Book Title: Mahopadhyaya Samaysundar Vyaktitva evam Krutitva
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwetambar Khartargaccha Sangh Jodhpur
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महोपाध्याय समयसुन्दर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व वाहन-यात्रा के लिए अर्थ आवश्यक होता है, किन्तु 'अत्थो मूलं अणत्थाणं'यह आगमवाक्य है। अतः एक अपरिग्रही साधक के लिए अर्थ जुटाना न केवल उसके चारित्रिक पतन का कारण होगा, अपितु उसे पूंजीपतियों का आश्रित भी बना देगा, उसका स्वावलम्बीपन और निरपेक्ष जीवन समाप्त हो जाएगा। ऐसी अवस्था में वह साधु नहीं, सांसारिक वृत्तियों में रचा-पचा गृहस्थ ही होगा। अत: अध्यात्म-जगत् में रमण करने वाले साधु के लिए पद-यात्रा ही अधिक उपयुक्त एवं उचित है।
महोपाध्याय समयसुन्दर जैन साधु थे, इसलिए पदयात्रा करना उनके लिए एक धार्मिक दायित्व था, क्योंकि शास्त्रीय मर्यादा के अनुसार मुनि को नवकल्पी विहार करना चाहिये अर्थात् वर्षावास को छोड़कर शेष आठ मास पदयात्रा करनी चाहिए। अत: कवि ने दीक्षा से मृत्यु पर्यन्त जो पद-यात्राएँ की थीं, उसका क्षेत्र काफी विस्तृत और व्यापक है। कवि के रचित ग्रन्थों की प्रशस्तियाँ, तीर्थमालाएँ और तीर्थस्तवों को देखने से ज्ञात होता है कि कवि ने सिन्ध, पंजाब, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, सौराष्ट्र, गुजरात आदि प्रदेशों की पदयात्रा की थी। कवि की पदयात्रा सम्बन्धी प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करने के लिए हमारे पास उनकी कृतियों के अतिरिक्त आज अन्य कोई साधन उपलब्ध नहीं है।
कवि समयसुन्दर की संवतोल्लेख पूर्वक सर्वप्रथम रचना 'भावशतक' है, जो वि० सं० १६४१ में विरचित है। वि० सं० १६४१ से पूर्व की कोई कृति प्राप्त न होने से यह कहना कठिन है कि इससे पूर्व कवि ने कहाँ-कहाँ पर्यटन किया था। अनुमानत: वे दीक्षा ग्रहण करने के बाद अपने गुरु और प्रगुरु के साथ ही विचरण करते रहे होंगे; क्योंकि प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यही प्रतीत होता है कि कविवर काफी समय तक अपने गुरुओं के सानिध्य में ही रहे, जहाँ उनके व्यक्तित्व का परिमार्जन तथा विकास हुआ।
पद-यात्रा के सन्दर्भ के कवि समयसुन्दर की सर्वप्रथम रचना 'श्री शत्रुञ्जय तीर्थभास' और 'श्री शत्रुञ्जय आदिनाथ भास" प्राप्त हुई है। इससे परिज्ञात होता है कि वि० सं० १६४४ में कवि के प्रगुरु जिनचन्द्रसूरि के नेतृत्व में अहमदाबाद से पोरवाड़-वंश के सोमजी और शिवजी ने शत्रुञ्जय महातीर्थ, जिसे मन्दिरों का नगर कहा जाता है, कि यात्रा करने के लिए श्रमण, श्रमणी, श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ निकाला। इस विराट संघ में कवि ने भी अपने प्रगुरु, शिक्षागुरु प्रभृति के संग शत्रुञ्जय की यात्रा की। कवि ने उल्लेखानुसार यह पदयात्रा चैत्र कृष्णा चतुर्थी, बुधवार को सम्पूर्ण हुई। कवि ने लिखा है कि यहाँ का वातावरण शांत है, प्रकृति प्रसन्न है, वायुमण्डल स्वच्छ है और देवालय-दर्शन कल्याणकर है। १. द्रष्टव्य - दशवैकालिक (६.१९) २. बृहत्कल्पभाष्य (६३४६) ३. द्रष्टव्य - समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि, पृ० ६७-६८ ४. द्रष्टव्य - वही, पृष्ठ ६५-६६
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