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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये द्वितीयो धातुपादः [समीक्षा
'सान्नाय्य - निकाय्य' शब्द दोनों ही व्याकरणों में निपातनविधि से सिद्ध किए गए हैं । पाणिनीय व्याकरण में ‘ण्यत्' प्रत्यय तथा कातन्त्र में 'घ्यण' प्रत्यय किया जाता है । पाणिनि का सूत्र है - "पाय्यसात्राय्यनिकाय्यधाय्या मानहविर्निवाससामिधेनीषु" (अ० ३।१।१२९) । अत: उभयत्र साम्य ही है ।
[रूपसिद्धि]
१. सान्नाय्यं हविः । सम् + नी + घ्यण् + सि । 'सम्' उपसर्गपूर्वक ‘णीञ् प्रापणे' (१।६००) धातु से 'घ्यण' प्रत्यय, उपसर्गस्थ अकार को दीर्घ, 'आय' आदेश, सि-प्रत्यय तथा “अकारादसम्बुद्धौ मुश्च' (२।२।७) से 'मु' आगम-'सि' प्रत्यय का लोप । 'हविष्' से भिन्न अर्थ में ‘सनेयम्' शब्दरूप सिद्ध होता है ।
२. निकाय्यो निवासः । नि + चि + घ्यण + सि । 'नि' उपसर्गपूर्वक 'चित्र चयने' (४।५) धातु से 'घ्यण' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।९८१।।
९८२. परिचाय्योपचाय्यावग्नौ [४।२।४३] [सूत्रार्थ 'परिचाय्य-उपचाय्य' शब्द निपातन से सिद्ध होते हैं 'अग्नि' अर्थ में ।।९८२। [दु० वृ०]
एतावग्नावर्थे निपात्येते । परिचीयतेऽसौ परिचाय्योऽग्निः । उपचीयतेऽसाविति उपचाय्योऽग्निः ।।९८२।
[समीक्षा
'परिचाय्य-उपचाय्य' शब्द दोनों व्याकरणों में निपातन से सिद्ध किए गए हैं । पाणिनि का सूत्र है - "अग्नौ परिचाय्योपचाय्यसमूह्याः' (अ० ३।१।१३१) । अत: उभयत्र साम्य ही है।
[रूपसिद्धि]
१. परिचाय्यः। परि + चि + घ्यण् + सि । 'परि' उपसर्गपूर्वक 'चिञ् चयने' (४।५) धातु से 'घ्यण' प्रत्यय, 'आय' आदेश, 'सि' प्रत्यय तथा "रसकारयोर्विसृष्टः" (३।८।२) से विसर्गादेश ।।
२. उपचाय्यः। उप + चि + घ्यण् + सि । 'उप' उपसर्गपूर्वक 'चिञ् चयने' (४५) धातु से 'ध्यण्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।९८२।
९८३. चित्याग्निचित्ये च [४।२।४४] [सूत्रार्थ) 'अग्नि' अर्थ मे 'चित्य-अग्निचित्य' शब्द निपातनविधि से सिद्ध होते हैं ॥९८३। [दु० वृ०] एतावग्नावर्थे निपात्येते । चीयते इति चित्योऽग्निः । अग्नेश्चयनम् अग्निधित्या