Book Title: Katantra Vyakaranam Part 04
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay

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Page 774
________________ कातन्त्रव्याकरणम् ७३६ ७१. महिनः पारं ते परमविदुषः। (वि०प०) ३४८ ७२. महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्पमानवाः। (दु०वृ०) ६३४ ७३. यदसज्जायते पूर्वं (सद् वा) जन्मना यत् प्रकाशते। तनिवर्त्य विकार्यं च कर्म द्वेधा व्यवस्थितम्।। (क०च०) २२७ ७४. यदा खशन्तादभवत् स्त्रियामा कालादितः प्रत्यय ईस्तदैव। ह्रस्वत्वपुंवत्त्वकयोस्तु तुल्यकाल्यादिके विप्रतिषेध इत्थम्।। (वि०प०) ४२ ७५. रथादवस्कन्ध पुरी बभाषे।। (क०च०) २९ ७६. रविकरस्तरुषु किसलयमिव रक्तः। (दु०वृ०) ४४ ७७. रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव। (क०च०) ३०४ ७८. वसामोऽविदिताः परैः। (क०च०) ४०९ ७९. विकल्पितेऽपवादेऽपि बाधनं तदवस्थितम्। उत्सर्गे न च लाभस्तद् बाधकत्वं विकल्प्यते।। (दु०वृ०) १५८ ८०. विचारार्थाद् विभाषैव ज्ञानार्थानित्यमिड् यत:। भोगादन्यत्र लाभार्थात् सत्तार्थाच्च विदेः सदा।। (दु०वृ०) ६५१ ८१. वित्तमेव तु लाभार्थात् प्रतीतधनयोर्भवेत्। अन्यत्र वित्रमेवेति सुधियः स्मृतिमाश्रिताः।। (वि०प०) ६५२ ८२. विस्तारो विग्रहो व्यास: स च शब्दस्य विस्तरः।। (क० च०) ५१ ८३. वृक्षादिवदमी रूढाः कृतिना न कृताः कृतः। कात्यायनेन ते सृष्टा विबुद्धिप्रतिबुद्धये।। (दु०वृ०) १ ८४. वेटामेकस्वरस्मृत्या संज्ञपित इडस्ति ते। पाचिते प्रागिनो लोप एकस्वरान्न चेट पचे:।। (दु०वृ०) ७१ ८५. शीर्षोपहारादिभिरात्मनः स्वैः। (वि०प०) २७८ ८६. शीलितो रक्षितः क्षान्त: आक्रुष्टो जुष्ट इत्यपि। रुष्टश्च रुषितश्चोभावभिव्याहत इत्यपि।। (दु०वृ०) ४०७ ८७. शृतं धान्यपटोलयोः। (क०च०) ८९ ८८. श्रियो मे शिरसो मुखम्। (दु०टी०) ४५ ८९. श्लिष्यति कामपि। (क०त०) ५७८ ९०. संज्ञायां पुंसि दृष्टत्वान्न ते भार्या प्रसिध्यति। स्त्रियां भावाधिकारोऽस्ति तेन भार्या प्रसिध्यति।। (दु०टी०-वि०प०) १८४-१८५

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