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कातन्त्रव्याकरणम्
१३२१. द्वितीयायां च [४।६।३६] [सूत्रार्थ]
द्वितीयान्त के उपपद में रहने पर परीप्सा त्वरा अर्थ के गम्यमान होने की स्थिति में धातु से णम् प्रत्यय होता है।।१३२१।
[दु०वृ०]
द्वितीयान्ते चोपपदे धातोर्णम् भवति परीप्सायां गम्यमानायाम्। लोष्ट्राणि ग्राहं लोष्ट्रयाहं युध्यन्ते, एवं नाम त्वरन्ते यदायुधमपि नाद्रियन्ते।।१३२१।
[क० त०]
द्विती०। चकार उक्तसमुच्चयमात्रे न तूपपदानामनुवर्तनार्थः प्रयोजनाभावात्। अथोत्तरार्थं तवेंकयोगमेव कुर्वीत। अथ भिन्नयोगादपादानमेव परत्रानुवर्तताम्, नैवम्। तदा परसूत्राण्यपि अपादानमित्यस्यानन्तरं पठ्यन्ताम्। द्वितीयायां चेति चकारोऽपि न कृतः स्यात्।।१३२१।
[समीक्षा]
'यष्टिग्राहम्, लोष्ट्रग्राहम्' इत्यादि शब्दरूपों की सिद्धि उक्त की तरह ‘णम्-णमुल्' प्रत्ययों से की गई है। पाणिनि का सूत्र है- “ द्वितीयायां च'' (अ० ३।४।५३)। इस प्रकार पाणिनीय ‘उ-ल' अनुबन्धों को छोड़कर अन्य प्रकार की उभयत्र समानता ही है।
[रूपसिद्धि]
१. लोष्ट्राणि ग्राहम्, लोष्ट्रग्राहं युध्यन्ते। लोष्ट्राणि-ग्रह-सि। ‘लोष्ट्राणि' के उपपद में रहने पर ‘ग्रह' धातु से णम् प्रत्यय, उपधादीर्घ तथा विभक्तिकार्य।।१३२१।
१३२२. स्वाङ्गेऽध्रुवे [४।६।३७] [सूत्रार्थ
अध्रुव स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द के उपपद में रहने पर धातु से णम् प्रत्यय होता है।।१३२२।
[दु०वृ०]
स्वमङ्गं स्वाङ्गम्। स्वाङ्गसञ्ज्ञकेऽध्रुवे द्वितीयान्ते चोपपदे धातोर्णम् भवति। ध्रुवौ विक्षेपम्, भ्रूविक्षेपं जल्पति। अक्षिणी काणम् ,अक्षिकाणं हसति। अध्रुव इति किम्? उत्क्षिप्य शिरः कथयति। यस्मिन्नछे छिन्ने प्राणी न म्रियते तद् अध्रुवम्।।१३२२।
[वि०प०]
स्वाङ्गे।। स्वाङ्गेत्यादि। अद्रवं मूर्तिमत् स्वाङ्गम् इत्यादि परिभाषितनिह स्वाङ्गं गृह्यते।।१३२२।