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* प्राकृत व्याकरखा * Oriorrtoorstessoresskrwissorrowroorkertoonsermoseroroscenetweetrood
'गिरि रूप की सिद्धि सूत्र-संरत्या १-3 में की गई है।
बुद्धिम् संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है । इसका प्राकृत रूप बुद्धिं होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एक वचन में 'म' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ ले प्राप्त प्रत्यय 'म्' का अनुस्वार होकर बुद्धिं रूपस हो जाता है।
तरुम संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप तरुं होता है। इसकी साधनिका उपरोक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर तरं रूप सिद्ध हो जाता है।
धनम्:--संस्कृत द्वितीयान्त एक वचन रूप है। इसका प्राकृत रूप घेणु होता है। इसमें सूत्रसंख्या १.२२८ से 'न्' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति और शेष साधनिका का उपरोक्त 'बुद्धि' के समान ही होकर घेणुं रूप सिद्ध हो जाता है।
अग्निः -मस्कृत रूप हैं। इसका प्रार्ष प्राकृत रूप अम्गि होता है । इसमें सूत्र-संख्या २-४८ से 'न' का लोप; २-८६ से लोप हुए 'न' के पत्रात् शेष रहे हुए 'न' को द्वित्व 'ग' को प्राप्ति और ३-१६ की चि से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर अरिंग रूप सिद्ध हो जाता है।
निधिः-संस्कृत रूप है। इसका आर्ष प्राकृत रूप निहिं होचा है। इसमें सूत्र-संख्या १-१८७ से "' के स्थान पर 'ह' की प्राति और ३-१६ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' अादेश की प्रामि होकर निहिं रूप सिद्ध हो जाता है।
वायु;-संस्कृत रूप है। इसका अाध प्राकृत रूप वाज होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'यु' का लोप और ३-१६ की वृत्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में 'सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म्' आदेश की प्राप्ति होकर का रूप सिद्ध हो जाता है।
विभुः-संस्कृत रूप है । इसका आर्ष प्राकृत रूप विडे होता है। इसमें सूत्र-संख्या १.१८७ मे भ' के स्थान पर 'ह, की प्राप्ति और ३-२६ की वृप्ति से प्रथमा विभक्ति के एक वचन में सि' प्रत्यय के स्थान पर 'म' आदेश की प्राप्ति होकर बिहुं रूप सिद्ध हो जाता है । ३.१६ ।।
पुसि जसो डउ डओ वा ॥३-२०॥ इदत इतीह पश्चम्यन्तं संबध्यते । इदुतः परस्य जसः पुसि अउ अश्रो इत्यादेशी डितो वा भवतः ॥ अग्गउ अम्गयी। पायउ वायत्रो चिट्ठन्ति ।। पक्षे । अम्गिणो । वाउणो ॥ शेषे अदन्तयत् भावात् अग्गी । वाऊ । पुसीतिकिम् । बुद्धीनी । घेण्यो । दहीई । महइं॥ जस इति किम् । अग्गी । अग्गियो । वाऊ ! वाउणो पेच्छइ ।। इदुत इत्येव । वच्छा ।।