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चतुर्थे कृदध्याये षष्ठः क्त्वादिपादः [रूपसिद्धि]
१-४. शीर्णः, शीर्णवान्। शृ+क्त, क्तवन्तु+सि। अवगूर्णः, अवगूर्णवान्। अव+गुरी+क्त, क्तवन्तु+सि। 'शृ हिंसायाम्' (८।१५) तथा अव-उपसर्गपूर्वक ‘गुरी उद्यमे' (५।१०८) धातु से क्त-क्तवन्तु प्रत्यय, ऋकार को इर्-उर् आदेश, दीर्घ, प्रकृत सूत्र से तकार को नकार, नकार को णकार तथा विभक्तिकार्य।।१३८६।
१३८७. दाद् दस्य च [४।६।१०२] [सूत्रार्थ)
दकार से परवर्ती निष्ठाप्रत्ययगत तकार तथा धातुघटित दकार को भी नकारादेश होता है।।१३८७।
[दु००
दकारात् परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति दस्य च नो भवति। भिन्नः, भिन्नवान्।।१३८७।
[समीक्षा
'मिन्न:, भिन्नः' इत्यादि शब्दों की सिद्धि के लिये धातुघटित दकार से परवर्ती तकार को तथा धातुगत दकार को नकारादेश करना पड़ता है। एतदर्थ पाणिनि का सूत्र है- “रदाभ्यां निष्ठातो नः पूर्वस्य च दः” (अ०८।२।४२)। यह ज्ञातव्य है कि रेफ- दकार से परवर्ती तकार के स्थान में नकारादेश के लिये कातन्त्रकार ने भिन्न भिन्न दो सूत्र बनाये हैं, जबकि पाणिनि का एतदर्थ एक ही सूत्र है। परन्तु रेफ से परवर्ती केवल तकार को ही नकारादेश है और दकार से परवर्ती तकार को तो नकारादेश होता ही है, साथ ही धातुघटित दकार को भी नकारादेश करना पड़ता है। इस प्रकार पृथक् सूत्र बनाने से ही अर्थावबोध में लाघव होता है। अत: कातन्त्र में उत्कर्ष कहा जा सकता है।
[रूपसिद्धि]
१- २. मिन्नः, मिन्नवान्। मिद्+क्त, क्तवन्तु+सि। 'जि मिदा स्नेहने' (१।४७४, ३७७) धातु से क्त-क्तवन्तु प्रत्यय, प्रकृत सूत्र से तकार-दकार को नकारादेश तथा विभक्तिकार्य।।१३८७।
१३८८. आतोऽन्तस्थासंयुक्तात् [४।६।१०३] [सूत्रार्थ
अन्तस्थासंज्ञक वर्णों से युक्त आकारान्त धात् से परवर्ती निष्ठातकार के स्थान में नकारादेश होता है।।१३८८।।
[दु० वृ०]
अन्तस्थासंयुक्तादाकारान्तात् परस्य निष्ठातकारस्य नकारो भवति। ग्लान:, ग्लानवान्। विश्राणः, विश्राणवान्। धात्वधिकारात्- निर्यात:, निर्यातवान्।।१३८८।