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________________ भर्तृहरिकृत-शतकत्रयम् देख कर कहेंगे कि यह तो भ्रष्ट शब्द है, यह तो व्याकरणविसंगत अपपाठ है-इत्यादि । पर हमारी दृष्टिमें धनसारकी रचनाका इसी दृष्टिसे कुछ विशेष महत्त्व है । वे अपने शिष्योंको और अपने श्रोताओंको संस्कृतके शिष्ट और क्लिष्ट शब्दोंका, अधिक सरलताके साथ अर्थावबोध करानेके लिये, कई लोकप्रचलित देश्य शब्दों और उक्तियोंका संस्कृतीकरण करके उनका प्रयोग करते हैं। भर्तृहरिने एक जगह (नीतिशतक, पद्य २१ में ) कहा है कि-'कृषिः अनवेक्षणात् नश्यति' । इसकी व्याख्या पाण्डित्यपूर्णशैलीमें तो होगी कि-'कृषिः सस्य अनवेक्षणात् नित्यमपरामन्निश्यति' । धनसारको 'अनवेक्षणात' का सीधा पर्याय शब्द, जो लोकमुंह पर चढ़ा हुआ रहता है, वह 'असंभालनात्' शब्द याद आ गया और उसीको यहाँ रख दिया। पण्डितों को तो यह 'असंभालनात्' शब्द बिल्कुल असंस्कृत लगेगा-पर धनसारको वही अधिक उपयुक्त अर्थवाला शब्द प्रतीत हुआ, अतः इसका प्रयोग उन्होंने कर दिया। इसी तरह 'कर्करकण्टकाकुला' (पृ. ९) 'धूलिकचवरादिव्याप्तम्' (पृ. १५) 'कचवरपुंजम्' (पृ. ४०) 'व्यजनपवन:पक्षकवातः' (पृ. ७५) 'पूतिक्किन्नः पिरुखरण्टितः' (पृ. ८७) 'न परित्यजन्ति केटकं न मुश्चन्ति' (पृ. ८७) आदि शब्दप्रयोग किये गये हैं। जो लोकोक्तिके सीधे संस्कृतीकरण हैं। इन शब्दोंके बदले उनको संस्कृतके रूढ शब्दप्रयोग ज्ञात नहीं थे सो बात नहीं है, परन्तु उनका लक्ष्य लोकप्रचलित सहजबोधगम्य शब्दप्रयोग करनेकी ओर रहा । अतः उनने ऐसे शब्दोंका प्रयोग करना समुचित समझा। 'वा' शब्दका प्रतिशब्द संस्कृतमें 'शुनक' और 'सारमेय' बहुत रूढ है पर उनने इनके साथ साथ कहीं 'भषण' और 'कुर्कुर' जैसे लोकरूढ प्रचलित शब्दोंको भी इसमें स्थान दे दिया है । 'व्यजन' का प्रतिशब्द 'तालवृन्त' भी दिया और लोकरूढ़ 'पंखेका पवन' इस देश्यशब्दार्थवाला 'पक्षकवातः' ऐसा प्रतिशब्द भी दे दिया है । 'कुल्यायते' का 'नीकायते' पर्याय दे कर लोकप्रचलित 'पानीकी नीक' का प्रयोग कर दिया। इसी तरह 'परितर्कयन्ती हेरयन्ती' 'चिन्वन्-चुण्टन्' 'प्रध्वंसं न व्रजति-स्फेटयितुं न शक्यते' इत्यादि ऐसे कई शब्दप्रयोग किये गये मिलते हैं। जिन पाठकोंको प्राचीन राजस्थानी-गुजराती भाषाका परिचय होगा वे इन शब्दोंका प्रयोग बहुत ही उपयुक्त एवं अर्थद्योतक हुआ है ऐसा तुरन्त समझ सकेंगे। ऐसा मालूम देता है कि भर्तृहरिकी यह सुन्दर और सारभूत रचना जैन विद्वानोंको बहुत प्राचीन कालसे ही विशेष प्रिय रही है । इस रचनाकी, जैन विद्वानों द्वारा लिखी गयीं सुन्दर हस्तलिखित प्रतियाँ, जितनी जैन भंडारोंमें मिलती हैं उतनी अन्यत्र नहीं मिलती। सबसे प्राचीनतम मानी जा सके ऐसी दो प्रतियोंके चित्र भी इसके साथ प्रकळ किये जा रहे हैं। प्राचीन राजस्थानी गुजराती भाषामें भी इसके अनुवाद और भावार्थ कई विद्वानोंने लिखे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002520
Book TitleBhartuhari Shataka Trayam
Original Sutra AuthorBhartuhari
AuthorDharmanand Kosambi
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages188
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size13 MB
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