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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये प्रथमः सिद्धिपादः पुरन्दरीति ? सत्यम् । अणन्तद्वारा प्राप्तस्यैव निषेधः । यथा सर्वसहा वसुमतीति । पुंयोगात्तु स्यादेव ईप्रत्ययः ।।८८४।
[समीक्षा]
'पुरन्दर-वाचंयम' इत्यादि शब्दों के सिद्धयर्थ मकारागम की व्यवस्था दोनों ही व्याकरणों में निपातन से की गई है । पाणिनि के सूत्र हैं - "अरुषिदजन्तस्य मुम् , वाचंयमपुरन्दरौ च” (अ० ६।३।६७, ६९) । कातन्त्रकार ने एक ही सूत्र में चारों शब्दों का पाठ करके लाघव उपस्थित किया है , जबकि पाणिनि के अनुसार उक्त चार शब्दों की सिद्धि दो सूत्रों द्वारा करके गौरव का आश्रय लिया गया है ।
[विशेष वचन] १. यल्लक्षणेनानुत्पन्नं तत् सर्वं निपातनात् सिद्धम् (दु० वृ०) । [रूपसिद्धि]
१. पुरन्दरः। पुर + दृ + इन् + अण् + सि । पुरं दारयति । 'पुर' शब्द के उपपद में रहने पर 'दृ विदारणे' (८।१९) धातु से “कर्मण्यण्” (४।३।१) सूत्र द्वारा 'अण' प्रत्यय, नकारागम, दारि को ह्रस्व, इन का लोप तथा विभक्तिकार्य ।
२. वाचंयमः। वाच् + यम् + अण् + सि । वाचं यच्छति । 'वाच्' के उपपद में रहने पर 'यम उपरमे' (१।१५८) धातु से अण् प्रत्यय, अमागम, यम् की उपधा को दीर्घाभाव तथा विभक्तिकार्य ।
३. सर्वंसहः। सर्व + सह् + अण् + सि । सर्वं सहते । 'सर्व' शब्द के उपपद में रहने पर 'षह मर्षणे' (१।५६०) धातु से अण् प्रत्यय, मकारागम, सह की उपधा को दीर्घाभाव, अनुस्वार तथा विभक्तिकार्य ।
४. द्विषन्तपः। द्विष् + तापि + अण् + सि । द्विषं द्विषन्तं वा तापयति । 'द्विष्' शब्द के उपपद में रहने पर इन्-प्रत्ययान्त 'तापि' धातु से अण् प्रत्यय, नकारागम, नलोप, “संयोगादेधुंट:' (२।३।५५) से तकारलोप, तापि को ह्रस्व, इन्लोप तथा विभक्तिकार्य ।।८८४।।
८८५. धातोस्तोऽन्तः पानुबन्धे [४।१।३०] [सूत्रार्थ
पकारानुबन्ध वाले कृत्संज्ञक प्रत्यय के परे रहते ह्रस्वान्त धातु के अन्त में तकारागम होता है ।।८८५।
[दु० वृ०]
"ह्रस्वारुषोर्मोऽन्तः” (४।१।२२) इत्यतो ह्रस्मोऽनुवर्तते। ह्रस्वान्तस्य धातो: पानुबन्धे कृति परे तोऽन्तो भवति। अग्निचित् , सोमसुत् , प्रकृत्य, इत्वरः। धातोरिति