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________________ १८ भर्तृहरिकृत शतकत्रयम् विषय है इसका मुझे कोई ध्यान नहीं हुआ। इस समस्याका महत्त्व, मुझे तभी मालूम हुआ जब मैंने प्रो० कोसंबी द्वारा अतीव परिश्रमपूर्वक तैयार किये गये पूरे ४०० कागजोंके पाठान्तर वाले बडे चार्ट देखे तथा असंख्य इन्डेक्सके कार्ड आदि देखे । उस समय मुझे विचार आया कि अपने इस विशाल देशमें हजारों ही संस्कृतज्ञाता, पण्डित और अध्यापक विद्यमान हैं, जिनका जीवन केवल संस्कृतके अध्ययन, अध्यापन और प्रसार पर निर्भर है । पर इन विद्वानोंमें निष्ठापूर्वक अपने विषयकी साधना करने वाले कितने हैं । यह सब मैंने अपने परम मित्र 'बाबा'की प्रशस्तिके लिये नहीं लिखा है; परंतु लिखनेका आशय यह है कि इस देशके संस्कृतके पण्डित और अध्यापक लोक, संस्कृत जिनकी जीविकाका मुख्य विषय नहीं है, ऐसे प्रो० कोसंबीका यह कार्यरूप दृष्टान्त अपने समक्ष रख कर, अपने कर्तव्यमें सजग रहनेकी भावनाको जागृत कर सकें। प्रो० कोसंबीके इस ग्रन्थ पर किये गये संशोधनके परिणामसे यह ज्ञात हो रहा है कि भर्तृहरिकी यह कृति बहुत प्राचीन कालसे जैन संप्रदायमें भी बहुत ही प्रिय और उपादेय रूपमें स्वीकृत हुई है। इसकी सैकडों ही सुन्दर हस्तलिखित प्रतियां जैन ग्रंथ भंडारोंमें विद्यमान हैं। प्रो० कोसंबीको अपने परिशीलनमें अभीतक इसकी जितनी भी पुरानी प्रतियां मिलीं उन सबमें जो अधिक पुरानी पोथी है वह भी एक जैन विद्वान् के हाथ की ही लिखी हुई है जिसका चित्र इसके साथमें दिया जा रहा है । यह प्रति उन प्रसिद्ध प्रतिष्ठासोम गणिके हाथकी लिखी हुई है जिनके बनाये हुए सोमसौभाग्य काव्य आदि ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसी तरह इस ग्रन्थ पर जितनी संस्कृत टीकाएँ बनी हुई ज्ञात हुई हैं, उनमें सबसे पुरानी टीका एक जैन विद्वान्की ही की हुई उपलब्ध हो रही है । यह टीका उपकेश गच्छके विद्वान् यति धनसार गणिकी बनाई हुई है और एक विशिष्ट टीका है । इसके सिवा और भी अनेक जैन विद्वानों द्वारा प्रथित इस ग्रन्थ पर संक्षिप्त संस्कृत अवचूरियां और राजस्थानी-गुजरातीभाषामिश्रित बालावबोध आदि कई व्याख्यात्मक कृतियां उपलब्ध हैं। इसी तरह इस ग्रन्थके अनुकरण रूपमें बने हुए सोमशतक, शृंगारवैराग्यशतक, पमानन्दशतक, धनद त्रिशती आदि कई जैन ग्रन्थ भी उपलब्ध होते हैं। सचमुच सैकडों वर्षोंसे भर्तृहरिके ये सुभाषित पद्य, भारतवर्षके प्रत्येक संस्कारी मनुष्यको बडे सद्बोधक, शान्तिदायक, सद्भावप्रेरक एवं सन्नीतिदर्शक हो रहे हैं और भविष्यमें भी होते रहेंगे। प्रो० कोसंबीके प्रस्तुत संस्करणसे विद्वानोंको यह ज्ञात होगा कि भर्तृहरि भारतवर्षका कैसा विद्वत्प्रिय और लोकरंजक कवि है और उसकी कृतिकी भारतके कोने-कोनेमें कितनी व्याप्ति है । कार्तिकी पूर्णिमा, सं० २००५ (ई. स. १९४८) मुनि जिनविजय भारतीय विद्याभवन बंबई + धनसारकी बनाई हुई यह टीका भी इसी ग्रन्थमालामें प्रकाशित करनेके लिये प्रो० कोसंबीद्वारा संपादित होकर प्रेसमें जानेकी प्रतीक्षा कर रही है। [जो अब इस मणिके रूपमें विद्वानोंके हाथों में उपस्थित हैं।] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002520
Book TitleBhartuhari Shataka Trayam
Original Sutra AuthorBhartuhari
AuthorDharmanand Kosambi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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