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________________ परिशिष्ट - १ भारतीयविद्याग्रन्थावलि - ग्रन्थाङ्क ९ - में प्रकाशित ‘भर्तृहरिशतकत्रयम्' का प्रधानसंपादकीय स्वल्प वक्तव्य । भारतीय विद्या ग्रन्थावलिके ९ वें अंकके रूपमें मेरे प्रियमित्र प्रो० दामोदर कोसंबी द्वारा संपादित भर्तृहरिके सर्वविश्रुत और सर्वप्रिय सुभाषित पद्योंका यह सुन्दर ' शतकत्रय' प्रकट करते हुए मुझे बहुत आनन्द हो रहा है । संस्कृत भाषाका अल्प- खल्प परिज्ञान रखने वालेको भी भर्तृहरिके इन अतीव हृदयहारि और मधुरतम सूक्तोंका थोड़ा-बहुत परिचय अवश्य होता है । ऐसा कोई भी संस्कृतज्ञ नहीं होगा जिसको भर्तृहरिके इस सुभाषितसंग्रहमें का कोई न कोई पद्य या उसकी पदावलिके कुछ वाक्यखण्ड उसके कण्ठको अलंकृत न करते हों । कालिदासको छोड़ कर संस्कृत भाषाका सबसे अधिक लोकप्रिय जो कोई कवि है तो वह भर्तृहरि है । और कालिदासके काव्योंसे भी अधिक प्रचार भर्तृहरिके इन काव्य - मुक्तकोंका सारे भारतवर्षमें रहा है । इस कृतिकी ऐसी उत्कृष्ट लोकप्रियता के कारण इस पर संस्कृतमें और तत्तत् देशभाषाओंमें अनेक टीका-टिप्पण और विवेचन आदि लिखे गये हैं और युरोपकी भी प्रायः सभी प्रसिद्ध भाषाओंमें इसके अनुवादादि हुए हैं भारतमें और युरोपमें अद्यावधि इसके मूल ग्रन्थके तथा कुछ टीकाओं आदि के साथ भी अनेक प्रकाशन हो चुके हैं । परंतु इस बहुप्रिय और बहुव्यापी ग्रन्थका जिसे 'एक्झोस्टीव क्रिटिकल' कहा जाय वैसा संशोधन कर इसका प्रकाशन करनेका प्रयत्न अभीतक किसी विद्वान्ने नहीं किया । मुझे कहते हुए बहुत हर्ष हो रहा है कि प्रो० कोसंबीने यह महत्त्वका कार्य करनेका सदुद्योग आरंभ किया है और पिछले ३ वर्षोंसे वे इस ग्रन्थका सर्वांगीण परीक्षण और संशोधन आदि करनेमें दत्तचित्त हो रहे हैं । अपने इस संशोधनके परिणाममें इन्होंनें इतः पूर्व इस ग्रन्थकी विवेचना के विषयके अनेक मौलिक निबन्ध बॉम्बे युनिवर्सिटी जर्नल आदि सुप्रसिद्ध संशोधनात्मक जर्नलोंमें प्रकाशित किये हैं । प्रो० कोसंबीने अपने संशोधनात्मक कार्यके लिये दक्षिण और उत्तर भारतमेंसे इस ग्रन्थकी यथालभ्य पचासों हस्तलिखित पोथियाँ और इसकी अनेक ज्ञात-अज्ञात टीकायें उपलब्ध की हैं । मूल 'टेक्ष' का सूक्ष्म परीक्षण करनेके साथ साथ इन्होंने अभिनव उपलब्ध कुछ टीकाओंका भी संशोधन - संपादन करनेका उद्योग किया और उसके फलखरूप रामर्षि नामक विद्वानकी बनाई 1. हुई एक सरल संस्कृत व्याख्या पूनाकी 'आनन्दाश्रम ग्रन्थावलि' में गतवर्ष प्रकाशित कराई । प्रस्तुत आवृति के रूपमें यह एक ऐसी ही अन्य टीका प्रथम ही बार प्रकट हो रही है । टीकामें कर्ताने अपने परिचय विषयक किसी भी प्रकारका कोई उल्लेख नहीं किया है । इससे यह ज्ञात नहीं होता "है कि इसका रचयिता कौन है और कहां हुआ है । तथापि प्रो० कोसंबी अनुमान करते हैं कि इसकी रचनाशैलीसे ज्ञात होता है कि यह शायद कोई दाक्षिणात्य विद्वान् होगा । टीका 1 I Jain Education International ― ---- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002520
Book TitleBhartuhari Shataka Trayam
Original Sutra AuthorBhartuhari
AuthorDharmanand Kosambi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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