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किञ्चित् प्रास्ताविक विद्या और संयमकी अपेक्षासे स्थविर होने पर भी वे विचारोंसे बडे क्रान्तिवादी किशोर-मनस्क थे। हिन्दुधर्मके नामसे ब्राह्मण जातिने भारतवर्षमें आज सैकडों वर्षोंसे जिस विचार और आचारकी जडताको घनीभूत बना रखा है और जिसके कारण भारतवर्षकी सामान्य जनता निःसत्व, निश्चेष्ट और निर्विचार हो रही है उसको देख कर उनका तेजस्वी अन्तःकरण सदा ही क्षुब्ध होता रहता था और वे जहां कहीं अवसर पाते थे वहां अपना मत निडर भावसे प्रकट करते रहते थे। इससे पुराणप्रिय स्वार्थग्रस्त ब्राह्मण वर्गको-खास करके महाराष्ट्रीय ब्राह्मणोंको उनके क्रान्तिवादी विचार और सुधारवादी आचार प्रिय नहीं लगते थे। वे महात्माजीके बड़े भक्त थे और उनकी राष्ट्रोत्थानवाली सभी प्रवृत्तियोंके बडे प्रशंसक और प्रचारक थे। उन्होंने अपना जीवन महान् बोधिसत्त्वके आदर्श पर व्यतीत किया और उसी आदर्शके अनुसार जीवनका समापन किया ।
मैंने इन वर्गवासी साधुचरित पिताके चारित्र्यका सर्वाङ्गीण प्रभाव सुपुत्र बाबा कोसंबीमें प्रतिबिम्बित हुआ देखा । इस प्रभावके परिपाकखरूप इनके संस्कृतसाहित्यके मर्म ग्रहण करनेका और इस पुस्तकके प्रकाशन निमित्त अत्यन्त स्तुत्य और अत्यावश्यक प्रयासका कुछ परिचय मैं यहाँ देना चाहता हूं। मैंने पहले ही सूचित किया है कि बाबाका मुख्य विषय गणितविद्या है । इस विषयका अध्ययन, अध्यापन और परिशोधन इनके जीवनका मुख्य उद्देश है। संस्कृत इनका मुख्य विषय नहीं है और न वह अध्यापनका क्षेत्र ही है। फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थविषयक इनकी एकाग्रता, लीनता और उत्साहने मेरे जैसेको भी आश्चर्य-चकित कर दिया है । मैंने कई बार इनसे प्रश्न किया कि "बाबा, अपने अमूल्य समय और शक्तिका इस प्रकार तुम अपव्यय तो नहीं कर रहे हो ? ।"
चार-पांच वर्ष पहले, ख० धर्मानन्दजीने अपने पुत्र द्वारा भर्तृहरिकी कृतिके इस प्रकारसे अन्वेषणारंभका, सर्वप्रथम समाचार मुझे सुनाया और कहा कि "बाबा इस कृतिके पीछे एक पागल-सा बन गया है और दिनरात इसीमें उलझा रहता है" । तब मैंने हंस कर कहा कि पिताके खभाव और गुणका कुछ न कुछ तो असर पुत्रमें होना ही चाहिये न ?। पर उनके कथनसे बाबाकी इस विषयमें ऐसी गहरी तल्लीनताका पूर्ण चित्र मेरे मानस-पटल पर अंकित नहीं दुआ था । परंतु जब इस ग्रन्थके प्रकाशनके लिये इनकी तत्परता और इसके पीछे आर्थिक एवं शारीरिक सर्वख समर्पण कर देनेका इनका मानसिक उत्साह मैंने देखा, तभी इनके हस्तगत कार्य और परिश्रम, इस प्रकार दोनोंकी, महत्ताका मुझे अनुभव हुआ।
. बाबाकी इस कृतिके देखनेसे पहले तो भर्तृहरिकी शतकत्रयी रचना भी इस प्रकारके अन्वेषी संशोधन-संपादनका विषय हो सकती है ऐसी कल्पना ही मुझे नहीं हुई थी। अपने
आधासके प्रारंभिक कालमें, यद्यपि मुझे भर्तृहरिके अनेक श्लोक कण्ठस्थ थे और बादमें जैन 'भंडारोंमें सुरक्षित असंख्य हस्तलिखित प्रतियां इसकी मैंने देखीं टटोली; पर महाभारत और पञ्चतन्त्रको प्रतियोंकी विविध वाचनाओंकी तरह, इस ग्रन्थकी वाचना भी, वैसी ही समस्याका
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