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________________ भर्तृहरिकृत शतकत्रयम् पुरातन ग्रन्थमालाका प्रकाशन कार्य मी प्रारंभ किया और इसमें प्रकट करने योग्य संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन राजस्थानी आदि भाषाओंके विविध ग्रन्थोंके संशोधन, संपादन, मुद्रण आदि कार्य चालू किये। इससे सिंघी जैन ग्रन्थमालाके काममें कुछ मन्दता रही । बीचमें हमारा विचार इस टीकाको 'राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला' द्वारा प्रकट करनेका हुआ । क्यों कि, यह टीका राजस्थानके सुप्रसिद्ध पुरातन शहर जोधपुरमें रची गई थी और पं० धनसारगणी एक राजस्थानी विद्वान् थे इसलिये राजस्थान सरकार द्वारा इसका प्रकाशन बहुत समुचित लगा। इस दृष्टिसे हमने अजमेरके एक प्रेसमें सन् १९५१ में ही इसका मुद्रण कार्य भी चालू करा दिया । परन्तु उस प्रेसकी व्यवस्था बहुत काल तक अनिश्चित और अव्यवस्थित रहनेसे, इसका मुद्रणकार्य स्थगितसा ही रहा । अन्तमें हमारा विचार इसको बंबईके सुप्रसिद्ध और सुन्दर काम करनेवाले निर्णयसागर प्रेसमें छपानेका, एवं पूर्व संकल्पानुसार, इसी सिंघी जैन ग्रन्थमाला द्वारा ही इसे प्रकट करनेका स्थिर हुआ । प्रो० कोसंबी एक आन्तरराष्ट्रीयविख्यातिप्राप्त विशिष्ट विद्वान् हैं और इनको यूरोप, अमेरिका, एशिया आदिके अनेक देशोंसे एवं राज्योंसे व्याख्यानादि देनेके लिये आमन्त्रण मिलते रहते हैं और तदर्थ इनको समय समय पर विदेशों में आने-जानेका प्रसंग आता रहता है। अतः इस ग्रन्थके ग्रुफसंशोधन आदिके संपादन कार्यमें इनको यथेष्ट समय प्राप्त करना कठिन जान कर इसकी सारी व्यवस्था हमने अपने निरीक्षणमें की है। टीकाकार धनसागरगणी जैन श्वेताम्बर संप्रदायके ऊकेशगच्छीय विद्वान् यति थे । माना जाता है कि राजस्थानमें जितने जैन यतियोंके संप्रदाय उत्पन्न हुए उन सबमें ऊकेशगच्छ अधिक पुराना है। जोधपुर विभागके वर्तमान ओसिया नामक स्थानका प्राचीन नाम ऊकेश या उपकेशपुर था और इसी पुरसे उस ऊकेश या उपकेशगच्छका प्रादुर्भाव हुआ। राजस्थानकी सबसे प्रधान और प्रतिष्ठित वैश्य जाति जो ओसवालके नामसे विख्यात है, वह इसी ओसिया अर्थात् ऊकेशपुरके नामसे विख्यात हुई है। ओसवाल जातिका मूल उत्पत्तिस्थान ऊकेशपुर है। इस ओसवाल जातिका जो विशिष्ट धर्मोपदेशक जैन गुरुसंप्रदाय है उसका नाम ऊकेश या उपकेशगच्छ है। विक्रमकी १६ वीं शताब्दीके पूर्व भागमें इस गच्छके मुख्य आचार्य देवगुप्तसूरि थे। इस गच्छकी गुरुपरंपरा बतानेवाली एक पट्टावलिमें लिखा है कि देवगुप्तसूरिके आचार्यपदारोहणका महोत्सव संवत् १५२८ में जोधपुर नगरमें, श्रेष्ठीगोत्रवाले मन्त्री जयतागरने किया था। इन्ही आचार्यने उस समय अपने शिष्यसमूहमेंसे पांच विद्वानोंको पाठक पद अर्थात् उपाध्याय पद समर्पित किया था । उनमें प्रथम धनसार थे। धनसारने प्रस्तुत भर्तृहरिशतकत्रयी व्याख्या वि० सं० १५३५ में, उसी जोधपुरमें बनायी थी और इसकी प्रशस्तिमें, जोधपुरके तत्कालीन राजा सातलका नाम और उसके मंत्री जैत्रका नाम दिया गया है जो पट्टावलिके कथनका सर्वथा समर्थन करता है । धनसारके दीक्षागुरु शायद सिद्धसूरि थे जो देवगुप्तसूरिके बाद मुख्य पद्धर आचार्य बने थे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002520
Book TitleBhartuhari Shataka Trayam
Original Sutra AuthorBhartuhari
AuthorDharmanand Kosambi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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