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किञ्चित् प्रास्ताविक उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया।१९२९ में मैं जब बर्लिन (जर्मनी) में था तब वे रूस जानेके लिये वहां मुझसे मिलने आये और मेरे साथ ठहरे । बर्लिनमें रहते हुए मेरा मन नूतन समाजवादके विचारोंमें व्यस्त हो गया, कोसंबीजीका मन रूसमें रहते हुए साम्यवादी विचारोंकी ओर आकृष्ट हुआ ।
जर्मनीसे वापस आने पर, सन् १९३०-३४ तक, मेरा 'शान्तिनिकेतन-विश्वभारती में रहना हुआ, तब एक दफह उन्होंने भी वहां आ कर मेरे साथ कुछ समय तक रहनेकी इच्छा प्रदर्शित की थी। पर फिर वे बनारस और सारनाथ आदि स्थानोंमें बसते रहे। फिर उनकी प्रेरणासे बंबईमें परेलमें 'बहुजन विहार' की स्थापना हुई और उसमें रह कर वे अपने सदुपदेशद्वारा इन क्षुद्र माने जाने वाले समाजके निम्न वर्गकी निष्काम सेवा करते रहे । उन्हीं दिनों इस 'भारतीय विद्याभवन' की स्थापना हुई और इसका साहित्यिक एवं शैक्षणिक कार्यभार संभालनेका मुझे कर्तव्य प्राप्त हुआ । मेरी इच्छा रही कि वे भी मेरे साथ इसमें सहकारी बनें और उसके लिये मैंने प्रारंभिक प्रबन्ध भी कुछ किया; लेकिन उनकी मनोवृत्ति अब किसी भी स्थानमें या कार्यमें बद्ध हो कर रहनेकी न रह कर, अप्रतिबद्ध रूपसे चाहे जहां अपना शेष जीवन व्यतीत करनेकी
ओर अधिक झुक रही थी। परंतु उन्होंने मुझसे कहा कि 'पाली वाङ्मय'का प्रधान तात्त्विक ग्रन्थ जो बुद्धघोषका बनाया हुआ विसुद्धिमग्ग है और जिसका संपादन करनेके लिये उनको हार्वर्ड युनिवर्सिटीने ३ दफह अमेरिका बुलाया था, उसका देवनागरी संस्करण निकालनेकी व्यवस्था मैं कर सकूँ तो उनको बहुत प्रियकर होगा।' मैंने उनकी इच्छाका तत्काल स्वीकार कर, भारतीय विद्याभवनकी, भारतीय विद्याग्रन्थावलि के प्रथम ग्रन्थके रूपमें उसके प्रगट करनेका प्रबन्ध किया।
पिछले वर्षों में जब उनका शरीर अधिक क्षीण होता चला और उनको प्रतीत होने लगा कि अब जीवन कुछ विशेष समय रहने वाला नहीं है; तब उन्होंने किस तरह प्राणोंका शान्ति-पूर्वक देहत्याग हो इस विषयमें बहुत कुछ सोच-विचार करना प्रारंभ किया। मेरे साथ जैन संप्रदायमें प्रचलित संलेखना और अनशन व्रतके विषयमें भी उन्होंने कई दफह चर्चा की । इस विचारके परिणाममें आखिरमें उन्होंने सन् १९४६ के सेप्टेंबरमें दोहरी घाट (यु. पी.) के एक एकान्त आश्रममें जा कर संलेखना व्रत आरंभ किया। लेकिन इस प्रकार देहत्याग करना उचित नहीं है ऐसा सन्देश महात्माजीकी तरफसे उनको आग्रहके साथ भेजा गया तब उन्होंने उसका त्याग किया और महात्माजी ही की सूचनानुसार वर्धाके सत्याग्रहाश्रममें जा कर शेष जीवन समाप्त करनेका संकल्प किया।
श्री. कोसंबीजीने बहुत वर्षों पहले कितनीक जातक कथाओंका मराठीमें सार लिख रखा था। लेकिन उतके प्रकाशित करनेकी कोई व्यवस्था वे न कर सके थे। मेरे ध्यान पर इस बातको लाने पर मैंने पूनामें, अपनी स्थापित जैन शिक्षणमाला के प्रथम मणिके रूपमें उसका एक भाग प्रकाशित किया था। उसका दूसरा भाग अभीतक अप्रकाशित ही मेरे पास पड़ा है।
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