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2प्राकृत व्याकरण 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000002
करना पड़ा है। जैसे:-अग्नीन (अथवा) वायून पश्यनि-अरिंग (अथवा) अमिगणो (और) चाऊ (अथवा) वारणो पेच्छइ अर्थात वह अग्नियों को (अथवा। वायुश्री को देखता है। इन उदाहरणों में द्वितीया विमति बोधक प्रत्यय 'शस्' के स्थान पर 'आज' और 'श्रो' आदेश-प्राप्ति का प्रभाव प्रदर्शित करते हुए यह प्रतिबोध कराया गया है कि 'अत्र' और 'अयो'श्रादेश-प्रामि केवल 'जस्' प्रत्यय के स्थान पर ही होती है; न कि 'शस' आदि अन्य प्रत्ययों के स्थान पर ।
प्रश्नः इस सूत्र की वृत्ति में आदि में 'इकारान्त' और 'उकारान्त जैसे शब्दों के उल्लेख करने का क्या तात्पर्य-विशेष है ?
उत्तर:-'जस्' प्रत्यय की प्राप्ति 'इकारान्त' और 'उकारान्त' शब्दों के अतिरिक्त 'अकारान्त' आदि अन्य शब्दों में भी होती है; अतः सूत्र-संख्या ३-२० से 'जस' प्रत्यय के स्थान पर होने वाली 'उ' और 'अत्रों' आवेश-प्राप्ति केवल इकारान्त और उकारान्त शब्दों में ही होती है। अकारान्त आदि शब्दों में नहीं हुथा करती है। ऐसी विशेषता प्रकट करने के लिये हो वृत्ति के प्रारम्भ में 'इकारान्त' और 'टकारान्त पद की संयोजना करनी पड़ी है। जैसे:-वृक्षाः बच्छा । इस उदाहरण से प्रतीत होता है कि जैसे-अगाज और अग्गयो तथा वायउ और वायत्रो रूप बनते हैं। वैसे वच्छा' और 'वच्छश्री' रूप प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में नहीं बन सकते हैं । इस प्रकार इस सूत्र में और वृत्ति में लिखित 'सि'; 'जसो' और 'इदुतः' पदों की विशेषता जाननी चाहिये।
अग्मयः संस्कृत प्रथमा रूप है । इसके प्राकृत रूप अग्गर, अग्गो और अग्गिणी होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संख्या २-७८ से 'न' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'न' के पश्चात शेष रहे हुए 'ग' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति; ३-२० से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृलीय प्रत्यय 'जस' के स्थानीय रूप 'यस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'ड' और 'डना' प्रादेश-प्रा%ि; आदेश-प्राप्त प्रत्यय 'ड' और 'उमा' में हलन्त 'ई' इत्संज्ञक; तदनुसार प्राप्त रूप 'अग्गि' में से अन्त्य स्वर 'इ' की इत्संज्ञा होकर लोप एवं अंत में ३-२० से प्राप्त प्रत्यय 'अ' और 'यश्री' की अग्ग' में संयोजना होकर क्रम से एवं वैकल्पिक रूप से दोनों रूप अग्गउ और अग्गाओ सिद्ध हो जाते हैं।
अरिंगणो रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२७ में की गई है।
पायवः-संस्कृत प्रथमान्त रूप है । इसके प्राकृत रूप वायउ, वायत्रो और वाउणो होते हैं। इनमें से प्रथम वो रूपों में सूत्र-संख्या ३-२० से संस्कृतीय प्रथमा विमक्ति बोधक प्रत्यय 'जस' के स्थानीय रूप 'प्रस' के स्थान पर प्राकृत में 'डर' और 'डओ' प्रत्ययों की बैकल्पिक रूप से आदेश-प्राप्लि; आदेशप्राप्त प्रत्यय 'डड' और 'हो' में स्थित 'इ' इत्संझक होने से मूल शब्म 'वायु में स्थित अन्त्य स्वर'' की इसहा होकर लोप एवं तत्पश्चात शेष रहे हुए 'चाय' रूप में कम से 'म' और 'अयो' प्रस्यों की