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( १८ )
साथ लेकर कोई तीसरा पुरुष त्रित्व का व्यवहार भी करता है । द्वित्व को दृष्टान्त रूप लेकर समझने में सरलता होगी। जब किसी पुरुष को दो घंटों में से प्रत्येक में 'यह एक है, यह एक है' इस प्रकार की बुद्धि उत्पन्न होती है, तभी दो एकत्वों की उक्त बुद्धि से उक्त दोनों घटों में द्वित्व संख्या की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार अनेक एकत्व विषयक बुद्धि की 'अपेक्षा' द्वित्व की उत्पत्ति में है, अतः उक्त बुद्धि को 'अपेक्षाबुद्धि' कहते हैं । सभी बुद्धियाँ क्षणिक हैं, अतः अपेक्षा बुद्धि भी क्षणिक ही है । अतः उनसे उत्पन्न होनेवाली द्वित्वादि सभी संख्यायें अनित्य हैं ।
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पहिले कह चुके हैं कि एक क्षण में उत्पत्ति, द्वितीय क्षण में स्थिति और तृतीय क्षण में जिस वस्तु का नाश हो, उसे ही वैशेषिक लोग 'क्षणिक' कहते हैं । किन्तु अपेक्षाबुद्धि का क्षणिकत्व उक्त क्षणिकत्व से थोड़ा सा भिन्न है । अपेक्षाबुद्धि की एक क्षण में उत्पत्ति उसके बाद दो क्षणों तक उसकी स्थिति और चौथे क्षण में विनाश मानना होगा, अतः अपेक्षाबुद्धि का क्षणिकत्व चतुर्थ क्षण में नष्ट होना है। अगर ऐसा न मानें, अपेक्षा बुद्धि का भी और बुद्धियों की तरह तीसरे ही क्षण में विनाश मार्ने ? तो उससे उत्पन्न होनेवाले द्वित्व का सविकल्पक प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा। क्योंकि वर्त्तमान विषयों का ही प्रत्यक्ष होता है । प्रत्यक्ष के प्रति विषय कारण हैं । तदनुसार द्वित्व विषयक प्रत्यक्ष के प्रति भी द्वित्व कारण है । अगर द्वित्व के कारणीभूत उक्त अपेक्षाबुद्धि की सत्ता तीन क्षणों तक न मानें तो द्वित्व जनित उक्त प्रत्यक्ष अनुपपन्न हो जाएगा । द्वित्व प्रत्यक्ष की रीति यह कि द्वित्व के आश्रयीभूत दोनों व्यक्तियों में अलग-अलग 'अयमेकः, अयमेकः' इत्यादि आकार की अपेक्षाबुद्धि उत्पन्न होती है । इस अपेक्षाबुद्धि से द्वित्व की उत्पत्ति होती है फिर द्वित्व में विशेषणीभूत द्वित्वत्व विषयक निर्विकल्पक प्रत्यक्ष होता है । इसके बाद द्वित्व का विशिष्टप्रत्यक्ष होता है । उसके बाद के क्षण में द्वित्व का विनाश होता है। क्योंकि विशिष्टज्ञान के लिए पहिले विशेषण का ज्ञान आवश्यक है, अतः द्वित्वत्व विशिष्ट द्वित्व के प्रत्यक्ष के लिए द्वित्वत्व का निर्विकल्पक ज्ञान मानना आवश्यक है । अगर उक्त अपेक्षाबुद्धि की और साधरण ज्ञानों की तरह दूसरे क्षण तक ही स्थिति मानें, तो द्वित्व की उत्पत्ति के आगे के क्षण में ही अपेक्षा बुद्धि का विनाश हो जाएगा । अतः जिस क्षण में द्वित्वत्व का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष कहा गया है, उसी क्षण में अपेक्षाबुद्धि का विनाश होगा। फिर उसके आगे के क्षण में द्वित्व के सविकल्पक प्रत्यक्ष की अपेक्षा द्वित्व का ही नाश हो जाएगा । क्योंकि अपेक्षाबुद्धिका विनाश ही द्वित्व का विनाशक है । फिर द्वित्व विनाश के बाद द्वित्व का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के अव्यवहित पूर्वक्षण में विषय का रहना आवश्यक है । अतः अपेक्षाबुद्धि का विनाश और बुद्धियों की तरह तीसरे क्षण में न मानकर उत्पत्ति के चौथे क्षण में मानना पड़ता है ।
लम्बा और चौड़ा एवं भारी उस गुण को 'परिमाण' कहते हैं।
परिमाण
और हल्का ये व्यवहार जिस गुण के कारण हो दोनों में पहिले से लम्बाई चौड़ाई का
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