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चतुर्थे कृत्प्रत्ययाध्याये तृतीयः कर्मादिपादः प्रस्थम्पचो माणवकः, द्रोणम्पचा स्थाली । प्रस्थादय एव परिमाणान्यत्राभिधीयन्ते, न काल: संख्या च । तेन मासम्पचति, एकम्पचतीति वाक्यमेव ।।१०४१।
[समीक्षा]
'मितम्पचा, नखम्पचा, प्रस्थम्पचा' शब्दरूपों के सिद्धयर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'खश्' प्रत्यय का विधान किया गया है । पाणिनि के दो सूत्र हैं -- “परिमाणे पच:, मितनखे च'' (अ० ३।२।३३, ३४) । इस प्रकार प्रत्ययसाम्य होते हए भी पाणिनीय व्याकरण में सूत्रद्वयप्रयुक्त गौरव स्पष्ट है, जबकि कातन्त्रकार ने तीनों शब्दों का पाठ एक ही सूत्र में करके लाघव दिखाया है ।
[रूपसिद्धि]
१. मितम्पचा ब्राह्मणी । मित + पच् + खश् + आ + सि । मितं पचति । 'मित' शब्द के उपपद में रहने पर 'डु पचष् पाके' (१।६०३) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा 'खश्' प्रत्यय, "ह्रस्वारुषोर्मोऽन्तः” (४।१।२२) से मकारागम, स्त्रीलिङ्ग में 'आ' प्रत्यय, समान-दीर्घ तथा विभक्तिकार्य ।
२. नखम्पचा यवागूः । नख + पच् + खश् + आ + सि । नखं पचति । 'नख' शब्द के उपपद में रहने पर ‘पच्' धातु से 'खश्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।
३-४. प्रस्थम्पचो माणवकः । प्रस्थ + पच् + खश् + सि । प्रस्थं पचति । द्रोणम्पचा स्थाली । द्रोण + पच् + खश् + आ + सि । द्रोणम् पचति । 'प्रस्थ-द्रोण' शब्दों के उपपद में रहने पर ‘पच्' धातु से 'खश्' प्रत्यय आदि कार्य पूर्ववत् ।।१०४१।
१०४२. कूल उद्जोद्वहोः [४।३।३७] [सूत्रार्थ]
'कूल' शब्द के उपपद में रहने पर 'उद्' उपसर्गपूर्वक 'रुजो भङ्गे' (५।५२) तथा 'वह प्रापणे' (१।६१०) धातुओं से 'खश्' प्रत्यय होता है ।।१०४२।
[दु० वृ०]
कूले कर्मण्युपपदे उद्रुजोद्वहोः खश् भवति । कूलमुद्रुजा नदी, कूलमुद्वहः समुद्रः ।।१०४२।
[क० च०] कूल० । उदि रुजोद्वहोरित्युपपदे कूले कर्तरीत्यर्थ: स्यादिति हेमः।।१०४२। [समीक्षा]
'कूलमुद्रुजा नदी, कूलमुद्वहः समुद्रः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ दोनों ही व्याकरणों में 'खश्' प्रत्यय किया गया है । पाणिनि का सूत्र है – “उदि कूले रुजिवहो:" (अ० ३।२।३१) । अत: उभयत्र समानता ही है ।
[रूपसिद्धि]
१. कूलमुद्रुजा नदी । कूल + उद् + रुज् + खश् + आ + सि । 'कूल' शब्द के उपपद में रहने पर 'उद्' उपसर्गपूर्वक 'रुजो भङ्गे' (५।५२) धातु से प्रकृत सूत्र द्वारा