________________
किञ्चित् प्रास्ताविक । पर हमारे खयालसे वैसा नहीं मालूम देता । शतकत्रयके समस्त भावों और उद्गारोंका यदि निष्कर्ष निकाला जाय, तो उससे इस चित्रका आभास होता है कि ये उद्गार किसी ऐसे व्यक्तिके हैं जो भुक्तभोगी हो कर जीवनके पिछले भागमें निष्काम-विरक्त बन गया है। वह व्यक्ति राजा या राजाधिराज तो नहीं, पर अच्छे ऊँचे दर्जेवाला सामन्त जरूर होना चाहिये । उस समयके सामन्ती-जीवनके विलासमय भोगोंका उसने अच्छा अनुभव किया था। स्त्रियां और वाराङ्गनाएँ उसके सांसारिक सुखोंका मुख्य अंग रही हैं । इसलिये उसको नारीजीवनके विविध प्रकारके कुटिल और कलुषित खभावोंका अच्छा अनुभव है। वह सामन्त होनेसे राजाओंके चंचल स्वभाव और चरित्र हीन जनोंके कुत्सित संपर्कका अच्छा ज्ञाता है । धनिक व्यक्तियोंके और उनके खुशामदियोंके व्यवहारोंका वह मर्मज्ञ है । समाजमें सबसे बडी प्रतिष्ठा धनकी और धनवानोंकी रहती है, यह उसका दृढ मत रहा है। यद्यपि विद्याधनका वह बहुत महत्त्व समझता है और विद्याको लक्ष्मीसे अधिक उच्च पद भी देता है; पर विद्यावानोंको भी प्रायः लक्ष्मीभक्तोंके मुखापेक्षी होना पडता है यह उसका सुस्पष्ट कथन है । वह शास्त्र, सिद्धान्त, नीति एवं कलाओंका ज्ञाता और अध्येता है । उसका मनुष्यखभावविषयक दर्शन और प्रकृतिविषयक अवलोकन बहुत सूक्ष्म है। सद्गुणों और सद्विचारों पर उसका दृढ अनुराग है । जीवनके पिछले भागमें, सांसारिक सुखोंकी क्षणभङ्गुरताका अनुभव करते हुए उसे भोगमय जीवनसे सहज विरक्ति हो गयी है और वह विरक्तभाव द्वारा परम तत्त्वकी प्राप्तिमें अपने जीवनको लीन करनेवाली संन्यस्त दशामें मस्त हो कर, परब्रह्मकी खोज में घूमता रहा है । वह शिवका परम उपासक है और सतत 'शिव शिव' का जाप ही उसका ध्यानमंत्र है । वह शैव संप्रदायमें पूर्ण दीक्षित हुआ है और वह शिवके अर्धनारीश्वरखरूप पर मुग्ध है । पर उसका संपर्क जैनसंग्रदायके साथ गहरा मालूम देता है, और जैन सिद्धान्तोंका वह बहुत सद्भावपूर्वक आदर करता है। अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और भूतदयावाले जैन सिद्धान्त उसे अच्छीतरह हृदयंगम हुए हैं। वह शिव और जिन – दोनोंको सर्वोत्कृष्ट देवत्व प्रदान करता है। उसके जीवनका यह चित्र उसके उद्गारोंसे बहुत ही स्पष्ट प्रतिभासित होता है।
उसके समय और स्थानके बारेमें कोई निश्चायक प्रमाण उपलब्ध नहीं है; पर जो किंवदन्तियां कथानकोंमें प्रथित हैं उनके आधार पर हमें ऐसा आभास होता है कि वह प्राचीन मालव या मरु प्रदेशमें हुआ होगा । उसकी रचनामें जो भावभंगी और भाषाशैली अंकित है वह इस प्रदेशकी परिस्थितिका प्रतिबिम्ब प्रकट करती है । मरुस्थल उसका बहुत निकटवर्ती प्रदेश ज्ञात होता है । वैराग्यशतकके ५ वें पद्यमें जो 'काणवराटक' शब्द प्रयोग हुआ है, वह इस प्रदेशमें बहुप्रचलित और आबाल-गोपालव्यवहृत 'काणी कोडी' या 'काणो कोड़ो इस लोकोक्तिका संस्कृतीकरण है। . इस कविका नाम 'भर्तृहरि' है या 'भर्तृहर' यह भी एक विचारणीय प्रश्न है । यद्यपि मुद्रित पुस्तकोंमें तथा कई हस्तलिखित प्रतियोंमें 'भर्तृहरि' ऐसा नाम मिलता है पर अधिकतर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org