Book Title: Katantra Vyakaranam Part 04
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
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परिशिष्टम्-७
७३७ ९१. संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्यैर्विद्यादनूबन्धमेतच्छास्त्रमुणादिषु।।
(दु०टी०-वि०प०)
४११,४१२ ९२. सती वाऽविद्यमाना वा प्रकृतिः परिणामिनी।
यस्य नाश्रीयते तस्य निर्वय॑त्वं प्रचक्षते।। (क०च०) २२८ ९३. सदा पुरोडाशपवित्रिताधरे।
(दु०वृ०) २९२ ९४. स पुण्यकर्मा भुवि पूजितो नृपैः।
(क०च०) ४०९ ९५. साटोपमुर्वीमनिशं नदन्तो यैः प्लावयिष्यन्ति समन्ततोऽमी। तान्येकदेशान्निभृतं पयोधे: सोऽम्भांसि मेघान् पिबतो ददर्श।।
(दु०टी०-वि०प०) ५१८, ५१९ ९६. सुग्रीवो नाम वर्यासौ।
(क०च०) १७३ ९७. सेड् गुणीति कृते योगे निष्ठायामवधारणात्। आख्यातेन परोक्षायामगुणादनिटां सनि। (दु०टी०-वि०प०)
२५,२६ ९८. स्कन्धप्रदेशस्तु वहः।
(क०च०) २६६,२९७ ९९. स्त्रियां भावाधिकारोऽस्ति तेन भार्या प्रसिध्यति। (वि०प०) ४८३ १००. स्यादादन्तानामायिश्च इनीचीति निबन्धनात्।
न ह्रस्वो मानुबन्धानामिचि वावचनेन च।। (दु०वृ०) ३ १०१. स्वमिव भुजङ्गविशेषं व्युपधाय य: स्वपिति भुजङ्गविशेषम्।
नवपल्लवसमकरया श्रियोर्मिपङ्क्त्या च सेवितः समकरया।। (क०च०)
४६
(वि०प०) ३२१
१०२. स्वर्गादिफलमप्येवमपूर्वानन्तरं भवत्।
देशनालक्षणं यागकरणत्वं न हापयेत्।। १०३. हने: सिच्यात्मने दृष्टः सूचनार्थे यमेरपि।
विवाहे तु विभाषैव सिजाशिषोर्गमेस्तथा।। १०४. हिरुङ् नाना च वर्जने। १०५. हृष्टतुष्टौ तथा कान्तस्तथोभौ संयतोद्यतौ।
कष्टं भविष्यतीत्याहुरमृताः पूर्ववत् स्मृताः।।
(दु०वृ०) ११९ (क० त०) ५७१
(दु०वृ०) ४०७

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