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भर्तृहरिकृत - शतकत्रयम्
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विद्याके विषयमें है, तब तो इनके संबंध के मेरे हार्दिक और आत्मिक ममत्वभावका और भी प्रगाढ और प्रशस्ततर होना स्वाभाविक ही है । और इस लिये इनके विषयमें कुछ अधिक परिचयात्मक शब्द लिखनेमें मेरा मन संकोचका अनुभव करे यह भी आनुषंगिक है ।
मुझे यह उल्लेख करते हुए दुःख होता है कि मेरे परम मित्र श्री धर्मानन्दजी, जिन्होंने ही आकर, कोई ४ वर्ष पहले, मुझे अपने प्रिय पुत्र बाबाके भर्तृहरिके सुभाषित संग्रहका सुसंशोधित - सुसंपादित संस्करण के तैयार करनेमें व्यस्त रहनेकी सूचना दी थी और जिन्होंने ही बाबाके इस कामको अपनी इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित करनेकी प्रेरणा की थी, वे आज इस लोकमें नहीं हैं और अपने पुत्रके संस्कृत-साहित्यविषयक कार्यका यह सुफल अपने चर्मचक्षुसे देखनेको उपस्थित नहीं हैं ।
दिवंगत श्री धर्मानन्दजीके विषयमें यह उल्लेख करते हुए मुझे उनके साथ के मेरे दीर्घकालीन स्नेहात्मक संबन्धकी पुण्यस्मृति मेरी आखोंके सामने आ कर खडी हो जाती है और मेरे हृदयको गद्गदित कर देती है ।
बौद्ध धर्मके सिद्धान्त और संधका सर्वप्रथम परिचय मुझे श्री धर्मानन्दजीके लेखों द्वारा ही प्राप्त हुआ था । उनकी लिखी हुई 'बौद्धधर्म आणि संघ' तथा 'बुद्धलीलासारसंग्रह' नामक दो मराठी पुस्तकें पढ़ कर मैंने अपनी तद्विषयक जिज्ञासा का आविर्भाव अनुभूत किया । प्रसंगवश, मनोरंजन कार्यालय द्वारा प्रकाशित उनका 'आत्मनिवेदन' मुझे पढनेको मिला और उसमें उनके क्रान्तिमय जीवनकी विविध अवस्थाओं और घटनाओंको पढ़ कर मैं मुग्ध-सा हो गया । मैंने उनके जीवन में और स्वभाव में, अपने ही जीवनके और खभावके कुछ विशिष्ट समान चित्र देखे और मेरा मन उनके प्रति आदर के साथ आकृष्ट हुआ । परंतु जिस अवस्थामें मैंने उनकी वे पुस्तकें पढी थीं और जिस अवस्थामें वे उस समय थे - वे दोनों अवस्थाएँ वैसी विरोधात्मक थीं कि उनके साथ जीवन में मेरा कभी साक्षात्परिचय होने की कोई संभावना ही नहीं की जा सकती थी ।
विधिके नियोगसे मैं, १९२० में, महात्मा गान्धीजी द्वारा प्रारब्ध असहकार आन्दोलनका एक अनुचर बन गया और महात्माजीके आदेशसे अहमदाबाद में स्थापित होनेवाले 'गुजरात विद्यापीठ' के एक विशिष्ट अध्ययन मन्दिरका अध्यक्ष बन गया । विद्यापीठने मेरे तत्त्वावधान में, भारतीय प्राचीन साहित्य, इतिहास, तत्त्वज्ञान, भाषाविज्ञान आदिके अध्ययन, अन्वेषण, संशोधन, संपादन आदि कार्य निमित्त गुजरात पुरातत्त्व मन्दिर नामक एक विशिष्ट संस्था की स्थापना की । उसमें संस्कृत, प्राकृत, देश्य भाषा आदिके विविध प्रकारके शास्त्रोंका अध्ययन-अध्यापन करनेकराने की व्यवस्था की गयी । योगानुयोगसे, श्री धर्मानन्दजीका, अमेरिकाकी हार्वर्ड युनिवर्सिटीमें अपना कार्य समाप्त कर, देशमें आना हुआ। श्री काका साहब कालेलकर की प्रेरणा उन्होंने पुरातत्त्व मन्दिरमें अध्यापक बननेका और पाली वाङ्मयका अध्ययन करानेके असनका कार किया। उसी दिन से हम दोनों परस्पर समानप्रकृतिक एवं समानधर्मी, सहचारी सखा बने । उसके बाद, उनके भी अनेक स्थान परिवर्तन हुए और मेरे भी कई हुए । परंतु हमारा सौहार्द संबंध
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