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किञ्चित् प्रास्ताविक आजसे प्रायः १० वर्ष पहले, सिंघी जैन ग्रन्थमालाके २३ वें मणिके रूप में, महाकवि भर्तहरि विरचित शतकत्रयादि सुभाषितसंग्रह नामका ग्रन्थ, जो श्रीयुत प्रो० कोसंबीद्वारा संपादित हुआ है, उसके प्रास्ताविक वक्तव्यमें मैंने यह निर्देश किया था कि-'भर्तृहरिकी इस अत्यन्त लोकप्रिय रचना पर जितनी संस्कृत टीकाएँ उपलब्ध हो रहीं हैं उन सबमें जो पुरानी टीका है वह जैन विद्वान् धनसार गणिकी बनाई हुई है और वह टीका प्रो० कोसंबी द्वारा ही संपादित होकर इसी सिंघी जैन ग्रन्थमालाके एक मणिके रूपमें शीघ्र ही प्रकाशित करनेका हमारा प्रयत्न चल रहा है ।' इत्यादि । वही धनसारगणिरचित संस्कृतटीकायुक्त यह शतकत्रय आज पाठकोंके कर-कमलमें स्थित है।
प्रो० कोसंबी भर्तृहरिके शतकत्रयके विषयमें अनेक वर्षांसे गंभीर संशोधनात्मक जो कार्य कर रहे हैं, इसका सर्वप्रथम कुछ प्रारंभिक परिचय, इनके द्वारा संपादित एक अज्ञात विद्वत्कर्तृक व्याख्या जो भारतीय विद्या ग्रन्थावलिमें (सन् १९४६ में) हमने, प्रकाशित की थी, उसके प्रास्ताविक वक्तव्यमें (ठीक आज से १३ वर्ष पहलेकी श्रावणी पूर्णिमाके दिन) दिया था । बादमें, इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा जो उपर्युक्त ग्रन्थ (सन् १९४८ में) प्रकाशित किया गया उसके प्रास्ताविकमें भी कुछ और विशेष रूपसे उल्लेख किया गया है।
भर्तृहरिकी इस सुप्रसिद्ध रचनाके विषयमें प्रो० कोसंबीने, अपने संशोधनात्मक अध्ययनके फलखरूप, जो निष्कर्ष निकाला है उसके विषयमें इन्होंने, इस ग्रन्थमाला द्वारा प्रकाशित, उपर्युक्त ग्रन्थकी प्रस्तावनामें विशिष्ट रूपसे आलेखन किया है । तदुपरान्त, कुछ फुटकल लेख भी इम्होंने 'बॉम्बे ब्रांच रोयल एसियाटिक सोसाइटी' एवं 'भारतीय विद्या' आदि जर्नलोंमें प्रकाशित कराये हैं।
प्रस्तुत पुस्तकमें, प्रथम वार मुद्रित, धनसारगणिकी इस प्राचीनतम एवं जैन टीकाका संपादन हमारी ही प्रेरणासे प्रो० कोसंबीने किया है। इसके संपादनमें जिन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है उसका निर्देश, श्री कोसंबीने अपनी संक्षिप्त 'प्रीफेस' में कर दिया है । अनेक कारणोंके निमित्त, इसका प्रकाशन, जैसा सोचा गया था उतना शीघ्र नहीं हो सका । सन् १९५० के प्रारंभसे ही हमारा निवास बंबईमें कम रहा और हमारी प्रेरणासे राजस्थान सरकारने, जयपुरमें राजस्थान प्राच्यतत्त्वान्वेषण मन्दिर (राजस्थान ओरिएन्टल रीसर्च इन्स्टीटयूट ) की स्थापना की, जिसके कार्यका संचालन करनेके लिये, हमें वारंवार जयपुरमें जाना-आना अनिवार्य हो गया । इस नूतन इन्स्टीट्यूट द्वारा भी हमने 'भारतीय विद्या ग्रन्थावलि' एवं 'सिंघी जैन ग्रन्थमाला' के समान ही, एक विशिष्ट कोटिकी राजस्थान
१ इन दोनों प्रास्ताविक वक्तव्योंका सार मी, हम इसके साथ, इन पृष्ठोंके बाद क्रमशः अङ्कित कर रहे हैं, जिससे पाठकोंको इस विषयका ठीक-ठीक परिचय प्राप्त हो सकेगा।
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