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पण्डित जिनदास फडकुले ने भी श्री कुन्दकुन्द को ही 'वट्टकेर' सिद्ध किया है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने 'परिकर्म' नाम की जो षट्खण्डागम के त्रिखण्डों पर वृत्ति लिखी है, उससे उनका नाम 'वृत्तिकार' - ' बट्टकेर' इस रूप से भी प्रसिद्ध हुआ होगा । इसी से वसुनन्दी आचार्य ने आचारवृत्ति (टीका) के प्रारम्भ में ( वट्टकेर ) नाम का उपयोग किया होगा, अन्यथा उस ही वृत्ति (टीका) के अन्त्य में वे “कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीतमूलाचाराख्यविवृत्तिः” ऐसा उल्लेख कदापि नहीं करते । अतः कुन्दकुन्दाचार्य 'वट्टकेर' नाम से भी दि० जैन जगत् में प्रसिद्ध थे।"
'जैनेन्द्रकोश" में श्री जिनेन्द्रवर्णी ने भी मूलाचार को श्री कुन्दकुन्ददेव कृत माना है । इसकी रचना शैली भी श्री कुन्दकुन्ददेव की ही है । जैसे उन्होंने समयसार और नियमसार सदृश गाथायें प्रयुक्त की हैं । यही शैली मूलाचार में भी है । यथा
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया य सा होइ ।
तह जाणओ दुण परस्स जाणओ जाणओ सो दु ।। ३५६ ।।
जह सेडिया दु ण परस्स सेडिया सेडिया होई | तह पासओ दु ण परस्स पासओ पासओ सो दू ।। ३५७ ॥
इसी तरह की ‘संजओ' ‘दंसणं' आदि पद बदल कर गाथा ३६५ र्तक १० गाथायें हैं । ऐसे ही नियमसार में -
नाहं णारय भावो तिरियत्थो मणुवदेपज्जाओ । कत्ता णाहि कारयिदा अणुमंता व कत्तीणं ||७७ || ऊपर की पंक्ति बदल कर नीचे की
पंक्ति ज्यों की त्यो लेकर ८१ तक पाच गाथायें हैं । आगे 8वें अधिकार में भी "तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ।" नौ गाथाओं तक यह पंक्ति बार-बार आयी है । इसी तरह मूलाचार में
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आउकायगा जीवा आउं जे समस्सिदा ।
दिट्ठा आउसमारंभे धुवा तेसिं विराधना ॥ १२१ ॥
ऐसे ही 'ते कायिगा' आदि पद बदल-बदल कर ये ही गाथायें पांच बार आई हैं । आगे भी इसी तरह बहुत सी सदृश गाथायें देखी जाती हैं जो कि रचना शैली की समानता को सिद्ध करती हैं ।
तथा च- कन्नड़ भाषा में टीका करने वाले श्री मेघचन्द्राचार्य ने बार-बार इस ग्रन्थको कुन्दकुन्ददेव कृत कहा है । और वे आचार्य दिगम्बर जैनाचार्य होने से स्वयं प्रामाणिक हैं। उनके वाक्य स्वयं आगमवाक्य हैं-प्रमाणभूत हैं, उनको प्रमाणित करने के लिए और किसी
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१. कुन्दकुन्द कृत मूलाचार, प्रस्तावना पृ. १५ । २. जैनेन्द्र सिद्धांतकोश भाग २, पृ. १२६.
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आद्य उपोद्घात / ३५
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