते ईश्वराः यैः शिरसि सेवाञ्जलिन बद्धः ॥९६ ॥
सत्यामेव त्रिलोकीसरिति हरशिरश्चुम्बिनीविच्छटायां - सद्वृत्तं कल्पयन्त्यां तटविटपिभवैवल्कलैः सत्फलैश्च ।
कोऽयं विद्वान् विपत्तिज्वरजनितरुजाऽतीव दुःखासिकानां वक्त्रं वीक्षेत दुःस्थे यदि हि न बिभृयात् खे कुटुम्बेऽनुकम्पाम् ॥ ९७॥
हि निश्चितम् । यदि चेत् दुःस्थे (हं. दुखे) स्वे] स्वकीये कुटुम्बेऽनुकम्पां कृपां न बिभृयात् । यत्तदोर्नित्यसंबन्ध इति न्यायात् । तदा कोऽयं विद्वान् अतीव दुःखासिकानां नारीणां वक्त्रं वीक्षेत । अपि तु न कोऽपि । विपत्तिज्वरजनितरुजा विपत्तिरेव ज्वरः विपत्तिज्वरः विपत्तिज्वरेण जनिता रुक् विपत्तिज्वरजनितरुक् तया । कस्यां सत्याम् । त्रिलोकीसरिति गङ्गायां सत्यामेव । किं० सरिति । हरशिरश्चम्बिनीविच्छटायां हरशिरश्चम्बिनी ईश्वरमस्तकस्पर्शिनी (ख. च. 'कस्य रशनी) नीविच्छटा काञ्चीप्रदेशो यस्याः सा हरशिरश्चुम्बिनीविच्छटा तस्याम् । पुनः किं० त्रिलोकीसरिति ।। सद्वत्ते सदाचारे कल्पयन्त्यां प्रेरयन्त्यां। कैः ? । सत्फलैः। चान्यत् । वल्कलैः । किं० सत्फलैः वल्कलैः ? । तटविटपिभवैः तटवृक्षोद्भवैः ॥९७ ॥ : उद्यानेषु विचित्रभोजनविधिस्तीवातितीव्र तपः
कौपीनावरणं सुवस्त्रममितं भिक्षाटनं मण्डनम् । आसन्नं मरणं च मङ्गलँसमं यस्यां समुत्पद्यते
तां कौशी परिहत्य हन्त विबुधैरन्यत्र किं स्थीयते ॥ ९८॥ तां काशी (ह. कासी) परिहत्य (हं. च. छ. "त्यक्त्वा )। हन्त इति खेदे । विबुधैः किं अन्यत्र स्थीयते । अपि तु न । यस्यां काश्यां उद्यानेषु विचित्रभोजनविधिः । चान्यत् । तीवातितीव्र तपः। चान्यत् सुवस्त्रं कौपीनावरणं मण्डनम् । चान्यत् यस्यां अमि[तं भिक्षाटनम् । चान्यत् । यस्यां ] काश्यां मङ्गलसमं आसन्नं मरणं समुत्पद्यते । तां काशी मुक्त्वा अन्यत्र कथं स्थीयते ॥ ९८ ॥
१ख. घ. च. निर्झरम् । २ ख. ग. रत्येव । ३ च. सदृत्तां; छ. सदृत्ते; ज. सवृत्तं । ४ख. तटविटप; हं. च. वटविटपि; छ. ज. वटविटप। ५ ख. च. छ. वीक्ष्येत । ६ख. च. दुःस्थे, ग. दुत्थो। ७च. °लमयं । ८हं. कासीं।
Page #153
--------------------------------------------------------------------------
________________
११८
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् [३. ९९-१०१] नायं ते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि
स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः । चेतेस्तानपहाय योहि भवनं देवस्य विश्वेशितुर्
निदीवारिकनिर्दयोक्त्यरुषं निःसीमशर्मप्रदम् ॥ ९९॥ यदि प्रभुः खामी येषां वचो द्वारेषु श्रुत्वा स्थित्वा इति द्रक्ष्यति कुप्यति । इतीति किम् । नायं ते समयः संप्रति प्रस्तावो नास्ति । अधुना रहस्यं मन्त्रालोचनाद्यः (हं. लोचः ।) [नाथ:] स्वामी निद्राति प्रमीलां कुरुते । रे चेतः! तान् प्रभूनपहाय विश्वेशितुः परमेश्वरस्य महेशस्य भवनं याहि । किं० भवनम् ? । निर्दोवारिकनिर्दयोक्त्यपरुषम् । कोऽर्थः । निर्गतो दौवारिको यस्मात् तन्निौवारिकं प्रतीहाररहितम् । निर्दयोक्त्या कठोरोक्त्या अपगतो रुट् कोपो यस्मात् तत् निर्दयोक्त्यपरुषं निर्दोवारिकं च निर्दयोक्त्यपरुषं च तत् । पुनः किं० १ । निःसीमशर्मप्रदम् निःसीम सीमाहीनं शर्म सौख्यं प्रददातीति [तत् ] निःसीमशर्मप्रदम् । अनर्गलसौख्यदायकमित्यर्थः ।।९९॥
प्रियसैखि विपदण्डवांतपातपरंपरा
परिचयचले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः । मृदमिव बलात् पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवत् ___ भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ॥ १० ॥
हे प्रियसखि ! (ख. सखे) खलो विधिः पराङ्मुखो दैवः नो जानीमः अत्र इदानीं किं विधास्यति । अयं विधिः चिन्ताचके निधाय बलात् पिण्डीकृत्य मनो भ्रमयति । किं० चिन्ताचक्रे ?। विपद्दण्ड [बात ] प्रपातपरंपरापरिचयचले विपदेव दण्डः विपद्दण्डः तम्य या प्रपातपरंपरा तस्याः परंपरायाः परिचयस्तेन चलश्चञ्चलः विपद्दण्डप्रपातपरंपरापरिचयचलस्तस्मिन् । मनः कमिव ? । मृदमिव । विधिः क इव ? । प्रगल्भकुलालवत् । यथा प्रगल्भकुलालः मृदं मृत्तिका बलात् पिण्डीकृत्य चक्रे निधाय भ्रमयति । एतावता विपरीतविधेः विलसितं कोऽपि न वेत्ति ॥ १०० ॥ - महेश्वरे वा जगतां महेश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि ।
नं भेदहेतुः प्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे ॥१०॥
मे मम महेश्वरे वा अथ वा जनार्दने वासुदेवे मेदहेतुः प्रतिपत्तिर्नास्ति । किं० महेश्वरे ?। जगतां महेश्वरे त्रिभुवनस्य अधिपतौ । किं० जनार्दने ? । जगदन्तरात्मनि जगतां
१. ख. ग. ज. द्रक्षति । २ ज. ते च स्थानप। ३ ग. पाहि। ४ छ. पुरुषं ।। ५ग. प्रियसख। ६ हं. ग. च. छ. ज. कोशेषु 'वात' इति नास्ति । ७ ज. प्रताप । ८घ. खलु। ९ ग. तामधीश्वरे। १० ख.ग. घ. तयोर्न भेदः; च. नो भेदहेतुः।
Page #154
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३. १०२-१०३] . वैराग्यशतकम् विश्वत्रयाणां अन्तरात्मा जगदन्तरात्मा तस्मिन् । उभयोर्दैवयोर्मम चेतस्यन्तरं नास्ति । तथापि एवं सत्यपि तरुणेन्दुशेखरे श्रीमहेशे मम भक्तिः (छ० एषा मिथ्यात्विनामुक्तिः) ॥१०१॥
रे कन्दर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटङ्कारवैः ।।
रे रे कोकिल कोमलैः कलरवैः किं त्वं वृथा जल्पसि। . मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षरलं
चेतश्चुम्बितचन्द्रचूडचरणध्यानामृतं वर्तते ॥१०२ ॥ रे कन्दर्प ! कोदण्डटङ्कारवैः करं किं कदर्थयसि । रे रे कोकिल ! कोमलैः कलरवैः पञ्चमस्वरैः (त्वं) किं वृथा जल्पसि । हे मुग्धे ! त्वं ( १ तव ) कटाक्षैरलं पूर्यताम् । किं० कटाक्षः ? । स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरक्षेपैः स्निग्धश्च विदग्धश्च मुग्धश्च मधुरश्च क्षेपो येषां ते स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरक्षेपाः तैः । भवताम् पूर्वोक्तानां कृतं निखिलं अपि व्यर्थम् । अस्माकं चेतः चुम्बितचन्द्रचूडचरणध्यानामृतं वर्तते । चुम्बितं चन्द्रचूडस्य महेशस्य चरणध्यानामृतं येन तत् चुम्बितचन्द्रचूडचरणध्यानामृतम् ॥ १०२॥ । कौपीनं शतखण्डजर्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी
निश्चिन्तं सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने । .. मित्रामित्रसमानतातिविमला चिन्ताऽथ शून्यालये
ध्वस्ताशेषमैदप्रमादमुदितो योगी सुखं तिष्ठति ॥ १०३ ॥ योगी सर्वसङ्गपरित्यागी सुखं तिष्ठति । किं० योगी ? । ध्वस्ताशेषमदप्रमादमुदितः ध्वस्ता निराकृताः अशेषाः मदप्रमादा येन स ध्वस्ताशेषमदप्रमादस्तेन मुदितः ध्वस्ताशेषमदप्रमादमुदितः । यस्य योगिनः शतखण्डजर्जरतरं कौपीनम् । पुनः कन्था तादृशी पूर्वोक्ता शतखण्डजर्जरतरा । निश्चिन्तमशनम् । किं० अशनम् ? । सुखसाध्यभैक्ष्यम् सुखेन साध्यं सुखसाध्यम् एवंविधायाः भिक्षायाः समुत्पन्नं सुखसाध्यभैक्ष्यम् । अन्यच्च शय्या श्मशाने वने वनान्ते । तथा मित्रामित्रसमानता मित्रश्च अमित्रश्च मित्रामित्रौ मित्रामित्रयोः सादृश्यं माननं (ख. सामान्यं) मित्रामित्रसमानता । अथ पश्चात् शून्यालये अतिविमला अतिनिर्मला शुक्लध्यानलक्षणा चिन्ता । अतः कारणात् योगी निर्मुक्तः संसारे सुख (हं. छ० न) तिष्ठति ॥ १०३ ॥
भोगा भङ्गुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवस्
- तत् कस्यैव कृते परिभ्रमत रे लोकाः कृतं चेष्टितैः । . १ ग. जहरतरं; च. जर्जरतरा। २ म. घ. निश्चिन्त्यम् । ३ घ. मुदप्रमोद । ४ छ. त्यक्तस्येव; हं. तत्कस्येव ।
Page #155
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२०
भर्तृहरिकृत शतकत्रयम् [३. १०४-१०६] आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां ___कामोच्छित्तिवशे खधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः॥१०४॥
रे लोकाः ! चेष्टितैः नवनवविकल्पव्यापारैः कृतं पूर्यताम् । यदि चेदस्मद्वचः श्रद्धेयं श्रद्धायोग्यं श्रद्धेयं अनुमत्य(?मान्य)मित्यर्थः, तदा खधामनि स्वकीयशरीरमन्दिरे कामोच्छिचिवशे कन्दर्पजयार्थ केवलं चेतः समाधीयताम् । किं० चेतः ? । आशापाशशतोपशान्तिविशदम् आशापाशस्य शतं आशापाशशतं तस्य उपशान्त्या विशदं निर्मलं आशापाशशतोपशान्तिविशदम् । यतो भोगा भङ्गुरवृत्तयः भङ्गुरा विनश्वरा वृत्तिर्येषां ते भङ्गुरवृत्तयः । किं० भोगाः? । बहुविधाः अनेकप्रकाराः एव निश्चयेन । बहुविधैर्भोगैः अयं भवः संसार एव । रे लोकाः ! तत् कस्मात् कारणात् कस्य कृते परिभ्रमत बंभ्रमणं कुरुत ॥ १०४ ॥
धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायताम्
आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः । अस्माकं तु मनोरथैः परिचितप्रासादवापीतट
क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥१०५॥ धन्यानां मनुष्याणां एवंस्थित्या आयुः परिक्षीयते । किं० धन्यानाम् ? । गिरिकन्दरे निवसताम् । धन्यानां किं कुर्वताम् ? । परं ज्योतिायताम् । येषां धन्यानां आनन्दाश्रुजलं निःशङ्कं शङ्कारहितं शकुनाः पक्षिणः पिबन्ति । किं० शकुनाः ? । अङ्केशयाः उत्सङ्गसमारूढाः । तु पुनः अस्माकं अधन्यानां आयुरेवं मनोरथैः परिक्षीयते । किं. अस्माकम् ! । परिचितप्रासादवापीतटक्रीडाकाननलिकौतुकजुषां परिचिता याः प्रासादवापीतटक्रीडाकाननकेलयस्तासां कौतुकैः जुषन्तीति [ परिचित ] प्रासादवापीतटक्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषस्तेषाम् ॥ १०५॥
आघातं मरणेन जन्म जरयाऽप्यत्युज्वलं यौवनं
संतोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः। लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैर्
अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं के जनाः ॥१०६॥ एभिः प्रकारैः किं न ग्रस्तम् । अन्यच्च के जनाः न ग्रस्ताः । मरणेन जन्म आघ्रातं स्पृष्टमित्यर्थः । अत्युज्वलं यौवनं जरया आघ्रातं स्पृष्टम् । धनलिप्सया संतोषः आघ्रातः । प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः शमसुखं आघातम् निरस्तं (हं. छ. ग्रस्तम् ) । मत्सरिभिर्लोकः गुणाः आघ्राताः विनाशिताः । व्यालैः दुष्टगजैः वनभुव आघ्राताः । दुर्जनैर्नृपाः भूपालाः आघाताः प्रस्ताः । विभूतिरपि अस्थैर्येण आघ्राता अपहृता इत्यर्थः । तर्हि कालेन किं किं न विनष्ट किं किं न विनक्ष्यति ॥ १०६ ॥
१ ग. मनोरथोपरि । २ हं. च. ज. परं क्षीयते। ३ ग. विद्युञ्चलं; हं. 'प्युत्युज्ज्वलं। ४ ग. नृपो। ५ग. धृतिर्जगत्यपहृता। ६ ग. केन वा ।
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
[३.१०७-१०८] वैराग्यशतकम्
१२१ आधिव्याधिशतैर्वयस्यतितरामारोग्यमुन्मूल्यते । - लक्ष्मीर्यत्र पैतत्रिवच्च विवृतद्वारा इव व्यापदः। जातं जातमवश्यमाशु विवशं मृत्युः करोत्यात्मसात्
तत् किं केन निरङ्कुशेन विधिना यन्निर्मितं सुस्थितम् ॥१०७॥ नाम इति संबोधने । तत् किम् यत् निरङ्कुशेन निराशकेन [ केन अव्यवस्थितेन ] विधिना दैवेन सुस्थितं निर्मितम् । किं तत् । वयसि शरीरे आधिव्याधिशतैः अतितरां अतिशयेन आरोग्यमुन्मूल्यते । तत्र आधिर्मानसी पीडा व्याधी रोगसमुद्भवा । चान्यत् । [यत्र] अय)स्मिन् दैवनिर्माणे लक्ष्मीः पतत्रिवत् पक्षिवत् पतनस्या (स्था)ना वर्तते। व्यापदः विवृतद्वारा इव उद्घाटितकपाटा इव वर्तन्ते। अवश्यं निश्चितं आशु .शीघ्रं मृत्युर्यमः जातं जातं उत्पन्नमुत्पन्नं आत्मसात् करोति आत्मायत्तं विधत्ते । ततः अस्य दैवस्य निर्माणे किमपि व्यवस्थितं स्थिरं नास्तीत्यागमः ॥ १०७॥
कृच्छ्रेणामध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भमध्ये
कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने विप्रयोगः । नारीणामप्यवज्ञा विलसति नियतं वृद्धभावोऽप्यसाधुः
संसारे रे मनुष्या वैदत यदि सुखं खल्पमप्यस्ति किंचित्॥१०॥ - रे मनुष्याः वदन्तु (१ त) कथयन्तु (? त) । यदि चेत् संसारे खल्पमपि सुखं किंचिदस्ति । गर्भमध्ये कृच्छेण कष्टेन नियमिततनुभिः संकोचितशरीरैः स्थीयते । किं. गर्भमध्ये ।। अमेध्यमध्ये अमेध्यं मध्ये यस्य तदमेध्यमध्यं तस्मिन् । अस्मिन् संसारे यौवने विप्रयोगः । किं० यौवने ? । कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे कान्तायाः विश्लेषः कान्ताविश्लेषः तस्य योऽसौ दुःखव्यतिकरस्तेन विषमः (छ. निकरः) कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषम• स्तस्मिन् । अपि पुनः नारीणामवज्ञा अवगणनं विलसति । अपि पुनः नियतं निश्चितं वृद्धभावः असाधुः । अस्मात् कारणात् संसारे किमपि साख्यं नास्ति ॥ १०८॥ ..
आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्ध गंतं . तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बोलत्व-वृद्धत्वयोः ।
१ ग. जनस्य विविधैः। २ ख. ग. घ. उन्मील्यते। ३ ग. पतन्ति तत्र । ४ ख. घ. सस्थिरम। ५ग. विषमो। ६क. विलसितनि: ग. वसतिरनि। ७छ. वदत। दग. स्वल्पमल्पस्ति । ९ ज. कृतं; हं. तदर्धाकृतं । १० ख. घ. कदाचिदर्धमधिकं । ११ ख. वृद्धत्वबाल्ये गतम्। घ. ज. बाल्यत्ववृद्धत्वयोः ।
१६ शतकत्र.
Page #157
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२२
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[२.१०९-११०]
शेषं व्याधिवियोग दुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते
जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ॥ १०९ ॥
[ जीवे जीवितव्ये ] प्राणिनां सौख्यं कुतः । कथम् ? । नृणां मनुष्याणां आयुर्वर्षशतं परिमितम् । [ तदर्ध ] तस्यायुषो वर्षशतप्रमाणस्यार्धं रात्रौ गतं शयानस्य ( छ. शयितस्य ) । ततोऽनन्तरं शेषं पञ्चाशत् । तस्यार्धस्य पञ्चाशदर्धस्य कदाचिदप्यधिकमर्धमपि बाल्य (ल) त्ववृद्धत्वयोर्गतम् । शेषं आयुः व्याधिवियोगशोकसहितं सेवादिभिः कर्मभिर्नीयते । किं० जीवितव्ये ! । वारितरङ्गचञ्चलतरे वारिणः समुद्रस्य [ तरङ्गा ] वारितरङ्गास्तद्वत् चञ्चलतरः वारितरङ्गचञ्चलतरस्तस्मिन् ॥ १०९ ॥
[This is the real end of the original Dhanasara commented version. But the codex continues beyond, while some of the others as indicated, various (different) additional stanjas without any commentary at all ].
अभिमतमहामानग्रन्थिप्रभेदपटीयसी
गुरुतरगुणग्रामाम्भोजस्फुटोज्वलचन्द्रिका |
विपुलविलसल्लज्जावल्लीविदारकुठारिका
जठरपिठरी दुःपूरेयं करोति विडम्बनाम् ॥ ११० ॥
इयं दुःपूरा जठरपिठरी उदरकोष्ठिका विडम्बनां करोति प्राणिनां विगोपयति । किं० जठरपिठरी ? | अभिमतमहामानग्रन्थिप्रभेदपटीयसी अभिमतः स्तुत्यः योऽसौ महामानग्रन्थिः तस्य [प्र]मेद(१दे)विदारणे पटीयसी समर्था । पुनः किं० जठरपिठरी । गुरुतरगुणग्रामाम्भोजस्फुटोलचन्द्रिका गुरुतरो योऽसौ गुणग्रामः तान्येव ( ? स एव ) अम्भोजानि तेषां संकोचे स्फुटा प्रकटा उज्ज्वला चन्द्रिका । यथा चन्द्रिकायां प्रोल्लसितायां अम्भोजानि कमलानि संकोच - मामुवन्ति तथा अस्या जठरपिठर्याः [ कारणात् ] गुणग्रामाः संकोचं प्राप्नुवन्ति । पुनः किं० जठरपिठरी ! । विपुलविलसल्लजावल्ली विदारकुठारिका विपुला विस्तीर्णा विलसन्ती या लज्जावल्ली तस्याः विदारे विदारणे कुठारिका विपुलविलसल्लज्जावल्ली विदारकुठारिका । एवंविधेन जठरेण विडम्बितं जगत् ॥ ११० ॥
अथ तृष्णातरङ्गितचेतसः परिणाममाह
"ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुःकरं
यन्मुच्य(?ञ्च)न्त्युपभोगभाज्यपि धनान्येकान्ततो निःस्पृहाः ।
१ हं. ज. 'विदेश । २ ख. धर्मः । ३ख. घ. च. छ. कोशेष्वपि दृश्यते, न तु टीकायाम् । ४ ख. टोदय । ५ग. च. छ. Baroda 1781 कोशेषु दृश्यते ।
Page #158
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२३
[३. १११-१११] वैराग्यशतकम्
न प्राप्तानि पुरा न संप्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययाः ... वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्ता वयम् ॥१११॥
. अहो इति आश्चर्ये । अमलधियो निर्मलबुद्धयो दुःकरं कुर्वन्ति । दुःखेन क्रियत इति दुःकरम् । यत् केनापि तुच्छजनेन कर्तुं न शक्यते तदमलधीभिः क्रियते । किं वि० अमलधियः । ब्रह्मज्ञानविवेकिनः परब्रह्मस्वरूपवेत्तारः । दुःकरं किं कुर्वन्ति ? । यत् यस्मात् कारणात् ते अमलधियः एकान्ततो निःस्पृहाः संतः धनानि मुश्चन्ति । किं० धनानि ? । उपभोगभाज्यपि परिभोगं गतवन्त्यपि । तानि धनानि पुरा पूर्व न प्राप्तानि । चान्यत् [न]संप्रतीदानीं । तस्य ऋद्धेः प्राप्तौ न दृढप्रत्ययाः। परं तथापि वयं [वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि] वाञ्छामात्र[स्य] मनोरथमात्र[स्य] परिग्रहाण्यपि त्यक्तुं न शक्ताः न समर्थाः ॥ १११ ॥
'व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्कयन्ती . .. रोगाश्च शत्रव इव प्रविशन्ति देहम् । आयुः परिश्र(?स्र)वति भिन्नघटादिवाम्भो
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम् ॥११२॥ इति चित्रम् । लोकः तथापि अहितं पापं आचरति । तथापि किम् ? । जरा परिसर्कयन्ती हेरयन्ती तिष्ठति । जरा केव ? । व्याघ्री इव । यथा व्याघ्री जीवान् परितर्कयन्ती तिष्ठति । चान्यत् । रोगाः देहं प्रहरन्ति । रोगाः क इव ? । शत्रव इव यथा शत्रवः प्रहरन्ति । आयुः परिश्र(स्रवति । आयुः किमिव ? । भिन्नघटादम्भ इव । यथा भमघटात् अम्भः परिश्र(स)वति तथा आयुरपि । तथापि लोकाः संसारं सारमेव चिन्तयन्ति ॥ ११२ ॥
भोगास्तुङ्गतरङ्गभङ्गचपलाः प्राणाः क्षणध्वंसिनः ___ स्तोकान्येव दिनानि यौवनसुखप्रीतिः प्रियेषु स्थिता । . तत् संसारमसारमेव निखिलं बुद्ध्वा बुधान् बोधये
लोकानुग्रहपेशलेन मनसा यत्नः समाधीयताम् ॥११३॥ तत् तस्मात् कारणात् अहं बुधान् पण्डितान् बोधये । किं कृत्वा ?। निखिलं असारमेव संसारं बुद्ध्वा । हे जनाः! लोकानुग्रहपेशलेन मनसा यत्नः समाधीयताम् । लोकानामनुग्रहः लोकानुग्रहस्तेन पेशलं मनोज्ञं लोकानुग्रहपेशलं तेन । भोगास्तुङ्गतरङ्गभङ्गचपलाः । तुझानां तराना(?णां)कल्लोलानां ये भङ्गा रचनास्तद्वचपलास्तुङ्गतरङ्गभङ्गचपलाः । अन्यच्च । प्राणाः क्षणध्वंसिनः क्षणेन क्षणमात्रेण ध्वंसो विध्वंसो विद्यते येषां ते क्षणध्वंसिनः । यौवनसुखप्रीतिः • प्रियेषु वल्लभजनेषु स्तोकानि दिनानि स्थिता ।। ११३ ॥
१ ख. ग. च. छ. ज. कोशेषु दृश्यते। २ च. छ. ज. कोशेषु दृश्यते ।
Page #159
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[३. ११४-११६]
1
सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः । तदनु तत्क्षणभङ्ग करोति चेदहह कष्टमपण्डितता विधेः ॥ ११४ ॥ अह ह कष्टम् । विधेर्देवस्य अपण्डितता विलोक्यतां मौढ्यं निरीक्ष्यताम् । तावत् पूर्वं अशेषगुणाकरं पुरुषरत्नं सृजति । किं० पुरुषरत्नम् ? । भुवः पृथिव्या अलंकरणं भूषणम् । चेत् यदि भूषणं तदपि पुरुषरनं [ तत्क्षणभङ्ग ] तत्क्षणमेव भनि करोति तत्कालं भङ्क्ते । तदा विधेर्मोढ्यमेव । चेत् तादृशं पुरुषरत्नं वसुधामण्डले अमरत्वं न प्राप्नोति तदा चिरजीव्यपि वरम् ॥११४॥ * जातः कूर्मः स एकः पृथुभुवनभरायार्पितं येन पृष्ठं
२२४
श्लाघ्यं जन्म ध्रुवस्य भ्रमति नियमितं यत्र तेजखिचक्रम् । संजातव्यर्थ पक्षाः परहितकरणे नोपरिष्टान्न चाधो
ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तर्मशकवदपरे जन्तवो जातनष्टाः ॥ ११५ ॥
स कूर्मः एक एव जातः येन पृथुर्भुवनभराय विशालपृथ्वीमण्डलभाराय पृष्ठं अर्पितम् । ध्रुवस्य ध्रुवमण्डलस्य जन्म श्लाघ्यम् । यत्र यस्मिन् ध्रुवे नियमितं नियन्त्रितं तेजस्विचक्रं भ्रमति । तावन्तरेणापरे जन्तवः ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तः मशकवत् जातनष्टाः वर्तन्ते । ब्रह्माण्ड एव [3]दुम्बरः ब्रह्माण्डोदुम्बरः तस्यान्तर्मध्ये ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तः मशकपक्षिवत् जाताश्च नष्टाश्च जातनष्टाः । किं० अपरे जन्तवः ? । परहितकरणे परवाञ्छितपूरणे न उपरिष्टात् चान्यनाधः । [ पुनः किं० जन्तवः ? | ] संजातव्यर्थपक्षाः संजातः समुत्पन्नः व्यर्थो निरर्थकः पक्षो येषां ते संजातव्यर्थपक्षाः । उभयोरपि पक्षयोरिहलोकपरलोकलक्षणयोः एकोऽपि न किंचित् ॥ ११५ ॥
"क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः
क्षणं वित्तैर्हीनः क्षणमपि च संपूर्णविभवः ।
जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव वलीमण्डिततनुर्
नरः संसाराङ्के विशति यमधानीयव निकाम् ॥ ११६ ॥
नरः प्राणी संसाराङ्के भवोत्सङ्गे यमधानीयवनिकां तिरस्करणीं विशति प्रविशति । कि० नरः ? । जराजीर्णैरङ्गैर्वलीमण्डिततनुर्नट इव वर्तते । किं कृत्वा ? | क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा भूत्वा । किं० युवा ? । कामरसिकः कामस्य रसेन वर्तत इति कामरसिकः । तेन दीव्यति संश्लिष्टं तरतीकण् चरत्यपि इकण् प्रत्ययः । पुनः किं कृत्वा ? । वित्तैर्हीनो अपि च क्षणं संपूर्णविभवो भूत्वा । यममन्दिरे प्रविष्टो भवति ॥ ११६ ॥
'भूत्वा
१ च. छ. ज. कोशेषु लभ्यते । २ भुवि भवः इत्यपि । ३ तदपि । ४ च. छ. ज. कोशेषु दृश्यते । ५ सर्वेषु कोशेषु अधिकत्वेन दृश्यते । ६ ग. च. ज. जवनिकाम् ।
Page #160
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२५
[३.१९७-११८]
वैराग्यशतकम् पातालान्न विमोचितो बत बलिनीतो न मृत्युः क्षयं
नोन्मृष्टं शशिलाञ्छनं च मलिनं नोन्मूलिता व्याधयः । शेषस्यापि धेरां विधृत्य न कृतो भारावतारः क्षणं
चेतः सत्परुषाभिमानगणनां मिथ्या वहन् लजसे ॥११७ ॥ - रे चेतः! मिथ्या सत्पुरुषाभिमानगणनां वहन् न लजसे न ब्रीडां वहसि । कथम् ? । बत इति खेदे । पातालात् बलिर्बन्धनान्न विमोचितः । अन्यच्च मृत्युर्यमः क्षयं न नीतः निधनं न प्रापितः । चान्यत् । शशिलाञ्छनं न उन्मृष्टं न परामृशत् ( ? °मृष्टम् ) । किं० शशिलाञ्छनम् । मलिनं मलीमसम्। चान्यत्। व्याधयो जन्तोरुपकारकृते नोन्मूलिताः। शेषस्थापि धरणीधरस्यापि धरां स्वस्कन्धे विधृत्य क्षणं क्षणमात्रं भारावतारो न कृतः । रे आत्मन् ! तदा त्वं सत्पुरुषत्वं किं वहसि ॥ ११७ ॥
. प्रशान्तशास्त्रार्थविचारचापलं निवृत्तनानारसकाव्यकौतुकम् । निरस्तनिःशेषविकल्पविस्तरं प्रपत्तुमन्विच्छति शंकरं मनः॥११८॥
मनः चेतः शंकरमनु प्रपत्तुमिच्छति । किं० मनः ? । प्रशान्तशास्त्रार्थविचारचापलं प्रशान्ताः ये शास्त्रार्थास्तेषां शास्त्रार्थानां विचारेषु चापलम् । पुनः किं० मनः । निवृत्तनानारसकाव्यकौतुकं निःशेषं वृत्तं प्रवृत्तं नानारसकाव्यकौतुकं यस्य तत् । पुनरपि किं० मनः।। निरस्तनि शेषविकल्पविस्तरं निरस्तः निराकृतः निःशेषो विकल्पानां विस्तरो यस्य तत् । एवंविध मनः शंकरं वाञ्छति ॥ ११८ ॥
॥ इति भर्तृहरटीकेयं तृतीयस्य वैराग्यशतकस्य समाप्ता ॥
१ख. घ. च, छ. ज. RASB 7747। २ ख. घ. छ. समुद्धृतो। ३ख. छ. मृत्युनं नीतः। ४ छ. शशलाञ्छनस्य । ५ छ. वरां । ६ छ. तारावतारः। ७ हं . गणितां; क. पदवीं। ८ क. खिद्यसे छ. विद्यसे । ९ च. छ. ज. कोशेषु प्राप्यते । १० छ. 'वाक्य। ११च. ज. विप्लवं । १२ च. छ. ज. प्रयातुम् ।
Page #161
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२६
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
[ टीकाकारकृता स्वप्रशस्तिः । ] श्रीपार्श्वनाथगणभृच्छिवदत्तनामा
केशी तदन्वयगुरुः शिवदत्तशिष्यः । सूरिः स्वयंप्रभगुरुर्गुरुताधिकश्रीरत्नप्रभः प्रभुरनेकगुणः सदापि ॥ १ श्रीयक्षदेवसुगुरुर्गरिमागरिष्ठो
जज्ञे सदैव यतिमार्गगुणाभिरामः । ऊकेशगच्छगगनांगणपूर्णचन्द्रः
श्रीकक्कसूरिरपरः श्रुतवारिधिर्यः ॥ २ श्रीदेवगुप्तगुरुरर्चितपादपद्मः
सेवापरैर्नरवरैः प्रथितावदातः । सिद्धाख्यया गुरुरति[र्]धृतिमानधीशः शिष्योऽस्य चारुरतितत्त्व विचारसारः ॥ ३
त्रिभिः कुलकम् (विशेषकम् ) ।
श्रीविक्रमार्कवरवच्छ (? त्स) रतोऽक्षवह्नि
पञ्चैकवर्ष ( १५३५ ) इह योधपुरेऽतिरम्ये । श्रीसातले नरवरे वरमन्त्रिराजे
श्रीजैत्रमत्रिणि महामहिमानिधाने ॥ ४
[२.१-६]
श्रीसिद्धसूरिपदपङ्कजराजहंसः पूज्यप्रसादधवली कृतसत्प्रशंसः ।
रम्यां तु भर्तृहरकाव्य - नवीनटीकां
यो व्याहरत् प्रमुदितो धनसार एषः ॥ ५ युग्मम् । वैययदोषकलितेन मया कदाचित्
साहित्यलक्षणपदेषु यदा विरुद्धः । संदर्भ एष विदधे परिगूढमूढभावात् तदा हि विबुधैः परिसो (१ शो) ध्य एव ॥ ६
Page #162
--------------------------------------------------------------------------
________________
[ ३.७८]
टीकाकार - प्रशस्तिः
यस्याः प्रसादवशतः कवयः सदापि पारं व्रजन्ति नयनीरधिसङ्गमस्य । तां भारतीं भगवतीं सततां ( ? तं ) स्मरामि श्रीसद्गुरोरपि पदान् विहितप्रसादान् ॥ ७ यावत् सुरगिरिशिखरे ध्रुवमण्डलम मलमेतदाभाति । तावद् विहिता नद्याट्टीकेयं धनगिरी नाम्नो ॥ ८ ॥ प्रशस्तिरेषा ॥ ॥ श्रीः ॥
१. प्रान्ते 'धनवतीसारा' इत्यपि पाठः ।
રા
Page #163
--------------------------------------------------------------------------
________________
१२८
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम्
परिशिष्टम् । [टीकाकारेण धनसारेण विदुषा शतकत्रयमध्ये यानि पद्यानि शेषरूपाणि मत्वा मूलमन्थे न स्वीकृतानि, तेषां पद्यानां पश्चात् परिशिष्टरूपां टीकां कृत्वा ग्रन्थान्ते तानि पद्यानि संकलितानि सन्ति ।] अथ भर्तृहरटीकायां शेषत्यक्तकाव्यानां टीका लिख्यते ।
नीतिशतकमध्यान्येतानि [पद्यानि] अथ सज्जनस्तुतिमाह१. अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनाढ्यैः स्वदारसंतुष्टैः।
परपरिवादनिवृत्तैः क्वचित् कचिन् मण्डिता वसुधा ॥ ७८ ॥
अप्रियेत्यादि । वसुधा पृथिवी क्वचित् प्रदेशे स्थाने एवंविधैः पुंभिर्मण्डिता अलंकृता वर्तते। कीदृशैः ?। अप्रियवचनदरिद्रैः अप्रियवचनेषु दरिद्राः निःस्वास्तैरप्रियवचनरहितैरित्यर्थः। पुनः कीदृशः । प्रियवचनाढ्यैः प्रियवचनैराढ्याः प्रियवचनाढ्यास्तैः मधुरवचनभृतैः । पुनः कीदृशैः ? । खदारसंतुष्टैः स्वदारेषु निजकलत्रेषु संतुष्टाः तृप्ताः स्वदारसंतुष्टास्तैः । पुनः कीदृशैः ? । परपरिवादनिवृत्तैः परेषां परिवादो निन्दा परपरिवादस्तस्मान्निवृत्ताः विरतास्तैरिति । मण्डनमपि क्वचिद् भवति ॥ ७८ ॥
अथ दैवगतिस्वरूपमाह२. अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति । __ जीवत्यनाथोऽपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽपि गृहे नजीवति ॥१२॥
अरक्षितं वस्तु दैवरक्षितं सत् तिष्ठति स्थिरीभवति । सुरक्षितं यत्नरक्षितमपि दैवहतं सत् विनश्यति विशेषेण नाशमुपयातीत्यर्थः । एतद विशेषतो द्रढयति-अनाथोऽपि दीनोऽपि वने विसर्जितः सन् जीवति दैवानुकूलतः । कृतप्रयत्नोऽपि पुमान् गृहेऽपि स्थितो दैवप्रतिकूलतो मन्दभाग्येन न जीवति म्रियते । ततो दैवमेव प्रमाणम् ॥ ९२ ॥
अथ स्वकीय- परकीयौ हिताहितस्वरूपेण हेयोपादेयतया प्ररूपयति३. परोऽपि हितवान् बन्धुबन्धुरप्यहितः परः ।
अहितो देहजो व्याधिर्हितमारण्यमौषधम् ॥ ९४ ॥ हितवान् गुणकारकः परोऽपि आत्मव्यतिरिक्तः [ अपि ] परः शत्रु बन्धुः स्वजनो ज्ञेयः। अहितः विरूपकर्ता बन्धुरात्मीयोऽपि परः शत्रुर्ज्ञातव्यः । एतदेव दृष्टान्तेन द्रढयति-पथा देहजो देहादुत्पन्नो व्याधिः रोगः अहितः संतापकारी स्यात् । आरण्यं वनोद्भवमौषधं मेषजं. हितं सुखकृत् स्यात् ॥ ९४ ॥
Page #164
--------------------------------------------------------------------------
________________
नीतिशतकाधिकश्लोकाः।
१२९ . अथ दुर्जनस्नेहं सज्जनकोपतुल्यं निरूपयति४. 'न भवति भवति च न चिरं भवति चिरं चेत् फले विसंवादः।
कोपः सत्पुरुषाणां तुल्यः स्नेहेन नीचानाम् ॥ ९२ ॥
सत्पुरुषाणां कोपः क्रोधः नीचानां दुर्जनानां स्नेहेन मित्रत्वेन तुल्यः सदृक् । कथम् ? । प्रथमं सज्जनानां कोपो न भवति नास्ति । च पुनर्भवति तदा चिरं न भवति । क्षणाद् यातीत्यर्थः । चेच्चिरं भवति तदा फले अग्रे कार्योत्पन्ने विसंवादः फलदायी न भवति । निष्फलो भवतीत्यर्थः । दुर्जनस्नेहोऽपि न भवति । यदि भवति तर्हि चिरं न भवति । चिरं भवति चेत् फले कार्यकाले विसंवादः स्यात् , स्नेहः सफलो न भवति । अत एव सत्पुरुषक्रोधतुल्यः ॥ ९२ ॥
अथ नियतिस्वरूपेण स्वोपदेशमाह- . . ५. यदभावि न तद् भावि भावि चेन्न तदन्यथा ।
इति चिन्ताविषन्नोऽयमगदः किं न पीयते ॥ ९३ ॥
हे पुरुष ! इति अयं [चिन्ताविषघ्नः] अगदस्त्वया किं न पीयते । अगद औषधम् । इतीति किम् ? । यद् वस्तु अभावि तन्न भावि । यत्र भवने नियतिः नास्ति तत् कदापि न भवति । चेद् भावि भवनशीलं कार्य तदन्यथा न भवति । सदैव भवतीत्यर्थः । एवं ज्ञात्वा किं मनसि दोदूयसे- ममेदं जातमिदं न जातमिति ॥ ९३ ॥ .... अथ दानविलम्बो न कार्य इति निवेदयति६. दातव्यं भोक्तव्यं सति विभवे संचयो न कर्तव्यः।
पश्येह मधुकरीणां संचितमर्थ हरन्त्यन्ये ॥ ९४ ॥
पुरुषेण धनं देयं भोज्यम् । विभवे सति संग्रहो न कार्यः । अत्र निदर्शनम् - पश्य विलोकय । इहात्र लोके मधुकरीणां भ्रमरीणां संचितमर्थ एकत्रीकृतं मधु अन्ये भिल्ला हरन्ति .गृहन्ति । पक्षे अर्थ द्रव्यम् ।
अथ राजभिर्गुणिन एव पालनीयास्तदर्थमाह- ७. अविज्ञानाद् राज्ञो भवति नयहीनः परिजनसू
। ततस्तत्प्राधान्याद् भवति न समीपे बुधजनः । ... बुधैस्त्यक्ते राज्ये भवति न च नीतिगुणवती ... विनष्टायां नीत्यां सकलमपि शुष्येन् नृपकुलम् ॥ ९९ ॥
राज्ञः अविज्ञान ज्ञानाभावात् परिजनः परिवारो नयहीनो भवति कुमार्गचारी भवति । ततः तस्मात् कारणात् तत्प्राधान्यात् अन्यायिपरिजनव्यापारात् बुधजनः पण्डितपुरुषः राजसमीपे न भवति नागच्छति । मूर्खाः बुधजनप्रवेशं न ददाति (? ददति)। च पुनः बुधैः
१७ शतकत्र
Page #165
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३०
भर्तृहरिकृत- शतकत्रयम्
राज्ये त्यक्ते सति गुणवती नीतिर्न भवति । नीतौ विनष्टायां सत्यां सकलमपि नृपकुलं शुष्येत् शोषं व्रजति । तस्मान्नृपैः पण्डिता माननीया एव, यतो राज्यवृद्धिर्भवतीति वाक्यशेषः ॥ ९५ ॥ अथ राज्ञो नीतिं मालाकार(?रा)चरणेनाह
८. उत्खातान् प्रतिरोपयन् कुसुमितांश्चिन्वँलघून् वर्धयन्
कुब्जान् कण्टकिनो बहिर्निगमयन् विश्लेषयन् संहितान् । अत्युच्चान् नमयञ् शनैरवनतानुन्नामयन् भूतले
मालाकार इव प्रपञ्चचतुरो राजा चिरं नन्दति ॥ ९६ ॥
भूतले महीमण्डले राजा चिरं नन्दति समृद्धिं प्राप्नोति । क इव ? | मालाकार इव । मालाकारः किं कुर्वन् ? राजा च किं कुर्वन् ? । शनैः मन्दं मन्दं उत्खातान् उत्पाटितान् वृक्षान् प्रतिरोपयन् प्रतिस्था ( ष्ठा) पयन् नूतनालवाले स्थापयन् । राजापि उत्खातान् नृपान् प्रतिरोपयन् नूतनस्थानाधिष्ठातून कुर्वन् । मालाकारः कुसुमितान् कुसुमानि जातानि येषु ते कुसुमिता[:] । जातार्थे इन् प्रत्ययः । तान् चिन्वन् चुण्टन् । राजाप्येवं कुर्वन् समदान् त्रोटयन् छेदयन् । पुनः किं कुर्वन्नारामिकः ? । लघून् वृक्षान् वर्धयन् । राजापि लघून् नृपान् नरान् वर्धयन् । पुनः कुब्जान् कण्टकिनो [ बहिर्निगमयन् ] बहिर्निष्कासयन् । राजापि कुब्जान् स्तब्धान् कण्टकनरान् बहिर्निगमयन् । पुनः संहितान् मिलितान् विश्लेषयन् पृथक् कुर्वन् । राजापि मिलितान् नृपान् विश्लेषयन् संध्यादिनाऽयुतान् कुर्वन् । तथाप्यु ( १ त्यु ) च्चान् तरून् नमयन् नीचीकुर्वन् । राजाप्यत्युच्चान् नीचीकुर्वन् धनहरणादिना । तथा अवनतान् नम्रान् उन्नामयन् उर्ध्वकुर्वन् । राजापि शनैर्मन्दं मन्दं तान् ऊन्नमयन् प्रौढीकुर्वन् चिरं नन्दति । इति राज्ञो मालाकारसादृश्यम् ॥ ९६ ॥
अथोत्तम एव निजवंशे स्थाप्य एवं निरूपयति
९. दद्यात् साधुर्यदि निजपदे दुर्जनान् यत्र वंशे
तन्नाशाय प्रभवति नवो वाञ्छमानः स्वयं सः । तस्माद्देयो विपुलमतिभिर्नावकाशोऽधमानां
राज्येऽपि स्याद् गृहपतिरिति श्रूयते वाक्यतोऽत्र ॥ ९७ ॥ यत्र वंशे साधुर्यदि निजपदे दुर्जनान् दद्यात् दुर्जनं निजपदे स्थापयेदित्यर्थः । सः नवो दुर्जनो वाञ्छमानोऽपि स्वयं तन्नाशाय प्रभवति वंशनाशाय भवति । तस्मात् कारणाद् विपुलमतिभिर्विशालबुद्धिभिरधमानां नीचानां अवकाशो विकाशः स्थानं प्रसारो न देयः । अत्र संसारे राज्येऽपि गृहपतिरिति श्रूयते । अस्माद् वाक्यतः गृहपतिरपि राज्याधिकारी क्रियते, राज्यवंशेऽपि दुर्जनो न राज्याधिकारी क्रियते ॥ ९७ ॥
१ "सर्वेषां परिपक्कतामुपगतान् (?°मुपयंतां) गृह्णन् फलानी हि (?नीह) सः" पाठान्तरम् ।
Page #166
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३१
शगारशतकाधिकश्लोकाः। वहृदयस्य साधुमार्गोपदेशमाह१०. यदि धनिनः सत्पुरुषा यदि च सुरूपाणि परकलत्राणि ।
अनुपचितसुकृतसंचय तव हृदय किमाकुलीभावः ॥ ९८ ॥ - हे अनुपचितसुकृतसंचय ! हे हृदय ! तव किं आकुलीभावः । [न] उपचितोऽनुपचितः । सुकृतस्य पुण्यस्य संचयः संग्रहः सुकृतसंचयः । अनुपचितोऽपूर्णः सुकृतसंचयो यस्य स तस्य संबोधनम् । यदि चेत् सत्पुरुषा धनिनः सन्ति यदि च परकलत्राणि सुरूपाणि दृश्यन्ते तदा तव कः खेद इति ॥९८॥
चन्दनस्वरूपेण सत्पुरुषदानस्वरूपमाह११. यद्यपि चन्दनविटपी विधिना फलकुसुमवर्जितो विहितः।
निजवपुषैव परेषां थापि संतापमपनयति ॥ ९९ ॥ इह कविसमये चन्दनतरुषु विद्यमानानि फलकुसुमानि काव्ये बुधो नबध्नीयात् । यदुक्तम्" चंदणतरु व्व सुयणा फलरहिआ जइवि निम्मिआ विहिणा।
तहवि करंतुवयारं लोयाणं नियसरीरेण ॥” इति ।
यद्यपि विधिना चन्दनविटपी श्रीखण्डवृक्षः फलकुसुमरहितः कृतः । तथापि निजशरीरेण अन्येषां जन्तूनां संतापं खेदं अपनयत्येव स्फेटयत्येव । तथा निरवस्थोऽपि सत्पुरुषः स्वदेहेनोपकारं करोत्येव । अन्योक्तिरलंकारः ॥ ९९ ॥
. महत्सेवाफलमाह.... १२. परिचरितव्याः सन्तो यद्यपि कथयन्ति नैवमुपदेशम् ।
यास्तेषां खैरकथास्ता एव भवन्ति शास्त्राणि ॥ १० ॥
पुरुषेण तदपि सन्तो महान्तः सेव्या यद्यप्युपदेशं शिष्यां (१क्षां) न कथयन्त्येव । तेषां महतां याः खेच्छया कथा याः स्वभावेन वार्ताः चेष्टास्ता अन्येषामज्ञानिनामेवं निश्चितं .शाखाणि शिष्या(?क्षा)रूपाणि भवन्ति ॥१०॥
(२) शृंगारशतकगतानि अधिकपद्यानि । अथ शृंगारशते त्यक्तकाव्यानां टीका लिख्यते। शृंगारो द्विविधो रसः । एकः संभोगो द्वितीयो वियोगश्च । अत्र संभोगमाह१. मत्तेभकुम्भपरिणाहितकुकुमा
कान्तापयोधरतटे रतिखेदखिन्नः । वक्षो निधाय भुजपञ्जरमध्यवर्ती
धन्यः क्षि(क्ष)पां क्षपयति क्षणलु(?ल)ब्धनिद्रः ॥ १८ ॥
Page #167
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
धन्यो ना क्षि(क्ष)पां निशां [ क्षपयति ] गमयति । किं कृत्वा ? । कान्तापयोधरतटे कामिनी कुचदेशे वक्षो हृदयं निधाय धृत्वा । कथंभूते पयोधरतटे ? । [मत्तेकुम्भपरिष्ाहितकुङ्कुमार्द्रे] मत्तेभकुम्भवत् परिणाहितं विशालं उन्नतं च तत् कुङ्कुमेन आर्द्र क्लिन्नं लिप्तं वा तत् कुङ्कुमार्द्रं च तस्मिन् । कथंभूतो धन्यः ? । [ रतिखेदखिन्नः ] रतिः संभोगस्तस्माद् यः खेदस्तेन खिन्नः श्रान्तः । पुनः कथंभूतः ? । भुजपञ्जर मध्यवर्ती भुजयोः पञ्जरं भुजपञ्जरं भुजपञ्जरस्य मध्यं भुजपञ्जरमध्यं तस्मिन् वर्तितुं शीलमस्येति भुजपञ्जरमध्यवर्ती । कान्ताभुजाश्लिष्ट इत्यर्थः । पुनः कथंभूतः ? | क्षणलब्धनिद्रः क्षणं लब्धा निद्रा येन सः ॥ १८ ॥ इदानीं कान्तानयनचपलस्वरूपं निरूपयति -
२. इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदलप्रभाचौरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया ।
१३२
गतो मोहोऽस्माकं स्मरशबरबाणव्यतिकर
ज्वरज्वाला शान्ता तदपि न वराकी विरमति ॥ १९ ॥
इयं प्रत्यक्षा बाला मां प्रति अनवरतं निरन्तरं चक्षुः क्षिपति चक्षुःक्षेपं कुरुते । तर्हि अनया किमभिप्रेतं किं वाञ्छितं प्राप्तम् ? । न किंचित् प्राप्तमित्यर्थः । किंभूतं चक्षुः । इन्दीवरदलप्रभाचौरं इन्दीवरस्य दलानि तेषां प्रभा तां चोरयतीति तत् कविरूढित्वा चौरम् | यतोऽस्माकं मोहो गतो निवृत्तः । तथा स्मरशबरबाणव्यतिकरज्वरज्वाला शान्ता उपशमिता । स्मर एव शबरो भिल्लस्तस्य बाणास्तेषां व्यतिकरात् ज्वरस्तस्य ज्वाला शान्ता । तदपि वराकी मुग्धा न विरमति । इदानीं वयं योगिनः इयं न जानाति । यन्मां प्रति दृष्टिं दत्ते इति भावः ॥ १९ ॥
यौवनस्वरूपं निवेदयति
३. रागस्यागारमेकं नरकशतमहादुःखसंप्राप्तिहेतुं ( ? तुर् ) मोहस्योत्पत्तिबीजं जलधरपटलं ज्ञानताराधिपस्य ।
कन्दर्पस्यैकमित्रं प्रकटितविविधस्पष्टदोषप्रबन्धं
लोकेऽस्मिन् न ह्यनर्थव्रजकुलभवनं यौवनादन्यदस्ति ॥ ४१ ॥
हि निश्चितम् । अस्मिन् लोके यौवनादन्यदनर्थव्रजकुलभवनं नास्ति । यौवनमेवानर्थकुलभवनम् । अनर्थानां व्रजः समूहस्तस्य कुलं तस्य भवनं गृहम् । अर्थवशाद् विभक्तिपरिणामः । कथंभूतं यौवनम् ? । रागस्यैकमद्वितीयमागारं धाम । पुनः कीदृग् यौवनम् ? । नरकशतमहादुःखसंप्राप्तिहेतुम् (तुः ) । महान्ति च दुःखानि शतसंख्यानि महादुःखानि । नरकेषु शतमहादुःखानि नरकशतमहादुःखानि तेषां संप्राप्तिस्तस्या हेतु (तुः ) । पुनः कथंभूतं यौवनम् ? । मोहस्य मौढ्यस्योत्पत्तिबीजम् । यतो बीजादुत्पत्तिः सर्वस्य वस्तुनः । पुनः कथंभूतम् ? । ज्ञान ताराधिपस्य चन्द्रस्याच्छादने जलधरपटलं मेघवृन्दम् । पुनः किं लक्षणम् ? । कन्दर्पस्यैकमित्रम् ।
Page #168
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रृंगारशतकाधिकश्लोकाः।
१३३ पुनः कथंभूतं यौवनम् ? । प्रकटितविविधस्पष्टदोषप्रबन्धं प्रकटितो विविधस्पष्टदोषाणां प्रबन्धो येन तत् । एवंविधं यौवनं वर्तते ॥ ४१ ॥
अथ ज्ञानस्य पुरुषमाश्रित्य गुणदोषस्वरूपमाह४. ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं केषां चिदेतन्मदमानकारणम् ।
स्थानं विविक्तं यमिनां विमुक्तये कामातुराणामपि कामकारणम् ॥७७॥
सतां सत्पुरुषाणां ज्ञानं मानमदादिनाशनं भवति । यतः सत्पुरुषे ज्ञानं प्रधान स्यात् । केषां चित् पुरुषाणां एतत् ज्ञानं मदमानकारणं भवति। [विविक्तं स्थानं यमिनां विमुक्तये भवेत्।। कामातुराणामपि तत् कामकारणं भवेत् । यादृशः पुमांस्तादृशं ज्ञानं प्रतिभासति(ते) ॥ ७७ ॥
अथ दानवीररसमाह.... ५. कियती पञ्चसहस्री कियती लक्षाऽथ कोटिरपि कियती ।
__ औदार्योन्नतमनसां रत्नमती वसुमती कियती ॥ ७८ ॥
पञ्चानां सहस्राणां समाहारः पञ्चसहस्री दाने कियती कियन्मात्रा । अथ वा लक्षाश्च (१क्षा च) कियती । कियती लिङ्गं न व्यभिचरति । अन्यथा कियन्तो लक्षाः एवं स्यात् (१) एवं कोटिरपि कियती। औदार्योन्नतमसां औदार्येण उन्नतं उच्चं मनो येषां ते औदार्योन्नतमनसस्तेषां रत्नवती वसुमती रत्नपूर्णा पृथिवी कियती कियन्मात्रा ॥ ७८ ॥
अथ वैराग्य - शृङ्गारैक्यस्वरूपमाह६. आवासः क्रियतां गाङ्गे पापवारिणि वारिणि ।
स्तनमध्ये तरुण्या वा मनोहारिणि हारिणि ॥ ७९ ॥
गाङ्गे वारिण्यावासः क्रियताम् । कथंभूते वारिणि ? । पापवारिणि पापं वारयतीत्येवंशीलं पापवारि तस्मिन् पापवारिणि । वा अथ वा तरुण्याः स्तनमध्ये आवासः क्रियताम् । कथंभूते स्तनमध्ये ? । मनोहारिणि । पुनः कथंभूते । हारिणि हारो विद्यते यस्मिंस्तत् हारि तस्मिन् हारिणि ॥ ९४ ॥
भार्यार्ययोः समानस्वरूपमाह७. सरसा सुपदन्यासा सालङ्कारा सुवर्णमयमूर्तिः।
आर्या तथा च भार्या न लभ्यते पुण्यहीनेन ॥ १०१॥
भार्या च पुनः तथा आर्या पुण्यहीनेन मनुष्येण न लभ्यते न प्राप्यते । कथंभूता भार्या ? । रसेन रागेण सह वर्तमाना सरसा । क ? । भर्तरि । कीदृशी आर्या ? । सरसा शृङ्गा"रादिरसोपेता विदुषि । किंभूता भार्या ? । सुपदन्यासा सुचरणा । आर्यापि शोभनपदा । किंभूता भार्या ? । सालङ्कारा हारादिभूषणयुता । आर्या अलंकारयुक्ता चित्राद्यलंकृतिसंपन्ना । पुनः
Page #169
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३४
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् कथंभूता भार्या ! । सुवर्णमयमूर्तिः सुवर्णवर्णा कनकनिमा । आर्यापि शोभनाक्षरबन्धा । एवंविधगुणवती भार्या त्वार्या च कार्या ॥ १०.१ ॥
योषितां चञ्चलस्वरूपमाह८. जल्पन्ति सार्धमन्येन पश्यन्त्यन्यं सविभ्रमाः।
हृदतं चिन्तयन्त्यन्यं प्रियः को नाम योषिताम् ॥ ५० ॥
योषितः अन्येन पुरुषेण साधं जल्पन्ति संभाषणं कुर्वन्ति । ताः सविभ्रमाः सविलासाः सत्यः अन्यं नरं पश्यन्ति प्रेमदृष्ट्या विलोकयन्ति । [हृद्गतं हृदयस्थं अन्यं वल्लभं चिन्तयन्ति स्मरन्ति । इति कारणात् । नाम इति निर्धारणे। योषितां नारीणां कः प्रियो वल्लभः स्यात् । न कोऽपि । यदुक्तं ग्रन्थे
"सरसलिलसिलीमुहदिशयरस्स तणुजीयहययवयणाइ । चिहुँ रमइ चउरनलिणी मणमाणइ रायहंसस्स" ॥ ५७ ॥
अथ वसन्तवर्णनं कविराह९. सहकारकुसुमकेसरनिकरभरामोदमूछितदिगन्ते ।
मधुरमधुविधुरमधुपे मधौ भवेत् कस्य नोत्कण्ठा ॥ ५८ ॥
मधौ वसन्ते कस्योत्कण्ठा न भवेत् । सर्वस्यापि भवेत् । [कीदृशे मधौ ?] । सहकारस्य कुसुमानि तेषां केसराणि तेषां निकरस्तस्य भरस्तस्यामोदस्तेन मूच्छितो दिगन्तो यत्र तस्मिन् । पुनः कथंभूते ? । मधुरं च तन्मधु च मधुरमधु तस्मिन् विधुरा मधुपा यत्र तस्मिन् ॥ ५८ ॥
जरास्वरूपमाह१०. यातं यौवनमधुना वनमधुना शरणमेवमस्माकम् ।
स्फुरदुरुहारमणीनां हा रमणीनां गतः कालः ॥ ९८ ॥
अधुना इदानीं यौवनमधुना यातं गतम् । यूनो भावो यौवनम् । यौवनमेव मधु यौवनमधु तेन । यौवनमदेनेत्यर्थः । मधु मद उच्यते । अतः अस्माकं वनमेव शरणम् । हा इति खेदे । रमणीनां नारीणां कालः समयो गतः। किंभूतानां स्त्रीणाम् । स्फुरदुरुहारमणीनां स्फुरन्त उरवो हारा मणयो यासां ताः तासां स्फुरदुरुहारमणीनाम् ॥ ९८ ॥
विषयाणां विषय( ? विष स्वरूपमाह११. विषस्य विषयाणां च दूरमत्यन्तमन्तरम् ।
उपभुक्तं विषं हन्ति विषयाः स्मरणादपि ॥ ९९ ॥
विषस्य च पुनर्विषयाणां अत्यन्तं अत्यर्थ दूरं अतिशयेनान्तरं भेदः आधिक्यम् । विर्ष क? विषयाः क ?। एतेन विषात् विषया बहुलतरमधिकाः। केन प्रकारेण । विषं उपयुक्तं भुक्तं सत् हन्ति । विषयाः स्मरणादपि नन्ति ॥ ९९ ॥
Page #170
--------------------------------------------------------------------------
________________
शृङ्गारशतकाधिकश्लोकाः।
૨૩૬ इदानीमिन्द्रियदुर्जयत्वमाह१२. विश्वामित्र - परासरप्रभृतयो ये चाम्बुपर्णाशनासू
तेऽपि स्त्रीमुखपङ्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहं गताः । आहारं सघृतं पयोदधियुतं भुञ्जन्ति ये मानवास्
तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथमहो दम्भैर्जगद् वञ्च्यते ॥ १० ॥ विश्वामित्र - परासरादयो ये मुनीन्द्रास्तेऽपि मनोहरं स्त्रीमुखकमलं दृष्ट्वा मोहं कामविकारं प्राप्ताः । एतेन स्त्रीसङ्गाद् विश्वामित्रादयः पतिताः। किंलक्षणास्ते ? । अम्बुपत्रभोजिनोऽपि । [पुनः] पयोदधियुतं सघृतं आहारं ये मानवा भुञ्जन्ति तेषामिन्द्रियनिग्रहः कथं स्यात् । एतेन बलिष्ठाहारिणां कथमिन्द्रियजयो भवति । अहो इति खेदे । जगद् विश्वं दम्भैः कपटैर्वच्यते विप्रतार्यते । विश्वामित्रश्च परासरश्च विश्वामित्र - परासरौ तौ प्रभृतिः आदिर्येषां ते ॥१०॥
न चायमेकान्तवादः । आहारो न कारणम् । किं तु स्वसामर्थ्यमेव । तन्निरूपयति१३. सिंहो बली द्विरद -शूकरमांसभोजी
__ संवत्सरेण रतिमेति किलैकवारम् । पारापतः खरशिलाकणभोजनोऽपि
कामी भवत्यनुदिनं वद कोऽत्र हेतुः ॥१०१॥ सिंहो बली बलिष्ठः । कथंभूतः ? । द्विरदश्च शूकरश्च द्विरद-शूकरौ तयोर्मासं भुञ्जती( ? भुनक्ती )ति द्विरदशूकरमांसभोजी । किलेति सत्ये । सः संवत्सरेण एकवारं रतिं एति संभोगं प्रति याति । कामं सेवते । खराश्च ते शिलाकणाश्च तान् भुञ्जती(? भुनक्ती)ति खरशिलाकणभोजनोऽपि पारापतः अनुदिनं दिनं दिनं प्रति कामी भवति कामाकुलः स्यात् । हे प्रतिवादिन् ! त्वं वद अत्राहारस्य को हेतुः किं कारणम् ? । एतेन आहारो न विषयहेतुः । पारापतादीनामाहारनैरस्यं बहुकामित्वं च सिंहादीनां बलिष्ठाहारत्वमल्पकामित्वं ज्ञेयम् ।। १०१॥
(३) वैराग्यशतकगतानि अधिकपद्यानि । अथ वैराग्यशतटीकायां त्यक्तकाव्यानां टीका लिख्यते। अन्यजनदोषेण दूषितं श्लेषमाह१. सा बाला वयमप्रगल्भमनसः सा स्त्री वयं कातराः
- सा पीनोन्नतिमत् पयोधरयुगं धत्ते सखेदा वयम् । साऽऽक्रान्ता जघनस्थलेन गुरुणा गन्तुं न शक्ता वयं
दोषैरन्यजनाश्रितैरपटवो जाताः स्म इत्यद्भुतम् ॥ १॥
Page #171
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् अन्यजनाश्रितैर्दोषैर्वयमपटवो जाताः स्म इत्यद्भुतमाश्चर्यम् । यस्य दोषो भवति स एवापटुर्भवति । अत्र तु दोषस्तस्याः वयं अपटवः पीडिताः । कथम् ? । सा बाला वयमप्रगल्भमनसः। अप्रगल्भं अधैर्य मनो येषां ते अप्रगल्भमनस इत्यनेन दोषस्तस्याः । पुनः सा स्त्री वयं कातराः कामवैक्लव्याद् । या स्त्री सैव कातरा भवितुं युक्ता । सा पीनोन्नतिमत् पयोधरयुगं [कुच]कुम्भयुगलं धत्ते वयं सखेदाः श्रमयुक्ताः । श्लेषः- या कुम्भयुगं दधाति श्रमस्तस्या एवं भवति । सा गुरुणा जघनस्थलेन नितम्बेन आक्रान्ता । वयं गन्तुं न शक्ताः तदवलोकनरसात् । श्लेषश्चात्र- यो ह्याक्रान्तो भवति स एवं गन्तुं न शक्नोति । अतो दोषैरन्यजनाश्रितैर्वयं पाटवं त्याज्यि( ? जि) ताः । श्लेषालंकारः ॥१॥
उपमालंकारेण स्मरबलं दीपयति२. स्तनशैलसन्निधाने त्रिवलिनदीतीरकोटरे तन्व्याः ।
जगदपि नग्नीविहितं तथापि पञ्चेषुचौरेण ॥ २ ॥
तथापि पञ्चेषुचौरेण स्मरतस्करेण जगदपि विश्वमपि नग्नीविहितम् अनमं नग्नं क्रियते इति नग्नीकरणम् । तथापीति कथम् ? । तन्व्याः स्तनशैलसन्निधाने स्तनपर्वतसमीपे । पर्वतसन्निधाने चौरो लगति। [त्रिवलिनदीतीरकोटरे] त्रिवली उदररेखा सैव नदी तस्यास्तीरं तदेव कोटरं गहनं तत्र । अन्यचौरस्थानमपीदृक् भवति ॥ २ ॥
अथात्मनिन्दास्वरूपमुपदेशतः प्राह३. क्षान्तं न क्षमया गृहोचितसुखं त्यक्तं न संतोषतः
सोढा दुःसहशीतवायुतपनक्लेशा न तप्तं तपः । ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शंभोः पदं
तत्तत् कर्म कृतं यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वञ्चिताः॥ १५ ॥ मुनिभिस्तापसैर्यदेव यत् कर्म कृतं तदेव अस्माभिः कृतम् । पुनः तैस्तैः फलैर्वश्चिताः वयम् । फलं न प्राप्तम् । कथम् । क्षमया न क्षान्तम् । क्षमाप्रधानतया परेषां किंचित् कृतं विरूपादि न क्षान्तं न क्षमितम् । मुनिभिः क्षमया क्षम्यते इति । गृहोचितसुखं संतोषतो न त्यक्तम् । अप्राप्तिवशात् त्यक्तम् । तत् मुनिभिः संतोषेण त्यज्यते । दुःसहशीतवायुतपनक्लेशाः सोढाः । दुःसहा ये शीतवायुसूर्यतापक्लेशाःते] क्षमिताः । परं तपो न तप्तं तपः शुद्धं न कृतम् । अहर्निशं नियमितैः प्राणैर्नियमयुक्तैः प्राणैर्वित्तं धनं ध्यातं परं शंभोः पदं न ध्यातम् । सनियमानां वित्तध्यानेन किं प्रयोजनं चेन्महेश्वरपदं न मर्यते । अत एव मुनिभिर्यदेव क्रियते अस्माभिस्तत्तत् कर्म कृतं येन वयं पुण्यफलैर्वञ्चिताः। किमपि फलं नाप्तम् । कायक्लेश एव संजातः विपरीतभावत्वात् ॥ १५॥
Page #172
--------------------------------------------------------------------------
________________
मायो
वैराग्यशतकाधिकश्लोकाः। अथ मनुष्यजन्मफलरूपमाह४. नो खड्नेन विदारिताः करिघटा नोद्वेजिता वैरिणसू
तन्वङ्गया विपुले नितम्बकटके नो क्रीडितं लीलया । नो जुष्टं गिरिराजनिर्झरझरे झाङ्कारि गङ्गापयो
मातुर्यौवनहारिणा वद सखे जातेन तेनापि किम् ॥ १६ ॥ हे सखे ! त्वं वद । तेन पुंसा जातेन किम् ? । न किमपीत्यर्थः । तेन कथंभूतेन ? । मातुर्यौवनहारिणा मातृयौवनचौरेण । तेन केन । येन खड्ङ्गेन करिघटा न विदारिताः । वैरिणो नोवेजिता न पराभूताः। अनेन शौर्यगुणो दर्शितः । तन्वङ्गया विपुले नितम्बकटके विशाले कटीतटप्रदेशे नितम्बस्थले लीलया नो क्रीडितम् । अनेन कामस्वरूपः शृङ्गारो दर्शितः। येन गङ्गापयो नो जुष्टं नो प्रीत्या सेवितम् । कस्मिन् ? । गिरिराजनिझरझरे गिरिराजो हिमाचलः तस्य निर्झरास्तेषां झरो हृदः तस्मिन् । अनेन धर्मः सूचितः । येनार्थत्रयं न साधितं स पुमान मातृयौवनहारी मातुः क्लेशकारकः ॥ १६ ॥
अथोपशमक्षमास्वरूपं प्रतिपादयति-- ५. ददतु ददतु गालीलिव(?म)न्तो भवन्तो
वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽप्यशक्ताः । जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानं __ददतु शशविषाणं ये महात्यागिनोऽपि ॥ २ ॥
भवन्तो गालीः कर्मतापन्ना ददतु ददतु । भवन्तो गालिव(?म)न्तो गालिधनाः। अपि निश्चितं वयं गालिदाने अशक्ताः असमर्थाः । कुतः ? । तदभावात् गाल्यभावात् । जगति विश्वे एतद् विदितं ज्ञातम् । यद् विद्यमानं दीयते । ये महात्यागिनोऽपि शशविषाणं शशशृङ्गं ददतु । परमविद्यमानं कथं ददतु ॥ २॥
अथ भिक्षुस्वरूपमाह श्लोकद्वयेन६. ग्रामे ग्रामे कुटी शून्या भैक्षमन्नं गृहे गृहे। ____ मार्गे मार्गे जरद् वस्त्रं वृथा दैन्यं नृपे नृपे ॥ ३ ॥
ग्रामे ग्रामे शून्या कुटी । भैक्ष्यं ( ? क्षं) भिक्षायां भवम् अन्नं गृहे गृहे विद्यते । मार्गे मार्गे जरत् जीर्ण वस्त्रमस्ति । नृपे नृपे राज्ञि राज्ञि कथं वृथा दैन्यं करोषि ॥ ३ ॥
तदे( ! मे )वार्थ वदति७. भुञ्जीमहि वयं भक्ष्यं रथ्यावासं वसीमहि ।
शयीमहि महीपीठे कुर्वीमहि किमीश्वरैः ॥ १॥
१८ शतकत्र०
Page #173
--------------------------------------------------------------------------
________________
१३८
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् वयं भैक्ष्यं भुंजीमहि । भिक्षायां भवं भैक्षमन्नं इत्यर्थः। रथ्यावासं वसीमहि रथ्या रथवाहा मार्गाः, रथ्यायां वासः तं वसीमहि । महीपीठे शयीमहि शयनं कुर्मः। अनेन गृहवासः सूचितः । ततः ईश्वरैर्धनिभिः सार्ध किं प्रयोजनम् । तेभ्यो वयमधिकतराः ॥ १॥
अथात्मज्ञानस्वरूपं प्रतिपादयन्नाह८. भो माः शृणुत स्फुटाक्षरमिदं वाक्यं शिवावाप्तये
सन्तः क्रीडनमिन्द्रियैः सुखलवप्राप्त्यर्थमभ्युद्युताः । संसारे तृणभङ्गभङ्गुरतरे लभ्यं न वाऽऽत्यन्तिकं
खात्मन्यस्ति समाधिनिर्मितसुखं यत् तत् स्वयं चिन्त्यताम् ॥८॥ भो माः ! सन्तः साधवः स्फुटाक्षरं व्यक्ताक्षरं लभ्यं न वात्यन्तिकं वात्मन्यस्ति समाधिनिर्मितसुखं यथा स्यात्तथा क्रीडनं इदं वाक्यं शृणुत । किमर्थम् ? । शिवावाप्तये ईश्वरप्राप्त्यर्थम् । कथंभूताः सन्तः । इन्द्रियैः सुखलवप्राप्त्यर्थ अभ्युद्युताः। इन्द्रियसुखेन कथमीश्वरप्राप्तिर्भवति? । संसारे च पुनः आत्यन्तिकं पदार्थ लभ्यं नास्ति । कथंभूते संसारे। तृणभङ्गभङ्गरतरे तृणवद् भङ्गुरशीले । अतः कारणात् स्वात्मनि समाधिविनिर्मितं यत् सुखं वर्तते तचिन्त्यताम् । आत्मनि परब्रह्मस्वरूपं चिन्त्यताम् । परब्रह्मस्वरूपा(पचिन्तना)दीश्वरप्राप्तिर्भवति न चेन्द्रियसुखात् किंचिदवाप्तिर्भवति इत्यर्थः ॥ ८७ ॥
अथ योगीन्द्रस्वरूपमाह९. अहो वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्टे वा कुसुमशयने वा दृषदि वा। तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः
क्वचित् पुण्येऽरण्ये शिव शिव शिवेति प्रलपतः ॥ ८९॥ मम दिवसाः अहौ सर्प वा अथ वा हारे मुक्तावल्यां वा समदृशो यान्तु । समे सदृशे ( ? श्यौ ) दृशौ दृष्टिर् (?ष्टी) यस्य स तस्य । बलवति रिपौ वा अथ वा सुहृदि समदृशो यान्तु । मणौ रत्ने वा लोष्टे कर्करे समा यान्तु । कुसुमशयने वा अथवा दृषदि शिलायां समा यान्तु । तृणे अथ वा स्त्रैणे स्त्रीणां भावः समूहो वा स्त्रैणं तस्मिन् समा यान्तु । कथंभूतस्य मम । कचित् पुण्यारण्ये पवित्राटव्यां शिव शिव शिवेति प्रलपतो मम ॥ ८९ ॥
अथ विद्यावर्णनस्वरूपमाह१०. विद्या काचित् स्फुरति महती भास्वती चैतसाऽन्तर
__ यन्माहात्म्यात् तृणवदियती मन्यते यत् त्रिलोकीम् ।
Page #174
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकाधिकश्लोकाः ।
किं तेषां स्याद् द्रविणकणिकालेशमात्रे स्पृहाऽसौ
या दैन्यस्य प्रथयति चयं राजराजे मुहूर्तम् ॥ ९० ॥
अन्तश्चेतसि काचित् अनिर्वचनीया महती विद्या तत्त्वज्ञानरूपा स्फुरति जागर्ति । कथंभूता विद्या ? । भास्वती प्रभायुक्ता महिमावती स्यात् । यन्माहात्म्यात् यस्या माहात्म्यं यन्माहात्म्यं तस्मात् विद्यानुभावतः । इयतीं त्रिलोकीं तृणवन्मन्यते त्रिलोकीं तृणसमां पश्यति । परब्रह्मवतः सर्व जगत् तृणतुल्यम् । तेषां योगिनां द्रविणकणिकालेशमात्रे किमसौ स्पृहा वाञ्छा स्यात् । न कापि स्पृहा भवेत् । द्रविणस्य कणिका तस्या लेशमात्रं द्रविण ० तस्मिन् । या धनस्पृहा राजराजे धनदेऽपि मुहूर्त यावद् दैन्यस्य चयं प्रथयति विस्तारयति । कोर्थः ? । धनदेऽपि धनवाञ्छा न क्षीणास्ति । सोऽपि धनाय स्पृहयति । ततः परब्रह्मरूपा विद्यैव श्रेष्ठा ॥ ९०॥ आत्मनिन्दास्वरूपं लोभपरिहारेणाह
११. नो चिन्तामणयो न कल्पतरवो नाष्टौ महासिद्धयस् तावद्देहवशाः परोपकृतयो नास्माभिरप्यर्जिताः । नेदं मज्जति मानसं च चपलं ब्रह्मामृताम्भोनिधौ
१३९
धिधिक कर्मकुटीमिमां तदपि न त्यक्तुं वयं शक्नुमः ॥ १४ ॥ अस्माभिश्चिन्तामणयो नो अर्जिताः कल्पतरवो नार्जिताः । अष्टौ महासिद्धयोऽपि न अर्जिताः । तावत् प्रथमं परोपकृतयो न कृताः । कथंभूताः परोपकृतयः ? | देहवशाः देहाधीनाः । देहेन परोपकृतयो भवन्ति ता अपि न कृताः । च पुनरिदं मानसं चपलं ब्रह्मामृताम्भो - निधौ ज्ञानसुधार्णवे न मज्जति । तस्मात् इमां कर्मकुटीं धिक् [ धिक् ] । तदपि वयं इमां त्यक्तुं न शकुमः न समर्थाः । अनेन देहेन महाऋद्धयुत्पादनं न जायते, देहोऽपि त्यक्तुं न शक्यः अनेनेहलोकः परलोकश्च न साध्यते ॥ १४ ॥
पुनरपि ज्ञानस्वरूपोपदेशमाह
१२. आघ्राय पुस्तकं धन्याः सर्व विद्म इति स्थिताः ।
शतकृत्वोऽपि शृण्वन्तो हा न विद्मो जडा वयम् ॥ १५ ॥
ये पण्डिता एवंविधास्त एव धन्याः । ये पुस्तकं आघ्राय गन्धवद् गृहीत्वा सर्व विद्म इति कृत्वा स्थिताः । वयं शतकृत्वोऽपि शतवारानपि शृण्वन्तोऽपि न विद्मो न जानीमोऽत एव जडाः । अनेन स्वनिन्दा ॥ १५ ॥
अथ मृगोपदेशेन सज्जनस्वरूपं वर्णयन्नाह
१३. सारं सारङ्ग रैङ्गत्तरुणतृणशिखाखण्डखादेन खेदं
क्षौघं पी (?) त्वा सलीलं सलिलमनु पिबेद् योषिता पीतशेषम् ।
Page #175
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४०
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् धन्यस्त्वं यद् वनान्ते गमयसि समयं दारुणं द्रव्यगर्व
प्रध्मातोद्गर्वग्रनुग्रहिलखरखलक्ष्मापवक्त्राण्यपश्यन् ॥ १६ ॥
हे सारङ्ग मृग ! त्वं धन्यो यत् यस्मात् कारणात् त्वं वनान्ते दारुणं समयं गमयसि। त्वं किं कुर्वन् ? । द्रव्यगर्वप्रध्मातोद्गर्वग्रभुग्रहिलखरखलक्ष्मापवक्त्राण्यपश्यन् । द्रव्यगण प्रध्माताः शब्दायमानाः पूत्करणशीलाः उद्गर्वा अध्नवो ग्रहिलाः खराश्चण्डा ये खलाः क्ष्मापाला राजानस्तेषां मुखान्यपश्यन् । किं कृत्वा ? । सारं यथा भवति तथा रङ्गत्तरङ्ग( ? रुण तृणशिखाखण्डखादेन क्षौधं खेदं नीत्वा । रङ्गन्ति च तानि च तरुणानि तृणानि च तेषां शिखास्ता एव खण्डखादः खण्डभक्षणं तेन क्षौधं क्षुधायां भवः क्षौधस्तं खेदं नीत्वा । यो योषिता पीतशेष सलीलं यथा स्यात्तथा सलिलमनु पश्चात् पिबेत् । अनेन मृगोऽपि धन्यो यः स्वेच्छया तृणादिकमत्ति प्रियायुतः पानीयं पिबति मूर्खगर्वितनृपवक्त्राणि अपश्यन् । स एव श्रेष्ठः स्वेच्छाचारी । तस्मान्मनुजानां जन्म निःफलं यः पराधीनवृत्तिः ॥ १६ ॥
अथान्योक्त्या मृगाणां स्तुतिरूपमाह१४. यद् वक्त्रं मुहुरीक्षसे न धनिनां ब्रूषे न चाटुं मृषा
नैषां गर्वगिरः शृणोषि न पुनः प्रत्याशया धावसि । काले बालतृणानि खादसि सुखं निद्रासि निद्रागमे
तन्मे ब्रूहि कुरङ्ग कुत्र भवता किं नाम तप्तं तपः ॥ १७ ॥ हे कुरङ्ग ! मे मम तत् ब्रूहि । भवता त्वया । नाम इति कोमलामन्त्रणे । कुत्र कस्मिन् स्थाने तपस्तप्तम् । तत् किम् ? । यद् धनिनां वक्त्रं मुहुर्वारं वारं न ईक्षसे । मृषा चाटुं न ब्रूषे । एषां धनिनां गर्वयुक्ता गिरो न शृणोषि । पुनः प्रत्याशया वाञ्छया न धावसि । काले बालतृणानि खादसि भक्षसि । निद्रागमे सुखं निद्रासि । अनेन मृगावतारोऽपि धन्यो, मनुष्यजन्म न धन्यः (? न्यम् ) ॥ १७॥
अथ निरर्थकजीवनं निन्दन् तत्स्वरूपमाह१५. धिक् किंजीवनमापदेकनिलयं पित्राप्तबन्धूज्झितं
दीनानाथजनोपकारकरणव्यापारदूरीकृतम् । _ मन्दीभूतशशाङ्कशेखरपदद्वन्द्वारविन्दस्मृतिर्
व्यालोलायतलोचनास्तनतटप्रश्लेषविश्लेषितम् ॥ १८ ॥ किंजीवनं धिक् । धिक् योगे द्वितीया । कुत्सितं जीवनं किंजीवनम्। कथंभूतं किंयौ(जी)वनम् । आपदेकनिलयं आपदां एकं केवलं निलयं गृहं तत् । पुनः कीदृक् यौ(किंजी)वनम् ।। . पित्राप्तबन्धूज्झितं पिता च आप्तश्च बन्धुश्च ते, तैरुज्झितं त्यक्तम् । एवंविधं जन्मानाथरूपम् । पुनः
Page #176
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकाधिकश्लोकाः। कथंभूतं किंयौ(जी)वनम् ? । दीनानाथजनोपकारकरणव्यापारदूरीकृतं तद्रहितम् । पुनः कथंभूतम् । मन्दीभूतशशाङ्कशेखरपदद्वन्द्वारविन्दस्य स्मृतिर्यत्र तत् । पुनः किंभूतं किंजीवनम् ? । व्यालोलायतलोचनायाः स्तनतटं तस्य प्रश्लेषः आलिङ्गितं तेन विश्लेषितं दूरीकृतम् । अनेन धर्मार्थकामरहितम् ॥ १८ ॥
अथ जरानिन्दामाह१६. वर्ण सितं झटिति वीक्ष्य शिरोरुहाणां ___स्थानं परं परिभवस्य तदेव पुंसाम् । आरोपितास्थिशकलं परिहत्य यान्ति
चाण्डालकूपमिव दूरतरं तरुण्यः ॥ १८ ॥ तरुण्यो नार्यः शिरोरुहाणां केशानां सितं वर्ण वीक्ष्य दरतरं यान्ति तस्मात् । कथम् । झटिति शीघ्रम् । पुंसां तदेव केशश्वेतवर्णमेव परिभवस्य परं पदं परं स्थानम् । तं कमिव ? । चाण्डालकूपमिव । कथंभूतं चाण्डालकूपम् ? । आरोपितास्थिशकलं आरोपितान्यस्थिशकलानि यत्र स तम् । यथा अस्थियुक्तं कूपं वीक्ष्य नार्यस्तं परिहृत्य दूरतरं यान्तीत्यर्थः । तद्वत् स्थविरं दृष्ट्वा नार्यो दूरं यान्तीत्यर्थः ॥ १८ ॥
अथ संसारनिन्दास्वरूपं कथयन्नाह: १७. गर्भावासे शयित्वा कलिमलनिलये पूतिमध्ये जघन्ये
स्त्रीकुक्षौ पीडिताङ्गः कथमपि विवरान्निर्गतः क्लेदलिप्तः । भूयस्तत्रैव रागप्रकृतिरिह नरो मन्दबुद्धिर्दुरात्मा ___ सोऽयं संसारचक्रे भ्रमति शठमये लोकमध्ये यथान्धः ॥१९॥
इह मनुजभवे मन्दबुद्धिर्नरो दुरात्मा सोऽयं भूयः पुनरपि तत्रैव जन्मस्थाने रागप्रकृतिः वर्तते । तत्रैव कुत्रैव ? । यो (? यत्र ) गर्भावासे शयित्वा कथमपि महता कष्टेन विवरात् योनियन्त्रानिर्गतः निसृतः । कथंभूते गर्भावासे ? । कलिमलनिलये कलिमलं जंबालं कर्दमस्वरूपं तस्य निलये गृहे । पुनः किंभूते गर्भावासे ? । पूतिमध्ये पूतिः रुधिरविकृतिमध्ये यत्र सः तत्र । पुनः कीदृशे गर्भावासे । जघन्ये सर्वार्थनिन्दास्पदे । कथंभूतो नरः । स्त्रीकुक्षौ पीडिताङ्गः पीडितं अङ्गं यस्य सः । पुनः क्लेदलिप्तः क्लेद उदररसस्तेन लिप्तः । एवंविधदुःखान्निर्गतः प्राणी भूयः पुनरपि स्त्रीजघने रज्यते। अतः अन्धत्वेनोपमीयते। यथान्धः शठमये शठस्वरूपसंसारे लोकमध्ये भ्रमति। तथा कामान्धो जीवः संसारचक्रे भ्रमति । शठा अन्धं हसन्ति तथा संसारे कामी हस्यते ॥ १९॥
। अथ यौवनरहितानां कामनैरस्यमाह१८. एते ते दिवसास्त एव तरवस्ताश्च प्रगल्भाः स्त्रियस् __ तच्चैवाम्रवनं स कोकिलरवः सोऽयं वसन्तोत्सवः ।
Page #177
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
वातः सोऽपि च दक्षिणो धृतिकरः सेयं सचन्द्रा निशा
हा तारुण्य विना त्वयाऽद्य सकलं पालालपूलायते ॥ २० ॥
हे तारुण्य तरुणभाव ! त्वया विनाऽद्य जरावस्थायां वसन्तसमये सकलं समयं पालाल - पूलायते शुष्कतृणपुंजायते । यथा पालालपूलको निबन्धोऽदृढस्तथा यौवनमन्तरे[ण] न किंचित् सुखमनुभूयते । कथम् ? । तदेवाह । एते ते दिवसाः । दिवसानां न भिन्नता । तरवश्चम्पकबकुलजातीकुन्दमचकुन्दाद्यास्त एव नान्यथा । चापरम् । ताः स्त्रियः प्रगल्भाः सुरतोपक्रमनिपुणाः । च पुनराम्रवनं तदेव । कोकिलरवो वसन्तोत्सवः स एव । सोऽपि दक्षिणो धृतिकरो वातः । दक्षिणो दक्षिणदिग्भवः । धृतिः संतोषस्तं करोतीति धृतिकरः । सेयं सचन्द्रा रात्रिश्चान्द्री रात्रिः । तथापि तारुण्यं विना सर्व पलालपूलीयवन्निरर्थकमित्यर्थः । तारुण्यदर्पोद्ध (?) राणां सर्व मन्मथजनकं न तु वृद्धानाम् ॥ २० ॥
१४२
मूर्खाणां तत्त्वज्ञानं न भवति तत्स्वरूपं निरूपयति१९. विनिष्ठं करकर्परं पथि गतं मूर्खेजडैर्धिक्कृतं विप्रैस्तत्त्वविचिन्तकैर्न मसितं स्वात्मप्रबोधैर्नुतम् । नृत्यन्तं च दिगम्बरं च जटिलं बालैश्च मुक्तं जडं
डिम्भावोपहसन्ति चत्वरपथे दत्त्वा मुहुः स्फाटिकाम् ॥ २१ ॥
दिगम्बरं नृत्यन्तं प्रति डिम्भाः बालाः स्फाटिकां तालिकां दत्त्वा हसन्ति । कस्मिन् ? । चत्वरपथे । कथम् ? | मुहुः वारं वारम् । कथंभूतं दिगम्बरम् ? । विभिष्ठं वेदनं वित् तत्र निष्ठं विन्निष्ठं ज्ञानरूपम् । करकर्परं करे कर्परं मृद्भाण्डं यस्यासौ करकर्परस्तम् । पुनः कथंभूतम् ? | पथि गतं मार्गस्थम् । पुनः कथंभूतम् । मूर्खेर्जनैर्धिक्कृतम् । पुनः किंभूतम् ? । तस्त्वविचिन्तकैविप्रैर्नमसितं नमस्कृतम् । पुनः कीदृशम् ? | स्वात्मप्रबोधैर्नुतं स्तुतम् । 'णु स्तुता' विति वचनात । पुनः कीदृशम् ?। जटिलं जटायुक्तम् । पुनः कथंभूतम् ? । बालैरज्ञैर्मुक्तं त्यक्तम् । अत एव जडम् । एवंविधं तपोधनं मूर्खाः हसन्ति । न तत्राश्चर्यम् ॥ २१ ॥
अधुना स्वनिर्वेदं निवेदयन्नाह । निर्वेदः स्वावमाननम्
२०. नो पश्याम्यसतां मुखं न धनिनां वाचं शृणोम्यश्रवां
नो मिथ्यागुणकीर्तनै रहरहः संस्तौमि कुस्वामिनम् । नाहं चादृतबन्धुरुद्धतभुजो वृत्तानुबन्धे स्थितो
दोषोपाश्रयसंग्रहव्यसनिनि च्छिन्नेऽधुना मूर्द्धनि ॥ २२ ॥
अधुना मूर्धनि मस्तके छिन्ने सति एवंविधमभूदित्यध्याहार्यम् । कथंभूते मूर्धनि । . दोषोपाश्रय संग्रहव्यसनिनि दोषाणामुपाश्रयस्तस्य संग्रहस्तस्य व्यसनं विद्यते यस्य स तस्मिन्
Page #178
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकाधिकश्लोकाः।
१४३ किं करोमि तदाह । असतां मुखं नो पश्यामि । धनिनां द्रविणवतां अश्रवां श्रवणम(? वणा) योग्यां वाचं न शृणोमि । शीर्षच्छेदस्य गुणः । अहरहः कुस्वामिनां (नं) मिथ्यागुणकीर्तनों संस्तौमि वचनाभावात् । च पुनरहमादृतबन्धुने वा उद्धतभुजो वृत्तानुबन्धे स्थितः । वृत्तंआचारस्तस्यानुबन्धः सेवनं तत्र स्थितः । एतत्स्वरूपं जीवतामेव न मृतानाम् । अतः शीर्षे छिन्ने सर्व सुखमभूदिति निर्वेदः ॥ २२ ॥
अथ नारीनेत्रस्वरूपज्ञानानैपुण्यं स्वस्मिन्नारोपयन्नाह२१. व्यालुम्पन्ति समाधिमाधिविधुरं चैता नमस्कुर्वते
लोभाभावविशेषभूरिविरहे संप्राप्य यूनां गणम् । एतासां नु वयं न चम्पकरुचिष्वङ्गेष्वनङ्गीकृतं
प्रामाण्ये हरिणीदृशां बत दृशोरन्तःस्थिता ब्रह्मणि ॥ २३ ॥ एता नार्यो यूनां गणं संप्राप्य समाधि व्यालम्पन्ति स्वसमाधिं त्यजन्ति । च पुनः आधिविधुरं मानसव्यथाविह्वलं यथा स्यात्तथा नमस्कुर्वते नमस्कारं कुर्वन्ति मन्मथपीडिताः सत्यः । कस्मिन् ? । लोभाभावविशेषभूरिविरहे लोभस्याभावो लोभाभावो लोभाभावस्य विशेषस्तस्माद् यो भूरिविरहः प्रचुरवियोगस्तस्मिन् । लोभं विना विशेषविरहपीडने सति कामिन्यः पूर्वोक्तां चेष्टां कुर्वन्ति । कथंभूतं यूनां गणम् ? । चम्पकरुचिष्वङ्गेषु अनङ्गीकृतं नार्यङ्गेष्वनङ्गतया व्याप्तम् । अथ कविस्तत्स्वरूपाज्ञातत्वं प्रकटयति । नु इति वितर्के । वयं एतासां हरिणीदृशां दृशोः ] ब्रह्मणि ज्ञाने बत आश्चर्ये न अन्तस्थिता अन्तं न प्राप्ताः । कथंभूते ब्रह्मणि ? । प्रामाण्ये सत्यरूपे । अनेन प्रामाण्यज्ञानस्यापि वयं ज्ञातुमसमर्थाः । नारीभिर्जगद् वश्यते इत्यर्थः ॥ २३ ॥
अथ योगमार्गस्वरूपं आविःकुर्वन्नाह२२. गात्रं पात्रं प्रथमवयसि प्रेयसीनां स्तनानाम्
आश्लेषाणां तदिह मधुनो वन्य मन्य कृतार्थम् । ये नासीने त्वयि गिरितटे श्लिष्टनासाग्रदृष्टौ
हर्षस्पर्श जहति हरिणश्रेणयः कायकण्डूः ॥ २४ ॥ हे वन्य हे तापस ! मन्य कृतार्थ कृतकृत्यं जानीहि । कथम् ? । तद् गात्रं प्रथमवयसि प्रेयसीनां स्तनानां आश्लेषाणां इह जन्मनि मधुनो मदस्य वा पात्रं स्थानं अभूत् । एते. पदार्था अस्मिन् शरीरे बभूवुः । अधुना वन्यावस्थायां ये न । त्वयि गिरितटे आसीने सति हरिणश्रेणयो • मृगपतयो हर्षस्पर्श यथा स्यात्तथा कायकण्डूर्जहति त्यजन्ति चेत्यर्थः । पूर्व इदं शृङ्गारास्पदं इदानीं वैराग्यपूरितमवस्थाभेदात् ॥ २४ ॥
Page #179
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् जरास्वरूपमाह२३. गात्रं संकुचितं गतिविगलिता दन्ता विनाशं गता ___ दृष्टिभ्रंश्यति रूपमेव हसितं वक्त्रं च लालायते । वाक्यं नैव करोति बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते
हा कष्टं जरयाऽभिभूतपुरुषः पुत्रैरवज्ञायते ॥ २५ ॥ हा इति खेदे । कष्टं जरां प्रति धिक् । कथम् ? । जरया अभिभूतः जराव्याप्तः पुमान् पुत्रैरपि अवज्ञायते निन्द्यते । यया जरया गात्रं संकुचितं कृशीकृतम् । गतिर्विगलिता भमा । जरातो दन्ता विनाशं गताः पतिताः । जरया दृष्टिभ्रंश्यति निस्तेजा भवति । रूपमेव हसितं गतम् । च पुनः वक्त्रं मुखं लालायते लालायुक्तं भवति । बान्धवजनः तस्य वाक्यं न करोत्येव । तं पुरुषं पत्नी न शुश्रूषते शुश्रूषां न करोति । इति कारणात् धिक् ॥ २५ ॥
अथ नगरवनावस्थयोः साम्यमाह२४. एकैव काचिन्महतामवस्था सूक्ष्माणि वस्त्राण्यथ वा च कन्था ।
कराग्रलग्नाऽभिनवा च बाला गङ्गातरङ्गेष्वथ वाऽक्षमाला ॥ २६ ॥
महतां काचिदवस्था एकैव समानैव । कथम् ? । सूक्ष्माणि वस्त्राणि भवन्तु । वा अथ वा कन्था भवतु । अथ बाला नारी कराग्रलग्ना भवतु । अथ वा गङ्गातरङ्गेषु अक्षमाला
भवतु ॥२६॥
अधुना योगीन्द्रवाक्यस्वरूपमाह - २५. न भिक्षा दुःप्रापा पथि पथि मठारामसरितः
फलैः संपूर्णा भूमंगविटपिचर्माधिवसनम् । सुखे वा दुःखे वा सदृशपरिपाकः खलु तदा
त्रिनेत्रं कस्त्यक्त्वा धनलवमदान्धं प्रणमति ॥ २७ ॥ तदा तर्हि कः पुमान् त्रिनेत्रं त्यक्त्वा धनलवमदान्धं प्रणमति हरं विहाय धनिनं प्रणमति । कथम् ? । भिक्षा न दुःप्रापा । पथि पथि मार्गे मार्गे मठारामसरितः सुलभा एव । फलैर्भूः पृथिवी संपूर्णा वर्तते । मृगविटपिचर्मणामपि वसनं मृगत्वक् वृक्षत्वक् तयोर्वस्त्रं वर्तते । सुखे वा दुःखे सदृशपरिपाक एव । ततः को धनिनां चाटुत्वं कुरुते ॥ २७॥ __ अथ वनवासिनां सुखस्वरूपमाह२६. स्थितिः पुण्येऽरण्ये सह परिचयो हंसहरिणैः ।
फलैर्मेध्या वृत्तिः प्रतिनदि तलान्येव दृषदः।
Page #180
--------------------------------------------------------------------------
________________
वैराग्यशतकाधिकश्लोकाः। इतीयं सामग्री भवति हरि(?र)भक्तिं स्पृहयतां
__ वनं वा गेहं वा सदृशमुपशान्तैकमनसाम् ॥ २८ ॥ . उपशान्तैकमनसां सतां वनं वा गेहं सदृशं सममेव । कथंभूतानाम् ? । हरभक्तिः (?क्तिं) स्पृहयतां महेश्वरसेवां वाञ्छमानानाम् । कथम् ? । तदाह -पुण्ये पवित्रे अरण्ये वने स्थितिः स्थानम् । हंसहरिणः सह परिचयो भवति । फलैर्मेध्या पवित्रा वृत्तिर्जीवनम् । प्रतिनदि नदी नदी प्रति दृषदस्तलान्येव निवेशनस्थानानि । इतीयं सामग्री भवति । पूर्वोक्तानां हरभक्ति स्पृहयताम् ॥ २८ ॥
सांप्रतं योगस्वरूपमाह२७. शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलिततले कापि पुलिने
सुखासीनाः सान्द्रध्वनिषु रजनीषु धुसरितः । भवाम्भोधौ मनाः शिव शिव शिवेत्यार्तवचसः
कदा श्यामानन्दोद्गतबहुलबाष्पाकुलदृशः ॥ २९ ॥ वयं कदा ईदृशा भविष्यामः ? । क्वापि धुसरितो गङ्गायाः पुलिने तटे रजनीषु सुखासीनाः सुखं स्थिताः । कथंभूते पुलिने ? । शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलिततले शरच्चन्द्रज्योत्स्नया धवलितं तलं यस्य तत् तस्मिन् तटे। कथंभूतासु रजनीषु । सान्द्रध्वनिषु निबिडशब्देषु(?ब्दासु)। रात्रौ सामान्यतः शब्दो भवत्येव । कथंभूता वयम् ? । भवाम्भोधौ मनाः संसारसमुद्रबुडिताः । पुनः कथंभूताः?। शिव शिव शिवेत्याविचसः। हे शिव, हे शिव वीप्सायां वर्तमानस्य द्वित्वं त्रित्वं वा, इत्यातं वचो येषां ते। पुनः श्यामानन्दोद्गतबहुलबाष्पाकुलदृशः। आनन्दात् उद्गतं बहुलं धनं बाष्पमश्रुजलं तेनाकुला दृशः। ततः कर्मधारयः । श्यामाश्च आनन्दोद्गतबहुलबाष्पाकुला दृशो येषां ते तथा । एवंविधाः कदा भविष्यामः ।। २९ ।।
पुनः शमस्वरूपमाह२८. अनल्पं जल्पन्तः कति च विगता नो यमपुरं
___ पुरस्तादस्माकं विधृतवदनाव्याप्तनयनाः । अतीता यद्येवं न हि निजहितं चेतसि वयं
चलन्मेहोदाराद् विषयविधिजातादनशिनः ॥ ३० ॥ ___ अस्माकं पुरस्तात् अनल्पं जल्पन्तः बहुतरं कथयन्तः सन्तः कति च यमपरं नो विगताः । कथंभूताः ? । विधृतवदनाव्याप्तनयनाः। विधृतं अस्थिरं च तत् वदनं वकं च •विधृतवदनम् । विधृतवदने अव्याप्ते अप्रकाशयुक्ते नयने लोचने येषां ते विधृतवदनाव्याप्तनयनाः। यदि चेत् एवं अमुना प्रकारेण अतीताः अतिक्रान्ता गताः तथापि वयं चेतसि निजहितं प्रति
१९ शतकत्र.
Page #181
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् चलन्मेहोदाराद् विषयविधिजाताद्' अनशिनः अभोक्तारो न जाताः । चलच्च तन्मेहं लिङ्ग च तेन उदारात् श्रेष्ठात् विषयविधिजातात् अनशिनो जाताः । अश्नाती(?श्नन्ती)त्येवंशीलोला) अशिनः, न अशिनः अनशिनः अभोक्तार इत्यर्थः । एतेन बहून् मृतान् दृष्ट्वा वयमपि भोगेष्वसक्ता एव जाताः ? । मरणभयं दृष्ट्वा न भोगवाञ्छा त्यक्ता इत्यर्थः ॥ ३० ॥ ____ अथ संसारे निर्ममताप्रधानत्वं वर्णयति२९. भव्यं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरान्ते ततः किं ___कौपीनं वा ततः किं सितममलतरं पट्टकूलं ततः किम् । एका भार्या ततः किं शतगुणगणिता कोटिरेका ततः किं
चैको भ्रान्तस्ततः किं गजतुरगशतैर्वेष्टितो वा ततः किम् ॥३२॥ भव्यं भुक्तमित्यादि । भव्यं शाल्योदनादि भुक्तं ततस्तस्मात् किं संजातम् । क्षणिका तृप्तिरुत्पन्ना । अथ वा कदशनं नीरसान्नं वासरान्ते दिनान्ते प्राप्तं ततः किं जातम् । वा अथ वा को(कौ)पीनं कक्षापटः [ परिहितं ततः किं जातम् , अथवा ] सितं श्वेतममलतरं पट्टकूलं अत्युज्वलं दुकूलं परिहितं ततः किं जातमित्यर्थः । सर्वस्यानित्यत्वात् । एका भायो ततः किं जातम् । वा शतगुणगणिताः शतशो यावत्कोटिसंख्या भार्या जातास्ततः किम् । एकया यत् कार्य कोटिगुणितयापि तत् कार्यम् । एकः शरीरमात्रो भ्रान्तः पृथ्वीं गतस्ततः किं जातम् , वा अथ वा गजतुरगशतैर्वेष्टितस्ततः किं निष्पन्नमेव । स्वतः एक एव । अन्ये सर्वे बाह्या भावास्तैर्न किंचित् स्वार्थसाधनं भवतीत्यर्थः ॥ ३२ ॥
अथ नारीस्वरूपमात्मनिन्दया निरूपयति३०. अलमतिचपलत्वात् खप्नमायोपमत्वात्
परिणतिविरसत्वात् संगमेन प्रियायाः। इति यदि शतकृत्वस्तत्त्वमालोकयामि । तदपि न हरिणाक्षी विस्मरत्यन्तरात्मा ॥ ३३ ॥
अहं यदि शतकृत्वः शतवारान् इति तत्त्वमालोकयामि तत्त्वं विचारयामि । तदपि हरिणाक्षी मृगलोचनां कामिनी अन्तरात्माऽन्तर्यामी न विस्मरति मानसान्न मुञ्चतीत्यर्थः । इतीति किम् ? । अतिचपलत्वात् चाञ्चल्यस्वभावात् । स्वममायोपमत्वात् स्वमं च माया च स्वप्नमाये स्वप्नमायाभ्यामुपमीयते स्वप्नमायोपमं तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात् । परिणतिविरसत्वात् परिणामेन नीरसत्वात् । प्रियायाः संगमेन अलं पूर्यताम् । एवं बहुधा विचारयामि । तथापि नारी नो विस्मरामि । इत्यात्मनो निन्दानिरूपणम् । अलं भूषणपर्याप्तवारणेषु ॥ ३३ ॥
॥ इति शेषकाव्यटीका ॥ श्रीः ॥ शुभं भवतु ॥
Page #182
--------------------------------------------------------------------------
________________
सपरिशिष्टस्य भर्तृहरिकृत -शतकत्रयस्य श्लोकानामकारादिक्रमेण
अनुक्रमः ।
अकरुणत्वमकारण. अग्राह्यं हृदयं.
अग्रे गीतं सरस. अच्छाच्छचन्दन.
शृङ्गार. ३८ पृ. ५५
वैराग्य. २२. पृ. ८८
नीति. २. पृ. २
वैराग्य. ३३. पृ. ९२ शृङ्गार. ६५. पृ. ६५
अधिगतपरमार्थान्.
नीति. १२. पृ. ६
अनल्पं जल्पन्तः. परि. वैराग्य. ३०. पृ. १४५ शृङ्गार. २०. पृ. ४८
अनाघ्रातं पुष्पं.
वैराग्य. ३६. पृ. ९३
अनावर्ती कालो. अपसर सखे.
शृङ्गार. ८२. पृ. ७०
अप्रियवचनदरिद्रैः परि. नीति. ७८. पृ. १२८ अभिमतमहामान. वैराग्य. ११०. पृ. १२२ अभिमुखनिहतस्य.
अजानन् माहात्म्यं
अज्ञः सुखमाराध्यः.
अतिक्रान्तः कालः.
अदर्शने दर्शनमात्र
नीति, ७५. पृ. ३०
नीति. ५०. पृ. २२
वैराग्य. ६३. पृ. १०५
अभुक्तायां यस्यां
नीति. १०२. पृ. ३९ वैराग्य. २६. पृ. ९० अमीषां प्राणानां. वैराग्य. ३८. पृ. ९४ अम्भोजिनीवन. नीति. ४३. पृ. १९ अरक्षितं तिष्ठति परि. नीति. ९२. पृ. १२८ अर्थानामीशिषे त्वं. वैराग्य. ३१. पृ. ९१ अर्धं नीत्वा निशायाः शृङ्गार. ९८. पृ. ७७ अलमतिचपल. परि. वैराग्य. ३३. पृ. १४६ अवश्यं यातारश्. वैराग्य. १७. पू. ८६ अविज्ञानाद् राज्ञौ. परि. नीति. ९९. पृ.१२९ असन्तो नाभ्यर्थ्याः. असाराः सन्त्येते. असितात्मसु संबद्ध:.
नीति. १४. पृ. ७
शृङ्गार. १४. पृ. ४६ शृङ्गार. ७६. पृ. ६८
असूचीसंचारे तमसि. शृङ्गार. ९०. पृ. ७४ अहौ वा हारे वा. परि. वैराग्य. ८९. पृ. १३८ आघातं मरणेन वैराग्य. १०६. पृ. १२० आघ्राय पुस्तकं. परि. वैराग्य. १५. पृ. १३९ आज्ञा कीर्तिः पालनं. नीति. ८८. पृ. ३४ आदित्यस्य गतागतै. वैराग्य. ८. पृ. ८३ आधिव्याधिशतैर् . वैराग्य. १०७. पृ. १२१ आमीलितनयनीनां. शृङ्गार. ६८. पू. ६६ आयुः कल्लोललोलं. वैराग्य. ८४. पृ. ११२ आयुर्वर्षशतं. वैराग्य. १०९. पृ. १२१ आरम्भगुर्वी. नीति. ७७. पृ. ३०
नीति. ६१. पृ. २५
शृङ्गार. ३१. पृ. ५२
आवासः किलकिञ्चितस्य शृङ्गार. ८७. पृ. ७३ आवासः क्रियतां . शृङ्गार. ८९. पृ. ७४ आवासः क्रियतां परि. शृङ्गार. ७९. पृ. १३३ आशा नाम नदी. वैराग्य. ४७ पृ. ९८ आसंसारं त्रिभुवनमिदं वैराग्य. ४८. पृ. ९९ आसारेण न हर्म्यतः शृङ्गार. ९७. पृ. ७६ इतः खपिति केशवः. इतो विद्युद्वल्ली. इदमनुचितमक्रमश्च. इमे तारुण्यश्री.
नीति. १६. पृ. ८
इयं बाला.
आलस्यं हि मनुष्याणां आवर्तः संशयाना.
इयं बाला. इह हि मधुरगीतं.
शृङ्गार. ८५. पू. ७२ शृङ्गार. ७९. पृ. ६९ शृङ्गार. ८६. पू. ७२ वैराग्य. ६९. पृ. १०७
परि. शृङ्गार. १९. पृ. १३२
शृङ्गार. ४१. पृ. ५७
वैराग्य. ५. पृ. ८२
उत्खातं निधिशङ्कया. उत्खातान् प्रति. परि. नीति. ९६. पृ. १३०
Page #183
--------------------------------------------------------------------------
________________
१४८
भर्तृहरिकृत-शतकत्रयस्य उदन्वच्छन्ना भूः. नीति. १७. पृ. ८ कियती पञ्चसहस्री. परि. शृङ्गार.७८.पृ.१३३ उद्भासिताखिलखलस्य. नीति. ९०. पृ. ३४ | कुङ्कुमपङ्ककलङ्कित. शृङ्गार. ६०. पृ. ६३ उद्यानेषु विचित्र. वैराग्य. ९८. पृ. ११७ कुसुमस्तबकस्येव. नीति. ३९. पृ. १६ उद्वृत्तस्तनभार एष. शृङ्गार. ६२. पृ. ६४ कृच्छ्रेणामध्यमध्ये. वैराग्य. १०८. पृ. १२१ उन्मत्तप्रेमसंरम्भा. शृङ्गार. ५७. पृ. ६२ कृमिकुलचितं. नीति. ३३. पृ. १४ उन्मीलत्रिवलीतरङ्ग. शृङ्गार. ४०. पृ. ५६ कृशः काणः खञ्जः. वैराग्य. १९. पृ. ८७ उपरि धनं घनपटलं. शृङ्गार. २२. पृ. ४९ केयूरा न विभूषयन्ति. नीति. १०३. पृ. ३९ उपरि निपतितानां. शृङ्गार. ६६. पृ. ६५
केशाः संयमिताः. शृङ्गार. ९१. पृ. ७४ एकाकी निःस्पृहः. वैराग्य. ७४. पृ. १०८
केशानाकुलयन्. शृङ्गार. १०१. पृ. ७८ एकेनापि हि शूरेण. नीति. ८३. पृ. ३२
कौपीनं शतखण्ड. वैराग्य. १०३. पृ. ११९ एकैव काचिन्. शृङ्गार. १०३. पृ. ७९
क्वचित् सुभ्रूभङ्गैः. शृङ्गार. २५. पृ. ५० एकैव काचिन्. परि. वैराग्य. २६. पृ. १४४
क्वचिद् भूमौ शय्या. नीति. १८. पृ. ८
क्षणं बालो भूत्वा . वैराग्य. ११६. पृ. १२४ एको देवः केशवो वा. नीति. ५३. पृ. २३
क्षान्तं न क्षमया. वैराग्य. १४. पृ. ८५ एको रागिषु राजते. शृङ्गार. ७८. पृ. ६९
क्षान्तं न क्षमया. परि. वैराग्य, १५. पृ.१३६ एतत् कामफलं लोके. शृङ्गार. ५१. पृ. ६०
क्षीरेणात्मगतोदकाय. नीति. ३१. पृ. १३ एतस्माद् विरमे. वैराग्य. ६०. पृ. १०३ ।
क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि. नीति. १३. पृ.६ एताश् चलद्वलय.. शृङ्गार. ९. पृ. ४४
खलोल्लापाः सोढाः. वैराग्य. ६. पृ. ८२ एते ते दिवसा. परि. वैराग्य. २०. पृ. १४१ खल्वाटो दिवसेश्वरस्य. नीति. ४४. पृ. १९ एते सत्पुरुषाः. नीति. ४७. पृ. २० गङ्गातरङ्गकणशीकर. वैराग्य. ७२. पृ. १०८ ऐश्वर्यस्य विभूषणं. नीति. ४६. पृ. २० गङ्गातीरे हिमगिरि. वैराग्य. ४३. पृ. ९६ कदर्थितस्यापि हि. नीति. ८४. पृ. ३२ गर्भावासे शयित्वा. परि. वैराग्य. १९. पृ.१४१ करे श्लाघ्यस्त्यागः. नीति. ९३. पृ. ३६ गात्रं पात्रं. परि. वैराग्य. २४. पृ. १४३ कर्मायत्तं फलं पुंसां. नीति. ६०. पृ. २५ गात्रं संकुचितं. परि. वैराग्य. २५. पृ. १४३ कश्चम्बति कुलपुरुषो. शृङ्गार. ४९. पृ. ६० गुणवदगुणवद्वा. नीति. ५२. पृ. २२ कान्ताकटाक्षविशिखा. नीति. ७६. पृ. ३० गुरुणा स्तनभारेण. शृङ्गार. ७५. पृ. ६८ कान्तेऽत्युत्पललोचने. शृङ्गार. २४. पृ. ५० ग्रामे ग्रामे. परि. वैराग्य. ३. पृ. १३७ कामिनीकायकान्तारे. शृङ्गार. ४३. पृ. ५७ चण्डालः किमयं. वैराग्य. ५८. पृ. १०३ किं कन्दाः . वैराग्य. ७१. पृ. १०७ चुम्बन्तो गण्डभित्ती. शृङ्गार. १०२. पृ. ७९ किं कूर्मस्य भरव्यथा. नीति. ९९. पृ. ३८ चूडोत्तंसितचारु. शृङ्गार. १. पृ.४१ किं गतेन यदि. शृङ्गार. ६७. पृ. ६६ छिन्नोऽपि रोहति तरुः नीति. ७९. पृ. ३१ किं वेदैः स्मृतिभिः. वैराग्य. ८३. पृ. ११२ जयन्ति ते सुकृतिनो. नीति. ६८. पृ. २७ किमिह बहुभिरुक्तैर् . शृङ्गार. १७. पृ. ४७ । जल्पन्ति साधे. परि. शृङ्गार. ५७. पृ. १३१
Page #184
--------------------------------------------------------------------------
________________
जाड्यं धियो हरति जाड्यं हीमति गण्यते. कूर्मः . . जातिर्यातु रसातलं.
जात्यन्धाय च.
जीर्णा एव.
जीर्णा कन्या.
ज्ञानं सतां .
ज्ञानं सतां.
नीति. ४८. पृ. २१. नीति २२. पृ. १० वैराग्य. ११५. पृ. १२४
नीति. २३. पृ. ११ शृङ्गार. ४८. पृ. ५९ वैराग्य. ९३. पृ. ११५ वैराग्य. ७७. पृ. १०९ वैराग्य. ९२. पृ. ११५ परि शृङ्गार. ७७. पृ. १३३ वैराग्य. ४२. पृ. ९६
तपस्यन्तः सन्तः.
तरुणीवेषा दीपित. तस्मादनन्तमजरं तस्याः स्तनौ यदि.
तावदेव कृतिनामयं. तावदेवामृतमयी.
तावन्महत्त्वं.
श्लोकानामकारादिक्रमेण अनुक्रमः ।
शृङ्गार. ९६. पृ. ७६ वैराग्य. ७८. पृ. ११० शृङ्गार. ८३. पृ. ७१
शृङ्गार. ३. पृ. ४२ शृङ्गार. ७०. पू. ६७ शृङ्गार. ५३. पृ. ६१ वैराग्य. ९४. पृ. ११६
तृषा शुष्यत्यास्ये. तृष्णां छिन्धि. नीति. ५१. पृ. २२ त्रैलोक्याधिपतित्व. वैराग्य. ८२. पृ. १११ त्वं राजा वयम. वैराग्य. २५. पृ. ८९ ददतु ददतु गालीर्. परि. वैराग्य २. पृ. १३७ दद्यात् साधुर्यदि. परि. नीति. ९७. पृ. १३० दाक्षिण्यं खजने. नीति. ९२. पृ. ३५ दातव्यं भोक्तव्यं. परि. नीति. ९४. पृ. १२९ दानं भोगो नाशस्. नीति. ६३. पृ. २६ दिक्कालाद्यनवच्छिन्ना. वैराग्य. १. पृ. ८१ दिश वनहरिणीभ्यो. शृङ्गार. १३. पृ. ४५ दीनादीनमुखैः सदैव वैराग्य. ९. पृ. ८४ दुराराध्यः स्वामी. वैराग्य. ५५. पृ. १०१ दुर्जनः परिहर्त्तव्यो. नीति. ३०. पृ. ११ • दूरादर्थं घटयति. नीति. १००. पृ. ३८ देवेन प्रभुणा स्वयं. नीति. १०१. पृ. ३९
१४९
दौर्मयान् नृपतिर् नीति. २१. पृ. १० द्रष्टव्येषु किमुत्तमं. शृङ्गार. ४७. पृ. ५९ धन्यानां गिरिकन्दरे. वैराग्य. १०५. पृ. १२० धन्यास्त एव चपला. शृङ्गार. ४. पृ. ४२ धिक् किंजीवन. परि. वैराग्य. १८. पृ. १४० न कचिचण्डकोपाना. नीति ७३. पृ. २९ न गम्यो मन्त्राणां.
न ध्यातं पद.
शृङ्गार. ७१. पृ. ६७ वैराग्य. १२. पृ. ८५ वैराग्य. २८. पृ. ९०
न नटा न विटा.
न भवति भवति च. परि. नीति. ९२. पृ. १२८ भिक्षा दुःप्रापा. परि. वैराग्य. २७. पृ.१४४ न भिक्षा दुष्प्रापा. वैराग्य. ३६ 4. पृ. ९४ नमस्याम देवान्. नीति २०. पृ. ९ नम्रत्वेनोन्नमन्तः. नीति. ४१. पृ. १७ न संसारोत्पन्नं. वैराग्य. ३. पृ. ८१
वैराग्य. ९१. पृ. ११५
शृङ्गार. २७. पृ. ५१ वैराग्य. ९९. पृ. ११८
नाभ्यस्ता भुवि . नामृतं न विषं. नायं ते समयो. निन्दन्तु नीतिनिपुणा. नीति. १०, पृ. ५ निवृत्ता भोगेच्छा. वैराग्य. १०. पृ. ८४ नूनं हि ते कविवरा. शृङ्गार. ६१. पृ. ६३ नूनमाज्ञाकरस्तस्याः. शृङ्गार. ७२. पृ. ६७ नेता यत्र बृहस्पतिः नीति. ५९. पृ. २५ नैवाकृतिः फलति. नीति. ४५. पृ. १९ नो खङ्गेन. परि. वैराग्य. नो चिन्तामणो. परि. वैराग्य. नो पश्याम्यसतां. परि. वैराग्य. नो सत्येन मृगाङ्क. पद्माकरं दिनकरो. परिक्षीणः कश्चित्.
१६. पृ. १३६ १४. पृ. १३९ २२. पृ. १४२ शृङ्गार. ३२. पृ. ५३ नीति. ८१. पृ. ३२
नीति. ७. पृ. ४
परिचरितव्याः परि. नीति. १००. पृ. १३१
परिमलभृतो वाताः.
शृङ्गार. ३७. पृ. ५५
Page #185
--------------------------------------------------------------------------
________________
भर्तृहरिकृत - शतकत्रयस्य
१५०
परिवर्तिनि संसारे. नीति. ९६. पृ. ३७ परेषां चेतांसि . वैराग्य. ३५. पृ. ९३ परोऽपि हितवान् . परि. नीति. ९४. पृ. १२८ पाणिः पात्रं पवित्रं वैराग्य. ५४. पृ. १०१ पातालमाविशसि. वैराग्य. ७९ पृ. ११० पातालान विमोचितो . वैराग्य. ११७. पृ. १२५ पातितोऽपि कराघातै. नीति. २५. पृ. १२ पान्थस्त्री विरहा. शृङ्गार. ८४. पृ. ७१ पापान् निवारयति. नीति. ३५. पृ. १५ वैराग्य. ५७. पृ. १०२ वैराग्य. ६४. पृ. १०४
वैराग्य. २९. पृ. ९१
पुण्ये ग्रामे वने वा पुण्यैर्मूलफलैः. पुराविद्वत्तासी. प्रणयमधुरप्रेमोद्वारा. शृङ्गार. ५८. पृ. ६२ प्रथितः प्रणयवतीनां शृङ्गार. ९२. पृ. ७५ प्रदानं प्रच्छन्नं. नीति. ७८. पृ. ३१ प्रशान्तशास्त्रार्थ. वैराग्य. ११८. पृ. १२५ प्रसह्य मणिमुद्धरेन् प्राङ् मा मेति.
नीति. ३. पृ. ३ शृङ्गार. ६९. पृ. ६६ प्राणाघातान्निवृत्तिः. वैराग्य. ६५. पृ. १०५ प्राप्ताः श्रियः. वैराग्य. ७५. पृ. १०९ प्रायः कन्दुकपातेन. नीति. २६. पृ. १२ प्रियसखि विपद्दण्ड. वैराग्य. १००. पृ. ११८ प्रीणाति यः सुचरितैः नीति. २७. पृ. १२ प्रोढप्रिय. शृङ्गार. ९९. पृ. ७७ बाले लीलामुकुलित. शृङ्गार. १८. पृ. ४७ बाले लीलामुकुलित. वैराग्य. ६८. पृ. १०६ बिशमलमशनाय. वैराग्य. २३. पृ. ८८ बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः. वैराग्य. २. पृ. ८१ ब्रह्मज्ञानविवेकिनो. वैराग्य. १११. पृ. ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं वैराग्य. ८५. पृ. ब्रह्मा येन कुलाल. भक्तिर्भवे मरण.
१२२
११२
नीति. ३८. पृ. १६ वैराग्य. ७६. पृ. १०९
भग्नाशस्य करण्ड. भवति वचसि सङ्ग भवन्ति नम्रास्तरवः . भवन्तो वेदान्त.
भव्यं भुक्तं ततः. परि. भिक्षाशनं तदपि . भिक्षाशी जनसङ्ग भीमं वनं भवति. भुञ्जीमहि वयं भोगा न भुक्ता
भोगा भरवृत्तयो. वैराग्य. १०४. पृ. ११९
भोगा मेघवितान. भोगास्तुङ्गतरङ्ग. भो मर्त्याः. भ्रातः कष्टमहो.
भ्रान्त्वा देशमनेक. भ्रूचातुर्याकुञ्चिताक्षाः
नीति. २४. पृ. ११ शृङ्गार. ६. पृ. ४३ नीति. ८०. पृ. ३१ शृङ्गार. १५. पृ. ४६. वैराग्य. ३२. पृ. १४६ वैराग्य. २०. पृ. ८७ वैराग्य. ८८. पृ. ११३ नीति. ५५. पृ. २३
परि. वैराग्य. १. पृ. १३७ वैराग्य. १३. पृ. ८५
वैराग्य. ५६. पृ. १०२ वैराग्य. ११३. पृ. १२३ परि. वैराग्य. ८७. पृ. १३८ वैराग्य. ३९. पृ. ९५
वैराग्य. ४. पृ. ८२
शृङ्गार. २८. पृ. ५१ नीति. ५७. पृ. २४
नीति. ६. पृ. ४
मज्जत्वम्भसि यातु. मणिः शाणोल्ली:. मत्तेभकुम्भदलने. मत्तेभकुम्भपरि मत्तेभकुम्भपरि. परि. मधुरयं मधुरैरपि. मनसि वचसि काये. महादेवो देवः. महीशय्या शय्या.
शृङ्गार. ७ पृ. ४३ शृङ्गार. १९. पृ. ४८ शृङ्गार. १८. पृ. १३१ शृङ्गार. ५२. पृ. ६१.
नीति. १५. पृ. ७ वैराग्य. ४५. पृ. ९७ वैराग्य. ८१. पृ. १११
वैराग्य. ८९. पृ. ११४ वैराग्य. ६६. पृ. १०६
महेश्वरे वा जगतां वैराग्य. १०१. पृ. ११८ मातर् मेदिनि तात. मातर्लक्ष्मि भजख मात्सर्यमुत्सार्य. माने म्लायिनि मालती शिरसि . मुखेन चन्द्रकान्तेन
शृङ्गार. १६. पृ. ४७ वैराग्य. ३४. पृ. ९२ शृङ्गार. ५९. पृ. ६३ शृङ्गार. ७४. पृ. ६८/
Page #186
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकानामकारादिक्रमेण अनुक्रमः। मुग्धे धानुष्कता. शृङ्गार. ७७. पृ. ६९ । रागस्यागारमेकं. शृङ्गार. ४६. पृ. ५८ मृगमीनसज्जनानां. नीति. ३६. पृ. १५ । रागस्यागारमेकं. परि. शृङ्गार. ४१. पृ. १३२
मृत्पिण्डो जलरेखया. वैराग्य, २७. पृ. ९० राजस्तृणाम्बुराशेर्. शृङ्गार. २१. पृ. ४८ • मोहं मार्जयता. वैराग्य. ६२. पृ. १०४ राजन् ! दुधुक्षसि. नीति. ७१. पृ. २८ मौनान्मूकः प्रवचन. नीति. ४०. पृ. १७ रात्रिः सैव. वैराग्य. ८०. पृ. ११० यत्रानेकः क्वचिदपि. वैराग्य. ४१. पृ. ९६ रे कन्दर्प करं. वैराग्य. १०२. पृ. ११९ यथातुरः पथ्य. शृङ्गार. ४५. पृ. ५८ लज्जागुणौघजननी. नीति. ९७. पृ. ३७ यदचेतनोऽपि पादैः. नीति. ८६. पृ. ३३ लभेत सिकतासु. नीति. ४. पृ. ३ यदभावि न. परि. नीति. ९३. पृ. १२९ लाङ्गूलचालनम. नीति. ७०. पृ. २८ यदा किंचिज्ज्ञोऽहं. वैराग्य. ३२. पृ. ९२ लीलावतीनां सहजा. शृङ्गार. ११. पृ. ४५ यदा मेरुः श्रीमान्. वैराग्य. ७३. पृ. १०८
लोभश्चेदगुणेन किं. नीति. ४२. पृ. १८. यदासीदज्ञानं. वैराग्य. ८६. पृ. ११३
वक्त्रं चन्द्रविडम्बि. शृङ्गार. २६. पृ. ५१ यदि धनिनः. परि. नीति. ९८. पृ. १३१
वने रणे शत्रुजला. नीति. ५६. पृ. २४ यदि नाम दैवगल्या. नीति. १०४. पृ. ४०
वयं येभ्यो जाताश. वैराग्य. ४०. पृ. ९५ यदेतत् पूर्णेन्दु. शृङ्गार. ३४. पृ. ५४
वयमिह परितुष्टा. वैराग्य. ५२. पृ. १०० यदेतत् स्वाच्छन्द्यं. वैराग्य. ५३. पृ. १०१
वरं पर्वतदुर्गेषु. नीति. ६२. पृ. २६ यद् धात्रा निज. नीति. ६९. पृ. २७
वरं प्राणच्छेदः. नीति. ५८. पृ. २४ यद्यपि चन्दन. परि. नीति. ९९. पृ. १३१ यद् यस्य नाभि.
वरं शृङ्गोत्तुङ्गाद्. नीति. ८२. पृ. ३२ शृङ्गार. १०५. पृ. ७९ यद्वकं मुहु. परि. वैराग्य. १७. पृ. १४०
वर्ण सितं. परि. वैराग्य. १८. पृ. १४१ यस्यास्ति वित्तं. नीति. ६४. पृ. २६
वलिभिर्मुखमाक्रान्तं. वैराग्य. १५. पृ. ८६ यां चिन्तयामि. नीति. १. पृ. १
वहति भुवनश्रेणी... नीति. ९४. पृ. ३६ यातं यौवमधुना. परि. शृङ्गार. ९८. पृ. १३४
वह्निस्तस्य जलायते. नीति. ८५. पृ. ३३ यावत् खस्थमिदं. वैराग्य. ९०. पृ. ११४
वाञ्छा सज्जनसंगमे. नीति. ४९. पृ. २१ नीति. ३२. पृ. १४
वितीर्णे सर्वखे. या साधूंश्च खलान्.
वैराग्य. ५१. पृ. १०० यूयं वयं वयं यूय. वैराग्य. ६७. पृ. १०६
विद्या काचित्. परि. वैराग्य. ९०. पृ. १३८ येनैवाम्बरखण्डेन. वैराग्य. १६. पृ. ८६
विद्या नाधिगता. वैराग्य. ५०. पृ. ९९ ये वर्धन्ते धनपति. वैराग्य. ४९. पृ. ९९
विद्या नाम नरस्य. नीति. ९१. पृ. ३५ ये संतोषसुख. नीति. १९. पृ. ९
विन्निष्ठं करकपरं. परि. वैराग्य. २१. पृ. १४२ रक्तत्वं कमलानां. नीति. २९. पृ. १३
विपदि धैर्य.
नीति. ९. पृ. ५ रत्नैर्महार्थेस्. नीति. ६५. पृ. २६ . विपुलहृदयैर्धन्यैः. वैराग्य. २४. पृ. ८९ रम्यं हर्म्यतलं. वैराग्य. ७०. पृ. १०७ वियदुपरिसमेघ. शृङ्गार. ९५. पृ. ७६ म्याश्चन्द्रमरीचयस्. वैराग्य. ८७. पृ. ११३ । विरमत बुधा. - वैराग्य. ६४. पृ. १०५
Page #187
--------------------------------------------------------------------------
________________
१५२ भर्तृहरिकृत-शतकत्रयस्य श्लोकानामकारादिक्रमेण अनुक्रमः। विरम विरसाया. नीति. ७४. पृ. २९ । सदा योगाभ्यासे. शृङ्गार. ५. पृ. ४२ विरहेऽपि संगमः. शृङ्गार. ८१. पृ. ७० । सन्त्यन्येऽपि बृह. नीति. ६६. पृ. २६ विवेकव्याकोशे. वैराग्य. १८. पृ. ८६ सन्मार्गे तावदास्ते. शृङ्गार. ३३. पृ. ५३ विश्रम्य विश्रम्य. शृङ्गार.६४. पृ. ६५ सरसा सुपद. परि. शृङ्गार. १०१. पृ. १३३ विश्वामित्र-परा. परि. शृङ्गार. १००. पृ. १३५ सहकारकुसुम. शृङ्गार. ९३. पृ. ७५ विषस्य विषयाणां. परि.शृङ्गार. ९९. पृ. १३४ सहकारकुसुम. परि. शृङ्गार. ५८. पृ. १३४ विस्तारितं मकर. शृङ्गार. ५६. पृ. ६२
सा बाला. परि. वैराग्य. १. पृ. १३५ वेश्यासौ मदन. शृङ्गार. ५०. पृ. ६०
सारं सारङ्ग. परि. वैराग्य. १६. पृ. १३९ वैराग्यं संश्रयत्येको. शृङ्गार. १०४. पृ. ७९
सिंहः शिशुरपि. नीति. ९८. पृ. ३७ व्याघ्रीव तिष्ठति. वैराग्य. ११२. पृ. १२३
सिंहो बली. परि. शृङ्गार. १०१. पृ. १३५ व्यादीर्घेण चलेन. शृङ्गार. ८०. पृ. ७०
सिद्धाध्यासित. शृङ्गार. १२. पृ. ४५ व्यालं बाल. नीति. ८७. पृ. ३३
सुधामयोऽपि. शृङ्गार. ३६. पृ. ५५ व्यालुम्पन्ति. परि. वैराग्य. २३. पृ १४३ सुधाशुभ्रं धाम. शृङ्गार. ८८. पृ. ७३ शंभुवयंभुहरयो. शृङ्गार. ५४. पृ. ६१
सृजति ताव. वैराग्य. ११४. पृ. १२४ शय्या शैलशिला. वैराग्य. ९६. पृ. ११६
स्तनशैलसन्नि. परि. वैराग्य. २. पृ. १३६ शरच्चन्द्रज्योत्स्ना. परि. वैराग्य. २९. पृ. १४५
स्तनौ मांसग्रन्थी. वैराग्य. २१. पृ. ८८ शशी दिवसधूसरो. नीति. ५. पृ. ३
स्त्रीमुद्रां मकर. शृङ्गार. ५५. पृ. ६१ शास्त्रज्ञोऽपि प्रगुणितः शृङ्गार. ३९. पृ. ५६
स्थाल्यां वैडूर्यमय्या. नीति. ५४. पृ. २३ शास्त्रोपस्कृतशब्द. नीति. ८. पृ. ५ स्थितिः पुण्येऽरण्ये. वैराग्य, ३७. पृ. ९४ शिरः शावं वर्गात्. वैराग्य. ४६. पृ. ९८ स्थितिः पुण्येऽरण्ये. परि. वैराग्य.२८. पृ.१४४ शुभ्रं सद्म सविभ्रमा. शृङ्गार. २. पृ. ४१ स्नात्वा गाङ्गैः. वैराग्य. ९५. पृ. ११६ शृङ्गारद्रुमनीरदे. शृङ्गार. ४४. पृ. ५८ स्पृहयति भुजयोरन्तर. नीति. ९५. पृ. ३६ श्रोत्रं श्रुतेनैव. नीति. ६७. पृ. २७ स्फुरत्स्फारज्योत्स्ना. वैराग्य. ४४.पृ. ९७ संतप्तायसि संस्थितस्य. नीति. ३७. पृ. १६
स्मितं किंचिद् वक्त्रं. शृङ्गार.२९. पृ. ५२ संपत्सु महतां चित्तं. नीति. २८. पृ. १३ स्मितेन भावेन च. शृङ्गार. ८. पृ. ४४ संसार तव शृङ्गार. ४२. पृ. ५७
स्मृता भवति तापाय. शृङ्गार. ३०. पृ. ५२ संसारेऽस्मिन्नसारे कुनृ. शृङ्गार. ३५. पृ. ५४ स्रजो हृद्यामोदा. शृङ्गार. ९४. पृ. ७५ संसारेऽस्मिन्नसारे परि. शृङ्गार. २३. पृ. ४९
खपरप्रतारकोऽसौ. शृङ्गार.६३. पृ. ६४ सखे धन्याः . वैराग्य. ५९. पृ. १०३
खल्पस्नायुवशादशेष. नीति. ३४. पृ. १५ स जातः को. वैराग्य. ३०. पृ. ९१
खादिष्ठं मधुनो वैराग्य. ७. पृ. ८३ सति प्रदीपे सत्यग्नौ. शृङ्गार. ७३. पृ. ६७
स्वायत्तमेकान्तहितं. नीति. ८९. पृ. ३४ सत्यं जना वच्मि. शृङ्गार. १०. पृ. ४४ हर्तुर्याति न गोचरं. , नीति. ११. पृ. ६ सल्यानृता च परुषा. नीति. ७२. पृ. २८ । हिंसाशून्यमयत्नलभ्य. वैराग्य. ११. पृ.८४ सल्यामेव त्रिलोकी. वैराग्य. ९७. पृ. ११७ । हेमन्ते दधिदुग्ध. शृङ्गार. १००. पृ. ७५
Page #188
--------------------------------------------------------------------------
________________ धाभव मुद्रक - लक्ष्मीबाई नारायण चौधरी, निर्णयसागर प्रेस, 26-28 कोलभाट स्ट्रीट, बम्बई. 20 प्रकाशक-ज. ह. दवे, ऑनररि डायरेक्टर, भारतीय विद्या भवन, चौपाटी रोड, बम्बई, 7 For Private & Personal use only www.jainebrary org