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परिशिष्ट - २
सिंघी जैन ग्रन्थमालाके २३ वें मणिके रूप में प्रकाशित 'शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह ' नामक पुस्तकमें लिखित प्रधानसंपादकीय वक्तव्यरूप 'किंचित् प्रास्ताविक'
दो वर्ष पहले, (सन् १९४६ में ) भारतीय विद्याग्रन्थावलिके ग्रन्थांक ९ के रूपमें, प्रो० कोसंबीका संपादित किया हुआ 'भर्तृहरि शतकत्रय' का एक अज्ञातनामा दाक्षिणात्य विद्वान् की टीका साथका संस्करण, प्रकाशित किया गया है । इसके संपादकीय प्रास्ताविकमें मैंने प्रो० कोसंबी द्वारा प्रस्तुत ग्रन्थकी एक सुपरिष्कृत एवं सुसंपादित श्रेष्ठ आवृत्तिके थोड़े ही समय में प्रकाशित हो कर विज्ञ पाठकोंके हाथमें उपलब्ध होनेका जो निर्देश किया था – वही ग्रन्थरत्न प्रस्तुत सिंघी जैन ग्रन्थमालाके ३३ वें मणिके रूपमें, अब विद्वानोंके करकमलमें उपस्थित किया जा रहा है ।
प्रो० कोसंबीके मनमें प्रस्तुत ग्रन्थका इस रूपमें, संपादन करनेकी प्रेरणा कैसे उत्पन्न हुई और किस तरह इन्होंने इस ग्रन्थकी सैकडों हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त कर तथा अद्यावधि मुद्रित आवृत्तियोंका निरीक्षण कर, यह सुपरिष्कृत एवं सुसंपादित संस्करण तैयार किया है, इसका संक्षिप्त परंतु रसिक वर्णन, जो इनने अपनी 'प्रिफेस' एवं 'इन्ट्रोडक्शन' में, सारभूत शब्दोंमें किया है वह स्वयं पाठकोंको प्रस्तुत संस्करणका यथेष्ट परिचय करानेमें पर्याप्त है ।
जैसा कि मैंने अपने उक्त ( भारतीय विद्याप्रन्थावलिमें प्रकाशित आवृत्तिके ) प्रास्ताविक वक्तव्यमें सूचित किया है- प्रो० कोसंबीका प्रधान एवं प्रियतर व्यासंग गणित विद्याके अध्ययन-अध्यापनविषयक है । ' ताता फण्डामेंटल रीसर्च इन्स्टीट्यूट' जैसी देशकी एक बहुत प्रतिष्ठित और गंभीर वैज्ञानिक गवेषणा करनेवाली विश्वविख्यात संस्थाके एक विशिष्ट अध्यापक और कार्यवाहक सदस्य हो कर, सारे भारतवर्षमें जो सुख्यातिप्राप्त ५-७ गणितविद्याविशेषज्ञ विद्वान् हैं, उनमें इनका स्थान है । इनके रीसर्चका मुख्य विषय गणित विज्ञान है । इस विषयमें इन्होंने जो कुछ मौलिक आविष्कार किये हैं उनने युरोप और अमेरिकाके विशिष्ट गणितज्ञोंका भी लक्ष्य आकर्षित किया है और इसी लिये अभी अभी युनोकी ओरसे भी इनको अमेरिका आनेका मानप्रद आमंत्रण दिया गया है ।
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प्रो० कोसंबी, मेरे समानधर्मी और श्रद्धास्पद स्वर्गवासी परमप्रिय मित्र धर्मानन्दजीके सुयोग्य पुत्र हैं, इस लिये तो ये बालपन से ही मेरे एक बहुत ही निकटवर्ती आत्मीय जन जैसे हैं पर तदुपरान्त, इन्होंने अपने सरल विशिष्ट स्वभाव, सन्निष्ठा और उत्कट विद्यानुरागका 'परिचय दे कर मेरे हृदयमें और भी अधिक स्नेहाधिकार प्राप्त कर रखा है । इसके साथ जब मैंने इनके संस्कृत विद्यानुरागका भी वैसा ही उत्कट परिचय प्राप्त किया, जैसा इनका गणित
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