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भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् मणि नामक जो ग्रन्थ बनाया है उसमें भर्तृहरिकी उत्पत्ति बतानेवाला एक प्रबन्ध मिलता है। इसमें लिखा है कि उज्जयिनीमें पाणिनीय व्याकरणका अध्यापक कोई ब्राह्मण विद्वान् था। जिसको एक वेश्याकी कृपासे राजदरबारमें बडा सम्मान प्राप्त हुआ था। उस ब्राह्मण उपाध्यायके ४ वर्णोंकी ४ स्त्रियाँ थीं। जिनमें से क्षत्रिय जातिकी स्त्रीसे तो विक्रमार्कका जन्म हुआ और शूद्रजातिकी पत्नीसे भर्तृहरिका जन्म हुआ। वही भर्तृहरि विद्याध्ययन करनेके बाद कवि हुआ और उसने वैराग्यशतक-आदि बहुतसे प्रबन्धोंकी रचना की । इत्यादि।
इस तरहके कुछ और भी उल्लेख भर्तृहरिके बारेमें मिलते हैं पर उनमें कोई ऐतिहासिक तथ्यताका प्रमाण नहीं मिलता। वाक्यपदीय नामक संस्कृतव्याकरणविषयक एक विशिष्ट प्रकारका प्राचीन ग्रन्थ मिलता है जिसके कर्ताका नाम भी भर्तृहरि है । पर वह भर्तृहरि और इस शतकत्रयके कर्ता भर्तृहरि दोनों एक ही व्यक्ति हैं इसके बारेमें विद्वानोंको सन्देह है। नाथसंप्रदायमें योगीन्द्रके नामसे प्रसिद्ध एक अन्य भर्तृहरिका वर्णन भी पिछले साहित्यमें मिलता है और कई विद्वानोंका खयाल है कि वही योगीन्द्र भर्तृहरि शतकत्रयके कर्ता हैं । इस रचनाके साथ कुछ पुरानी प्रतियोंमें ऐसा लिखा हुआ भी मिलता है । पर इन सब किंवदन्तियोंसे कोई विश्वसनीय तथ्य प्राप्त नहीं होता ।
प्रस्तुत व्याख्याकारने 'यां चिन्तयामि सततं' इस आदि पदवाले प्रथम ही पद्यकी व्याख्याके आरंभमें, प्रस्तुत पद्यका भावार्थ समझानेकी दृष्टिसे भर्तृहरिकी जो कथा दी है वह कुछ अवश्य हृदयंगम-सी मालूम देती है। यह कथा कुछ अन्य ग्रन्थोंमें भी मिलती है । जिस पद्यके भावार्थ को समझानेके लिये यह कथा कही गयी है, उस पद्यंका कुछ रहस्य तो अवश्य है ही । विना किसी प्रकारके कथानकात्मक रहस्यसंकेतके, इस पद्यका कोई खास भावार्थ नहीं निकलता यह तो स्पष्ट ही है। अतः इस पद्यका कोई ऐतिहासिक रहस्य अवश्य होना चाहिये। इस दृष्टिसे धनसारगणिने जो अपनी व्याख्याके प्रारंभमें भर्तृहरिकी कथा दी है उसमें कुछ तथ्य होना चाहिये ऐसा तो हमें प्रतीत होता है। इस कथाके रहस्यकी दृष्टिसे यदि प्रस्तुत शतकत्रयके कर्ताके मानसिक और आध्यात्मिक भावका ऊहापोह किया जाय तो उसके आन्तरिक जीवनके विषयमें बहुत कुछ सारभूत विचार ज्ञात हो सकते हैं।
प्रो० कोसंबीका तो खयाल है कि भर्तृहरि कोई दुःखी एवं दरिद्र ब्राह्मण होना चाहिये। समाजमें जिसको सुखी या भोगी जीवन कहते हैं वैसा जीवन उसे प्राप्त नहीं हुआ था। इसलिये उसके सब उद्गार उस खिन्नात्मक भावको लक्ष्य कर प्रगट हुए हैं । वह बहुश्रुत विद्वान् एवं प्रतिभाशाली कवि था । संस्कृत भाषा पर उसका प्रभुत्व था। उस समयके सामन्ती जीवन और धनिक व्यवहारकी अवहेलनासे वह उद्विग्न हो कर निर्वेदभावापन्न हो गया था । इत्यादि ।
१ देखो-सिंघी जैन ग्रंथमालामें प्रकाशित, प्रबन्धचिन्तामणि, मूलसंस्कृत, पृ. १२१; तथा हिन्दीभाषान्तर।
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