Book Title: Katantra Vyakaranam Part 04
Author(s): Jankiprasad Dwivedi
Publisher: Sampurnanand Sanskrit Vishva Vidyalay
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परिशिष्टम्-७
७३५ ५२. देवि! प्रपन्नार्तिहरे! प्रसीद।
(क० च०) ४८९ ५३. दोषाः सन्ति न सन्तीति पौरुषेयेषु युज्यते।
वेदे कर्तुरभावाच्च दोषाशङ्कव नास्ति नः।। (वि०प०) ३२२ ५४. दोषापि नूनमहिमांशुरसौ किलेति।
(क०च०) ४३ ५५. धातुः सम्बन्धमायाति पूर्व कर्नादिकारकैः।। (क०च०) ४९० ५६. नाम च धातुजमाह निरुक्ते व्याकरणे शकटस्य च तोकम्।
यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम्।। (दु०टी०-वि०प०)
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५७. नित्यत्वे कृतत्वे वा येषामादिर्न विद्यते।
प्राणिनामिव सा चैषा व्यवस्थानित्यतोच्यते।। (वि०प०) १५१ ५८. निपाताश्चादयो ज्ञेया उपसर्गाश्च प्रादयः।
द्योतकत्वात् क्रियायोगे लोकादवगता इमे।। (वि०प०) १५१ ५९. निष्ठा परिसमाप्ति: स्यात् सा च भूतार्थयोर्द्वयोः।
अर्थः स्यादित्यभेदेन निष्ठाख्यौ प्रत्ययावपि।। (समीक्षा) १४० ६०. नीरक्षीराम्बुशम्बरम्।
(क०च०) ८९ ६१. नोद्यन्तमर्कमीक्षते।
(दु०टी०) ३१३ ६२. पाके क्षीराज्यपयसां शृतम्।
(क०च०) ८९ ६३. पूर्वं निपातोपपदोपसर्गः सम्बन्धमासादयतीह धातुः।
पश्चात्तु कादिभिरेव कारकैर्वदन्ति केचित्त्वपरे विपश्चितः।। (क०च०) ६१ ६४. प्रकृत्युच्छेदसम्भूतं किञ्चित् काष्ठादिभस्मवत्।
किञ्चिद् गुणान्तरोत्पत्त्या सुवर्णादिविकारवत्।। (क०च०) २२७ ६५. प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।
(क०च०) २४२ ६६. प्रागुत्पत्तिविनाशाभ्यां सत्त्वस्य युगपद् गुणैः।
असर्वलिङ्गां बह्वर्थां तां जातिं कवयो विदुः।। (दु०वृ०) ३०५ ६७. प्रो ष्टं परपुष्या तव भवत्युच्चैर्वचोऽनेकशः।। (दु०टी०) ६३४ ६८. बृंहबृह्योरमी साध्या बृंहबर्हादयो यदि।
तदा सूत्रेण वैयर्थ्यं न बर्हा भावके स्रियाम्।। (क०च०) ११९ ६९. भगं श्रीयोनिवीर्येच्छाज्ञानवैराग्यकीर्त्तिषु। ___माहात्म्यैश्वर्यमन्त्रेषु धमें मोक्षे च ना रवौ।। (क०च०) ५०२ ७०. मत्प्रसूतिमनाराध्य प्रजेति त्वां शशाप सा।। (क०त०) ५२८

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