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प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
[ २५ worwwe.ornstorisrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrromeowwwesometeorosoon संयोजना होकर प्रथम के दो रूप क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से 'वाय' और 'पायभो सिद्ध हो जाते हैं। तृतीय रूप (वायवः = ) पाउणो में सूत्र-संख्या २-७८ से 'थ्' का लोप और ३-२२ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस् के स्थानीय रूप 'स' के स्थान पर प्राकृत में 'णी' प्रत्यय को वैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्ति होकर तृतीय रूप 'घाउणो सिद्ध हो जाता है।
अग्नयः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप अग्गों होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'न' का लोप: २-८६ से शेष 'ग' को द्वित्व 'गा' की प्राप्ति; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जम्' का लोप और ३.१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस' के कारण से अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दीर्घ स्वर ई' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप अग्गी सिद्ध हो जाता है।
वायवः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसका प्राकृत रूप वाक होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-७८ से 'य' का लोप; ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में प्राप्त प्रत्यय 'जस' का लोप और ३-१२ से प्राप्त एवं लुप्त प्रत्यय 'जस' के कारण से अन्य वस्त्र स्वर 'ज' को दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्राप्ति होकर प्रथमान्त रूप थाऊ सिद्ध हो जाता है ।
बुद्धयः-- संस्कृत प्रथमान्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप बुद्धीओ होना है। इसमें सूत्रसंख्या ३-२७ से अन्त्य हम्ब स्वर 'द' को दोर्घना को प्राप्ति के साथ 'श्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बुद्धीमी रूप सिद्ध हो जाता है।
धेनवः- संस्कृत प्रथमान्त बटुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप धेणूत्री होता है। इसमें सूत्रसंख्या १-२२८ से 'न' को 'ण' को प्राप्ति और ३-७ से संस्कृतीय प्रथमा विभक्ति बाधक प्रत्यय 'जम' के स्थानीय रूप 'अस्' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य हस्व स्वर 'g' को दीघ 'क' को प्राप्ति के साथ 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर शेषाभो रूप सिद्ध हो जाता है।
दधीन संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप वहीइं होता है। इसमें मूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध्' के स्थान पर है.' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नमक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस्' के स्थानीय रूप अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर दही रूप सिद्ध हो जाता है।
मधूमि संस्कृत प्रथमान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप महूई होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राप्ति और ३-२६ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नपुसक लिंग में संस्कृत प्रत्यय 'जस् के स्थानीय रूप 'अन्त्य स्वर की दीर्घता पूर्वक 'नि' के स्थान पर प्राकृत में अन्त्य स्वर की दीर्घता के साथ 'ई' प्रत्यय की प्राप्ति होकर महूई रूप सिद्ध हो जाता है।