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________________ भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् प्राचीन प्रतियोंमें 'भर्तृहर' ऐसा नाम मिलता है । धनसार गणीने अपनी इस व्याख्यामें इसी नामका प्रयोग किया है । इस रचनाकी सबसे प्राचीन प्रति (लेखन संवत् १४६८) का जो अन्तिम पत्र मुनिवर्य श्रीपुण्यविजयजीके अनुग्रहसे प्राप्त हुआ है और जिसका हाफटोन चित्र इसके साथ संलग्न किया जा रहा है उसमें 'भर्तृहर' ऐसा ही नाम लिखा हुआ मिलता है । यह पत्र ब्राह्मण लेखकका लिखा हुआ है । जिसका नाम अनन्त व्यास है। इसके बादकी जो दूसरी प्राचीन प्रति प्राप्त होती है वह संवत् १५०० में लिखी गई है और उसके लिपिकर्ता स्वयं प्रतिष्ठासोमगणी नामक जैन विद्वान् हैं जो बडे विद्वान् और अच्छे ग्रन्थकार हो गये हैं। इस प्रतिके दो पत्रोंका चित्र भी इसके साथ संलग्न है। बादके अनेक अन्य टीका-टिप्पणों और बालावबोध नामक राजस्थानी गुजराती विवेचनोंमें भी इसी नामका अधिक प्रयोग किया गया मिलता है । अतः हमारा अभिमत इस नामके पक्षमें हो रहा है। ग्रन्थकार 'हर' शिवका परम उपासक है । अतः उसके नामका अन्त 'हर' शब्दसे अलंकृत हो यह विशेष युक्तिसंगत भी लगता है। प्रो० कोसंबीने, यह टीका पूनाके भांडारकर ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्यूट में सुरक्षित राजकीय ग्रन्थसंग्रहकी प्रतियों परसे लिखवाई थी। वे प्रतियां प्रमाणमें कुछ अर्वाचीन और अशुद्धिबहुल थीं। फिर जिसने प्रतिलिपि की वह प्रतियोंकी लिपिको भी ठीक समझने वाला ज्ञात नहीं होता। उसने प्रतिलिपि करनेमें बहुत गडबड कर दी । प्रेस कॉपीको प्रेसमें छपनेके लिये दिये जानेके बाद जब प्रुफपत्र हमारे पास आये तो हमें इसका पता लगा। परंतु इस टीकाकी बहुत अच्छी एवं पुरानी प्रति जो हमें बडोदाके ज्ञानमन्दिरमें सुरक्षित श्रीमद्हंसविजयशास्त्रसंग्रहमें से मुनिवर श्री रमणिकविजयजीकी कृपासे प्राप्त हो गई, उसके आधारसे हमने इसका संशोधन ठीक करके इसे मुद्रित किया है। इस प्रतिके आद्यन्त पत्रोंके चित्र भी इसके साथ दिये जा रहे हैं । इन प्राचीन प्रतियोंकी प्राप्तिके लिये हम विद्वद्वर्य मुनिवर श्री पुण्यविजयजी महाराज एवं पंन्यासजी श्री रमणिकविजयजी के बहुत कृतज्ञ हैं। अनेकान्तविहार, अहमदाबाद श्रावणी पूर्णिमा विक्रम संवत् २०१५-१६ मुनि जिनविजय - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002520
Book TitleBhartuhari Shataka Trayam
Original Sutra AuthorBhartuhari
AuthorDharmanand Kosambi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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