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चतुर्थे कृदध्याये पञ्चमो घजादिपादः
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(रूपसिद्धि]
१-२. स्वनः, स्वानः। स्वन् + अल् + सि। हसः, हास:। हस् + अल् + सि। ‘स्वन् - हस्' धातुओं से प्रकृत सूत्र द्वारा 'अल्' प्रत्यय तथा विभक्तिकार्य। पक्ष में घञ् प्रत्यय होने पर 'स्वानः, हास:' शब्दरूप साधु माने जाते हैं।।१२१८।
१२१९. यमः सन्युपविषु च [४।५।४७] [सूत्रार्थ
किसी के भी उपपद में न रहने पर तथा 'सम् - नि - उप - वि' उपसर्गों के उपपद में रहने पर ‘यम उपरमे' (१।१५८) धातु से 'अल्' प्रत्यय विकल्प से होता है।।१२१९।
[दु० वृ०]
अनुपसर्गे सन्युपविषु च यमेरल् भवति वा। यमः, यामः। संयमः, संयामः। नियमः, नियामः। उपयमः, उपयामः। वियमः, वियाम:।।१२ १९।
[समीक्षा]
'संयमः, संयामः' इत्यादि शब्दरूपों के सिद्ध्यर्थ कातन्त्रकार ने 'अल्' प्रत्यय तथा पाणिनि ने 'अप्' प्रत्यय किया है। पाणिनि का सूत्र है- “यम: समुपनिविषु च" (अ०३।३।६३)। इस प्रकार प्रत्ययघटित अनुबन्धभेद को छोड़कर अन्य तो उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१-५. यमः, याम:। यम् + अल् + सि। संयमः, संयामः। सम् + यम् + अल् + सि। नियमः, नियाम:। नि + यम् + अल् + सि। उपयमः, उपयामः। उप + यम् + अल् + सि। वियमः, वियाम:। वि + यम् + अल् + सि। 'यम् उपरमे'(१।१५८) धातु से तथा 'सम् - नि - उप - वि' उपसर्गपूर्वक 'यम' धातु से 'अल्' प्रत्यय एवं विभक्तिकार्य। अल् प्रत्यय न होने पर घञ् प्रत्यय से ‘यामः' इत्यादि शब्दरूप होंगे।।१२१९।
१२२०. नौ गदनदपठस्वनाम् [४।५।४८] [सूत्रार्थ]
'नि' उपसर्ग के उपपद में रहने पर 'गद् - नद् - पठ् -स्वन्' धातुओं से 'अल्' प्रत्यय विकल्प से होता है।।१२२० ।
[दु० वृ०]
नावुपपदे एभ्योऽल् भवति वा। निगदः, निगादः। निनदः, निनादः। निपठः, निपाठः। निस्वनः, निस्वानः। "स्वनहसोर्वा" (४।५।४६) इति वचनाद् अनुपसर्ग इति नानुवर्तते।।१२२०।